RE: non veg story एक औरत की दास्तान
.........................................................और शाम को स्नेहा के घर.........
"हां बेटा.. तो बताओ.. कैसे हो..?" ठाकुर साहब ने डाइनिंग टेबल पर अपने सामने बैठे राज से पूछा.
"ठीक हूँ अंकल.. और आप..?" ये पूछते हुए राज को ठाकुर साहब से पिछली मुलाकात वाली बात यादा आ गयी जब वो अपना खाना बीच मे छ्चोड़कर ही उठ गये थे क्यूंकी राज ने उनके सामने अपने नौकर जग्गू काका की तारीफ़ कर दी थी. उसे बुरा तो बहुत लगा था लेकिन उसने स्नेहा की खातिर कुछ नही बोला था.. उसने सर को झटकट देते हुए उस बात को अपने दिमाग़ से बाहर निकाला और ठाकुर साहब की तरफ देखने लगा..
"मैं भी ठीक हूँ बेटा, तुम्हें तो पता ही होगा कि हम ने तुम्हें यहाँ क्यूँ बुलाया है ?" ठाकुर साहब ने सीधा काम की बात पर आते हुए कहा. स्नेहा भी वहीं पर बैठी थी और ठाकुर साहब के ये सवाल करते ही उसने शर्म के मारे अपना चेहरा झुका लिया. उसकी चेहरे की लाली बता रही थी की उसकी क्या हालत हो रही है.
"जी अंकल मुझे पता है." राज ने स्नेहा की ओर देखते हुए जवाब दिया जो अब शर्म के मारे गढ़ी जा रही थी.
"तो बेटा ये बताओ, कि तुम्हारे मम्मी डॅडी तो हैं नही तो फिर तुम्हारे रिश्ते की बात किससे की जाए ?" ठाकुर साहब ने सवाल किया.
"अंकल रिश्ते की बात करने के लिए मैं हूँ ना." राज ने सीधा सा जवाब दिया.
"मगर बेटा, घर मे एक बड़े आदमी का होना ज़रूरी है ना.. दहेज मे क्या लोगे और अन्य सभी ज़रूरी बातों के लिए एक बड़े का होना तो ज़रूरी है, तुम अकेले तो पूरा काम नही संभालोगे ना..? ठाकुर साहब ना जाने क्यूँ बार बार किसी बड़े को लाने की बात कर रहे थे..
"अंकल दहेज तो मैं कभी लूँगा नही क्यूंकी मैं स्नेहा से प्यार करता हूँ और मैं दहेज के लिए इससे शादी नही कर रहा, और अगर आपको किसी बड़े से बात ही करनी है तो जग्गू काका हमेशा आपकी खिदमत मे हाज़िर होंगे." राज एक साँस मे पूरी बात बोल गया.
"मैं एक नौकर से बात करूँगा अपने दामाद के लिए..? कभी नही." ठाकुर साहब जो अब तक नर्मी से बात कर रहे थे, अचानक उनका लहज़ा कड़क हो गया.
"अंकल आप बार बार उन्हें नौकर नौकर बोलकर उनका अपमान कर रहे हैं, और ये मैं हरगीज़ बर्दाश्त नही करूँगा, वो ही मेरी मा हैं और वो ही मेरे पिता.." राज का पारा अब सांत्वे आसमान पर चढ़ गया. और वो खाना छोड़ कर उठ गया और ठाकुर विला से बाहर चला गया जहाँ उसकी बाइक लगी हुई थी, उसने बाइक स्टार्ट की और वहाँ से चला गया.
स्नेहा का मुह्न ये सब देख कर खुला का खुला रह गया.. उसे कुछ समझ मे नही आ रहा था कि वो क्या करे, अपने पिता के खिलाफ वो जा नही सकती थी और राज का साथ वो छ्चोड़ नही सकती थी.. अजीब सी कशमकश मे फँस गयी थी वो.
"पापा, ये आपने अच्छा नही किया.. इस तरह आपको जग्गू काका की बेइज़्ज़ती नही करनी चाहिए थी राज के सामने.." स्नेहा की मुह्न से अचानक ये बोल फूट पड़े और उसकी आँखों से आँसू छलक उठे.
"उस नौकर का नाम मत लो मेरे सामने." ठाकुर साहब ने गरजती हुई आवाज़ मे कहा..
"ठीक है पापा मैं नही लेती उसका नाम, लेकिन अगर मेरी शादी राज से नही हुई तो मैं अपनी जान दे दूँगी और ये मेरा आख़िरी फ़ैसला है ये.." ये बात ठाकुर साहब के ऊपर बॉम्ब की तरह गिरी.. उन्हे अपनी बेटी से प्यारा कुछ ना था.. वो भी सोचने लगे कि क्यूँ मैने बेकार मे इतनी नौटंकी कर दी.. अगर एक नौकर से अपनी बेटी के रिश्ते की बात कर ही लेता तो क्या फ़र्क पड़ जाता.. वैसे भी सारा पैसा तो राज के नाम है और वो दौलत भी अरबों(बिलियन्स) मे.. क्यूँ मैं अपने ही हाथों से अपनी बेटी की ज़िंदगी का गला घोटूं, ये सोचते हुए उसने उस तरफ देखा जिधर स्नेहा कुछ देर पहले बैठी हुई थी..
