RE: Bhoot bangla-भूत बंगला
उसने मुझे पुर घर का चक्कर लगवा दिया. हर कमरा खोलकर दिखाया. किचन का वो दरवाज़ा जो पिछे लॉन में खुलता था वो भी दिखा दिया. दरवाज़ा अंदर से बंद था तो वहाँ से भी कोई नही आ सकता था. पूरे घर का चक्कर लगाकर हम एक बार फिर ड्रॉयिंग रूम में पहुँचे.
"अब तसल्ली हुई के आपको सिर्फ़ एक धोखा हुआ था?" मनचंदा ने पुचछा तो मैने इनकार में सर हिलाया
"पर आपने खुद देख लिया के घर में कोई घुस ही नही सकता था. और अगर कोई यहाँ था को कहाँ गया? घर तो अंदर से बंद है" उसने फिर अपनी बात पर ज़ोर डाला
"मुझे नही पता के ये कैसे मुमकिन है मनचंदा साहब और ना ही मैं मालूम करना चाहता" मैने कहा "अपना घर दिखाने के लिए शुक्रिया. मैं चलता हूँ"
कहते हुए मैं दरवाज़ा की तरफ बढ़ा और खोलकर बाहर निकल गया
"जाओ" पीछे से मुझे मनचंदा की आवाज़ आई "और सबसे कह देना के मुझे अकेला छ्चोड़ दें. मेरे बारे में बाते ना करें. अकेला छ्चोड़ दें मुझे यहाँ घिस घिसकर मरने के लिए"
थोड़ी ही देर बाद मैं अपने घर अपने कमरे के अंदर था. रुक्मणी अब भी गहरी नींद में पड़ी सो रही थी. जो चादर उसने अपने जिस्म पर पहले डाल रखी थी अब वो भी नही थी और वो पूरी तरह से नंगी बिस्तर पर फेली हुई थी. मैं उसके बगल में आकर लेट गया और आँखे बंद करके सोने की कोशिश करने लगा पर नींद आँखों से कोसो दूर थी. समझ नही आ रहा था के क्या सच घर के अंदर कोई था ये मुझे धोखा हुआ था और ये मनचंदा ऐसी मरने की बातें क्यूँ करता है? कौन है ये इंसान? क्या कोई पागल है? कहाँ से आया है? ये सोच सोचकर मेरा दिमाग़ फटने लगा. समझ नही आ रहा था के मैं क्यूँ इतना उसके बारे में सोच रहा हूँ.
इन ख्यालों को अपने दिमाग़ से निकालने के लिए मैं रुक्मणी की तरफ पलटा. वो मेरी तरफ कमर किए सो रही थी. मैने धीरे से एक हाथ उसकी कमर पर रखा और सहलाते हुए नीचे उसकी गांद तक ले गया. वो नींद में धीरे से कसमसाई और फिर सो गयी. मैने हाथ उसकी गांद से सरकते हुए पिछे से उसकी टाँगो के बीच ले गया और उसकी चूत को सहलाने लगा. एक अंगुली मैने धीरे से उसकी चूत में घुमानी शुरू कर दी. मेरा लंड अब तक तन चुका था. मैने अपने शॉर्ट्स उतारकर एक तरह फेंके और पिछे से रुक्मणी के साथ सॅट गया और ऐसे ही लंड उसकी चूत में घुसने की कोशिश करने लगा पर कर नही सका क्यूंकी रुक्मणी अब भी सो रही थी. एक पल के लिए मैं उसे सीधी करके चोदने की सोची पर फिर ख्याल छ्चोड़कर सीधा लेट गया.
लड़कियों के मामले में मेरी किस्मत हमेशा ही खराब रही. हर कोई ये कहता रहा के मुझे मॉडेलिंग करनी चाहिए, हीरो बन जाना चाहिए पर कभी कोई लड़के मेरे करीब नही आई. इसकी शायद एक वजह ये भी थी के मैं खुद कभी किसी लड़की के पिछे नही गया. मैं हमेशा यही चाहता था के लड़की खुद आए और इसी इंतेज़ार में बैठा रहा पर कोई नही आई. पूरे कॉलेज हाथ से काम चलाना पड़ा और फिर फाइनली वर्जिनिटी ख़तम हुई भी तो एक ऐसी औरत के साथ जो विधवा थी और मुझे उमर में कम से कम 15 साल बड़ी थी.
