RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
हालाँकि उम्मीद की यह किरण कितना समय साथ निभाने वाली थी, मैं नही जानता था. देविका का बहन के साथ समय बिताना संजोग भी हो सकता था. बहुत चान्स थे कि बहन के चले जाने में उसका कोई हाथ ना हो मगर उसका इतना समय दुकान पर बिताना शक पैदा करता था. इसीलिए हो सकता था अगर उसने बहन की कोई मदद नही की तो शायद उससे बहन के मौजूदा ठिकाने की कोई खबर ही मिल जाए. अगर वो इतना समय साथ बिताती थी, अगर उनमे इतनी दोस्ती थी तो बहुत चान्स थे वो कुछ ना कुछ जानती हो और जो कुछ भी वो जानती थी वोमुझे आता करना था. हर हाल मे, कैसे भी, किसी भी तरह.
मुझे बहन को ढूँढने के लिए जिस बिंदु की तलाश थी वो मुझे मिल गया था. मगर इस बिंदु को पकड़ बहन को तलाशना बहुत मुश्किल था. बहुत मुमकिन था, देविका का बहन के साथ इतना वक़्त बिताना महज संजोग हो. और अगर उसका बहन के यूँ घर छोड़ कर चले जाने में कोई हाथ था भी तो मैं सीधे सीधे उससे पूछ तो नही सकता था. अब क्या करूँ? कैसे उससे सच्चाई का पता लगेगा? यही उधेरबुन में पूरी रात गुज़र गयी.
सुबह मैं बहुत जल्दी उठ गया. बाहर अभी भी अंधेरा था. मैने हाथ मुँह धोकर चाय बनाई तब तक माँ भी जाग चुकी थी. मुझे इतने अंधेरे इस तरह उठा देखकर वो थोड़ा अस्चर्य मे पड़ गयी. मैं अपने कमरे में चाय की चुस्किया लेता शुरू से लेकर अब तक जो कुछ घटित हुआ था उसके बारे में सोच रहा था. शहर से आते समय उसका मुझे गाड़ी में बुलाना, इतना अपनापन दिखाना, बहन की तारीफ करना और जब मैं उससे विदा ले रहा था तो उसने क्या कहा था_________चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा. वो मुझे क्यों चिंता ना करने के लिए कह रही थी? उसे कैसे मालूम था मुझे कोई परेशानी थी? खुद उसी के अनुसार वो पिछले दिन से सहर में थी मतलब बहन के चले जाने की खबर उसको मिलनी नामुमकिन ही थी, क्योंकि अभी तक भी गाँव मे बहुत कम लोगों को पता था कि बहन घर छोड़ कर गयी है और उन्हे भी यही पता है कि बहन किन्ही रिश्तेदारों के यहाँ रहकर सहर में काम कर रही है तो उसे आख़िर सहर मे बैठे बिठाए कैसे पता चल गया? और फिर उसका बहन के साथ इतना समय बिताना और उसके जाने के दिन तो अगर सोभा की बात सच है तो वो घंटो दुकान पर बहन के साथ थी. कहीं कुछ तो गड़बड़ थी. जितना मैं सोचता कहानी उतनी ही उलझती जाती. एक पल के लिए लगता जैसे इस सब मे देविका का हाथ है और दूसरे ही पल मैं खुद ही इस बात का खंडन करने लग जाता.
चाय पीकर मैं गाँव के बाहर की तरफ पक्की सड़क की ओर चल पड़ा जिधर देविका के पति ने लकड़ी की फॅक्टरी और एक बड़ी सी हवेली बनाई थी. मुझे मालूम था वो हर सुबह शाम अकेली सैर के लिए पक्की सड़क के किनारे किनारे चलती है. इतनी सुबह मुझे गाँव के बाहर कोई भी दिखाई नही दे रहा था. मैं हवेली से थोड़ी दूर गन्ने के खेत में जाकर छुप गया जहाँ से उनके घर का मुख्यद्वार आसानी से देखा जा सकता था.
मुझे वहाँ खड़े काफ़ी देर हो चुकी थी, मगर घर से कोई भी निकल नही रहा था. सुबह का सन्नाटा छाया हुआ था. जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था मेरी बैचैनि बढ़ती जा रही थी. मुझे लगने लगा शायद वो आएगी ही नही. हालाँकि असलियत में समय इतना नही गुज़रा था, मेरे लिए वो इंतज़ार का एक एक पल बहुत भारी था. और मैं इतना भी नही जानता था कि उसके बाहर आने की सूरत में क्या करूँगा, कैसे आख़िर कैसे मैं उससे बहन के बारे में पूछूँगा?