मगर अब वहाँ कोई नही था.. स्नेहा रोती हुई वहाँ से अपने कमरे मे भाग गयी थी.. ठाकुर साहब को अपने किए पर पछतावा हो रहा था.. वो उठे और अपने हाथ धोकर दरवाज़े की तरफ मुड़े और ड्राइवर को गाड़ी निकालने का आदेश दिया..
कुछ ही देर मे गाड़ी बाहर आ गयी और ठाकुर साहब उसमें चलकर बैठ गये. और ड्राइवर को "सिंघानिया मॅन्षन" की तरफ गाड़ी घुमाने का आदेश दिया और वो चल पड़े अपनी बेटी के रिश्ते की बात करने...
पूरा सहर किसी दुल्हन की तरह सज़ा हुआ था.. हर तरफ ख़ुसीया ही ख़ुसीया थी. हर तरफ लोगों की भाग दौड़ हो रही थी. गीतों की मधुर आवाज़ें पूरे वातावरण मे जैसे ख़ुसीया ही ख़ुसीया भर रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे कोई बहुत बड़ा मेला लगा हुआ हो.
आख़िर होता भी क्यूँ ना..?राजनगर के सबसे बड़े घराने की लड़की की जो शादी थी.. मेहमानो की भीड़ ऐसी कि जैसे किसी राजा महरजा के यहाँ शादी हो और वैसी ही उनकी आवभगत हो रही थी. पूरा माहौल ऐसा लग रहा था जैसे आज कोई बहुत बड़ा उत्सव हो.
उस दिन ठाकुर साहब ने जग्गू काका से मिलकर राज और स्नेहा का रिश्ता पक्का कर लिया था.. हालाँकि उन्होने दिल पर पत्थर रखकर जग्गू काका से मिलने की चेस्टा की मगर अंत मे उन्हे एक बात का सुकून मिला कि उनकी बेटी एक बड़े घर मे जा रही है, मगर उनके मंन मे क्या था ये बात शायद कोई नही जानता था. और अंत मे ये फ़ैसला हुआ था कि महीने के अंत मे जैसे ही उन दोनो की पढ़ाई ख़तम होगी और राज अपना बिज़्नेस संभाल लेगा तो उन दोनो की शादी करवा दी जाएगी.
पहले तो जग्गू काका के अपमान से क्षुब्ध राज ने थोड़ी ना नुकुर की मगर फिर काका के समझाने पर मान गया.
तभी बॅंड बाजे की आवाज़ आती सुनाई दी और इसी के साथ वहाँ खड़े सभी लोगों के बीच हलचल बढ़ गयी, स्नेहा के कोई अपने भाई बहन तो थे नही इसलिए उसके रिश्तेदारों ने ही सारा बोझ संभाला हुआ था.
जैसे जैसे बारात नज़दीक आती जा रही थी वैसे वैसे दरवाज़े पर शोर बढ़ता जा रहा था..
तभी स्नेहा अपनी सहेलियों के साथ बाल्कनी मे आकर खड़ी हो गयी.. और बारातियों के बीच राज को ढूँढने लगी मगर इस काम मे उसे देर ना लगी क्यूंकी राज बीच मे ही घोड़ी पर बैठा हुआ आ रहा था.
तभी राज ने अपना सर उठा कर ऊपर की तरफ देखा. स्नेहा को देखते ही उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा.. अब मैं इस कहानी मे और क्या बताऊ दोस्तों.. पहले ही स्नेहा के बारे मे कितना कुछ बता चुका हूँ अब वो पूरे मेकप और गहनो मे कैसी लग रही होगी ये कल्पना आपलोग खुद कर लो..
राज की हालत खराब हो गयी और पॅंट मे उसका लंड ज़ोर मारने लगा.. उसने कैसे भी अपने पप्पू को समझाया कि देख बेटा.. अभी बैठ जा वैसे भी ये माल अब तेरी ही होगी..
स्नेहा भी राज को देख कर उसकी तारीफ़ किए बिना ना रह सकी.. कितनी मासूमियत थी उसके चेहरे पर.. मगर कुछ महीनो से रवि के साथ ना होने के कारण बहुत उदास रहता था वो.. उन दोनो मे बहुत बार इस बारे मे बात भी हुई थी मगर स्नेहा ने हर बार राज को ये कहकर समझा दिया कि रवि कभी ना कभी वापस ज़रूर आ जाएगा.. मगर कोई नही जानता था कि रवि और रिया कहाँ थे और किस हालत मे थे.. मर गये थे या ज़िंदा थे..
खैर जो भी हो, बाराती नाचते गाते दरवाज़े पर पहुँच गयी. सारे रिश्तेदारों ने लड़के वालों का धूम धाम से स्वागत किया और सारे रसम निभाने के बाद लड़के को अंदर ले आए.. लड़के के पीछे सभी बाराती भी अंदर चले आए..
हर तरफ ख़ुसीया ही ख़ुसीया थी मगर राज के दिमाग़ से अब भी रवि का ख़याल निकल ही नही रहा था...
क्रमशः........................
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