कॉलेज में कयि लड़कियाँ थी जो मुझे पता था के मुझे पसंद करती हैं पर उनमें से कभी कोई आगे नही बढ़ी और मैं भी अपनी टॅशन में आगे नही बढ़ा. मैने एक ठंडी आह भरी और अपनी आँखें बंद कर ली, सोने की कोशिश में.
अगले दिन सुबह 9 बजे मैं अपने ऑफीस पहुँचा. मैं उन वकीलों में से था जो अब भी अपने कदम जमाने की कोशिश कर रहे थे. जिस बिल्डिंग में मेरा ऑफीस था वो रुक्मणी के पति की और अब रुक्मणी की थी. पूरी बिल्डिंग किराए पर थी और रुक्मणी के लिए आमदनी का ज़रिया था पर मेरा ऑफीस फ्री में था. मेरे घर की तरह ही इस जगह भी मैं मुफ़्त में डेरा जमाए हुए था.
दरवाज़ा खोलकर मैं अंदर दाखिल हुआ तो सामने प्रिया बैठी हुई थी.
प्रिया मेरी सेक्रेटरी थी. उसे मैने कोई 6 महीने पहले काम पर रखा था रुक्मणी के कहने पर. वो कहती थी के अगर सेक्रेटरी हो तो क्लाइंट्स पर इंप्रेशन अच्छा पड़ता है. प्रिया कोई 25 साल की मामूली शकल सूरत की लड़की थी. रंग हल्का सावला था. उसके बारे में सबसे ख़ास बात ये थी के वो बिल्कुल लड़को की तरह रहती थी. लड़को जैसे ही कपड़े पेहेन्ति थी, लड़को की तरह ही उसका रहेन सहन था, लड़को की तरह ही बात करती थी और बॉल भी कंधे तक कटा रखे थे. कहती थी के कंधे तक भी इसलिए क्यूंकी इससे छ्होटे उसकी माँ उसे काटने नही देती थी.
"गुड मॉर्निंग" उसने मेरी तरफ देखकर कहा और फिर सामने रखी नॉवेल पढ़ने लगी
"गुड मॉर्निंग" मैने जवाब दिया "कैसी हो प्रिया?"
"जैसी दिखती हूँ वैसी ही हूँ" उसने मुँह बनाते हुए जवाब दिया
मैं मुस्कुराते हुए अपनी टेबल तक पहुँचा और बॅग नीचे रखा
"मूड खराब है आज. क्या हुआ?" मैने उससे पुचछा
"कुच्छ नही" उसने वैसे ही नॉवेल पढ़ते हुए जवाब दिया
"अरे बता ना" मैने फिर ज़ोर डाला
"कल देखने आए थे मुझे लड़के वाले. कल शाम को" उसने नॉवेल नीचे रखते हुए कहा
"तो फिर?" मैने पुचछा
"तो फिर क्या. वही हुआ जो होना था. मना करके चले गये" वो गुस्से में उठते हुए बोली
"क्यूँ?" मैने पुचछा
"कहते हैं के मैं किसी घर की बहू नही बन सकती" वो मेरी टेबल के करीब आई
"और ऐसा क्यूँ?" मैने फिर सवाल किया
"उनके हिसाब से जो लड़की लड़कियों की तरह रहती ही नही वो किसी की बीवी क्या बनेगी. कहते हैं मैं लड़की ही नही लगती" उसकी आँखे गुस्से से लाल हो रही थी
"आप ही बताओ" उसने मुझपर ही सवाल दाग दिया "क्या मैं लड़की नही लगती"
मैने उसको और चिडाने के लिए इनकार में सर हिला दिया. उसको यूँ गुस्से में देखकर मुझे मज़ा आ रहा था.
मेरी इस हरकत पर वो और आग बाबूला हो उठी.
