Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
12-28-2018, 12:45 PM,
#27
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"रुक साली तुझे वो सज़ा दूँगा कि तू किसी को मुँह दिखाने लायक नही रहेगी" मैने ज़ोर से पकड़ लहँगा नीचे खींचा तो वो थोड़ा सा नीचे हो गया और उसकी काली कच्छि दिखाई देने लगी. उसने भी पूरा ज़ोर लगाकर टाँगे मोड़ कर मुझे रोकने की कोशिस की.

"कमीने.....,तुम इतने घटिया इंसान निकलोगे मैने कभी सोचा भी नही था. तुम इस हद तक गिर जाओगे.........जिस तरह आज तुम मेरी इज़्ज़त पर हाथ डाला है, इसी तरह तुम्हारी बहन के साथ भी ऐसा ही होगा.. शायद हो भी चुका हो. किसी रंडीखाने पर बैठ कर धंधा करेगी वो....." मैने पूरे ज़ोर का तमाचा मारा उसके गाल पर. और पास पड़ा हुआ चाकू उठा लिया. एक हाथ से उसका गला दबाया और दूसरा हाथ चाकू थामे हवा में उपर उठा. मैं अपने होशो हवास खो चुका था. बहन के लिए उसके वो अल्फ़ाज़ सुनकर मेरा रोम रोम कराह उठा था. मेरा हाथ नीचे आने को था, मैने उसके चेहरे पर देखा तो इस बार उसकी सारी बहादुरी सारी हिम्मत उसका साथ छोड़ चुकी थी. वो भय से कांप रही थी, उसकी आँखे फॅट पड़ने तक खुल गई थी. उसका मुँह खुला हुआ था जैसे वो कुछ कहना चाहती हो मगर कह ना पा रही हो. मेरे होंठ भिन्च गये उसके गले को ज़ोर से दबाया और मेरा हाथ तेज़ी से नीचे को आया, उसकी आँखे बंद हो गयी.

मैं तेज़ी से उठा और एक तरफ तेज़ी तेज़ी चलने लगा. मुझे कुछ मालूम नही था मैं किस दिशा मैं जा रहा हूँ. मैने पीछे मुड़कर नही देखा उसकी क्या हालत है. मैं बस चलता जा रहा था. आँखो से आँसू बह रहे थे. वो बेबसी की हद थी. मैं हार गया था. मैं टूट गया था. मैने आख़िरी पल तक संघर्ष करने की कसम खाई थी मगर मैं हार गया. दुख, निराशा, नाउम्मीदी से विवश मैं सब कुछ खो चुका था. शायद इस ज़िंदगी से मौत कहीं बेहतर थी.

काफ़ी दूर जाने के बाद मैं एक नीचे गिरे हुए पेड़ पर बैठ गया. मैने अपना चेहरा अपने हाथों में छुपा लिया. आँखो से आँसुओं की धाराएँ बह रही थी. काश वो कटार उस समय मेरे हाथों में होती मैं उसे अपने दिल के आर पर कर लेता. दुनिया में मुझसे बड़ा बदनसीब शायद ही कोई होगा. 

कुछ पलों बाद थोड़ी दूर से सूखे पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज़ आने लगी. धीरे धीरे आवाज़ तेज़ होती जा रही थी. लगता था कोई मेरी ही तरफ चला आ रहा था. आवाज़ एकदम तेज़ हो गयी. वो साया मेरे सामने आकर खड़ा हो गया. मेने सर उपर नही उठाया. मैं अपनी व्यथा से इतना दुखी था इतना उदास था कि मेरी आत्मा तड़प रही थी. 

उस साए ने कदम आगे बढ़ाया और मेरे चेहरे को पकड़ कर उपर उठाया. मेरी आँखो से आँसू निकल कर मेरे गालों पर ढलक रहे थे. उसके चेहरे से मेरे लिए नफ़रत और सहानुभूति के मिले जुले भाव झलक रहे थे. उसकी गर्दन पर दाईं ओर आगे से पीछे की ओर पतली सी खरोंच लगी थी और उससे निकलने वाले लहू से उसकी गर्दन लाल हो गयी थी.

