RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
कमरे के बाहर मुझे भागते हुए कदमो की आवाज़ सुनाई दी, फिर माँ ने मेरा नाम लेकर मुझे पुकारा. मगर मेरे गले से रोने के सिवा और कोई आवाज़ नही निकली. कमरे का दरवाजा भड़ाक से खोल माँ कमरे के अंदर आई. मैं उस समय बेड से टेक लगाए फर्श पर बैठा था और घुटनो में सर दिए रोए जा रहा था. माँ मेरे पास दौड़ कर आई और घुटनो के बल बैठ गयी "क्या हुआ बेटा? क्या हुआ?" माँ ने घबराते हुए पूछा, मैने सर उठाकर माँ की ओर देखा, मेरे आँसुओं से तर चेहरे पर नज़र पड़ते ही माँ का कलेज़ा डोल गया. "मेरा लाल......हे भगवान........हे भगवान" माँ ने अपनी बाहें मेरे बदन पर लपेट दी.
मैने फिर से सर उठाया और सिसकियाँ लेते हुए रुंध गले से बोलने लगा "मैं उससे प्यार करता हूँ, ........मैं उससे प्यार करता हूँ......मगर मैने उसको बहुत तकलीफ़ दी........मैने उसका दिल तोड़ दिया ........इसी इसीलिए....वो चली गयी......वो मुझे छोड़ कर चली गयी......सब मेरी ग़लती का नतीज़ा है" थूक गटकते अपने भर्राये गले को सॉफ करते में माँ के सामने अपना ज़ुर्म कबुल करने लगा "सब...मे..मेरा...ही...द्द...दोष-...है...मुझे ...म...माफ़...करदो.....मुझे...माँ..माफ़...कर..दो.......वो मुझे....छोड़...कर हाली गयी .....मेरी ही ग़लती है....माँ मुझे माफ़ करदो" मेरे दिल पर इतना बोझ था कि अब मेरे लिए और सहना नामुमकिन हो गया था, यह पीड़ा मेरा दम घोंट रही थी जैसे कोई कांतिले हाथों से मेरा दिल भींच रहा था. जानता नही था माँ की प्रतिक्रिया क्या होगी मगर मैं इस पीड़ा को किसी के साथ बाँटना चाहता था और माँ के सिवा कोई नही था जिसके सामने मैं अपना दिल खोलता.
"मुझे सब मालूम है बेटा....मैं जानती हूँ......शुरू से जानती हूँ......"
मेने हैरत से चेहरा उठाकर माँ की ओर देखा, उसके गालों पर आसुओं की धाराएँ बह रही थीं
"हां, मुझे मालूम है बेटा, पहले दिन से मालूम है. माँ हूँ तुम दोनो की. मगर....मैने कभी नही सोचा था इस सब का अंत ऐसे होगा"
मैं फिर से सुबकने लगा, माँ ने मेरा सर अपनी छाती पर दबाया और मेरी पीठ सहलाने लगी. "मत रो मेरे बच्चे.......मत रो. सब ठीक हो जाएगा. मुझे यकीन है सब ठीक हो जाएगा. वो बहुत समझदार है, वो अपना ख़याल रख सकती है. जल्द ही वो हम से मिलने आएगी, वो ज़रूर वापस आएगी"
सुबह होते ही मैं खेतों की ओर चल पड़ा. रात बहुत लंबी थी, इतनी लंबी जैसे ख़तम ही नही होगी. खेतों से दो गायों का दूध निकाल मैं वापस घर आया. मैं खेतों को वापस जाने ही वाला था कि माँ ने मुझे रोक लिया. मैने लाख मना किया मगर जब तक मैने खाना नही खाया उसने मुझे उठने नही दिया. ना मैने ना माँ ने मेरे और बहन के संबंध के बारे में कोई बात की. बेशक मुझे इस बात से बहुत हैरानी थी कि माँ ने सब जानते हुए भी हमे रोका क्यों नही. मगर उस समय मेरी हालत एसी थी कि मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात की परवाह थी, बहन को ढूँढने की. खाना खाने के बाद मैं वापस खेतों की ओर चल पड़ा.खेतों में वापस जाकर मैं सीधा शेड मे गया और अपनी चारपाई पर जाकर लेट गया. काम करने का मन बिल्कुल भी नही था. कभी सपने में भी नही सोचा था के ऐसा हो जाएगा.