"क्यूँ नही लगती मैं लड़की. क्या कमी है?" उसने अपने आपको देखते हुए कहा. मैने जवाब में कुच्छ नही कहा
"बोलो. क्या नही है मुझमें लड़कियों जैसा?" कहते हुए उसने अपने दोनो हाथ से अपनी चूचियो की ओर इशारा किया "आपको क्या लगता है के ये मुझे मच्छर ने काट रखा है"
उसकी ये बात सुनकर मैं अपनी हसी चाहकर भी नही रोक सका.
"वो बात नही है प्रिया" मैने उसे अपने सामने रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया."देख जो बात मैं तुझे कह रहा हूँ शायद तुझे थोड़ी सी अजीब लगे पर यकीन मान मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूँ"
वो एकटूक मुझे देखे जा रही थी
"जबसे तू आई है तबसे मैं तुझे ये बात कहना चाह रहा था पर तू नयी नयी आई थी तो मुझे लगा के कहीं बुरा ना मान जाए. फिर हम दोनो एक दूसरे के साथ बॉस और एंप्लायी से ज़्यादा दोस्त बन गये तब भी मैने सोचा के तुझे ये बात कहूँ पर फिर कोई ऐसा मौका ही हाथ नही लगा."
"क्या कह रहे हो मुझे कुच्छ समझ नही आ रहा" उसने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा
"बताता हूँ. अच्छा एक बात मुझे सच सच बता. क्या तेरा दिल नही करता के तेरी ज़िंदगी में कोई लड़का हो, जो तुझे चाहे, तेरा ध्यान रखे. ज़िंदगी भर तेरे साथ चले" मैने उससे पुचछा
"हां करता तो है" उसने अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा
"तो तू ही बता. क्या तू एक ऐसे लड़के के साथ रहना चाहेगी जो लड़कियों के जैसे कपड़े पेहेन्ता हो, मेक उप करता हो और लड़कियों की तरह रहता हो?" मैने थोड़ा सीरीयस होते हुए कहा
कुच्छ पल के लिए वो चुप हो गयी. नीचे ज़मीन की और देखते हुए कुच्छ सोचती रही. मैने भी कुच्छ नही कहा.
"मैं समझ गयी के आप क्या कहना चाह रहे हो" उसने थोड़ी देर बाद कहा
"बिल्कुल सही समझी. मैं ये नही कहता के तू लड़की नही. लड़की है पर लड़कियों जैसी बन भी तो सही" मैने मुस्कुराते हुए कहा
"कैसे?" उसने अपने उपेर एक नज़र डाली"मैं तो हमेशा ऐसे ही रही हूँ"
"ह्म्म्म्म" मैने उसे उपेर से नीचे तक देखते हुए कहा "तेरे पास सारे कपड़े ऐसे लड़कों जैसे ही हैं?"
"हां" उसे अपना सर हां में हिलाया
"तो कपड़ो सही शुरू करते हैं" मैने कहा "आज शाम को तू कुच्छ लड़कियों वाले कपड़े खरीद जैसे सलवार कमीज़ या सारी"
"ठीक है" उसने मुस्कुराते हुए कहा "शाम को ऑफीस के बाद चलते हैं"
"चलते हैं का क्या मतलब?" मैं चौंकते हुए बोला "अपनी मम्मी के साथ जाके ले आ"
"अरे नही" उसने फ़ौरन मना किया "मम्मी के साथ नही वरना वो तो पता नही क्या बाबा आदम के ज़माने के कपड़े ले देंगी. आप प्लीज़ चलो ना साथ"
वो बच्चो की तरह ज़िद कर रही थी. मैं काफ़ी देर तक उसको मना करता रहा पर जब वो नही मानी तो मैने हार कर हाँ कर दी.
दोपहर के वक़्त मैं कोर्ट से अपने ऑफीस में आया ही था के फोन की घंटी बज उठी. प्रिया ऑफीस में नही थी. शायद खाना खाने गयी हो ये सोचकर मैने ही फोन उठाया.
"इशान आहमेद" मैने फोन उठाते हुए कहा
"इशान मैं मिश्रा बोल रहा हूँ" दूसरी तरफ से आवाज़ आई "क्या कर रहा है?"