वो कुछ देर मेरी आँखो में ऐसे ही घुरती रही और फिर उसका हाथ हवा में घुमा. 'कड़क' की आवाज़ के साथ एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर लगा. मेने उसकी आँखो में देखा. उसका चेहरा फिर से गुस्से से तमतमा उठा. उसने एक साथ तीन चार तमाचे मेरे मुँह पर जड़ दिए और फिर घूम कर मुझसे तीन चार कदम बदूर जाकर खड़ी हो गयी. मैं वापस पेड़ के तने पर बैठ गया. 

"हे भगवान यह मैं किस चक्कर में पड़ गयी! उस कम्बख़त लड़की को मैने कितना समझाया मगर उस बेवकूफ़ ने मेरी एक ना सुनी" वो एक ठंडी सांस लेकर बोली "बस अपनी बात पर अडी रही और मुझे इस पचडे में फँसा दिया" मैने चेहरा उठाकर उसकी ओर हैरत से देखा.

"हूँ जानती हूँ मैं ! सब जानती हूँ!" मुझे अपने कानो पर विश्वास नही हुआ. वो धीरे से चलती हुई मेरे पास आई और मेरे साथ उस पेड़ के तने पर बैठ गई जिसपर मैं बैठा हुआ था.

"मैं तुम्हारी बहन को बहुत पहले से जानती हूँ" उसने गंभीर स्वर में बोलना सुरू किया "मगर इस बार जब मैं उससे मिली तो मुझे वो कुछ बदली बदली सी लगी. बहुत समझदार हो गई थी. मुझे उससे बातें करना अच्छा लगता था. धीरे धीरे हम में दोस्ती हो गयी, वो मेरे सामने अपना दिल खोलने लगी. जिस तरह तुम खेतों में दिन रात पसीना बहा रहे थे वो भी कुछ करना चाहती थी, कुछ बन कर दिखना चाहती थी, सिर्फ़ दुकान घर पर काम करके जिंदगी नही बिताना चाहती थी. उसने मुझे बताया था कि उसकी अभिलाषा एक बहुत अच्छी ब्यूटीशियन बनने की है. मगर वो तुम लोगों पर बोझ भी नही बनाना चाहती थी. वो मेरी मदद चाहती थी. काफ़ी सोच विचार के बाद मुझे एक ही रास्ता नज़र आया. शहर में मेरे बहनोई जयदीप रामचंदनी की कपड़े की एक बहुत बड़ी फॅक्टरी है जिसमे हज़ारों लोग काम करते हैं. शायद तुमने भी नाम सुना होगा.

फॅक्टरी में काम करने वाली लड़कियों के लिए रहने के लिए एक हॉस्टिल भी है मगर सिर्फ़ उनके लिए जो दूर से आती हैं और रोजाना आने जाने का सफ़र नही कर सकती. मेने तुम्हारी बहन को सलाह दी थी कि वो फॅक्टरी में नौकरी करले और अपनी रोजाना की ड्यूटी ख़तम होने के बाद वो अपनी हिम्मत अनुसार किसी अच्छे ब्यूटी पार्लर से ब्यूटीशियन का काम सीख कर अपनी हसरत भी पूरी कर सकती है. और हॉस्टिल में रहकर किराए के पैसे भी बचा सकती है. मैं अपने बहनोई से बात करके उसकी तनख़्वा औरों से थोड़ी ज़्यादा लगवा सकती थी. तुम्हारी बहन को मेरा सुझाव बहुत पसंद आया और उसने तुरंत हामी भर दी" बोलते बोलते वो रुक गयी, जैसे थक गयी थी. हम दोनो चुप थे, पेड़ों में गहन सन्नाटा छाया हुआ था और अंधेरा भी घिरने लगा था. बड़ी अजीब सी डरावनी सी शांति थी.

