RE: Desi Chudai Kahani मकसद
उसी घड़ी मुझे लगा कि पैसे के लालच में मैं कुछ ज्यादा ही पंगा लिए जा रहा था । मेरा एक क्लायंट था जिसके लिए मैंने कातिल का पता लगाना था और उसे हर हाल में गिरफ्तार करवाना था । अब मैं दूसरा क्लायंट पकड़ रहा था जो कातिल की खवर इसलिए चाहता था ता कि अगर वो उसके परिवार का कोई सदस्य निकले तो वो उसके गुनाह पर पर्दा डाल सके । मैं दोनों क्लायंटो को कैसे राजी कर सकता था । ये तो चित्त भी मेरी पट भी मेरी जैसी बात होती ।”
लेकिन वो पंगा लेना जरूरी भी तो था - मैंने खुद अपने आपको समझाया - मदान के लिए कातिल का पता लगाने की खातिर पूछताछ के लिए मेरा वहां पहुंचना और वहां से सहयोग हासिल करना जरूरी था । बाकी जो कुछ हो रहा था, इत्तफाकिया हो रहा था ।
“पिंकी कल शाम को कहां थी ?” प्रत्यक्षत: मैंने पूछा ।
“क्या पता कहां थी” वो तिक्त स्वर में बोला, “शाम को घर में थोड़े ही टिकती है ।”
“कोई अंदाजा ?”
“तुम्हारा सवाल शाम के किसी खास वक्त की बाबत है ?”
“कह लीजिए कि साढ़े आठ बजे के करीब !”
“उस वक्त का तो हमें कतई कुछ नहीं पता कि वो कहां थी ।”
“आपके साहबजादे “
“उसका भी पता नहीं ।”
“वैसे अमूमन वो कहां पाए जाते हैं ?”
“भई, दिन भर तो वो मेरी कम्पनी के आसफ अली रोड पर स्थित कॉर्पोरेट आफिस में पाया जाता है । एग्जीक्युटीव डायरेक्टर है वो । शाम को तफरीह के लिए कहां कहां जाता है, मुझे नहीं मालूम ।”
“आपकी पत्नी ?”
“सुधा यहीं थी कल शाम को ।”
“और आप ?”
उसने घूरकर मेरी तरफ देखा ।
मैंने उसके घूरने की परवाह न की
“हमने कहां जाना है, भई ! हम तो यहीं होते हैं ।”
“पक्की बात ?”
“इसमें कच्ची-पक्की वाली कौन-सी बात हो गई ?”
“देखिए, क्लायंट और प्राइवेट डिटेक्टिव का रिश्ता मरीज और डॉक्टर जैसा होता हैं । जैसे मरीज का डॉक्टर से कुछ छुपाना मरीज के लिए अहितकर साबित हो सकता है वैसे ही आपका मेरे से कुछ छुपाना अहितकर साबित हो सकता है । आपके लिए । आपके परिवार के किसी सदस्य के लिए । मौजूदा केस के लिए ।”
“भई, कहा न, हम यहीं थे कल शाम ।”
“आपकी बीवी आपके पास थी ?”
“सुधा यहीं थी लेकिन अपने कमरे में थी । उसे अपने ऑफिस का कुछ काम था जो कि वो अपने कमरे में बैठी कर रही थी ।”
“उसका और आपका कमरा एक ही नहीं हैं ? जैसे पति-पत्नी का होता हैं ।”
“नहीं । हमारे कमरे अगल-बगल में हैं ।”
मैं तत्काल फैसला न कर पाया कि शशिकांत की कोठी के ड्राइव-वे में पाए गए व्हील चेयर के निशानों की बाबत मैं उससे दो टूक सवाल करूं या न करूं । फिर मैंने फिलहाल खामोश ही रहना जरुरी समझा ।
“कल शाम आप यहां से बाहर कहीं गए थे ?” अपना पहले वाला सवाल ही मैंने दूसरे तरीके से पूछा ।
“नहीं ।”
“अब आखिरी सवाल । आप शशिकांत को जानते हैं ?”
“कौन शशिकांत ?”
“कोई भी । आप इस नाम के किसी शख्स से वाकिफ हैं ?”
