Maa ki Chudai ये कैसा संजोग माँ बेटे का
01-02-2019, 02:24 PM,
#9
RE: Maa ki Chudai ये कैसा संजोग माँ बेटे का
मुझे ऐसा लग जैसे वो कुछ कहना चाहती थी मगर वो अल्फ़ाज़ कहने के लिए वो खुद को तैयार ना कर सकी. मैं भी कुछ कहना चाहता था मगर क्या कहूँ ये मेरी समझ में नही आ रहा था. अंततः वो डोर की ओर मूडी और बिना गुडनाइट बोले जाने लगी. 

उसका इस तरह बिना कुछ बोले जाना खुद में एक खास बात थी. मैं शायद उसके साथ ज़्यादती कर रहा था. मैने उसको इस समस्या से उबारने का फ़ैसला किया. मैने खुद को भी इस समस्या से बच निकलने का मौका दिया.

"अगर तुम थोड़ा सा समय दोगि तो मैं अभी आता हूँ. फिर मिलकर टीवी देखेंगे माँ" हमारी दूबिधा, हमारा संकोच, हमारी शरम, अगर हम ये सब महसूस करते थे तो इसे ख़तम करने और वापस पहले वाले हालातों में लौटने का सबसे बढ़िया तरीका यही था कि हम सब कुछ भूल कर ऐसे वार्ताव करते जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

मैं देख सकता था कि उसके कंधों से एक भारी बोझ उतर गया था क्योंकि वो एकदम से खिल उठी थी, मुझे भी एकदम से अच्छा महसूस होने लगा. पिछली रात कुछ भी घटित नही हुआ था. हम ने कुछ भी नही किया था, और हमने ग़लत तो बिल्कुल भी कुछ नही किया था.

हम ने टीवी ऑन किया. इस बार हम ने एक दो विषयों पर हल्की फुल्की बातें भी की. किसी कारण हमारे बीच पहले के मुक़ाबले ज़्यादा हेल-मेल था. हम में कुछ दोस्ताना हो गया था. हालांकी हमारा रात्रि मिलन छोटा था मगर पहले के मुकाबले ज़्यादा अर्थपूर्ण था. हम ने इसे एक दूसरे को गुडनाइट बोल ख़तम किया और एक दूसरे के होंठो पे हल्का सा चुंबन लिया- एक हल्का, सूखा और नमालूम पड़ने वाला चुंबन. उसके बाद हम दोनो अपने अपने कमरों में चले गये. 

उसके बाद के आने वाले दिनो में मैने उसके चुंबन के उस मीठे स्वाद को अपनी यादाश्त में ताज़ा रखने की बहुत कोशिश की. हमने अपनी रोज़ाना की जिंदगी वैसे ही चालू रखी जिसमे हम इकट्ठे बैठकर टीवी देखते, कुछ बातचीत करते और फिर रात का अंत एक रात्रि चुंबन से करते- एक हल्के, सूखे और नमालूम चलने वाले चुंबन से. 

मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि हमारे बीच गीले चुंबनो के पहले की तुलना में अब हेल-मेल बढ़ गया था. हमारे बीच एक ऐसा संबंध विकसित हो रहा था जिसने हमे और भी करीब ला दिया था. हम अब वास्तव में एक दूसरे से और एक दूसरे के बारे में खुल कर ज़्यादा बातचीत करने लगे थे. ऐसा लगता था जैसे उसके पास कहने के लिए बहुत कुछ था क्योंकि मैं बहुत देर तक बैठा उसकी बातें सुनता रहता जो आम तौर पर रोजमर्रा की जिंदगी की साधारण घटनायों पर होती थीं. 

अब इस पड़ाव पर मैं दो चीज़ें ज़रूर बताना चाहूँगा. पहली तो यह कि बिना अपने पिता का ध्यान खींचे हमारे लिए ये कैसे मुमकिन था इतना समय एकसाथ बैठ पाना? दूसरा, अपनी दिनचर्या उसकी पिताजी के साथ दिनचर्या से अलग रखना हमारे लिए कैसे मुमकिन था? 

हमारा घर इंग्लीश के यू-शॅप के आकर में बना हुआ है. मेरे पिताजी का बेडरूम लेफ्ट लेग के आख़िरी कोने पे है, जबकि किचन राइट लेग के आख़िरी कोने पे है. किचन के बाद ड्रॉयिंग रूम है जिसमे हम टीवी देखते हैं. ड्रॉयिंग रूम के बाद मेरा कमरा है. मेरे कमरे के बाद एक और कमरा है. उसके बाद पिताजी के साइड वाली लेफ्ट लेग सुरू होती है, जहाँ एक कमरा है और उसके बाद मेरे माता पिता का बेडरूम. मेरे पिताजी की साइड के कॉरिडर मे एक बड़ा ग्लास डोर था जो एक वरान्डे में खुलता था जिसके दूसरे सिरे पर मेरी तरफ के कॉरिडर और किचन के बीचो बीच था. दिन के समय माँ अपने कॉरिडर से उस ग्लास डोर का इस्तेमाल कर किचन में आती जाती थी. रात के समय वरामदे के डोर बंद होते थे इसलिए पहले उसे किचन से ड्राइंग रूम जाना पड़ता था और वहाँ से कॉरिडर में जो मेरे रूम के सामने से गुज़रता था फिर मेरे रूम के साथ वाला कमरा, फिर दूसरी तरफ का कमरा और अंत में पिताजी का कमरा. 

