RE: Maa ki Chudai मा बेटा और बहन
एक उच्चस्तरीय रेस्टोरेंट मे वैशाली की पसंद का खाना लग चुका था, डरते-डरते ही सही पर पहला निवाला अपने बेटे को खिलाकर वह अगला अपने पति के मुँह तक पहुंचा ही देती है। अभिमन्यु को भी ना जाने क्या सूझा और वह भी खुद ना खाकर अपने हाथों से बारी-बारी अपने माता-पिता को खिलाने लगा था, फिर तो जैसे मणिक का हाथ भी उसकी पत्नी और बेटे की तर्ज पर बस उन्हें ही खिलाते जाने मे मग्न हो चला था। वेटर तो वेटर, वह मौजूद ग्राहक भी उन तीनों के बीच चल रही अनूठी व प्रेमपूर्ण भोजनग्रहण प्रक्रिया से हैरान हुए बगैर नही रह सका था, बल्कि कुछ तो खुद ब खुद उनके रंग मे रंग गए थे। हमेशा कंजूसी करने वाली वैशाली उस तात्कालिक समय मे इतनी अधिक प्रफुल्लित थी कि बेटे से पैसे मांग उसने वेटर को एक लंबी टिप भी उपहारस्वरूप खुशी-खुशी प्रदान कर दी थी।
घर लौटते-लौटते काफी रात हो चुकी है, मणिक के स्कूटर के पीछे अभिमन्यु भी हौले-हौले अपनी बाइक चला रहा है, रास्ता सुनसान था तो वह कैसे अपने माता-पिता से आगे या उन्हें अकेला वहाँ छोड़ सकता था। घर पहुँचकर एक छोटा सा शुभरात्रि वार्तालाभ, फिर तीनों दो मे बटकर अपने-अपने शयनकक्ष के भीतर चले जाते हैं। उस रात वैशाली चुद तो अपने पति से रही थी मगर पहली बार उसके मन-मस्तिष्क मे सिर्फ और सिर्फ उसका अपना बेटा समाया हुआ था, मणिक के हर हाहाकारी धक्के पर उस अधेड़ पत्नी के मुंह से पुकार तो उसके पति की निकल रही थी मगर अंतर्मन से से वह और उसके भाव अब पूर्णतः ममतामयी हो चुके थे।
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एक और खुशनुमा सुबह का आगाज़, पति और बेटे को घर से रुखसत कर चुकी वैशाली रोज की भांति आज बेटे की याद मे नग्न नही होती।
"अब तो मैं तब अपने कपड़े उतारूंगी मन्यु, जब बिना डरे, बिना घबराहट के, अपनी मर्जी से तुम्हारे कमरे के अंदर आने का साहस जुटा लूँगी और मेरा यकीन है कि तब तुम भी अपनी माँ को खुद मे समाने से खुद को कतई नही रोक पाओगे" दर्पण के समक्ष मानो स्वयं से ही घनघोर प्रतिज्ञा करती वैशाली गंभीर, बेहद गंभीर हो चली थी। बिना नग्न हुए आज उसका अपने घर मे क्षणमात्र भी काटना मुश्किल था तो कुछ देर के सोच-विचार के उपरांत वह सुधा से मिलने सीधे उसके घर की ओर कूच कर जाती है।
दोनों अधेड़ सहेलियां एक लंबे अंतराल के बाद एक-दूसरे से मिल रही थी। वैशाली को यह जानकार बहुत दुख होता है कि आज-कल उसकी एकमात्र सखी सिर्फ और सिर्फ बीमार ही बनी रहती है, उसका बेडरूम बेडरूम सा नही उसे किसी दवाखाने सा नजर आ रहा था। सुधा के बताने पाए वैशाली ने यह भी जाना की वह निद्रा जैसी सामान्य व प्राकृतिक क्रिया भी बिना औषधि के पूरी नही कर पाने को विवश है, हालांकि वैशाली ने उसे नींद की गोलियां बेवजह लेने से प्रेमपूर्ण डाँट भी लगाई मगर स्वयं अधेड़ उम्र को प्राप्त कर चुकी वह इस उम्र की चिंताओं से अक्सर खुद भी तो जूझा करती थी, अनुभा के विवाह से पूर्व वह भी दिन-रात अनेकों आशंकाओं से घिरी रहा करती थी।
दिन का खाना दोनों ने साथ मिलकर बनाया। वैशाली की इच्छास्वरूप उसकी सखी भी इसी बहाने पेटभर कर खा लेगी, यह सोच उसके मन से उनके पिछले बैर को भी स्वतः ही भुला देता है। पूरे दिन दोनों ने बहुत गप्पें लड़ायीं, खूब हँसी-ठिठोली की, एक-दूसरे का सुख-दुख बाँटा और कई नए आश्वासनों के साथ वैशाली वापस अपने घर को लौट आती है। परिवार के संग हर किसी को एक सच्चे दोस्त की भी जरुरत अवश्य होती है, आज वैशाली इस सत्यता से भी बखूबी परिचित हो चली थी।