"कुच्छ नही बस अभी कोर्ट से ऑफीस पहुँचा ही हूँ. खाना खाने की तैय्यारि कर रहा था." मैने जवाब दिया
"एक काम कर पोलीस स्टेशन आ जा. खाना यहीं साथ खाते हैं. तुझसे कुच्छ बात करनी है" मिश्रा ने कहा
"क्या हुआ सब ख़ैरियत?" मैने पुचछा
"तो आ तो जा. फिर बताता हूँ" वो दूसरी तरफ से बोला
रंजीत मिश्रा मेरा दोस्त और एक पोलिसेवला था. उससे मेरी मुलाक़ात आज से 2 साल पहले एक केस के सिलसिले में हुई थी और उसके बाद हम दोनो की दोस्ती बढ़ती गयी. इसकी शायद एक वजह ये थी के तकरीबन ज़िंदगी के हर पहलू के बारे में हम एक ही जैसा सोचते थे. हमारी सोच एक दूसरे से बिल्कुल मिलती थी. वो मुझे उमर में 1 या 2 साल बड़ा था. सच कहूँ तो मेरे दोस्त के नाम पे वो शायद दुनिया का अकेला इंसान था. पोलीस में इनस्पेक्टर की पोस्ट पर था और अपनी ड्यूटी को वो सबसे आगे रखता था. रिश्वत लेने या देने के सख़्त खिलाफ था और अपनी वर्दी की पूजा किया करता था. इन शॉर्ट वो उन पोलिसेवालो मे से था जो अब शायद कम ही मिलते हैं.
उसका यूँ मुझे बुलाना मुझको थोड़ा अजीब लगा. प्रिया अब तक वापिस नही आई थी. मैने उसकी टेबल पर एक नोट छ्चोड़ दिया के मैं मिश्रा से मिलने जा रहा हूँ और ऑफीस लॉक करके पोलीस स्टेशन की तरफ चल पड़ा.
शामला बाई हमारे देश की वो औरत है जो हर शहर, हर गली और हर मोहल्ले में मिलती है. घर में काम करने वाली नौकरानी जो कि अगर देखा जाए तो हमारे देश का सबसे बड़ा चलता फिरता न्यूज़ चॅनेल होती हैं. मोहल्ले के किस घर में क्या हो रहा है उन्हें सब पता होता है और उस बात को मोहल्ले के बाकी के घर तक पहुँचना उनका धरम होता है. घर की कोई बात इनसे नही छिपटी. बीवी अगर बिस्तर पर पति से खुश नही है तो ये बात भले ही खुद पति देव को ना पता हो पर घर में काम करने वाली बाई को ज़रूर पता होती है और कुच्छ दिन बाद पूरे मोहल्ले को पता होती है.
ऐसी ही थी शामला बाई. वो मेरे घर और आस पास के कई घर में काम करती और उनमें से ही एक घर बंगलो नो 13 भी था. वो रोज़ सुबह तकरीबन 10 बजे मनचंदा के यहाँ जाती और घर के 2 कमरो की सफाई करके आ जाती थी. मनचंदा के बारे में जितनी भी बातें कॉलोनी वाले करते थे उनमें से 90% खुद शामला बाई की कही हुई थी. वो आधी बहरी थी और काफ़ी ऊँचा बोलने पर ही सुनती थी और जब बात करती तो वैसे ही चिल्ला चिल्लाके बात करती थी. वो जब मेरे यहाँ काम करने आती तो मैं अक्सर घर से बाहर निकल जाता था और तब तक वापिस नही आता था जब तक के वो सफाई करके वापिस चली ना जाए. अक्सर घर से कई चीज़ें मुझे गायब मिलती थी और मैं जानता था के वो किसने चुराई हैं पर फिर भी मैं कभी उसके मुँह नही लगता था. वो उन औरतों में से थी जिसने जितना दूर रही उतना अच्छा. पर जो एक बात मुझे उसकी सबसे ज़्यादा पसंद थी वो ये थी के वो टाइम की बड़ी पक्की थी. उसका एक शेड्यूल था के किस घर पर कितने बजे पहुँचना है और वो ठीक उसी वक़्त उस घर की घंटी बजा देती थी. ना एक मिनिट उपेर ना एक मिनिट नीचे.