अब मुझे मेरी ग़लतियों का एहसास हो रहा था. मैने अपने जोश के चलते बहन को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था. मैं माँ के साथ खुश था. खेतों में लहलहाती फसल बेहतर भविष्य का ख्वाब दिखाती और मैं उस ख्वाब में डूबा अपनी बहन के अकेलेपन को भूल जाता. मगर अब उसके चले जाने के बाद मात्र तीन दिन में ही मेरी क्या हालत हो गयी थी, अब मुझे अंदाज़ा हो रहा था कि बहन पर क्या गुज़र रही होगी. हमारे सूने घर में बहन कितनी तन्हा कितनी अकेली थी अब मुझे अहसास हो रहा था. यह सोचते ही कि वो किस तरह पूरा दिन अकेले निकालती होगी मेरा दिल डूबने लगता और फिर रात को शायद उम्मीद करती होगी कि मैं उससे प्यार करूँगा या कम से उसके पास बैठकर दो पल उसकी बातें सुनुगा, मगर मैं ऐसा कुछ भी नही करता था. मुझे उसकी व्यथा उसकी पीड़ा का अहसास हो रहा था. उसने शायद आख़िरी पल तक इंतज़ार किया होगा मेरे उसके पास वापस लौट जाने का और फिर जब वो पूरी तरह से मायूस हो गई होगी तो उसने निराशा में ऐसा कदम उठाया होगा. मैं अपने किए पर कितना शर्मसार था, मैं ही जानता था.
मुझे यह बात समझ नही आ रही थी कि वो आख़िरकार किसके सहारे चली गयी. कोई तो था उसकी मदद करने वाला. पहले पहले मैने ना चाहते हुए भी इस संभावना की ओर ध्यान दिया शायद हमारे गाँव से किसी युवक के साथ उसकी दोस्ती हो गयी हो, टूटे दिल में हर कोई सहारा ढूंढता है, ऐसे में सहारे की अच्छाई बुराई की ओर हम ज़यादा ध्यान नही दे पाते. मगर जब मैने गाँव के एक एक कर सभी मर्दों के बारे में सोचा तो सभी गाँव में ही मौजूद थे. वैसे भी गाँव से ज़्यादातर मर्द पहले ही गाँव छोड़ दूसरे गाँवो या कस्बों में काम कर रहे थे. इसलिए मुझे इस बात का पक्के तौर पर मालूम था कि वो गाँव के किसी मर्द के साथ तो नही गयी है. तो फिर वो आख़िर गयी कैसे?
जितने पैसे उसने जमा किए थे उनसे हद से हद वो एक महीना सहर में गुज़र बसर कर लेती, उसके बाद? हमारा ना कोई रिश्तेदार था ना कोई हमारे परिवार का कोई ऐसा जाननेवाला था जो सहर में उसकी कोई मदद कर सकता. और बहन तो किसी पर भरोसा भी नही करती थी. तो आख़िर कैसे, कैसे वो चली गयी? सवाल वहीं था.
लाख सोचने पर मुझे एक ही संभावना नज़र आई. बहन की ज़रूर किसी ना किसी ने मदद की होगी, वो कोई ऐसा सख्स था जिसने उसका विश्वास जीता था. कोई बात ज़रूर होगी उस सख्स में जिसने मेरी बहन को उस पर यकीन करने के लिए मज़बूर कर दिया होगा. यह बात दिल को बहुत तकलीफ़ देने वाली थी. मैं बहन से बहुत ज़्यादा प्यार करता था, इसका मुझे पहले अहसास नही था मगर उसके चले जाने के बाद मैने महसूस किया कि उसके बिना मेरे लिए जीना लगभग नामुमकिन था. एक उसका प्यार था उसकी चाहत थी जिससे मुझे हमारी बेकार पड़ी ज़मीन से कुछ कर दिखाने का बल मिला था. इस लिए किसी दूसरे के साथ बहन की कल्पना मात्र से मन बैचैन हो उठा. मगर बात सिर्फ़ इतनी ही नही थी अगर उस सख्स ने जिस पर बहन ने इतना यकीन किया था, उसको धोखा दिया तो? अगर सहर में उसके साथ कोई अनहोनी हो गयी तो?
