Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगाना
12-19-2018, 01:55 AM,
#93
RE: Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगा...
में अपनी सीट पर बैठा अभी भी परी और रति से अंतिम विदाई के पलों को आँखों में बसाए सोच में डूबा हुआ था.

ये एक 2 टीर एसी कॉमपार्टमेंट था, मेरी सीट उपर की थी, मेरे नीचे की सीट पर दो अधेड़ पति-पत्नी थे और सामने उपर की सीट पर उनकी बेटी थी, शायद शादी शुदा लग रही थी. देखने से ही एक सभ्रान्त परिवार लगा मुझे.

जान-पहचान हुई तो वो लोग मेरे से एक स्टेशन आगे जाने वाले थे रात हो चुकी थी, मेरा स्टेशन कोई 10 बजे तक आने वाला था, अभी 7 बजे थे.

अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी और वहाँ से 4 लड़के मेरी उम्र के लग रहे थे वो चढ़े, इधर-उधर देखते हुए चले आरहे थे, अचानक उनकी नज़र उनकी लड़की पर पड़ी तो वो वहीं उनको एक साइड में खिसका कर बैठने लगे.

उन बुजुर्ग ने जब पुछा कि तुम लोगो की सीट कहाँ हैं, ये तो हमारी रिज़र्व सीट्स हैं, तो वो गुंडा गर्दि करने लगे उनके साथ और बदतमीज़ी पर उतर आए... 

मे अपने उपर बर्थ पर लेटा अपने ही विचारों में डूबा हुआ था, अब वो लड़के उस लड़की को भी परेशान करने लगे, एक ने तो उसका हाथ ही पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा, मेरी नज़र उस पर पड़ी तो वो नीचे गिरने ही वाली थी कि तभी मैने उसे उसका कंधा पकड़ कर गिरने से बचा लिया.

उसने मेरी ओर याचना भरी नज़रों से देखा, मज़रा समझते ही मैने उन लड़को से कहा-

क्यों भाई क्या तकलीफ़ है आप लोगों को ? क्यों परेशान कर रहे हो सवारियों को..?

एक- अब्बे ओये.. लौन्डे..! तू चुपचाप लेटा रह.. हम लोंगों के बीच में टाँग मत अड़ा समझा..

मे- टाँग तो तुम लोग अड़ा रहे हो ! ये रिज़र्वेशन बोगी है, तुम लोग इसमें आ कैसे गये ?

दूसरा- अब्बे साले हमें नियम क़ानून सिखाएगे ? तेरी तो…. और जैसे ही वो मेरी ओर लपका, एक लात उसकी नाक पर पड़ी, धडाम से वो साइड वाली सीट के पार्टीशन से जा टकराया.. नाक से खून बहने लगा उसकी.

उसे देखकर एक और बढ़ा मेरी ओर उसका भी वही हुआ जो पहले वाले का हुआ था क्योंकि मे उपर था और वो नीचे खड़े थे. वो भी उसकी बगल में जा गिरा.

अब मैने नीचे जंप लगा दी और लपक के उन वाकी दो के कॉलर पकड़ के उठाए और गॅलरी में ले जाके धकेल दिया, तब तक और लोग भी आ गये और फिर उनकी वो धुनाई शुरू हुई की बस पुछो मत, बाद में उनको रेलवे पुलिस के हवाले कर दिया.

उन बुजुर्ग दंपत्ति ने मुझे खूब-2 आशीर्वाद दिया और फिर हम सभी नीचे बैठ कर बात-चीत करने लगे. एक दूसरे से जान पहचान करते करते समय का पता ही नही चला और मेरा स्टेशन आ गया.

मे उन लोगो से विदा ले अपने स्टेशन पर उतर गया….!!!

ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोते-2 पिताजी समय से पहले बूढ़े हो गये थे, एलर्जिक तो वो थे ही, उपर से काम और ज़िम्मेदारियों के बोझ ने उनकी कमर ही तोड़ के रख दी थी. 

हालाँकि श्याम भाई अपना ग्रॅजुयेशन कंप्लीट कर चुके थे और फिलहाल दो सालों से घर पर ही थे, लेकिन वो अपनी ही मुसीबतों में फँसे हुए थे.

हुआ यूँ कि एक बार कहीं जॉब के लिए इंटरव्यू देने जा रहे थे, रात का ट्रेन का सफ़र था, पॅसेंजर ट्रेन भीड़ थी नही, सो गये लाट साब सामने की सीट पर बॅग रख कर, ले गया कोई उठाके.

सारे पैसे टके, कपड़े लत्ते, और सबसे बड़ी बात डिग्री तक के सारे डॉक्युमेंट्स भी उसी बॅग में थे, एक साल से ड्यूप्लिकेट बनवाने में ही भाग-दौड़ में लगे थे, नौकरी का भूत दिमाग़ से फिलहाल निकल चुका था.

