RE: Chudai Story ज़िंदगी के रंग
सरहद पांडे शुरू से ही तन्हा रहने का आदि था. स्कूल के ज़माने से ले कर आज तक उसने ज़्यादा दोस्त नही बनाए थे और जो बनाए उन मे से भी कोई उसके ज़्यादा करीब नही था. शर्मीली तबीयत का होने का कारण वो चाहे कहीं भी जाए लोग उसे आम तोर पे नज़र अंदाज़ कर देते थे. देखने मे भी बस ठीक था. औसत कद, सांवला रंग और थोड़ी सी तोंद भी निकली हुई थी. शायद उसे शुरू से ही ये कॉंप्लेक्स था के वो देखने मे बदसूरत है. ऐसा तो खेर हरगिज़ नही था लेकिन जैसे जैसे वो बड़ा हुआ सर के बाल भी घने ना रहने के कारण उसका ये कॉंप्लेक्स और भी ज़्यादा मज़बूत होता चला गया. पढ़ाई मे भी बस ठीक ही था. ऐसा नही के काबिल नही था मगर कभी भी उसने पढ़ाई को संजीदगी से नही लिया था. उसके पिता समझ नही पाते थे के ऐसा क्यूँ है? पहले पहल तो उन्हो ने हर तरहा की कोशिश की. कभी प्यार से तो कभी गुस्से से लेकिन कुछ खास फरक नही पड़ा. आख़िर तंग आ कर उन्हो ने उसको उसके हाल पर छोड़ दिया. और तो और खेलौन मे भी वो बिल्कुल दिलचस्पी नही लेता था.
ऐसे मे बस एक ही ऐसी चीज़ थी उसकी ज़िंदगी मे जिसे वो पागलपन की हद तक पसंद करता था और वो थी किरण. वो कोई तीसरी क्लास मे था जब उसके पिता का ट्रान्स्फर देल्हीमे हो गया. नये स्कूल मे आ कर भी कुछ नही बदला था. कुछ शरारती लड़को का उसका मज़ाक उड़ाना तो कुछ टीचर का उस पे घुसा निकालना, सब कुछ तो पहले जैसा था. हां पर कुछ बदला था तो वो ये के पहली बार उसे कोई अच्छा लगने लगा था और वो थी उसकी क्लास मे ही एक हँसमुख बच्ची किरण. उस उमर मे प्यार का तो कोई वजूद ही नही होता और ना ही समझ. ये बस वैसे ही था जैसे हम किसी को मिल कर दोस्त बनाना चाहते हैं. फराक बस इतना था के अपने शर्मीलेपन की वजा से वो ये भी नही कर पाया. जो चंद एक दोस्त उसने बनाए भी वो उस जैसे ही थे. ये भी एक अजब इतेफ़ाक था के उसके पिता को भी घर कंपनी की ओर से वहीं मिला जहाँ मोना का घर बाजू मे ही था.
उसे आज भी याद था के केसे वो छुप छुप कर किरण को अपने कमरे की खिड़की से सड़क पर मोहल्ले के दूसरे बच्चो के साथ खेलते देखा करता था. दोसरी ओर किरण ने तो कभी उसे सही तरहा से देखा भी नही और अगर नज़र उस पर पड़ी भी तो नज़र अंदाज़ कर दिया. कहते हैं के समय के साथ सब कुछ बदल जाता है लेकिन कुछ चीज़े अगर बदलती भी हैं तो वो अच्छे के लिए नही होती. स्कूल के बाद दोनो ने ऐक ही कॉलेज मे दाखिला भी लिया पर इतने साल बीतने के बाद भी तो सब कुछ वैसे का वेसा ही था. आज भी वो दूर से किरण को पागलौं की तरहा देखा करता था. तन्हाई मे उसी की तस्वीर उसकी आँखौं मे घूमती थी और दूसरी ओर किरण अब जवानी मे हर ऐरे गैरे से हँसी मज़ाक करने के बावजूद भी सरहद की ओर कभी देखती तक नही थी. अगर कुछ बदला था तो वो उसके दिल मे उसके प्यार की शिदत थी. कभी कभार तो वो ये सौचता था के क्या ये प्यार है याँ जनून? वैसे उसे पसंद तो किरण की नयी दोस्त मोना भी बहुत आई थी. वो बिल्कुल किरण के बाकी के सब दोस्तों से अलग थी और उसे हैरत होती थी के उन दोनो मे दोस्ती हुई भी तो केसे? चंद ही महीनों मे उसने देखा के किरण मे तब्दीली आने लगी है और वो उस चंचल हसीना से एक समझदार लड़की बनने लगी थी. ऐसा कितना मोना की वजा से था तो कितना उमर के बढ़ने के साथ ये तो वो नही समझ पाया पर वो इस तब्दीली से खुश बहुत था. अब तो सब कुछ पहले से बेहतर होने लगा था. किरण ने लड़को से ज़्यादा बात चीत भी कम कर दी थी और कपड़े भी ढंग के पहनने लगी थी.
