kamukta kahani शादी सुहागरात और हनीमून
08-17-2018, 02:44 PM,
#85
RE: kamukta kahani शादी सुहागरात और हनीमून
मेरा तो मन खराब हो गया इन कविताओ को पढ़ के और मेने कई पन्ने पलट दिए. अब नितंबो का वर्णन था, "काम देव के उल्टे मृदंग, भारी घने नितंब. "कई इंग्लीश मे भी थी.

पुश अगेन्स्ट माइ हंग्री माउथ ,

ऐज दा टिप ऑफ माइ टंग स्लाइड्स अप दा स्लिपरी फरो ,

दट वेल्कम्स मे बिट्वीन रौज़ ऑफ डेलिकेट पिंक पेटल्स ,

थ्रस्ट अगेन्स्ट माइ गेनरस टंग.


वो बोले. पन्ने पीछे पलटो, 'वो' तो तुमने छोड़ ही दिया जिसके बारे मे पूच्छ रही थी. और वास्तव मे नितंब के पहले, नाभि के बाद थी वो, रस कूप, मदन स्थान"

करती रहोगी तुम नही नही,

शरमाती, इतलाती और बल पूर्वक खोल दूँगा

मैं हटा के लाज के सारे पहरे, पर्दे,

छिपी रहती होगी जो किरानो से भी. रस कूप,

गुलाबी पंखुड़ियो से बंद असाव का वो प्याला",


पढ़ते पढ़ते मेरी आँखे मस्ती से मुन्दि जा रही थी. मैं सोच भी नही सकती थी शब्द भी इतने रसीले हो सकते है. मैं वहाँ भी गीली हो रही थी, मेरे रस कूप एक बार फिर रस से छलक रहे थे. और जहाँ तक उनकी हालत थी, मुझे तो लगने लगा था कि कब तक मैं उनके पास रहती थी, उनका तो 'वो' खड़ा ही रहता था. मेने उनसे कहा कि, आप मेरे बारे मे आप बोलो मैं आपके मूह से सुनना चाहती हू. उन्होने डायरी के पन्ने खोले तो शरारत से मेने उसे बंद कर दिया और बोली ऐसे थोड़ी, तुरंत बना के कवि ऐसे जो भी आप के मन मे आए. तभी मुझे ध्यान आया, पढ़ने के बहाने उन्होने लाइट जला दी थी, और निर्वासना मैं, मेरा सब कुछ. शरमा के मेने उनकी आँखे अपनी हथेली बंद कर दी. वो बोले, अरे देखुगा तो नही बोलूँगा कैसे. मेने उनका हाथ अपने सीने पे रख के कहा, उंगलियो से देख के. फिर मेने कहा, मुझे अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है और वो भी आपके मूह से. वो बोलने लगे,


"तेरे ये मदभरे, मतवाले, रस कलश, किशोर यौवन के उभार, रूप के शिखर,

'डज़ ऑफ जॉय', जवानी की जुन्हाई से नहाए जोबन, प्यासे है मेरे अधर,

इनेका रस पाने को, छू लेने को चख लेने को. चख लेने को सुधा रस"


और मेरी आँखे भी मस्ती मे बंद हो गयी. मेने खुद उनके प्यासे अधरो को खींच के अपने जोबन के उभारो पे लगा दिया. और अब उनकी उंगलिया भी सरक के और नीचेसीधे मेरे रस कूप पे और वो बोले जा रहे थे,

"तेरे ये भीगे गुलाबी प्रेम के स्वाद को चखने को बैचेन होंठ, थरथराते, लजाते,

ये गुलाबी पंखुड़िया किशोरखिलाने को बैठी ये कली ( उनकी उंगलिया अब मेरे भागोश्ठो का फैला के अंदर घुस चुकी थी),

ये सन्करि प्रेम गली, मेरे चुंबनो के स्वाद से सजी रस से पगी,

स्वागत करने को बैठी, भींच लेने को, कस लेने को, सिकोड लेने को

अपनी बाहो मे मेरे मिलन को उत्सुक बेचैन उत्थित काम दंड. "


हम दोनो रस से पेज बैठी हो रहे थे. मेरी आँखो के सामने शाम को पढ़ी वो किताब उनके 'काम रस' से सने वो पन्ने याद आ रहे थे जिसमे पति और पत्नी पहले मिलन मे ही कितने खुले कारनामे उनके कान मे फुसफुसा कर कहा,

". . . दंड या"वो हंस के धीरे से बोले,

"लंड घुसाने को तुम्हारी कसी किशोर चूत मेओर उसके साथ ही बाँध टूट गया.

मेरी जांघे अपने आप ही फैल गयी और कवि ने उन जाँघो के बीच प्रतीक्षारत मेरी योनि मे एक झटक मे ही पेल दिया. उनका एक पैर फर्श पे था और दूसरा सोफे पे,

मेरी फैली हुई गोरी गोरी किशोर जाँघो के बीच, मेरे रसीले जोबन को पकड़ केउन्होने कस के ऐसे धक्के मारे की मैं चीख पड़ी. मेरे मस्त रस से भरे उभारो को पकड़ के रगड़ते मसलते, वो बोले "तेरी इन मस्त मस्त"

"हाँ हाँ मेरे बलम मेरे साजन बोलो ना, मेरी मस्त मस्त क्या"उनको कस के अपनी बाहो मे जाकड़ के मैं बोली,

"तेरी ये मस्त मस्त चूचु.. चुचिया, मन करता है कस के मसल दू, दबा दू. "


"हाँ राजा हाँ मेरे साजन मसल दो मसल दो कस के, ये बैठी है तेरे लिए"

"जब मैं इन्हे देखता था ना तुम्हारे टाप के अंदर, उभरे ये उभार, ब्लाउस के अंदर मचलते, मुश्किल से रोक पाता था मैं, मन करता था बस छू लू,. . ओह ओह मसलने दो, रगड़ने दो, ये रस से भरे जोबन, ये रसीली चुचिया"

"तो ले लो ना ये तेरे ही तो है, रगड़ दो मसल दो, चूम लो चूस लो"


तभी उन्होने मेरी निगाह थोड़ी मोडी. पास मे ही एक बड़ा सा मिरर था और उसमे सोफे पे जो हो रहा था वो सब कुछ दिख रहा था. जिस तरह से वो मेरे चुचिया मसल रहे थे, मेरे निपल चूस रहे थे और फिर जब मेरी निगाह नीचे की ओर गयी तो मेने शरमा के आँखे बंद कर ली और उन्होने मेरे जोबन पे कस के कचक से काट लिया, और मेरी आँख खुल गयी. और मैं फिर देखने लगी नीचे,


क्रमशः……………………….
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