non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
07-29-2019, 12:01 PM,
#27
RE: non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
मैं साहिल पर आग जलाए बैठा था। पानी के चंद साँप आग पर भून रहा था। रात की तरीकी तेज़ी से फैलने को तैयार थी। बच्चे सामने ही साहिल की ठंडी रेत पर खेल रहे थे। दीदी और कामिनी नजर नहीं आ रहीं थीं, मैं बैठा सूरज को पानी में गायब होते देख रहा था। मेरे देखते ही देखते गहरे पानी में आग का देवता गायब हो गया। और महज पानी को अपना रंग देकर रात की देवी के लिए जगह बना गया। और रात की देवी दुनियाँ पर कब्ज़े के लिए उतर आई।

मैं देख रहा था। टिमटिमाते सितारे हर रोज की तरह एक एक करके रोशन हो रहे थे। बेहद खूबसूरत मंजर था। और फिर मैंने वो देखा जिसको देखने के लिए हमारी नजरें 19 साल से तरस रहीं थीं। वो एक जहाज की रोशनियाँ थीं जो काले गहरे समुंदर और चमक ती दमक ती आसमान के दरम्यान यूँ रोशन थीं जैसे सितारों का कोई कारवा नीचे जमीन पर उतर आया हो। मैं काफी देर उन रोशनियों को देखता रहा। मेरा जेहन इसको समझ नहीं पा रहा था, जो मैं देख रहा था। जिसकी देखने की हमें ना जाने कब से ख्वाहिश थी। वो आज मेरे सामने हक़ीकत बना हुआ था।

कभी कभार यूँ भी होता है दोस्तों… शायद आपको भी कभी इसका तजुर्बा हुआ हो की आप किसी चीज की ख्वाहिश बेहद रखते हों और वो दिल की ख्वाहिश अपनी तमामातर हक़ीकतों के साथ आपके सामने आ खड़ी हो तो आप कुछ देर हैरत और बे- यकीनी की एक अजब कैफियत में गुम हो जाते हैं। तो यही हाल इस वक्त मेरा था। मुझको यकीन नहीं आ रहा था जो मैं देख रहा था। और फिर मुझे पीछे से दीदी की चीखने की आवाज आई जिसने मेरे दिमाग़ को एकदम झंझोड़ दिया और मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।

और कुछ ही देर में हम एक बहुत ही बड़ा आग का आलाव साहिल पर रोशन कर चुके थे। और साहिल पर खड़े हलक फाड़ फाड़ कर चीख रहे थे और हमारी चीखों ने तो खैर नहीं लेकिन साहिल पर जलती आग ने जहाज को हमारी तरफ मुतवज्जा कर ही लिया। और एक बड़ी कश्ती जहाज से अलग होकर साहिल की तरफ बढ़ने लगी। जिसका धुंधला सा अक्स हम जहाज की तेज रोशनियों में बखूबी देख सकते थे और तभी दीदी को अपनी नंगेपन का एहसास हुआ और वो कामिनी को लिए तेज़ी से झोंपड़े की तरफ बढ़ गईं और कुछ ही देर में हम सब अपने उन पूरे और निहायत ही ख़स्ता हाल कपड़ों मैं खड़े थे जो ना जाने कब से हमने संभाल रखे थे।

वह कपड़े हमारे पूरे जिस्मों को तो नहीं लेकिन दीदी और कामिनी के पोशीदा हिस्सों को ढांप ही रहे थे। रहा मैं तो घुटनों से फटि हुई एक पतलून पहने खड़ा था। जो मेरी कमर पर बंद भी नहीं हो रही थी। और कुछ ही देर में कश्ती साहिल से आ लगी। वो एक इंललीश नेवी का जहाज था। जो किसी मिशन पर हिन्दुस्तान जा रहा था। और कुछ ही देर में हम अपने मुख़्तसिरसामान और अपने तीन बच्चों के साथ तेज़ी से जहाज की तरफ बढ़ रहे थे। मैं कश्ती के पिछले हिस्से पर बैठा था। मेरे सामने जजीरे पर आग अब भी रोशन थी। जिसकी रोशनी में कुछ दूर बना हमारा झोंपड़ा नजर आ रहा था।

यह सब मंज़र दूर हो रहे थे मेरी नजरों से।

मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपने घर से दूर जा रहा हूँ, वो घर जहाँ मैंने अपनी पूरी जवानी गुजार दी, जहाँ मैंने अपनी जिंदगी के कीमती 19 साल गुजार दिए। जहाँ का एक एक पौधा, एक एक दरख़्त, एक एक पत्थर मेरे बचपन से जवानी के सफर का चश्मदीद गवाह था। जहाँ की हवायें, नदी का ठंडा पांनी, ठंडी रेत… क्या यह सब मैं कभी दोबारा देख सकूँगा … कभी नहीं… मैं हमेशा के लिए जुदा हो रहा था। मैं जा रहा था। आए मेरे प्यारे घर मैं जा रहा हूँ। मैं अब कभी नहीं लौटूंगा।