हम लोग आए दिन अख़बारों में पढ़ते थे, फ़िल्मो में देखते थे किस तरह लोग भोली भाली लड़कियों को बहला फुसला कर उनको देह व्यापार के धंधे में लगा देते हैं. उन पर किस तरह अत्याचार होता है. मात्र एक पल के लिए मेरी आँखो में वो खौफनाक तस्वीर उभरी जिसमे मेरी बहन को कोई अंजान सख्स नोंच रहा था, वो मदद के लिए चिल्ला रही थी, उसे छोड़ देने के लिए मिन्नत कर रही थी मगर वहाँ उसकी चीखो पुकार सुनने के लिए कोई नही था. उस एक पल की कल्पना ने मेरे पूरे वजूद को हिला कर रख दिया. मेरा पूरा जिस्म कांप उठा, मेरी मुत्ठियाँ भिन्च गयी और मैं चारपाई से उठ इधर उधर बैचैनि से घूमने लगा.
एक एक कर दिन बीतने लगा. सुबह होती मैं खेतों में चला जाता. खेतों से दूध और सब्जयां लाकर दुकान में छोड़ खाना खाकर वापस खेतों को लौट जाता. माँ दिन भर दुकान संभालती. मेरा दिल काम में बिल्कुल भी नही लगता था. मगर फिर भी मैं बिना रुके सुबह से शाम तक खेतों में इधर उधर भटकता काम करता. असलियत मे काम के बहाने मैं अपनी पीड़ा को भूलने का जतन करता. खुद को इतना थकाने की कोशिस करता कि रात को आराम से सो सकूँ. हर रात बहुत भयावह होती. लगता जैसे जैसे रात गहरी होती, मेरी पीड़ा भी गहरी होती जाती. एक बात थी जो हर पल मेरा दिल कचोटती थी, जो मुझे एक पल के लिए भी चैन नही आने देती कि अगर मैं बहन का पता ना लगा पाया तो? अगर वो कभी भी लौटकर नही आई तो? अगर हमारा ये बिछोह सारी उमर के लिए हुआ तो? इस बात की ओर ध्यान जाते ही मैं बहुत बैचैन हो जाता. कभी भगवान के आगे हाथ नही जोड़े थे, कभी मंदिर में सर नही झकाया था और अब कोई पल ऐसा नही था जिसमे मैने भगवान के आगे बहन के लौट आने की कल्पना ना की हो.
माँ मेरी हालत समझती थी. केयी दिनो बाद भी जब उसने मुझे बहन के लिए उसी तरह तड़पते देखा तो उसने एक दिन मुझे अपने पास बुलाया. उसने मुझे समझाया और आख़िरी बात यही की कि बहन बहुत होशियार है, वो अपना ख़याल खुद रख सकती है. कि मुझे इस तरह हिम्मत नही हारनी चाहिए. अगर वो गयी है तो कुछ सोच समझ कर ही गयी होगी, इसीलिए हमें उसका इंतज़ार करना चाहिए, उसको मौका देना चाहिए. जिस तरह मैं खेतों मे मेहनत कर कुछ बनाना चाहता था उसका भी अरमान था कुछ कर दिखाने का.
