RE: non veg story एक औरत की दास्तान
एक औरत की दास्तान--11
गतान्क से आगे...........................
"जग्गू काका अब आपको ऑफीस जाना बंद कर देना चाहिए..?" डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करते हुए राज ने कहा..
"अरे ई का कहत हो बिटवा..? अगर आफिसे नही जाएँगे तो घर मे दिन भर का भजन करेंगे..?" जग्गू काका ने हस्ते हुए कहा..
"अरे नही काका.. मैं तो सोच रहा था कि आप इतने सालों से मेरे भले के लिए काम कर रहे हैं.. और अब आपकी उमर भी हो चुकी है. अब आपके आराम करने के दिन हैं.. काम तो मैं भी कर लूँगा."
"अरे बेटवा तुम काहे चिंता करत हो..? वैसे भी हमरा मंन घर मे लगेगा नही तो घर मे रहने का का फ़ायदा.. इससे अच्छा आफिसे मे दू गो आदमी से बात ता कर लेंगे.." जग्गू काका ने कहा..
"अरे फिर भी काका.. इसी बहाने आप स्नेहा का ख़याल भी रख सकेंगे.. ऐसी हालत मे किसी का इसके पास रहना ज़रूरी है.. और वैसे भी बाकी नौकर लोग कुछ ज़्यादा देख भाल भी नही कर पाएँगे स्नेहा की जितनी अच्छी तरह आप कर सकेंगे." राज ने फिर समझाने की कोशिश की जिसे सुनकर जग्गू काका भी सोच मे पड़ गये.. और फिर थोड़ा सोचने के बाद बोले..
"तू ठीक कहत हो बेटवा, बहूरानी के पास एक आदमी का तो ज़रूरत तो है.. ठीक है बेटवा.. आज से हमारा आफिसे जाना बंद.. और आज से आफिसे का सारा काम हमार बेटवा करेगा.." ये बोलकर उन्होने राज के कंधे तापतपाए..
स्नेहा वहाँ बैठकर सिर्फ़ उन दोनो की बातें सुन रही थी..
पहले तो उसे राज का जग्गू काका को घर मे रुकने के लिए बोलना अजीब लगा पर जब राज ने वजह बताई तो फिर उसे संतुष्टि हुई..
जग्गू काका और स्नेहा नाश्ता करके टेबल से उठ चुके थे.. राज ने कार की चाभी उठाई और कार मे जाकर बैठ गया. उसके चेहरे पर एक शैतानी मुस्कान थी जो अब डरावनी हसी मे बदल चुकी थी..
"बहुत दिन हो गये.. मैं पापा से नही मिली.." रात को सोते हुए स्नेहा ने राज से कहा..
"इसमें कौन सी बड़ी बात है..? कल ही चलते हैं 2-4 दिन के लिए.. तुम्हारा मन भी लग जाएगा और तुम्हारे पापा तुम्हें देख कर खुस भी हो जाएँगे.." राज ने स्नेहा को चूमते हुए कहा..
"पर क्या जग्गू काका इज़ाज़त दे देंगे..?"
"अरे उनकी चिंता तुम मत करो.. वो मेरी बात कभी नही टालते.. तुम कल मेरे ऑफीस से आने के बाद रेडी रहना. हम दोनो कल ही चल रहे हैं.." ये बोलकर राज ने स्नेहा को अपने ऊपर बैठा लिया और स्नेहा उसके लंड पर उछलने लगी..
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"सो एवेरितिंग ईज़ रेडी..? कॅन वी गो नाउ..?" अगले दिन शाम को ऑफीस से आते ही राज ने पूछा..
"ओह यॅ.. वाइ नोट...?" स्नेहा को राज का अँग्रेज़ी मे बात करना अजीब सा लगा क्यूंकी इंग्लीश बोलना उसे कुछ ज़्यादा पसंद नही था और वो इंग्लीश का इस्तेमाल सिर्फ़ ऑफीस मे ही करता था. खैर स्नेहा ने अपने सर को झटका देकर समझाया कि ये सिर्फ़ के संयोग है और ये सोचकर बॅग उठाने लगी..
"क्या कर रही हो स्नेहा.. इतना भारी बॅग क्यूँ उठा रही हो..? तुम्हें पता है ना कि तुम मा बनने वाली हो..?" ये बोलकर राज ने उसके हाथ से बॅग ले लिया और फिर दोनो गाड़ी मे बैठकर ठाकुर विला की तरफ चल दिए..
"आओ बेटा.. आज अचानक कैसे पहुँच गयी.. फोन भी नही किया..?" यूँ स्नेहा और राज को अचानक अपने घर मे पाकर ठाकुर साहब की ख़ुसी का ठिकाना नही था..
"बस पापा यूँ ही.. आआपको सर्प्राइज़ देने का मंन हुआ और हम चले आए.." ये बोलकर वो ठाकुर साहब के गले लग गयी..