पिताजी के कमरे से ड्रॉयिंग रूम की दूरी काफ़ी लंबी थी जिससे उनके लिए घर की इस साइड पर क्या हो रहा है, सुन पाना या देख पाना नामुमकिन था. हम कम आवाज़ में बिना उनको परेशान किए टीवी देख सकते थे जा बातचीत कर सकते थे क्योंकि टीवी की आवाज़ कभी भी उन तक नही पहुँच सकती थी और ना ही टीवी या किचन की लाइट उनके लिए परेशानी का सबब बन सकती थी. इसके बावजूद हम अपनी आवाज़ बिल्कुल धीमी रखते ता कि वो जाग ना सके. हमें देखने का एक ही तरीका था कि वो खुद ड्रॉयिंग रूम में चलकर आते मगर मेरे माता पिता के पास उनकी एक अपनी छोटी फ्रिड्ज थी और साथ ही मे चाइ और कॉफी मेकर भी उनके पास था. इसलिए जब वो खाने के बाद एक बार अपने कमरे में चले जाते थे तो उनको कभी भी इस और वापस आने की ज़रूरत नही पड़ती थी. 


मैं सुबेह कॉलेज जाता था. कॉलेज से दोपेहर को लौटता था और फिर रात को ट्यूशन जाता था जबके मेरे पिता सुबह आठ से पाँच तक काम करते थे. वो सुबह छे बजे के करीब निकलते थे क्योंकि उनको थोड़ा दूर जाना पड़ता था. वो शाम को सात बजे के करीब लौट आते, खाना खाते, कुछ टाइम टीवी देखते और लगभग नौ बजे के करीब अपने रूम में चले जाते. जब मैं ट्यूशन से वापस आता तब तक पिताजी सो चुके होते. मैं नहा धोकर खाना ख़ाता और फिर टीवी देखने बैठ जाता जिसमे अब मेरी माँ भी मेरा साथ निभाने आ जाती. इससे मेरी माँ को इतना समय मिल जाता कि उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा पिताजी के साथ गुज़रता और दूसरा हिस्सा वो मेरे साथ टीवी देख कर गुज़रती. इस दिनचर्या से उसे ना तो पिताजी की चिंता रहती और ना ही जल्द सोने की.

जैसे जैसे मैं और मेरी माँ दोनो ज़्यादा से ज़्यादा समय एक साथ बिताने लगे, धीरे धीरे हमारी आत्मीयता बढ़ने लगी. कभी कभी माँ उसी सोफे पर बैठती जिस पर मैं बैठा होता, हालांके वो दूसरी तरफ के कोने पर बैठती. यह सिरफ़ समय की बात थी कि हममे से कोई एक फिर से हमारे चुंबनो में कुछ और जोड़ने की कोशिश करता. अब सवाल यह था कि पहल कौन करेगा और दूसरा उसका जवाब कैसे देगा. 

एक वार वीकेंड पर मेरे पिताजी एक सेमिनार मे हिस्सा लेने शहर से बाहर गये हुए थे. उनके जाने से हम एक दूसरे के साथ और भी खुल कर पेश आ रहे थे. मैं एक नयी फिल्म बाज़ार से खरीद लाया. हम दोनो आराम से बेफिकर होकर फिल्म देख रहे थे क्योंकि आज उसको जाने की कोई जल्दी नही थी. हम दोनो उस रात और रातों की तुलना में बहुत देर तक एक दूसरे के साथ बैठे रहे. जहाँ तक कि दिन मे खरीदी फिल्म ख़तम होने के बाद हम टीवी पर एक दूसरी फिल्म देखने लगे. उस रात वाकाई हम बहुत देर तक ड्रॉयिंग रूम में बैठे रहे. अंत में खुद मैने, और माँ ने कहा के अब हमे सोना चाहिए. 

मैने डीवीडी प्लेयर से डीवीडी निकाली उसको उसके कवर में वापस डाला और फिर;टीवी बंद कर दिया. जबकि वो किचन में झूठे बर्तन सींक मे डालने लगी ताकि सुबेह को उन्हे धो सके. 
अब जैसा के मैं पहले ही बता चुका हूँ हमारे घर के कॉरिडर ड्रॉयिंग रूम से सुरू होते थे, सबसे पहले मेरे रूम के सामने से गुज़रते थे, उसके बाद दो गेस्ट रूम और अंत में उसके बेडरूम पे जाकर ख़तम होता था.

मैने ड्रॉयिंग रूम का वरामदे मे खुलने वाला डोर बंद किया जबकि उसने किचन और ड्रॉयिंग रूम की लाइट्स बंद की. उसके बाद हम नीम अंधेरे में चलते हुए कॉरिडर में आ गये. 
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