मैने तय किया कि अब में कुछ दिन रह कर यहीं पिता जी का हाथ बाँटता हूँ, जब उनकी तबीयत थोड़ा सुधरेगी, या श्याम भाई अपनी मुसीबतों से फारिग हो जाएँगे, तब देखा जाएगा आगे क्या करना है, सो लग गया खेती वाडी के कामों में जो मेरे लिए कोई नया तो था नही.

जुलाइ का महीना था, बरसात की शुरुआत हो चुकी थी, एक दो बरसात के बाद मौसम में उमस कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाती है, हर समय पसीने की चिपचिपाहट होती रहती है.

एक दिन ऐसे ही मे पड़ोसी के लंबे चौड़े चबूतरे पर पीपल के पेड़ के नीचे अपनी शर्ट उतार कर उसकी चारपाई पर बैठा अपना पसीना सुखा रहा था, पड़ोसी अपनी बेटी को लेकर वहीं चारा कूटने की मशीन लगी थी जिससे गाय भैसो के लिए चारी (ज्वार) के चारे को काट रहा था.

आप में से शायद कुछ लोगों ने चारा काटने की मशीन को देखा हो, यह एक 4-5 फीट दिया का आइरन का कस्टेड व्हील होता है, जिसमें आर्क शेप में दो गन्डासे (शार्प ब्लेड) लगे होते, एक गन्डासे के बाहरी साइड में व्हील की परिधि के पास ही एक लोहे की रोड का हॅंडल फिट रहता है जिसके उपर एक लकड़ी का पाइप जैसा चड़ा देते हैं, जिससे हाथों को तकलीफ़ ना हो और वो स्वतः ही पोज़िशन के हिसाब से घूमता रहे.

हॅंडल को पकड़ कर व्हील को घुमाया जाता है, सेंटर में एक मुँह होता है जिसमें से साबुत चारा डाला जाता है, जो अपनी नियमित गति से गियरिंग सिस्टम की वजह से आगे बढ़ता रहता है और गन्डासे उसे एक़ुआली काटते जाते हैं. 

कठोर ज्वार के डंठल काटने में एक आदमी की ताक़त से काम नही चलता जिससे दोनो साइड में ऑपोसिट खड़े होकर दो आदमी उस व्हील को घुमाते हैं तब वो काटता है.

बाप चारे को मशीन के मुँह में डाल रहा था, और लड़की उस व्हील को घुमाने में लगी थी जो उसके लिए मुश्किल पड़ रहा था.

मीरा नाम की वो लड़की मेरे से 3 साल छोटी 18-19 साल की गोरी-चिटी 5’4” की हाइट इकहरे बदन की जिसकी 32 की चुचिया, पतली कमर, लगभग 32 के ही कूल्हे, कुल मिलाकर एक नयी-2 जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाली एक आवरेज लड़की थी. गोल चेहरा, आँखें कुछ गोल-गोल सी थी.

चारा लगा के उसके बापू भी उसकी मदद करने व्हील पर लग जाते लेकिन उसमें उनका काम सही से नही हो पा रहा था. 

मे अभी चारपाई पर बैठा ही था कि वो काका बोले, मे उस पड़ोसी को काका बोलता था- अरे अरुण ! बेटा थोड़ा हमारी मदद कर दे, मीरा से अकेले मशीन चल नही पा रही.

मे जब से लौटा था तभी से वो मीरा मुझे अजीब सी नज़रों से देखती थी.. मुझे भी उसकी नज़रों का अंदाज़ा था लेकिन ज़्यादा तबज्ज़ो नही देता था.

जब मे उसके सामने जाके उसके साथ मशीन खींचने में लग तो उसका ध्यान मेरी ओर हो गया मशीन खींचने की वजाय, और उसकी वजह से पूरी ताक़त मुझे ही लगानी पड़ रही थी.

मैने उसको झिड़का, क्यों री मीरा बड़ी चालू है तू…, पूरा मुझसे ही ज़ोर लगवा रही है, तो वो फुफूसाकर बोली ज़्यादा ज़ोर तो आदमी को ही लगाना पड़ता है ना और इतना कह कर उसने मेरे हाथों के उपर अपने हाथ रख दिए. 

मैने भी अपने हाथ उसके हाथों के नीचे से निकाल कर उसकी उंगली में नोंच लिया, ये सब करते-2 काम भी साथ-2 होता जा रहा था. उसके बापू का ध्यान चारा डालने में ही था. 

अब वो हॅंडल के नज़दीक आके मशीन चलाने लगी थी जिससे जब भी हॅंडल उसकी तरफ जाता तो मेरे हाथ उसकी मुलायम चुचियों से टच हो जाते. 

मैने सोचा ये तो बड़ी चालू लौंडिया है, साली से बचके रहना होगा कहीं अपना ही बलात्कार ना कर्दे.

