RE: Desi Porn Kahani संगसार
नहाने से दिल और दिमाग़ काफ़ी हलका हो गया था. चाय बनाकर वह प्याली उठाए कमरे में वापस आई. उसने टी. वी. का बटन दबाया. अपने ही मुल्क़ में नहीं बल्कि सारी दुनिया में आग लगी हुई है. कहीं धर्म, कहीं रंग, कहीं नस्ल, कहीं विचारधारा, कहीं सत्ता, कहीं अंकुश इंसानी दु:खों का कारण बनी हुई है. आदमी ने तरक़्क़ी कहाँ की है? इससे तो अच्छा वह ज़माना था, जब सब एक बड़े कुनबे की शकल में रहते, बाँटकर खाते, बाढ़, भूकंप, तूफ़ान से डरते, उन्हें ख़ुदा मानते. रंग, नस्ल और ख़ुदग़र्ज़ी ने उनके बीच तब गहरी खाईयाँ नहीं खोदी थीं. वे अपने नुत्फ़े के लिए जान नहीं देते थे बल्कि बच्चों के बाप की पहचान का प्रश्न उनके लिए कोई मसला नहीं था.
दरवाज़े की घण्टी न बजती तो अपनी रौ में आसिया सोच की धारा में बहती जाती. माँ वापस लौट आई थी और कपड़े बदल रही थी. उसने दस्तरख़ान बिछाकर उस पर खाना चुन दिया. खाना खाते हुए माँ वहाँ आई औरतों और लड़कियों का ज़िक्र करती रहीं. आसिया बड़े ध्यान से उनकी बातें सुनती रही.
रात को सोते हुए माँ का दिल चाहा कि बेटी से पूछे कि आख़िर ससुरालवाले भी उसकी राह देख रहे होंगे. बेहतर है कि वह उस ज़िंदगी को उजड़ने से पहले बसा ले. एक घर बनाने की कोशिश करे, मगर कुछ सोचकर चुप रह गई कि कहीं कच्ची मिट्टी पर वार करने से बना - बनाया खेल बिगड़ न जाए.
आसिया सारे दिन घर में रहती. माँ के साथ कुछ पुराने बक्से साफ़ करने, कूड़ा - कबाड़ा फेंकने में और घर को नए तरीक़े से सजाने में उनकी मदद करती रही. माँ को इत्मिनान हो गया कि आसमा की बातों का असर आसिया पर हो रहा है. ख़ुदा ने चाहा तो वह एकदम बदल जाएगी. ख़ुद ही वापस जाने की ख़्वाहिश करेगी.
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एक रोज़ सुबह - सुबह आसिया ने जो दरवाज़ा खोला तो अफ़ज़ल को फूलों के गुलदस्ते के साथ सामने खड़ा पाया. उसने पूरा दरवाज़ा खोल दिया. अफ़ज़ल ने गुलदस्ता उसके हाथों में पकड़ाते हुए कहा, "ज़ालिम, एक बार तो फोन करके अपने बीमार का हाल पूछ लेतीं?
"कौन है?" पूछती माँ आसिया के पीछे आकर खड़ी हो गई.
अफ़ज़ल ने उन्हें सलाम किया और कार से उतरती समधिन ने आगे बढ़कर उन्हें गले लगाया. ससुर फल और मिठाई की छोटी - छोटी टोकरियाँ उठाए अंदर दाख़िल हुए और बोले, "वाह रे ज़माना, हम चुप रहे तो आपने हमारी चीज़ अपनी समझकर रख ली."
"सच, घर सूना हो गया है. मैं अभी आती न, सोचा साल भर बाद गई है. रह ले महीना - दो महीना, मग़र आपके दामाद का बाहर जाना हो र्हा है." सास ने एक अदा से समधिन से कहा.
"आपकी अमानत पूरे दस दिन सँभालकर रखी. आपकी बहू है, जब चाहें ले जाएँ." माँ का चेहरा ख़ुशी से गुलनार हो र्हा था.
"आप अकेली यहाँ रहती हैं; आख़िर हमारे साथ रहें न!" अफ़ज़ल ने सास से कहा.
"ठीक ही तो कहता है आख़िर आपका बेटा जो है." समधी बोले.
"किस मुँह से शुक्र अदा करूँ उस ऊपरवाले का जिसने आप जैसा घराना और हीरे जैसा दामाद दिया है."
झिझकती सी आसिया चाय की ट्रे लेकर कमरे मेन दाख़िल हुई. अफ़ज़ल की आँखें शरारत से चमकीं. शरमाई - सी आसिया सास - ससुर की दुआएँ लेती अफ़ज़ल की नज़रों से बचती माँ से लगकर बैठ गई.
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