कोई आधा घंटा ही गुज़रा था कि घर के अंदर से कुत्ते के भोंकने की आवाज़ आने लगी. मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी. कुछ समय बाद कुत्ते ने भोंकना बंद कर दिया और फिर थोड़ी देर बाद गेट खुलने लगा. मेरी आँखे बिल्कुल दरवाजे पर जमी हुई थी. गेट से बाहर निकलने वाली वो देविका ही थी. उसने पीछे मुड़कर गेट बंद किया और फिर सड़क के दोनो ओर देखा. लेकिन यह क्या वो मेरी आशा के विपरीत सड़क के दूसरी ओर को निकल गयी. मैं कुछ देर वहीं खड़ा रहा, यही सोच रहा था अब क्या करूँ. आख़िर मैं खेत से निकला और बहुत तेज़ तेज़ कदम बढ़ाते उसकी ओर जाने आगा. उसके घर के सामने से गुज़र मैं उसका पीछा करने लगा. उनके घर के साथ दोनो ओर की ज़मीन उसके पति की थी, जिनमे लकड़ी के बड़े बड़े पेड़ उगे हुए थे जा यूँ कहिए एक छोटा सा जंगल ही बना हुआ था. मेरे तेज़ कदमो की आवाज़ उसके कानो तक पहुँचने में देर नही लगी और उसने पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा. अब भी हममें काफ़ी दूरी थी मगर उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव मैं उतनी दूर से भी देख सकता था. मैं उसकी ओर चलता जा रहा था मगर वो वहीं खड़ी मेरी ओर देखे जा रही थी. अब उसके चेहरे पर हैरत के साथ साथ परेशानी भी झलक रही थी. मैं ढृढ कदमो से चलता उसके सामने पहुँच गया, उसने कुछ भी बोला नही था वो जैसे मेरे कुछ बोलने का इंतज़ार कर रही थी.
"नमस्कार भाभी! सुबह की सैर हो रही है?" मैने उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न किया.
"नमस्कार! देवर जी आज सुबह सुबह किधर घूम रहो हो?" उसने माथे पर बल डालते पूछा.
"कुछ नही भाभी! यूँ ही मैने सोचा चलो आज भाभी से मिलकर आते हैं" मैने चेहरे पर बनावटी हँसी लाते हुए कहा.
"उः----हो. क्यों सुबह सुबह झूठ बोल रहे हो. हमारी इतनी किस्मत कहाँ" उसने थोड़े से चंचल स्वर में कहा. "सच सच बताओ आज इधर कैसे आना हुआ" वो बहुत आतुर थी मेरे उधर आने की वजह जानने के लिए.
"यूँ ही भाभी. नींद नही आ रही थी. सोचा चलो सैर को चलते हैं. गाँव के इस ओर बहुत कम ही आना होता है, बस घूमते घूमते इधर आ निकला" मैने उसकी आँखो में गहराई तक झाँकते हुए कहा.
"हुह...मैं भी हर सुबह शाम थोड़ा घूमने आती हूँ. अच्छा लगता है गाँव में खुली ताज़ी हवा में घूमना. खैर अब तो कल से सहर की वोही प्रदूषित हवा धुआँ ही फाँकना पड़ेगा"
उसकी नज़र भी मेरे चेहरे पर टिकी हुई थी जैसे वो भी मेरे मन में क्या है जानने को उत्सुक थी.
"क्यों भाभी, अभी तो आए थे, इतनी जल्दी चले जाओगे?"
"जाना ही पड़ेगा देवर जी. बच्चों की छुट्टियाँ ख़तम हो गयी हैं. तीन दिन बाद उन्हे स्कूल जाना है, इसलिए कल चले जाएँगे. दिल तो नही करता मगर क्या करें उनकी पढ़ाई का भी देखना पड़ेगा"
मुझे कुछ समझ माएँ ना आया मैं क्या बोलूं. एक बारगी तो दिल किया सीधे सीधे उससे पूछ लूँ मगर फिर मैने किसी तरह खुद को रोक लिया. कुछ पलों तक हम दोनो एक दूसरे की आँखो में आँखे डाले एक दूसरे को घूरते रहे. उसकी नज़र मुझे ऐसे लगा जैसे मेरे आर पार हो रही हो. जैसे वो मेरी आँखो से देख सकती थी मेरे अंदर क्या चल रहा है. मैने एक आख़िरी कोशिस की चेहरे और आँखो से ऐसा जताने की जैसे मैं सब जानता था, जैसे मैं उसके आर पार देख सकता था मगर मैं असफल हो गया. किसी कटार की तरह उसकी तीखी नज़र का ताव ना ला सका और मैने चेहरा झुका लिया. कुछ पल और गुज़रे खामोशी से. मैने सर उपर ना उठाया.
"तुम्हारी बहन कैसी है?" उसने खुद बात को छेड़ दिया. अब मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल था. जाने कहाँ से मुझमे इतनी ढृढता आ गयी थी. मैने चेहरा उपर उठाया, इस बार मेरे अंदर एक आत्म विश्वास था, एक बहन एक प्रेमिका के लिए तरसते, तड़फते एक भाई एक प्रेमी की ललक थी मेरे अंदर.
"अच्छी है...........उसके बिना दिल नही लगता. उसके बिना घर बिल्कुल सूना हो गया है" इस बार ना मेरी नज़र झुकी ना मेरी पलकें हिली. अचानक से उसने मुँह फेर लिया.
"धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी" उसने बिना मेरी ओर देखे कहा. फिर उसने सड़क के इधर उधर नज़र दौड़ाई. फिर से उसकी नज़र मेरी नज़र से टकराई जो उसके चेहरे पर टिकी हुई थी. नज़र से नज़र मिलते ही उसने मुँह फेर लिया. वो बचैन हो उठी थी.
"मैं चलती हूँ देवर जी, फिर मिलेंगे" वो मेरी ओर बिना देखे बिना मेरा उत्तर सुने वहाँ से तेज़ तेज़ कदम बढ़ाते आगे बढ़ गयी. मैं वहीं खड़ा रहा, उसे दूर जाते देखता रहा. कोई 50 मीटर की दूरी पर उसने मूड़ कर पीछे देखा और मुझे वहीं खड़ा देख फिर से आगे बढ़ने लगी.
कुछ दूरी पर सड़क थोडा सा बल खाकर दाईं ओर को मूड जाती थी. उस मोड़ को पार करने पर वो मेरी आँखो से ओझल हो गयी. मैने कदम वापस गाँव की ओर बढ़ा दिए. हालाँकि मुझे कुछ भी मालूम नही चला था. लेकिन उसके इस तरह घबरा उठने ने काफ़ी बातें सॉफ कर दी थी.
अब मुझे क्या करना था, मैं फ़ैसला कर चुका था. मेरे पास ज़्यादा वक़्त नही था, सिर्फ़ आज का दिन था. जो करना था आज ही करना था.
मैं शाम होने का बड़ी बेसबरी से इंतेज़ार कर रहा था. माँ को किसी प्रकार का शक ना हो, इसीलिए मैं खेतों में चला गया. काम करने की कोशिस की, किसी तरह से टाइम पास करने की कोशिस की मगर किसी काम में दिल नही लगा. अंत में चारपाई पर बैठकर आज शाम को करने वाले उस काम के बारे में सोचने लगा जिसे मुझे हर हाल में आज शाम को अंजाम देना था. वो कल वापस सहर जा रही थी, इसीलिए बहुत मुमकिन था वो कल घर से बाहर ना निकले और सहर जाकर कुछ कर पाना लगभग असंभव ही था.
चारपाई पर लेटे लेटे बैचैनि से करवटें बदलते मैं जो करने जा रहा था उसकी सफलता और असफलता के बारे में सोच रहा था. देविका का शुरू से अब तक व्यवहार, उसकी बातें और सुबह उसके इस तरह घबरा उठने से मुझे काफ़ी हद तक यकीन हो चुका था कि कहीं ना कहीं देविका इस किस्से में शामिल ज़रूर है. उसकी हर बात हर हरकत संदेहास्पद थी. इसीलिए मुझे लग रहा था कि मैं बहन को जल्द ही ढूँढ निकालूँगा.
मगर साथ ही साथ असफलता की भी प्रबल संभावना थी. जिन तथ्यों और बातों को मैं सबूत मानकर चल रहा था असलियत में वो सब थी तो मनगढ़ंत बातें ही. कोई भी पक्का सबूत नही था मेरे पास. वैसे भी देविका के बारे में सभी लोग अच्छा ही बोलते थे. वो उतने बड़े खानदान और उँची जात की होने के बावजूद भी कभी गाँव के निचले तबके के लोगों को नीची निगाह से नही देखती थी. वरना उनकी जात धरम वाले लोग तो हमारे जैसो को देखकर नफ़रत से मुँह फेर लेते है. जबकि देविका ऐसी हरगिज़ नही थी. इसलिए अगर मेरा अंदाज़ा ग़लत निकला तो मुझे उसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ सकती थी. मैने फ़ैसला तो कर लिया था मगर असफलता की सूरत में परणामों के बारे में सोचते हुए भी डर लगता था. मैं बहन से हमेशा हमेशा के लिए भी बिछड़ सकता था. बहन के साथ साथ माँ की ज़िंदगी भी तबाह हो सकती थी.
एक पल के लिए मैने सोचा अगर सीधे सीधे उससे बात कर लूँ तो? मगर उसके गुनहगार होने की सूरत में वो अपना ज़ुर्म क्योकर कबूलेगी. फिर आजकल के ज़माने में कुछ लोग बाहर से बहुत अच्छे नज़र आते हैं मगर अंदर से? ऐसी हालत में गुनहगार होते हुए भी वो कभी नही मानेगी और फिर हो सकता है बहन को किसी ऐसी जगह भेज दे जहाँ मैं उस तक कभी पहुँच ही ना पाऊ. नही नही, सीधे पूछना नही, बस अब तो एक ही रास्ता है चाहे मंज़िल पर पहुँच जाऊ चाहे रास्ता भटककर हमेशा हमेशा के लिए मंज़िल से दूर हो जाऊ. चलना इसी रास्ते पर था,
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