सरहद की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा जब एक दिन किरण ने भी वो ही कॉलिंग सेंटर जाय्न कर लिया जहाँ वो काम करता था. अब तो उनकी थोड़ी बहुत दुआ सलाम भी होने लगी थी. फिर कुछ ही अरसे मे मोना को भी वहीं नौकरी मिल गयी. मोना और सरहद कुछ ही दीनो मे अच्छे दोस्त भी बन गये और शायद इसी लिए किरण से भी उसकी थोड़ी बहुत दोस्ती तो होने लगी थी. या फिर यौं कह लो के जिसे वो दोस्ती समझ के खुश हो रहा था वो बस दुआ सलाम तक ही थी. पर जिस लड़की के सपने वो सालो से देखता आ रहा था अब उसके साथ एक ही जगा पे काम करना और दिन मे एक आध बार बात कर लेना भी उसके लिए बहुत बड़ी बात थी. धीरे धीरे ही सही पर सब कुछ तो उसके लिए अच्छा होता जा रहा था सिवाय एक चीज़ के और वो था मनोज पटेल. कुछ साल पहले किरण के पिता के देहांत के बाद वो उनके घर किरायेदार के तौर पे आया था और अब टिक ही गया था. भला एक कारोबारी बंदे को ऐसे किसी के घर मे करायेदार बन के रहने की क्या ज़रूरत है? उसको इस बात की ही जलन थी के ऐक ही छत के नीचे वो उसकी किरण के पास ही रह रहा था. अब किरण को देख कर किस की नीयत खराब नही हो सकती थी? ये और ऐसे ही जाने कितने सवाल उसके मन मे रोज आते थे. जाने क्यूँ उसे मनोज मे कुछ अजीब सी बात नज़र आती थी. ऐसा उसकी जलन की वजा से था या सच मे दाल मे कुछ काला था?
ज़िंदगी हमेशा की तरहा वैसे ही रॅन्वा डांवा थी. हर तरफ भागम भाग थी और हर कोई दोसरे से आगे निकल जाने की दौड़ मे लगा हुआ था. इस भीड़ मे होते हुए भी आज मोना अपने आप को कितना तन्हा महसूस कर रही थी. ममता की बाते अभी तक उसे कांटो की तरहा चुभ रही थी. ग़रीबो के पास सिवाय उनकी इज़्ज़त के होता ही क्या है? और अगर लोग उसपे भी उंगली उठाए तो ये वो बर्दाशत नही कर पाते. वो धीरे धीरे एक सीध मे चली जा रही थी पर मंज़िल कहाँ थी इसका उसको भी पता नही था. दिल मे बहुत ही ज़्यादा दुख था पर आँखौं मे उसे क़ैद कर रखा था. ऐसे मे उसका मोबाइल बजता है. जब देखती है तो अली फोन कर रहा होता है.
मोना:"हेलो"
अली:"मोना कैसी हो?"
मोना:"अभी थोड़ी देर पहले तो तुम्हारे साथ थी फिर भी पूछ रहे हो के कैसी हूँ?" उसने रूखे से लहजे मे जवाब दिया. ममता का गुस्सा अभी तक गया नही था शायद.
अली:"हहे नही वो बस सोच रहा था के क्या फिल्म देखने चले? सुना है के अक्षय की बहुत अछी फिल्म आई है."
मोना:"तुम देख आओ मे नही आ पाउन्गी." धीरे से उसने कहा. अली बच्चा तो था नही, समझ गया के कुछ तो ग़लत है.
अली:"मोना सब ठीक तो है ना?" अब तक जिन आँसुओ को उसने अपनी आँखौं मे रोका हुआ था वो अब थम ना पाए आंड वो रोने लगी. उसे ऐसा रोते सुन कर अली बहुत घबरा गया.
अली:"मोना क्या हुआ है? प्लीज़ रो मत मे आ रहा हूँ." रोते हुए बड़ी मुस्किल से मोना बस ये कह पाई
मोना:"मैं घर पे नही हूँ अली."
अली:"कोई बात नही. तुम जहाँ पे भी हो बताओ मैं 2 मिनिट मे पहुच रहा हूँ." उसके चारो ओर जो लोग गुज़र रहे थे उन मे वो भी अपना तमाशा नही बनवाना चाहती थी इसलिए आँसू सॉफ करने लगी.
क्रमशः....................
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