RE: Chodan Kahani जवानी की तपिश
मैं एक बार फ़िर हँस पड़ा-“मेरी जागीर तो मेरे अब्बू और अम्मी थे, जो आज मेरे साथ नहीं हैं। मेरी जागीर तो लुट चुकी है। मैं किसी जागीर का वारिस नहीं। जाकर उनको कह दो कि मैं सिर्फ़ अपने बाप के सोयम तक यहाँ हूँ। उसके बाद यहाँ से चला जाउन्गा। उनका सिर्फ़ बेटा ही था। पोता कोई नहीं है…” यह सब कहते हुए मेरी आँखें लाल सुर्ख हो चुकी थीं, और आँसू से भर चुकी थीं, जिनको मैं बड़ी मुश्किल से रोके हुए था।
सलामू-पर छोटे साइन?
मैंने सलामू की बात फौरन काटते हुए कहा-“बस जाओ। मैं और कुछ नहीं सुनना चाहता…”
सलामू मेरा लहजा और मेरे चेहरे के भाव देखकर फौरन वहाँ से उठ गया और जल्दी-जल्दी औतक से निकल गया। मैंने एक बार फ़िर अपने पीछे रखी सिरहने को कमर से लगाते हुए दीवार से अपना सिर लगा दिया। और एक बार फ़िर माँजी की यादों ने मुझ पर हल्ला बोल दिया।
और माँजी की एक याद मेरी आँखों में भर आई। जब मेरा मेट्रिक का रजल्ट आया था और मैंने अपने डिस्ट्रिक्ट में टाप किया था। तब अम्मी और बाबा कितने खुश हुए थे। यह बात उनके साथ होने वाले हादसे से एक हफ़्ता पहले की है।
बाबा मेरे सामने सोफे पर बैठे थे और मेरा रिजल्ट देखकर उनके मुँह से जो पहला जुमला निकला-“वो मारा। अब मैं दिखाऊूँगा तुम्हारी दादी को कि तुम्हारी माँ ने हवेली से दूर होते हुए भी तुम्हारी कितनी अच्छी तालीम की है। अच्छी तालीम सिर्फ़ इन बड़ी-बड़ी हवेलीयों में रहने से ही नहीं मिलती। तुम्हारी माँ गरीब परिवार से थी तो क्या हुआ? लेकिन मेरी पसंद सही थी। वो इस लायक थी कि उसी पीरों की गढ़ी के वारिस की सही तालीम कर सके…”
बाबा की बातें सुनकर अम्मी के होंठ खुशी के मारे थरथराने लगे, और जो पहला जुमला उनके लबों पर आया उसमें बड़ी हिरत भरी हुई थी-“तो क्या अब अम्मा मुझे अपनी बहू की सूरत में कबूल कर लेंगी?”
अम्मा की बात सुनकर बाबा ने मुश्कुराते हुए अम्मा की तरफ देखा, और कहा-“जमीला, कैसी बातें करती हो? बहू तो तुम उस खानदान और हवेली की हो। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। झगड़ा इस बात का है कि क्या तुम में वो सब खूबियाँ हैं जो उस खानदान की बहू में होनी चाहिए?”
बाबा की बात सुनकर मैं बीच में बोल पड़ा-“बाबा क्या जरूरत हैं इन तमाम बातों की? और यह प्रमाखणत करने की कि मेरी माँ इस काबिल है या नहीं? मुझे पता है, आपको पता है कि मेरी माँ लाखों में एक है। दादी चाहे जो भी समझती रहें…”
मेरी बात सुनकर बाबा के चेहरे पर संजीदगी आ गई, और उन्होंने कहा-“नहीं बेटा, यह बहुत जरूरी है। मैं हमेशा अम्मी साईएन के आगे सुरखरू रहा हूँ। हर फ़ैसले में जो मैंने आज तक लिए हैं। और यह तो मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला था। तुम चाहते हो कि मैं अम्मा साईएन की नजरों में अपने इस फ़ैसले पर हमेशा नादान रहूँ?”