शाम को पति-बेटे के घर लौटने पर शुरू हुआ चाय का सिलसिला कब रात्रि भोजन पर आ ठहरा था, यह एकल मनुष्य शायद ही कभी समझ पाएं। मणिक की पसंद के राजमा-चावल, अभिमन्यु की पसंदीदा धनिया-टमाटर चटनी और भरवां मिर्च तलते वक्त तो ना जाने कितनी बार किचन मे ही वैशाली की लार टपक चुकी थी। तीनों ने छककर खाया, मणिक तो जैसे बच्चा बन गया था, लगातार जल्दी-जल्दी राजमा-चावल जबरन अपने मुँह के भीतर ठूंसे जा रहा था और अंततः दो-चार लंबी-लंबी संतुष्टिपूर्वक डकारें लेकर बारी-बारी अपनी उंगलियों को चाटने लगता है।
"भाई आज तो मजा ही आ गया, क्यों अभिमन्यु? मुझसे तो अब कुर्सी से उठा भी नही जाएगा, लग रहा है यहीं सो जाऊँ" कुर्सी पर पसरते हुए मणिक वास्तविकता मे ही वहीं अपनी आँखों को मूँदते हुए कहता है।
"अरे अरे, हाथ धोकर बेडरूम मे सोइए, यहाँ कुर्सी पर कैसे सोयेंगे आप" वैशाली प्रत्युत्तर मे बोली। अभिमन्यु चुप था, अपने माता-पिता की अभिनय से प्रचूर नोंक-झोंक पर मन ही मन मुस्कुरा रहा था।
"हाँ यह भी सही है, कुर्सी पर कैसे सोऊंगा। मैं तो चला बेडरूम मे, तुम दोनों भी टाइम से सो जाना" कुर्सी से उठते हुए मणिक अपनी पत्नी को आँख मारते हुए बोला, यह उसका एक मूक इशारा था जिसका लुफ्त केवल विवाहित दंपति ही उठा सकते हैं। लजाती वैशाली फौरन उसे अपनी आँखों से डाँटती है और फिर बेटे की नजरों से छुप-छुपाकर स्वयं भी एक मूक चुम्बन उसकी ओर उछालते हुए जोरों से चहक पड़ती है।
अर्धरात्रि के समय जब अभिमन्यु अपने बिस्तर पर बारम्बार करवटें बदल रहा था तब अचानक उसके कमरे की ट्यूबलाइट जलने से उसकी बंद आँखें भी तत्काल खुल जाती है। सर्वप्रथम जो विध्वंशक दृश्य उसकी अकस्मात् फट पड़ी आँखों ने देखा, उछलकर बिस्तर पर बैठते हुए वह बार-बार अपनी आँखों को मसलने लगता है मगर फिर भी उसकी आँखें वही विस्फोटक दृश्य देखने को विवश थीं, जो कोई सपना नही पूर्ण हकीकत था।
सिर से पांव तक पूरी तरह से नंगी उसकी माँ उसके बिस्तर के बेहद नजदीक खड़ी थी। उसके खुले केशों से झर-झर पानी चू रहा था, बल्कि उसका संपूर्ण कामुक बदन ही पानी से तरबतर था और जो कि प्रत्यक्ष प्रमाण था कि वह स्नान करने के पश्चयात बिना अपने बदन को पोंछे सीधी उसके कमरे मे चली आई थी। उसकी माँ की आँखों का अद्-धुला काजल उसकी आँखों को और भी अधिक कजरारी बनाने मे सहायक था, माथे की चटक बिंदी, नाक का छल्ला और कानों की बालियां तो स्वयं उसीकी पसंद से उसकी माँ ने खरीदी थीं, उसके गले का स्वर्ण मंगलसूत्र उसके गोल-मटोल मम्मों के बीचों-बीच धंसा और तो और उसकी माँ ने अपनी पतली कमर मे आज कई बरसों बाद अपनी मृत सास से उपहारस्वरूप मिली चांदी की करधनी भी पहनी हुई थी। उसका सपाट नग्न पेट, अत्यंत गोल नाभि और चिपकी टाँगों के मध्य का तिकोना कालापन जो की उसकी झांटों की अधिकता से उत्पन्न हुआ था, जिसे देख बिस्तर पर बैठे अभिमन्यु की आँखें सहसा चौंधिया सी गई थीं। मांसल फूली दोनों जांघें, घुटने, गुदाज पिडालियां व पानी के घेरे के मध्य उसके गौरवर्णी दोनों पैर। एक अंतिम बार इसे सचमुच का स्वप्न समझ वह तीव्रता से अपनी दायीं पहली ऊँगली को अपने दांतों से बलपूर्वक काटता है मगर उसकी माँ भी वहीं थी, वह भी वहीं था और उसकी कष्टप्रद आह से उसका शयनकक्ष भी गूँज उठा था।
"तु ...तुम, य ...यहाँ, प ...पापा?" घबराहटवश अभिमन्यु के कांपते मुँह से बस इतने ही शब्द बाहर निकल पाए थे, जबकि उसके विपरीत उसकी माँ शांत, बेहद गंभीर थी।