“नहीं ।”
“शशिकांत ऑर नो शशिकांत, आप मैटकाफ रोड की दस नंबर कोठी के किसी बाशिंदे से वाकिफ हैं ?”
“नहीं ।”
“नावाकफियत में भी आप कभी उस कोठी में गए हैं ?”
“वॉट नॉनसेंस !” वो झल्लाया, “अरे जब हम वहां किसी को जानते ही नहीं तो वहां क्या हम झक मारने जाएंगे ?”
“आप वहां कभी नहीं गए ?” मैंने जिद की ।
“नैवर ।”
“सर, डू आई हैव युअर सालम वर्ड फार इट ?”
“यस, यू डू ।”
“थैंक्यू, सर । अब एक आखिरी बात ।”
“वो भी बोलो ।”
“प्राइवेट डिटेक्टिव को क्लायंट से कोई ट्रेडिशनल रिटेनर मिलना होता है ।”
“अभी मिलता है । कोठी में जाकर नायर से दस हजार का चैक ले लो ।”
“थैंक्यू, सर । मैं आपको फिर रिपोर्ट करूंगा, बशर्ते कि.....”
मैं जानबूझ कर खामोश हो गया ।
“क्या बशर्ते कि ?” वो बोला ।
“आप तक पहुंचने में या आपसे फोन पर बात करने में मुझे पहले जैसी ही पाबंदियों और दुश्वारियों का सामना न करना पड़े ।”
“ओह ! तुम फिक्र न करो । तुम्हारी बाबत सबको खबर कर दी जाएगी ।”
“थैंक्यू, सर । गुड डे, सर ।”
माथुर की कोठी से निकलकर फ्लैग स्टाफ रोड पर किसी सवारी की तलाश में मैं पैदल चला जा रहा था कि मुझे एक हॉर्न की आवाज सुनाई दी । मैंने सर उठाया तो सड़क पर सिर्फ एक लाल मारुती कार दिखाई दी ।
तभी हॉर्न फिर बजा ।
मैं कार के करीब पहुंचा । कार पर चारो तरफ कुल जहान के स्टिकर लगे हुए थे । उसकी ड्राइविंग सीट पर पिंकी बैठी थी और बड़े तजुर्बेकार अंदाज से सिगरेट फूंक रही थी । मेरे से निगाह मिलते ही उसने सिगरेट फेंक दिया और बोली- “आओ, कार में बैठो ।”
मैं कार का घेरा काटकर परली तरफ पहुंचा और उसके साथ कार में सवार हो गया ।
“तब से यहीं हो ?” मैं हैरानी से बोला ।
“हां ।” वो चिंतित भाव से बोली, “तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं ।”
“क्यों ?”
“फिक्र जो लगा दी तुमने ? वो फिल्म का क्या किस्सा है ?”
“बताऊंगा । जरुर बताऊंगा । लेकिन पहले तुम कबूल करो कि तुम शशिकांत से वाकिफ हो । न सिर्फ वाकिफ हो, खूब अच्छी तरह से वाकिफ हो । इतनी अच्छी तरह से वाकिफ हो कि इंटिमेसी कि तमाम हदें पार कर चुकी हो ।”
उत्तर देने के स्थान पर उसने गाड़ी चला दी ।
“क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं ।” वो बोली, “कोठी से थोड़ा दूर चलते हैं । यहां कोई नौकर-चाकर देख लेगा ।”
बड़ी दक्षता से कार चलाती हुई वह उसे राजपुर रोड पर ले आई । वहां उसने कार को किनारे लगाकर एक पेड़ की छांव में रोक दिया ।
“अब बोलो क्या कहते हो ?” वह बोली, “नहीं, पहले ये बताओ कि तुम चीज क्या हो ?”
मैंने बताया ।
“ओह ! प्राइवेट डिटेक्टिव ! जरुर डैडी ने मेरी वजह से ही बुलाया होगा तुम्हें !”
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।
“और काहे को जरुरत होगी उन्हें किसी प्राइवेट डिटेक्टिव की !”
“कोई इंडस्ट्रियल मामला है । मोटी रकम के घोटाले का ।”
“झूठ बोल रहे हो ।”
“छोड़ो । शशिकांत की बात करो ।”
“क्या बात करूं ?”
