RE: Post Full Story प्यार हो तो ऐसा
“मैं क्या करूँ मदन… मैं पहले कभी घर से ऐसे बाहर नही रही. आज इस तरह जंगल में रात बितानी पड़ेगी मैने सोचा भी नही था” --- वर्षा ने कहा
“मुझे दुख है वर्षा कि तुम्हे मेरे कारण इतना कुछ सहना पड़ रहा है. दिन होने दो, मुझे यकीन है यहा से निकलने का कोई ना कोई रास्ता मिल ही जाएगा”
“रास्ता मिल भी गया तो भी हम कहा जाएँगे मदन ?”
“मेरे चाचा के गाँव चलेंगे… बस यहा से निकलने की देर है.. आयेज मैं सब कुछ संभाल लूँगा” मदन ने कहा
“ठीक है… मैं तुम्हारे साथ हूँ.. अब घर वापिस नही जा सकती. अब तक तो घर में तूफान आ गया होगा”
“हाँ… वो तो है… मेरे घर पर भी सभी परेशान होंगे”
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जंगल में ही एक दूसरी जगह एक गुफा के बाहर का दृश्या
“किशोर क्या इसमे जाना ठीक होगा ?”
“हां-हाँ ये गुफा खाली लगती है.. देखो मैने अंदर पथर फेंका था.. कोई जानवर होता तो कोई हलचल ज़रूर होती… वैसे भी हम रात में ज़्यादा देर ऐसे भटकते नही रह सकते.. बहुत खुन्कार जानवर हैं यहा.. हमे यहीं रुकना होगा” --- किशोर ने कहा
“ठीक है.. चलो” रूपा ने कहा
“रूको पहले गुफा के द्वार को बंद करने का इंतज़ाम कर दूं.. ताकि कोई ख़तरा ना रहे”
“ये पथर कैसा है किशोरे” --- रूपा जीश पठार पर हाथ रख कर खड़ी थी उसके बारे में कहती है
“अरे शायद ये इशी गुफा का है.. इशे ही यहा लगा देता हूँ”
किशोर उस पठार को लुड़का कर गुफा के द्वार तक लाता है और रूपा से कहता है, “चलो अंदर, मैं अंदर से इशे यहा द्वार पर सटा दूँगा. फिर किसी जानवर का डर नही रहेगा”
रूपा अंदर चली जाती है और किशोर द्वार पर पठार लगा कर पूछता है, “अब ठीक है ना”
“क्या ठीक है.. इतना अंधेरा है यहा.. बाहर कम से कम चाँद की चाँदनी तो थी”
“अब जंगल में इस से बढ़िया बसेरा मिलना मुस्किल है… लगता है यहा ज़रूर कोई आदमी रहता होगा, वरना ये पठार वाहा बाहर कैसे आता. बिल्कुल गुफा के द्वार के लिए बना लगता है ये पठार”
“किशोर घर में सब परेशान होंगे”
“वो तो है.. तुम चिंता मत करो.. कल हम हर हालत में गाँव वापिस पहुँच जाएँगे”
“मुझे नही पता था कि.. ये इतना बड़ा जंगल है” – रूपा ने कहा
“मुझे भी कहा पता था… ना मदन के खेत में जाते .. ना यहा फँसते”
“पर किशोर… वो खेत में क्या था ?”
“क्या पता.. मैने बस एक ही नज़र देखा था… मेरे तो रोंगटे खड़े हो गये थे… चल छ्चोड़ इन बातो को.. आ अपना अधूरा काम पूरा करते हैं”
“कौन सा अधूरा काम ?”
“अरे भूल गयी… मैं बस तुम में समाया ही था कि उस मनहूस चीन्ख ने सब काम खराब कर दिया”
“पागल हो गये हो क्या.. मुझे यहा डर लग रहा है और तुम्हे अपने काम की पड़ी है”
“रूपा रोज-रोज हम जंगल में थोडा ऐसे आएँगे. आओ ना इस वक्त को यादगार बना देते हैं”
“तुम सच में पागल हो गये हो ?”
“हां… शायद ये उस बेल का असर है जो हमने खाई थी… आओ ना वो काम पूरा करते हैं”
ये कह कर किशोर.. रूपा को बाहों में भर लेता है.
“आहह… किशोर ऐसी जगह भी क्या कोई ये सब कर सकता है ?”
“हम कर तो रहे हैं.. हहे”
किशोर रूपा के उभारो को थाम कर उन्हे मसल्ने लगता है.. और रूपा चुपचाप बैठी रहती है.
“इन फूलों को बाहर निकालो ना… अब हमारे पास पूरी रात है, और तन्हाई है… यहा किस बात का डर है” --- किशोर रूपा के उभारो को मसल्ते हुवे कहता है
“किशोर… आअहह तुम नही समझोगे… ये वक्त इन सब बातो का नही है”
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