"तुम्हारी माँ घर मे अपने पति की मौजूदगी के बावजूद आधी रात को अपने जवान बेटे के कमरे में नंगी चली आई है, तुम्हें क्या लगता है मन्यु ...मैं क्यों यहाँ आई हूँ?" अभिमन्यु के प्रश्न को सिरे से नकार उल्टे वैशाली ने उससे पूछा। उसके भावों सामान उसका प्रश्न भी उतना ही गंभीर, उतना ही सटीक था।
"क्या तुम्हारे पापा कभी इतने जल्दी सोते हैं? मैंने खुद उन्हें सुलाया है मन्यु, ताकि हमारे मिलन मे अब अन्य कोई बाधा नही आ सके" अपने मूक हो चुके बेटे पर पुनः आघात करते हुए वैशाली ने अपने पिछले प्रश्न मे जोड़ा।
"तु ...तुम ने पर ...माँ चली जाओ, अगर ...अगर वह उठ गए ..." अभिमन्यु के भयप्रचूर स्वर फूटे मगर इस बार भी उसका कथन अधूरा रह गया था।
"मुझे मारेंगे-पीटेंगे, तुम बचा लेना। हमें घर से निकाल देंगे, तुम मजदूरी करके दो रोटी खिला देना। बोलो मन्यु, क्या कर सकोगे ऐसा? पाल सकोगे अपनी माँ को जैसे मैंने अबतक तुम्हें पाला है?" वैशाली के हृदयविदारक शब्द किसी नुकीले खंजर सामान सीधे अभिमन्यु के धड़कते सीने मे भीतर तक धंसे चले जाते हैं, आज वैशाली शांत थी मगर अभिमन्यु रुंआसा हो गया था।
"ज ...जरूर माँ। अपनी ...अपनी जान से ज्यादा प्यार करूंगा तुम्हें, मैं भले ही भूखा रह जाऊँ पर तुम्हें कभी नही रहने दूँगा, तुम्हें हर वह खुशी दूँगा जिसकी तुम वाकई हकदार हो, तुम्हें ...." एकाएक रो पड़ा अभिमन्यु आगे बोलता ही जाता यदि तत्काल वैशाली उसके बिस्तर पर चढ़कर उसे अपने नग्न सीने से नही चिपका लेती।
"सश्श्श्श्! बस बस अब चुप हो जाओ, बिलकुल ...बिलकुल चुप हो जाओ। तुम्हारे पापा से हमें कोई खतरा नही मन्यु, अब वह सीधे सुबह ही उठेंगे ...मैंने उन्हें नींद की गोली देकर सुलाया है" अपने बेटे के उद्विग्न कांपते चेहरे को पटापट चूमती वैशाली मुस्कुराकर कहती है। अभिमन्यु की आश्चर्य से बड़ी हो चुकी आँखें बार-बार उसे अत्यधिक सुकून पहुँचा रही थीं।
"तुम्हीं तो कहते थे कि तुम्हारी माँ डरपोक है, बात-बेबात रोती है, घड़ी-घड़ी घबराती है...तो आज मैंने तुम्हें झूठा साबित कर दिया" कहकर वैशाली बेटे के होंठों पर एक लघु चुम्बन अंकित कर देती है, अभिमन्यु के पूछने से पहले उसने स्वयं ही उसे बता दिया कि आज वह सुधा के घर गई थी और उसे नींद की गोलियां भी वहीं से प्राप्त हुई थीं।
"पर फिर भी माँ, मैं ...मैं तुम्हारे साथ सेक्स नही ...." अपनी माँ के इस विस्फोटक कारनामे से हैरान-परेशान हुए अभिमन्यु ने इसबार भी अपना कथन पूरा नही कर पाया था मगर इसबार उसकी घबराहट इसकी वजह नही थी बल्कि उसे बलपूर्वक बिस्तर पर धकेल क्षणमात्र में ही उसकी माँ उसके ऊपर सवार हो चुकी थी।
"उसे चोदना कहते हैं निहायती बेशर्म लड़के और अब तुम क्या तुम्हारे फरिश्ते भी वही करेंगे, जो तुम्हारी यह औरत तुमसे करवाना चाहेगी" अपने बेटे की वृहद दोनों कलाइयों को अपनी छोटी-छोटी हथेलियों मे जकड़े ठीक उसके तने विशाल लंड पर बैठी वैशाली की मंत्रमुग्ध कर देने वाली हँसी से उसका पूरा घर गूँज उठता है, कुछ पलों बाद ही जिसमे अभिमन्यु की खिलखिलाहट शामिल हो जाती है।
लुका-छिपी से शरू हुआ माँ-बेटे का यह नया-नवेला रिश्ता पहले खुलेपन मे बदला, फिर उसमे आकर्षण मिश्रित हुआ, थोड़ी अश्लीलता बढ़ी तो अपने आप रोमांच ने भी अपनी उपस्थति दर्ज करवा दी, हौले-हौले प्यार, वासना, भाव, सुख-दुख भी आपस मे मिलने लगे और अंततः सभी के सम्मिश्रण से दोनों "दो जिस्म से एक जान हो ही जाते हैं।"
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समाप्त
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