"मगर वो इस तरह क्यों गयी? वो बता कर भी तो जा सकती थी" मैने चुप्पी तोड़ते हुए कहा. "हम उसके लिए कितने परेशान थे! माँ की क्या हालत है, उसे मालूम है! अगर लोगों को यह बात मालूम हो जाती कि वो इस तरह घर से भागी है तो हमारी कितनी बदनामी होती, किसी को मुँह दिखाने लायक नही रहते. अगर उसे जाना ही था तो हमें बता कर जाती, हम उसे रोकते नही"

"उसे शायद इसी बात का डर था के तुम लोग उसे जाने नही दोगे. उसे लगता था वो तुम्हारी माँ को किसी तरह मना लेगी पर वो डरती थी तुम नही मानोगी, कि उसके सहर में अकेले और अंजान लोगों के बीच इस तरह रहने और काम करने के लिए कभी राज़ी नही होगे"

"मगर जब उसने फ़ैसला कर ही लिया था तो हम उसे कैसे रोकते? ऐसे जाने से तो अच्छा था वो हम से लड़ झगड़ कर चली जाती. एक खत तक नही डाला उसने, किस तरह उसकी चिंता दिन रात हम को सताती है, कैसे कैसे ख़याल आते थे मन में, कहीं उसके साथ कुछ बुरा ना हो जाए" मुझे बहन की नासमझी पर गुस्सा आ रहा था.

"यह बात मैने उसे समझाने की बहुत कोशिश की थी मगर वो नही मानी. आज सुबह तुमसे मिलने के बाद मैने उसके हॉस्टिल में फोन किया था, मैने उसे बताया था कि तुम उसे लेकर कितना परेशान हो. मैने उसे खत लिखने के लिए भी बोला था और उसने बताया था कि वो पहले ही तुम्हे एक खत लिख चुकी है, शायद तुम्हे मिला नही है."

"देखो मैं जानती हूँ उसका इस तरह जाना ग़लत था मगर इतना मैं पूरे यकीन से कह सकती हूँ उसकी मंशा ग़लत नही थी. वो ख़ुदग़र्ज़ नही है. वो अपने लिए इतना नही सोचती जितना तुम्हारे लिए सोचती है. वो अपने परिवार पर बोझ नही बल्कि सहारा बना चाहती है. जानते हो जिस दिन वो तुम सब को छोड़ कर गयी उसकी क्या हालत थी, जब तक गाँव आँखो से ओझल नही हो गया वो पीछे मूड कर देखती रही. सहर पहुँचने पर भी तुम लोगों के लिए कितनी चिंतत थी. मैने देखा था तुम लोगों से बिछूड़ना उसके लिए कितना तकलीफ़देह था. उसके चेहरे से ऐसा लगता था जैसे कोई बात कोई चिंता उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. उसके चेहरे पर वो उदासी का भाव था जैसे वो अपने अंतर में किसी दुख को छिपाए थी. अगर उसने मुझे इतनी कसम ना खिलाई होतीं तो मैं खुद तुम्हे कब की बता देती"

वो चुप हो गयी और फिर से सन्नाटा पसर गया. मैं हैरान था कि वो बहन के इतने नज़दीक कैसे पहुँच गयी, बहन को तो किसी पर यकीन ही नही होता था. कैसे एक पराई औरत मेरी बहन को इतने अच्छे से जान सकती थी और उसके दुख को समझ सकती थी. कमाल की औरत थी यह देविका.

"मुझे जाना होगा. वक़्त बहुत हो गया है, कहीं कोई देखता हुआ इधर ना आ जाए" वो उठ कर खड़ी हो गयी और अपने कपड़ों को झाड़ने लगी जो धूल, मिट्टी और सूखे पत्तों से भर गये थे. "मुझे अब कोई बहाना भी बनाना पड़ेगा तुम्हारी इस बेवकूफी के लिए" उसका इशारा गले की चोट से था. "तुम भी जाओ यहाँ से. मैं नही चाहती कोई हम को यहाँ देख कर कुछ और अंदाज़ा लगाए" 

"मैं कल दोपहर को चली जाउन्गी, बहन को कोई संदेशा देना हो तो मुझे दे देना, मैं उस तक पहुँचा दूँगी" यह लफ़्ज बोल वो तेज़ तेज़ कदम उठाती सड़क की ओर जाने लगी. मैं उसके जाने के काफ़ी देर तक वहीं बैठा रहा और फिर आख़िरकार जब पूरा अंधेरा हो गया तो उठ कर घर को चल पड़ा.
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