“कबूल करो कि उसे खूब जानती हो ।”
“ओके । किया कबूल ।”
“उससे फिट हो ।”
“ये कैसे कहा ?”
“उस फिल्म की वजह से कहा ।”
“है भी कोई ऐसी फिल्म ?”
“है ।”
“है तो मुझे दिखाओ ।”
“दिखा दूंगा । लेकिन और बातों में मुझे उलझाकर शशिकांत की बात ना टालो । वो बात फिल्म से ज्यादा अहम है । बोलो, फिट हो उससे ?”
“फिट से क्या मतलब है तुम्हारा ?”
“उसके हाथ से चुग्गा चुगती हो ?”
“चुग्गा चुगती हूं ! क्या जुबान है ये, भई ! मेरी समझ से तो बाहर है एकदम ।”
“फुल फंसी हुई हो उससे ?” मैंने सरल जुबान बोली ।
“फुल नहीं ।” वो बड़ी सादगी से बोली, “उतनी ही जितनी कि किसी से भी फंस सकती हूं । तुम्हारे से भी ।”
“जहेनसीब ।”
“वो क्या होता है ? पहले कोठी में भी ऐसा कुछ कहा था तुमने ।”
“मेरा मतलब है कि मेरी खुशकिस्मती । माई गुड फारचून ।”
“ओह, दैट ।”
“तुम्हे मालूम है कि वो मर चुका है ।”
“क....क्या ?”
“उसका कत्ल हो चुका है । एक्टिंग न करो । झूठ न बोलो । मुझे नादान बनकर ना दिखाओ ।”
“लेकिन...”
“सुनो । कोठी में एकाएक मुझे देखकर तुम बदहवास इसलिए हो गई थी क्योंकि तुम सच में ही मुझे शशिकांत समझ बैठी थी । और तुम्हारी बद्हवासी की असली वजह ये थी कि जिस आदमी की बाबत तुम जानती थी कि वो मर चुका था, वो एकाएक तुम्हारे सामने जिन्दा कैसे आन खड़ा हुआ था । तुम्हारी जान में जान तभी आई थी जबकि तुम्हें ये अहसास हुआ था कि मैं शशिकांत नहीं था । अब बोलो कि मैं गलत कह रहा हूं ।”
“तुम वाकई जासूस हो । किसी के अंतर्मन में गहरा झांक लेने वाले मनोवैज्ञानिक भी ।”
“अब बोलो कैसे है तुम्हें शशिकांत के कत्ल की खबर ?”
“सच बता दूं ?”
“हां ।”
“तुम पर ऐतबार करके ?”
“हां ।”
“मुझे मरवा तो नहीं दोगे ?”
“हरगिज नहीं ।”
“मैंने उसे अपनी आंखों से मरा हुआ देखा था ।”
“मेरा भी यही ख्याल था ।”
“तुम्हारी सूरत पर पहली बार निगाह पड़ते ही वाकई मेरे छक्के छूट गए थे ।”
“अब वो किस्सा खत्म करो । तो कल शाम तुम शशिकांत की कोठी पर गई थी ?”
“हां ।”
“किस वक्त ?”
“साढ़े आठ के करीब । दो-चार मिनट आगे या पीछे ।”
“क्या देखा वहां ?”
“बताया तो ।”
“तफसील से बताओ ।”
“इसी कार पर मैं वहां पहुंची थी । कार को बाहर सड़क पर ही खडी करके मैं पैदल अन्दर गई थी ।”
“बाहर का फाटक खुला था ?”
“हां । और कोठी का प्रवेशद्वार भी खुला था । कोठी में सन्नाटा था । मैंने उसे आवाज लगाई थी । कोई जवाब नहीं मिला था तो मैं ड्राइंगरूम पार करके उसकी स्टडी में पहुंची थी । वहां वह अपनी टेबल के पीछे कुर्सी पर मरा पड़ा था । उसकी छाती में गोली का सुराख साफ दिखाई दे रहा था ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? मेरे तो छक्के छूट गए थे । मैं तो फौरन यूं वहां से भागी थी जैसे भूत देख लिया हो ।”
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