मैं बाबा की यह बात सुनकर फौरन ही बाबा के कदमों में बैठ गया और जल्दी से बोला-“नहीं बाबा, मैं आपके और अम्मी के इस फ़ैसले को कभी कमजोर नहीं होने दूँगा। मैं ऐसा कुछ करूँगा कि दादी मेरी माँ पर फख्र करेंगी और आपके इस फ़ैसले को आपकी जिंदगी का सबसे दुरुस्त फैसला मानेंगी। यह मेरा आपसे वादा है…”
मेरी बात सुनकर बाबा ने मुझे दोनों बाजुओं से पकड़कर खड़ा कर दिया और खुद भी उसके साथ ही खड़े हो गये, और मुश्कुराती हुई नजरों से मेरे चेहरे को देखते हुए कहते लगे-“मेरा शेर बेटा…”
यह सब सोचते-सोचते कब मेरी आँख लग गई, मुझे पता ही ना चला। कोई मुझे जोर-जोर से हिलाकर उठा रहा था, और आवाजें दे रहा था। मैंने हल्के से अपनी आँखें खोलकर देखा तो सामने सलामू खड़ा हुआ था। मैंने हैरतजदा आँखों से सलामू की तरफ देखा।
तो सलामू ने कहा-“छोटे साईएन। ठंड बढ़ने लगी है और रात होने वाली है…”
मैं सलामू की बात सुनकर थोड़ा सीधा होकर बैठ गया और एक नजर चारों तरफ घुमाई तो हाल कमरा तकरीबन खाली हो चुका था, और खालू जी भी अपनी गाड़ी पर नजर नहीं आ रहे थे। खालू बाबा के बाद अब इस खानदान के बड़े थे। खालू से मतलब मेरी उस दूसरी माँ के बहनोई, जो बाबा की खानदानी बीवी थी। उसके इलावा वो मेरे दादा के छोटे भाई के बड़े बेटे भी थे।
इसी दौरान सलामू ने मुझे देखते बोला-“छोटे साईन। आप अंदर हवेली में चलें और वहाँ अपने कमरे में चलकर आराम करें। फ़िर सुबह यहाँ आ जाईएगा…”
मैं हवेली का नाम सुनकर चौंक गया। और जो पहला खयाल मेरे दिल में आया कि शायद दादी मुझे इस बहाने अपने पास बुलाना चाहती हैं। मैंने सलामू को देखकर कहा-“मैं यहाँ ठीक हूँ…”
सलामू-“साईन यहाँ मुनासिब नहीं है। आप अगर अपनी दादी से नहीं मिलना चाहते तो ना मिलें वो जनानखाने की तरफ हैं। मैं आपका इंतज़ाम मर्दानखाने की तरफ करवा देता हूँ, जहाँ खानदान के दूसरे मर्द हजरत आकर रुकते हैं…”
मैं-“क्या मतलब? खानदान के मर्द जनानखाने की तरफ नहीं जाते?” मैंने हैरत से कहा।
सलामू-नहीं छोटे साईन, यह गढ़ी बड़ी है। और जनानखाने में सिर्फ़ मुहरम अफ्राद को जाने की इजाजत है। कोई भी ना मुहरम अफ्राद जनानखाने की तरफ नहीं जा सकता।
मैंने कुछ सोचा और कुछ सोचते हुए उठ गया, कि चलो इसी बहाने हवेली तो देख लूँ, जिसका इतना जिकर सुना है। सलामू मुझे उठता हुआ देखकर खुश हो गया और जल्दी-जल्दी मुझे लेकर बाहर की तरफ चल पड़ा। मैं बाहर निकला तो मैंने दरवाजे के पास अपने रखे हुए जूते को देखा मगर वो मुझे कही नजर नहीं आए।
इसी दौरान सलामू ने एक तरफ देखते हुए आवाज लगाई-“अरे खामिसा, छोरा छोटे साईन के जूते ले आओ…”
इसी दौरान एक शख्स धोती और एक पुराना सा कुर्ता जिस पर उसने बगैर बाजू वाला स्वेटर पहना हुआ था। जो जगह-जगह से फटा हुआ उसकी गरीबी की दास्तान सुना रहा था। अपने दोनों हाथों की हथेलियों पर जूते सजाये जैसे वो कोई बहुत ही मुबारक चीज हो, लाकर मेरे सामने रखे और मैं हैरत से बुत बना उसे देखता रहा। जूते नीचे रखने के बाद वो दोनों हाथों को जोड़कर घूटनों के बल मेरे सामने ही फर्श पर बैठ गया।
मैंने सलामू की तरफ देखा तो सलामू ने कहा-“साइन आपके मुरीद हैं बाबा। आप जूते पहनें और हैरान होना छोड़ दें…”
मैंने सलामू की तरफ देखते हुए थोड़ा गुस्से में कहा-“लेकिन यह तो इंसान की ताजलील है। मुझे यह सब पसंद नहीं…” और मैंने अपना पैर जूते की तरफ बढ़ा दिया, तो इसी वक्त उस खामिसो नामी शख्स ने जो मेरे जूतों के पास ही हाथ बाँधे बैठा था आगे बढ़कर जल्दी से मेरे एक पैर को थाम लिया।
मेरा पैर वैसे ही उठा का उठा रह गया। उसने जल्दी से अपने कंधे पर पड़े एक रूमाल को उतार लिया और फौरन मेरे पैर के नीचे के तलवों को सॉफ करने लगा। मैंने एक झटके से अपना पाँव पीछे कर लिया, और वो बड़ी मासूमियत और हैरत के मिले जुले भाव में मेरे चेहरे को देखने लगा। मेरे चहेरे पर गुस्से के भाव आ गये, और मैंने सलामू की तरफ देखा।
सलामू ने जल्दी से उसे देखते हुए कहा-“बाबा खामिसा तुम जाओ। छोटा साइन को यह सब पसंद नहीं है…”
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