और मंजर धुंधलाते गये और हम जहाज पर पहुँच गये। ना जाने जहाज के कप्टन से दीदी ने क्या कहा… क्या नहीं… मैं नहीं जानता। वो हमें बाम्बे के साहिल पर उतारने पर रजामंद हो गया। शायद दीदी ने एक दो रातें कप्टन के साथ उसके केबिन में गुजारीं, उसका नतीजा यह हुआ की हम बाम्बे के साहिल पर निहायत ही खामोशी से उतरने में कामयाब हो गये। क्योंकी आप जानिए हमारे पास हमारी कोई पहचान नहीं थी, ना ही कोई सफरी दस्तावेज, हमें पहनने को ढंग के कपड़े और कुछ पैसे देकर कप्टन ने बाम्बे के एक सुनसान साहिल पर पहुँचा दिया।

और हम ना जाने क्या कुछ सहते हुये, कहाँ-कहाँ भटक ते हुये आख़िर एक दूर दराज कस्बे में पहुँचे। रास्ते में कई जगह कामिनी और दीदी ने अपने जिस्म का इस्तेमाल किया और आख़िर हमने एक कस्बे में अपना झोंपड़ा डाल दिया और रहने लगे। वहाँ के लोगों के लिए दीदी मेरी बड़ी बहन थी जिसका पति मर चुका था। और कामिनी मेरी बीवी थी।
कुछ ही दिन में दीदी की शादी हमने वहाँ कस्बे के एक बनिये से कर दी। दीदी ने खुद ही इसरार किया था। कुछ ही दिन में बनिया मर गया। अब हमारे हालात काफी बेहतर हैं। बनिये ने काफी रकम छोड़ी थी हमने अपना घर पक्का कर लिया।

1976 में कामिनी मर गई। जी हाँ मेरी छोटी बहन कामिनी, जिसने अपनी जवानी अपने भाई के हवाले कर दी थी। जिसका बचपन मैंने ही जवान किया था जिस कली को मैंने ही फूल बनाया था वो फूल 44 साल की उमर में मुझे छोड़ गया। उससे मेरा एक बेटा है अजय। मैं बहुत रोया उस दिन। दीदी भी बहुत रोईं लेकिन जिसने जाना था वो चला गया। और दीदी ने मेरा साथ 12 साल और दिया। और 65 साल की उमर में 1988 में दीदी भी मुझे छोड़ गईं।

बस मैं ही रह गया। राजेस्वरी की शादी हो चुकी थी। दोनों बेटे बाम्बे जाकर कमा खा रहे थे। अब मैं हूँ, मेरी तन्हाई है। मेरी उमर 86 बरस हो चुकी है। ना जाने कब तक जी सकूंगा मैं। वो जजीरा अब भी कभी ख्वाब में देखता हूँ मैं। जो यहाँ से बहुत दूर ना जाने कहाँ खो गया है। कभी सोचता हूँ क्या ही अच्छा होता अगर हम अब भी वहाँ उस जजीरे पर होते। मैं कम से कम अपने घर में तो मरता। मुझे बहुत याद आता है। मुझे वो दिन भी याद आते हैं। कामिनी की जवानी, दीदी की राजो नियाज करती ज़ज्बात से बोझल आवाज। आअहह… ना जाने कहाँ खो गया सब कुछ। अब तो सिर्फ़ तन्हाई है। ना वो जज़ीरा रहा, ना वो नाजुक जिस्म रहे, ना वो ज़ज्बात रहे, ना वो गरम सांसें रहीं। अब तो बस तन्हाई वहसत, अजीयत मेरे चारों तरफ बसेरा किए हुए है।

ना जाने कब मौत की देवी मुझ पर मेहरबान होकर मुझे वहाँ पहुँचा दे जहाँ मेरी दोनों बहनें मेरा इंतजार कर रहीं हैं। दोस्तों… मेरी यह दास्तान ना जाने आपके दिलों पर क्या असर डाले। आप बहुत जल्द भूल जाएँगे मुझे, मेरी कहानी को। लेकिन यह मेरी जिंदगी की वो सच्चाइयां हैं, इनमें वो हक़ीकत छुपी हुई हैं, जिंदगी के किसी ना किसी मोड़ पर आपको मेरी, मुझ बुढ़े की कही हुई कोई ना कोई बात याद आती रहेगी। मैंने आप को अपनी जिंदगी के वो राज खोलकर बता दिए। जो बहुत काबिल-ए-फखर ना सही, लेकिन जिंदगी की फितरत की सच्चाईयों पर मुबनी थे।
अब प्रेम का आख़िरी सलाम आप सबको बोल कर बहुत जल्द मैं यह दुनियाँ उसी तरह छोड़ जाऊँगा जिस तरह मैंने अपनी आँखों के सामने उस जजीरे को धुंधलाता देखा था।

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समाप्त
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