खैर जैसे-तैसे करके मैने उसका चारा कुटवा दिया, हम दोनो ही हाफने लगे थे, क्योंकि पूरी ताक़त लगानी पड़ती है मशीन खींचने में, यह एक तरह की एक्सर्साइज़ भी है, जो मुकलेस को मजबूत करती है.

हम दोनो ही चारपाई पर आकर बैठ गये, उसके बापू मशीन के नीचे से कुटा हुआ चारा निकालने में लग गये. मे पैर नीचे लटका के चारपाई पर लेट गया, 

वो चारपाई पर पैर रख के घुटने मोड़ कर बैठ गयी मेरे बाजू में.

मे- मीरा ! तू तो बहुत चालू है, बेह्न्चोद पूरी ताक़त मेरे से ही लगवा दी.

वो- हुउन्न्ं… जैसे मैने कुछ नही क्या .. हीन्न्न..!

मे- तू तो उल्टा मेरे को परेशान और कर रही थी…!

वो- मेरे नंगे बदन पर चुटकी काटते हुए.. अच्छा !! झुटे कहीं के..!

मे- अच्छा साली ये बदमाशी…? और मैने उसकी जाँघ को सलवार के उपर से ही जोरे से कचोट दिया..

वो- आययईीीई… मुम्मि…,

उसका बापू हमें देख कर बोला- क्या हुआ ?

वो- कुछ नही बापू.. कोई चींटी थी शायद..!

ओ तेरी का…! ये तो साली बहुत चालू है..., कैसे अपने बाप को ही घुमा दिया..

मे उठने को हुआ तो वो मेरा कंधा पकड़ कर फिर से लिटाते हुए बोली - अरे अरुण बाबू ढंग से पसीना तो सूखने दो..! कहाँ तुम्हारे लिए भैंस बैठी है जिसका दूध निकालना है तुम्हें ?

मे- एक भैंस से बचने के लिए उठना ही पड़ेगा यहाँ से, पता लगा कहीं वो अपना ही दूध निकलवाने को ना कहने लगे..!!

वो मेरी छाती पर हाथ रख कर दबाते हुए बोली – भैंस किसको बोला हैन्न..? मे भैंस दिखती हूँ तुम्हें…? हैन्न.. बोलो..! 

ये करते-2 हँसती भी जा रही थी… और हां !क्या बोले..? में अपना दूध तुमसे निकल वाउन्गी..? क्यों ? शक्ल देखी है कभी शीशे में..? बड़े आए… दूध निकल वाउन्गी मे इनसे. दूध निकालना आता भी है या ऐसे ही पहाड़ हो रहे हो ?

मे- आता तो है..! तू कहे तो मे तेरा भी निकाल सकता हूँ, और इधर-उधर देख कर उसका एक बोबा मसल दिया…!

वो- हाईए…! राम… क्या करते हो ? पागल हो क्या..? कोई देख लेता तो..?

मे- चल कहीं ! निकाल के दिखूं..! बोल निकलवाना है अपना दूध..?

थोड़ा अंधेरा सा होता जेया रहा था, हम दो ही वहाँ बैठे थे, उसके बापू भी घर के अंदर जा चुके थे.

वो- कैसे निकालते हो ..? मैने उसे अपनी ओर खींच लिया और गॉड में बैठके उसकी दोनो मुलायम गोल-2 चुचियों को मुट्ठी में भरके दबा दिया…! 

वो एकदम गन्गना गयी… और सिसकारी भरती हुई बोली… नही यहाँ नही…, 

तो मैने उसकी चूत को मुट्ठी में भर कर भींचते हुए कहा- बोल कहाँ निकलवाएगी ? जहाँ कहेगी वहीं निकाल दूँगा.

जहाँ मशीन लगी थी उसके ठीक बगल में एक कच्चा बड़ा सा उसका कमरा था. 

वो बोली- सुबह 4 बजे से में जानवरों को चारा डालने आती हूँ, तो उस टाइम तुम इस कमरे में आ जाना. बोलो आओगे..?

मे- कभी पहले निकलवा चुकी है अपना दूध किसी से.

वो- ये तो एक दो बार दबा दिए हैं हमारे दूध वाले ने, उससे ज़्यादा कुछ नही हुआ.

इसका मज़ा नही लिया अभी तक ? मैने उसकी चूत पर हाथ फेरते हुए कहा.. 

तो उसने अपनी जंघें भींचते हुए ना में गर्दन हिला दी और झुरजुरी सी लेती हुई उठ गयी, अपनी मुन्डी नीची करके मुस्कराती हुई घर के अंदर भाग गयी…..!

मैने अलार्म . में 3:45 आम का अलार्म भरा और सो गया लेकिन पता नही क्या हुआ ? साला अलार्म नही बजा और जब मेरी नींद अपने समय से खुली तो 4:30 हो चुके थे, मे लपक के उठा और सीधा उसके उस कच्चे कमरे में पहुँचा, 
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