RE: Maa ki Chudai मा बेटा और बहन
"तुम्हारी घटिया बात को मानकर तुम्हारी माँ सचमुच नंगी हो गई मन्यु। मौका है बेटा, देख सको तो देख लो" ओछी हँसी हँसते हुए इस अश्लील कथन को कहकर वैशाली ने अपने लंबे काले बालों को जोर से झटका, जिसके प्रभाव से एकाएक उसके पूर्णविकसित मम्मे भी जोरों से उछल पड़ते हैं। अपने मम्मों की अत्यंत सुंदर बनावट पर उसे शुरुआत से गुमान रहा था, लगभग हर स्त्री की भांति उसे भी अपने मम्मो का बेहद फूला व तराशा हुआ गोलाईयुक्त आकार हमेशा से भाता आया था। अपने दाएं हाथ को सीधे अपने धुकनी समान धड़कते दिल पर रखकर वह हौले-हौले बेडरूम के खुले दरवाजे की ओर अपने कंपकपाते कदम बढ़ाने लगती है, अपने जवान बेटे की घर मे मौजूदगी के कारण उसकी मंत्रमुग्ध कर देने वाली चाल सामान्य से कहीं अधिक मादक व मतवाली हो चुकी थी। उसकी गदराई मांसल गांड कुछ इस तरह से थिरक रही थी जैसे मांस की नही पारे की बनी हो और साथ ही ज्यों-ज्यों वह खुले दरवाजे के नजदीक आती जा रही थी, उसकी चूत से निरंतर बाहर उमड़ता कामरस बहकर उसकी हृष्ट-पुष्ट जांघों को भिगोने लगा था।
आजादी, उन्मुक्तता, खुलापन आदि शब्दों का सही अर्थ व मूल्य महज वही समझ सकता है, जो जन्म-जन्मांतर से बेड़ियों के अटूट बंधन मे जकड़ा रहा हो फिर वह बेड़ी और जकड़न से भरा उसका अटूट बंधन समाजिक हो, रिश्तों का हो, हैवानियत का हो, मर्यादा का हो या फिर किसी लालसा का हो। बीते जीवन मे पहली बार वैशाली स्वयं उस स्वच्छंदता, खुलेपन को प्रत्यक्ष महसूस कर रही थी, उसे लग रहा था जैसे इसी स्वतंत्रता की उसे बरसों से तलाश थी।
दरवाजे से बाहर झांकते वक्त उसका सम्पूर्ण बदन गनगना उठा और उसके मुखमंडल पर प्रसन्नता ही प्रसन्नता छा जाती है, जीवन मे प्रथम बार उसने खुलकर आजादी का स्वाद चखा था और वह पकड़ी नही गई थी। मन बावरा होता है, संतोष की प्राप्ति अमरता के वरदान की तपस्या से भी कहीं दुर्लभ है और वैशाली के संग भी तत्काल कुछ ऐसा ही हुआ। अपनी सफलता के मद मे चूर वह अपने बेडरूम के दरवाजे की निषेध दहलीज को भी पार करने का दुस्साहस कर बैठी मगर जाने क्या सोचकर वह फौरन पलटी और बेडरूम के भीतर आकर दरवाजे को लॉक करते हुए गहरी-गहरी सांसें लेने लगती है।
"धत्! तू पागल है, पूरी तरह से पागल है। पकड़ी जाती तब क्या होता?" अपनी गुलाबी जीभ को अपने मूंगिया रंगत के भरे हुए होंठों से बाहर निकालकर वैशाली अपनी गलती पर अपना माथा ठोकते हुए चहकी।
"कुछ भी कहो लेकिन मजा बहुत आया" किसी नवयुवती समान उछल-कूद करते हुए वह अपने वॉड्रोब तक आ पहुँची और रोजमर्रा मे पहने जाने वाले अपने वस्त्रों को पहनने लगती है। लाल ब्रा और बैंगनी कच्छी के पश्चात उसने उनके ऊपर अपने हल्के फ्रोजी रंग की कॉटन की मैक्सी पहन ली। अपने खुले बालों का जूड़ा बनाकर उसने ड्रेसिंग के कांच पर पहले से चिपकी एक छोटी--सी काली बिंदी को खींच, उसे अपने माथे के बीचोंबीच चिपकाया और मांग मे सिंदूर धारण कर कांच मे अपनी अधेड़ छव को घूरने लगती है।