माँ की बात कुछ हद तक सही थी. बहन सुरू से कुछ करने की इच्छा रखती थी. वो गाँव में रहकर अपनी ज़िंदगी बर्बाद नही करना चाहती थी. इसीलिए वो कुछ रकम ज़मा कर रही थी. लेकिन अगर बात सिर्फ़ इतनी ही थी तो वो बताकर भी जा सकती थी, शायद उसे लगा होगा हम उसे जाने नही देंगे जो सच भी था. बहन को अंजान लोगो के बीच अकेला छोड़ने के लिए मैं कभी तैयार नही होता. काश वो एक खत ही डाल देती कि वो खेरियत से है, दिल को थोड़ा सकुन तो मिल जाता.
खेतों में जो काम मैने किया था, जो कठोर परिश्रम मैने किया था उससे मुझे खुद पर बहुत नाज़ हो गया था. खेतों में कंटीली झाड़ियों और घास की जगह लहलहाती फसलें, सब्ज़ियाँ देखकर मेरा मन गुमान से भर उठता था मगर अब मुझे मालूम चल रहा था कि मेरे हाथ में कुछ भी नही था. मैं चाह कर भी कुछ नही कर सकता था. लगता था जैसे तकदीर ने मेरे मुँह पर तमाचा मारकर मुझे मेरे बेबसी का अहसास दिलाया था.
माँ की बात मान कर मैं सब कुछ भगवान के भरोसे नही छोड़ सकता था. मैं नही चाहता था कि बाद में, मैं खुद को सारी उमर कोस्ता रहूं. इसलिए मुझे कुछ करना था और जल्द ही करना था. मेरे हाथ से समय निकलता जा रहा था. मगर लाख सोचने पर भी मुझे कोई ऐसा बिंदु कोई ऐसा निशान नज़र नही आया जिसे पकड़कर मैं उसकी तलाश कर सकता. और जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे मुझे लग रहा था मेरे और बहन के बीच दूरी उतनी ही बढ़ती जा रही है.
लेकिन कहते हैं अगर दिल में इच्छा हो लगन हो तो कोई ना कोई रास्ता निकल ही आता है. मुझे भी एक रास्ता दिखाई दिया. और रास्ता दिखाने वाला वो सख्स था जिसे मैं और मेरी माँ पिछले तीन महीनो से लगभग भूल चुके थे
बहन को गये पंद्रह दिन हो चुके थे. पिछले पाँच दिनो से मकयि के सूखे भुट्टे निकाल मैं शेड मे रख रहा था. बहुत ही बढ़िया फसल हुई थी, अंदाज़े से भी कहीं ज़यादा. मगर ना तो दिल में कोई कोई खुशी थी ना ही उत्साह. बहन के बिना ये सब बेकार था. खेतों में काम करना जैसे एक मज़बूरी थी. मैं तो शायद अगली फसल भी बिजने वाला नही था. अब तो कोई मकसद नही था, कोई चाह नही थी, कुछ कर दिखाने की मेरी उत्कट इच्छा कब की दम छोड़ चुकी थी. मेरी ज़िंदगी अब एक गेहन अंधेरे में भटक रही थी. मगर ये सब बदलने वाला था.
उस रात मैं घर पहुँचा तो काफ़ी अंधेरा हो चुका था. दरवाजे की आवाज़ सुन माँ बाहर आँगन में आई और मैने उसे शाम को गाय का निकाला हुआ दूध पकड़ाया. माँ मेरे लिए साबुन और तौलिया ले लाई और मैं नहाने चला गया. नहा कर अंदर अपने कमरे में गया तो माँ को किसी दूसरी औरत के साथ बातें करते सुना. मैं बहुत थका हुआ था. बस लेटना चाहता था. माँ जल्दी ही खाना लेकर आ गयी. थोड़ा बहुत खाना बुझे मन से खाकर मैं लेट गया और अपनी सोचों में गुम हो गया. थोड़ी देर बाद माँ बर्तन लेने आई और मेरे सिरहाने दूध रख गयी. उसने मेरा माथा चूमा, थोड़ी देर मुझे देखा और फिर एक ठंडी आह भरकर बर्तन उठाकर वहाँ से चली गयी. मैं थोड़े समय बाद दूध पीने को उठा तो माँ और उस औरत की हल्की हल्की आवाज़ें अभी भी आ रही थी, ज़रूर सोभा होगी, मैने मन ही मन सोचा.