"जाओ बेटा.. तुम लोग फ्रेश हो कर आ जाओ उसके बाद बातें होती रहेंगी.." ठाकुर साहब ने कहा जिसे मानकर वो दोनो अपने कमरे मे चले गये फ्रेश होने के लिए..
"तो बेटा बिज़्नेस कैसा चल रहा है..?" रात को खाने पर ठाकुर साहब ने राज से पूछा..
"बस अंकल ठीक चल रहा है.."
"और सब कुछ ठीक ठाक है ना..? अओर वो नौकर कैसा है.. आइ'म सॉरी.. आइ मीन जग्गू काका कैसे हैं..?" ठाकुर साहब ने अपनी ग़लती ने सुधारते हुए कहा..
"अरे अंकल इसमें सॉरी की क्या बात है..? नौकर को नौकर नही कहेंगे तो क्या मालिक कहेंगे ? वो तो नौकर है जो कयि सालों से हमारा खा रहा है.. तो इसमें सॉरी का तो सवाल ही पैदा नही होता.." राज की ये बातें सुनकर ठाकुर साहब और स्नेहा को बड़ा अजीब लगा.. कल तक जिसे नौकर कहने पर ही राज का गुस्सा सांत्वे आसमान पर पहुँच जाता था.. आज वो उसे खुद नौकर बोल रहा था.. जो कि एक अजीब बात थी.. तीनो खाना खा कर उठे और फिर थोड़ी देर सोफे पर बैठकर इधर उधर की बातें करने लगे..
"ठीक है बच्चों.. रात बहुत हो गयी है.. और स्नेहा का इस हालत मे इतनी रात तक जागे रहना ठीक नही है.. तुम दोनो जाकर सो जाओ.. और मैं भी चलता हूँ सोने.." ये बोलकर ठाकुर साहब वहाँ से उठकर चले गये और राज और स्नेहा ने भी अब सोना ही सही समझा.. और वो दोनो भी अपने कमरे मे चले गये सोने के लिए.."
आज सुबह सुबह जब राजनगर के लोग जागे तो उन सब की ज़ुबान पर सिर्फ़ एक ही सवाल था..
"ठाकुर साहब को किसने मारा..?"
ठाकुर विला के सामने अच्छी ख़ासी भीड़ जमा थी.. सब लोग यही जानना चाहते थे कि कौन हो सकता है जिसने इतने बड़े आदमी को ऊपर पहुँचा दिया..?
तभी पोलीस की दो गाड़ियाँ अपना साइरन बजाते हुए वहाँ पहुँची.. सब लोग उसी तरफ देखने लगे.. उन पोलीस की गाड़ियों मे से कुल 10 पोलीस वाले बाहर आए जो वहाँ पहुँचते ही भीड़ को वहाँ से हटने के लिए बोलने लगे..
उनमें से एक पोलीस वाला जो इनस्पेक्टर रॅंक का लगता था वो अपनी च्छड़ी एक हाथ मे लिए हुए था और बार बार अपने दूसरे हाथ मे मारते हुए अंदर चला गया..
अंदर राज और स्नेहा सोफे पर बैठे हुए थे.. उनके चेहरे बड़े उदास लग रहे थे और स्नेहा की आँखों से आँसू बंद होने का नाम नही ले रहे थे.. उस घर मे काम करने वाले 5 नौकर जिसमें से 4 मर्द थे और 1 औरत थी एक तरफ कोने मे लाइन मे अपना सर झुकाए खड़े थे..
गेट पर खड़े रहने वाले मुस्टंडे भी वहीं खड़े बेवकूफो की तरफ इधर उधर ताक रहे थे..
इनस्पेक्टर के जूतों की आवाज़ सुनते ही सब उधर देखने लगे..
ये और कोई नही बल्कि इनस्पेक्टर जावेद ख़ान था.. उसने एक सर सरी निगाह हॉल मे मौजूद सभी लोगों की तरफ डाली और फिर वो धीरे धीरे चलता हुआ क्राइम सीन की तरफ जाने लगा..
और फाइनली वो उस कमरे मे पहुँच गया जहाँ खून हुआ था.. वहाँ पर 2 कॉन्स्टेबल्स पहले से मौजूद थे जो कि लाश की जाँच कर रहे थे और साथ ही साथ उसकी तस्वीरें भी उतार रहे थे..
"कुछ पता चला..?" इनस्पेक्टर ने कमरे मे घुसते हुए कहा.
"चाकू इनके सीने मे मारा गया है.." एक कॉन्स्टेबल ने इनस्पेक्टर को आते देखकर सल्यूट करते हुए कहा..
"ह्म्म.. और कुछ..?"
"सर ये मर्डर वेपन बरामद हुआ है.." कॉन्स्टेबल ने चाकू दिखाते हुए कहा जो अब एक प्लास्टिक बॅग मे बंद था..
"ह्म्म.. ये मर्डर वेपन का मिलना तो बहुत अच्छी बात है.. किसी ने कुछ बताया यहा..?"
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