वो रोज़ाना सुबह 7 बजे मनचंदा के यहाँ सफाई करने जाती और 8 बजे तक सब ख़तम करके निकल जाती थी. जाते वक़्त वो पास के एक होटेल से मनचंदा के लिए नाश्ता पॅक करते हुए ले जाती थी और फिर दोबारा दोपहर 12 बजे उसे दोपहर का खाना देने जाती थी. रुक्मणी ने मुझे बताया था के सिर्फ़ इतने से काम के लिए मनचंदा उसको ज़रूरत से कहीं ज़्यादा पैसे देता था. शायद वो उन पैसो के बदले में उससे ये उम्मीद करता था के वो मनचंदा के बारे में कॉलोनी में कहीं किसी से कुच्छ नही कहेगी. पर शामला बाई ठीक उसका उल्टा करती थी. वो उससे पैसे भी लेती और उसी की बुराई भी करती. जब उसके पास बताने को कुच्छ ना बचता तो अपने आप नयी नयी कहानियाँ बनती और पूरे कॉलोनी को सुनाती फिरती.
कहा जाए तो शामला बाई एक बेहद ख़तरनाक किस्म की औरत थी जिसको शायद आज से 400 - 500 साल पहले चुड़ैल बताकर ज़िंदा जला दिया जाता.वो असल में मनचंदा की सबसे बड़ी दुश्मन थी जो खुद उसके अपने घर में थी. अगर उसको ज़रा भी पता चल जाता के वो उसके बारे में कैसी कैसी बातें करती है तो शायद उसे अगले ही दिन चलता कर देता. शामला बाई को पूरा यकीन था के मनचंदा ने कहीं कुच्छ किया है और अब वो अपने गुनाह से छिपाने के लिए यहाँ इस भूत बंगलो में छुप कर बैठा हुआ है. वो शायद खुद भी लगातार इस कोशिश में रहती थी के मनचंदा का राज़ मालूम कर सके पर कभी इस बात में कामयाब नही हो सकी.
मनचंदा ने उसको अपने घर के एक चाबी दे रखी थी ताकि अगर वो कभी सुबह घर पर ना हो तो शामला अंदर जाकर सफाई कर सके. और अक्सर होता भी यही था के वो रोज़ाना सुबह 10 बजे जाकर मनचंदा को नींद से जगाती थी.
उस सुबह भी कुच्छ ऐसा ही हुआ था. शामला बाई होटेल पहुँची. होटेल का मलिक पिच्छले 6 महीने से मनचंदा के यहाँ खाना भिजवा रहा था इसलिए अब वो शामला बाई के आने से पहले ही ब्रेकफास्ट पॅक करवा देता था. उस दिन भी शामला बाई होटेल पहुँची तो ब्रेकफास्ट पॅक रखा था. उसने पॅकेट उठाया और बंगलो नो 13 में पहुँची. अपनी चाबी से उसने दरवाज़ा खोला और जैसे ही ड्रॉयिंग रूम में घुसी तो उसकी आँखें हैरत से खुली रह गयी.
पूरा ड्रॉयिंग रूम बिखरा हुआ था. कोई भी चीज़ अपनी जगह पर नही थी. टेबल पर रखे समान से लेकर आल्मिराह में रखी बुक्स तक बिखरी पड़ी थी. खिड़की पर पड़े पर्दे टूट कर नीचे गिरे हुए थे. शामला बाई ने ब्रेकफास्ट टेबल पर रखा और हैरत में देखती हुई ड्रॉयिंग रूम के बीच में आई. तब उसकी नज़र कमरे के एक कोने की तरफ पड़ी और उसके मुँह से चीख निकल गयी.
वहाँ कमरे के एक कोने में मनचंदा गिरा पड़ा था. आँखें खुली, चेहरा सफेद और छाती से बहता हुआ खून. उसको देखकर कोई बच्चा भी ये कह सकता था के वो मर चुका है.
"मैं अभी वहीं से आ रहा हूँ" कहते हुए मिश्रा ने खाना मेरी तरफ बढ़ाया "उसकी छाती पर किसी चाकू का धार वाली चीज़ से वार किया गया था. वो चीज़ सीधा उसके दिल में उतर गयी इसलिए एक ही वार काफ़ी था उसकी जान लेने के लिए."
क्रमशः........................
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