"शायद पेटीकोट की जरूरत पड़ सकती है। हुंह! हमेशा तो इसे बिना पेटीकोट के पहनती आ रही है" कांच के सामने गोल-गोल घूमते हुए अचानक वैशाली को अहसास हुआ जैसे उसकी कच्छी की बनावट उसकी मैक्सी के ऊपर से नुमाइंदा हो रही है, खास उसकी गदराई गांड का कामुक उभार उसकी कच्छी समेत मैक्सी के ऊपर से स्पष्ट नजर आ रहा है। एकपल को उसने मैक्सी के भीतर पेटीकोट पहनने का विचार बनाया मगर अगले ही पल वह अपना विचार त्याग भी देती है, यह उसकी दैनिक वेशभूषा थी और एकदम से उसमे अंतर करना उसे अपने पागलपन का शुरुआती लक्षण समझ आता है।
"मन्यु आज जल्दी कॉलेज से लौट आया था, क्या पता लंच किया भी है या नही" अपनी कामग्नि मे पिछले दो घंटों से लगातार जलने वाली वह तिरस्कृत स्त्री सहसा एक ममतामयी माँ मे तब्दील हो गई और तीव्रता से अपने बेडरूम के बाहर निकलकर वह अभिमन्यु के कमरे के बंद दरवाजे पर दस्तक देने लगती है।
"मन्यु! दरवाजा खोलो बेटा, मम्मी कितनी देर से खटखटा रही है" जब चार-पाँच बार दरवाजे पर थाप देने के बावजूद अभिमन्यु ने दरवाजा नही खोला तब वैशाली हाथ के थापों के साथ उसे आवाज भी देने लगी।
"वैसे तो दिन मे कभी नही सोता, जरूर मुट्ठ मारने की थकान से नींद लग गई होगी बेचारे की। हाय रे मेरी पेंटी, आज बुरी फंसी तू" अपनी ही ठरकी सोच पर वैशाली की हँसी छूट जाती है, अब इसे ठरक नही कहेंगे तो और क्या कहेंगे कि बीते पिछले दो-तीन घंटे के घटनाक्रमों ने एक बेहद संस्कारी माँ को कितना अधिक बदल दिया था। तत्काल वह अपना बायां कान दरवाजे से चिपका देती है ताकि अगर उसका बेटा जानबूझकर दरवाजा नही खोल रहा हो तो वह कमरे के अंदर की हलचल सुनकर इस बात का अनुमान लगा सके।
"बेटा सो गए क्या?" अपने कान मे कोई हलचल सुनाई ना देने के उपरान्त वह फौरन अपने घुटनों के बल नीचे फर्श पर बैठ गई और की-होल से कमरे के भीतर का जायजा लेने लगती है, अभिमन्यु बिस्तर पर औंधा डला था। एकपल को बेटे की नींद का ख्याल कर उसने उसे जगाने का विचार त्याग दिया मगर उसकी भूख के विषय मे सोच फर्श पर बैठे-बैठे ही वह उसे जोरों से पुकारने लगती है।
"क्या है मॉम, मैं सो रहा हूँ यार" अभिमन्यु नींद मे कसमसाते हुए बोला, वाकई वह बहुत गहरी नींद मे था।
"यार के बच्चे, दरवाजा खोलो। मुझे तुमसे बात करनी है" जवाब मे वैशाली चिल्लाकर बोली और अपनी उसी चिल्लाहट की आड़ मे हल्के हाथों से दरवाजे का नॉब घुमा देती है।
"बाद मे मम्मी, बाद मे" अभिमन्यु पुनः कसमसाया।
"मैंने कहा ना मुझे तुमसे बात करनी है। अभी, इसी वक्त खोलो दरवाजा" वैशाली ने सहसा क्रोधित होने का नाटक किया और जिसके असर से अभिमन्यु तुरंत ही उठकर बैठ गया।
"खोलता हूँ, खोलता हूँ" एक लंबी जम्हाई लेते हुए वह बिस्तर से नीचे उतरकर आड़े-टेढ़े कदमों से दरवाजे के समीप आने लगा और तभी वैशाली भी फर्श से उठकर खड़ी हो जाती है।
"गेट शायद बाहर से लॉक है माँ" वह दरवाजा खींचने का प्रयास करते हुए बोला।