दूध पीकर मुझे पेशाब लगी तो मैं उठकर बाथरूम को गया जो बाहर आँगन में था. पेशाब कर मैं सीधा रसोई में गया ताकि रात को पीने के लिए पानी ले सकूँ. पानी लेकर जब मैं अपने कमरे के पास पहुँचा तो मेरे कानो में सोभा की फुसफुसाती आवाज़ सुनाई दी
"जब से तुम्हारी बेटी शहर गयी है देविका ने भी तुम्हारी दुकान पर आना बंद कर दिया है. अब तो कभी देखा नही, नही तो पहले हर दिन घंटा घंटा तुम्हारी दुकान पर बिताकर जाती थी" मेरा माथा ठनका. देविका हर रोज़ इतना समय बहन के साथ क्यों बिताती थी. बड़ी हैरानी की बात थी. वो तो उँचे खानदान की बहू थी, बहुत बड़े राईस थे वो लोग, इतना व्यापार था उन लोगों का तो मेरी बहन से उसका क्या काम? मैं दबे पाँव माँ के कमरे के पास गया.
"अरे नही ऐसे ही आती होगी उससे बात करने. गाँव में अब वो लोग आते ही कितने वक़्त के लिए हैं? घर पर दिल नही लगता होगा तो गाँव मे घूमती घूमती उधर आ जाती होगी" माँ ने उसे झुठलाते हुए कहा. असल में हमने गाँव में सब को यही बताया था कि मेरी बहन को सहर में एक छोटी मोटी नौकरी मिल गयी है और वो हमारे दूर के रिश्तेररों के यहाँ रहकर नौकरी कर रही थी.
"अरे नही घूमते घूमते नही. तुम्हारी बेटी से कोई खास ही दोस्ती थी उसकी. उसके जाने के दिन वो कम से कम दो घंटे तक बातें करती रही थीं. मालूम नही तुम्हारी बेटी से कैसे कहाँ उसकी इतनी गहरी दोस्ती पड़ गई नही तो यह बड़े लोग तो हमे देखकर ही नफ़रत से मुँह फेर लेते हैं" सोभा का घर हमारी दुकान के बिल्कुल सामने था, इसलिए वहाँ से दुकान पर हर आने जाने वाले को देखा जा सकता था. अगर उसने देविका को इतना समय दुकान पर बिताते देखा था तो वो ज़रूर सच बोल रही थी. झूठ बोलने की उसके पास कोई वजह नही थी.
"क्या सोभा तुम भी ना. अरे वो लोग बड़े ज़रूर हैं मगर उनमें वो घमंड नही है. और देविका वो तो सब को कितने प्यार से बुलाती है. चल छोड़ तू उसकी बात यह बता तेरे बेटे का क्या हाल है" सोभा माँ को फ़ौज़ में नौकरी करते अपने बेटे की सच्ची झूठी कहानियाँ सुनाने लगी और मैं अपने कमरे की ओर चल पड़ा.
ये क्या मज़रा है. देविका को भला मेरी बहन से क्या काम. वो तो गाँव दस पंद्रह दिन से ज़्यादा आती ही नही है. तो फिर उसकी बहन से ऐसी गहरी दोस्ती कब कैसे पड़ गयी. और सोभा ने कहा था कि बहन के जाने के दिन देविका उससे दो घंटे तक बातें करती रही थी, कुछ तो गड़बड़ है. मुझे लगा देविका ही वो कड़ी है जिसे जोड़कर मैं अपनी बहन तक पहुँच सकता हूँ. यह सोचते ही मेरा दिल धड़क उठा. पूरे पंद्रह दिनो बाद पहली बार मुझे उम्मीद की किरण दिखाई पड़ी थी और पंद्रह दिनो बाद मैने खुद को ज़िंदा महसूस किया था.
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