"मैंने ही लॉक किया था बाहर से" वैशाली जवाब मे बोली।
"क्यों? फिर क्यों नींद खराब की मेरी, जब गेट खोलना ही नही था? फौरन अभिमन्यु ने चिढ़ते हुए पूछा।
"भाई तुम्हारा क्या भरोसा, अंदर किस हाल मे हो। कपड़े तो पहने हैं ना तुमने या फिर नंगे हो?" वैशाली ने अपनी रोके ना रुकाए हँसी को काबू मे करने की कोशिश करते हुए पूछा, यकीनन अब ठरक उसके सिर चढ़कर बोल रही थी।
"नंगा!" अपनी माँ के इस अजीब से प्रश्न पर अभिमन्यु जैसे चौंक सा जाता है, उसके हैरत से खुल चुके मुंह से मात्र इतना ही बाहर आ सका।
"अरे दिन मे तुम कुछ न्यूडिटी-व्यूडिटी की बात कर रहे थे ना तो मुझे लगा कि तुम कहीं ....." वैशाली ने अपने कथन को अधूरा छोड़ते हुए कहा।
"खोलू दरवाजा? सच मे नंगे नही हो ना?" उसने पिछले कथन मे जोड़ा और बेटे के जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर ही झटके से दरवाजा खोल देती है।
"हाय! अपनी माँ की कच्छी का यह क्या हाल कर दिया तुमने? पापी!" दरवाजा खुलते ही वैशाली की नजर सर्वप्रथम नीचे फर्श पर पड़ी अपनी कच्छी पर गई तो उसने तत्काल अपने मुंह पर हाथ रखकर आश्चर्य से भरने का नाटक करते हुए पूछा, वह जानबूझकर 'पेंटी' की जगह पूर्णदेशी शब्द "कच्छी' का इस्तेमाल करती है और साथ ही उसने कच्छी शब्द के संग 'माँ' शब्द को भी जानकर जोड़ा था।
कुछ नींद की खुमारी और कुछ अपनी माँ के प्रश्नों से हतप्रभ हुए अभिमन्यु का ध्यान फर्श पर पहले से पड़ी वैशाली की कच्छी पर नही जा सका था और अपनी माँ के तात्कालिक प्रश्न को सुनकर तो मानो जैसे उसकी सांस ही गले मे अटक जाती है।
"वो माँ ...वो मैं ...." जवाब देते हुए वह मिमियाने लगता है, उसका हलक चिपक चुका था।
"एक तो तुमने माँ की कच्छी चुराई, दूसरे उससे मजे किए और जब मजा पूरा हो गया तो आखिर मे दुत्कारकर उसे फर्श पर फेंक दिया। वाह रे मर्द! तुम सब एक जैसे होते हो" वैशाली मनमसोसने का अभिनय करते हुए बोली और एक लंबी आह भरकर कमरे से बाहर जाने लगती है। वहीं अभिमन्यु ठगा सा, एकटक फर्श पर पड़ी अपनी माँ की कच्छी को ही घूरे जा रहा था, चाहता तो था कि वैशाली को बीती सत्यता से परिचत करवा दे मगर शर्मवश वह ऐसा कर नही पाता।
"खाना लगा रही हूँ, फ्रैश होकर सीधे बाहर आओ और हाँ! जाओ माफ किया" वैशाली कमरे से बाहर जाते-जाते बोली। अभिमन्यु ने फौरन अपना सिर उठाकर उसके चेहरे देखा, पलभर को मुस्कराकर वह तेजी से आगे बढ़ गई थी।
कुछ आधे घंटे पश्चात दोनो माँ-बेटे हॉल की डाइनिंग टेबल पर साथ बैठकर खाना खा रहे थे। हमेशा बकबक, हो-हल्ला करने वाले अभिमन्यु को यूं चुपचाप खाना खाते देख वैशाली को दुख हुआ। खाने को खाने की तरह खाता तब भी ठीक था, वह तो जैसे खाना चुग रहा था।
"मन्यु" जब हॉल मे पसरा मानवीय सन्नाटा वैशाली के बस से बाहर हो गया तब वह स्वयं ही उस सन्नाटे को भंग करते हुए बेटे को पुकारती है।
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