RE: kamukta kahani शादी सुहागरात और हनीमून
लेकिन बताइए शादी के पहले कितना याद किया. वो पास मे आ के बैठ गये और डायरी का सितम्बर का एक पन्ना खोला और उस पे हाथ रख के हंस के पूछा ये डेट याद है ना. वो डेटमैन अपनी बर्थ डेट भूल सकती हू वो डेट कैसे भूल सकती हू. ये वो दिन था जब मैं 'उनसे' सबसे पहले मसूरी मे मिली थी. एक दम खुश हो के मैं बोली हाँ और उन्होने हाथ हटाया मेरी फोटो.. जो उन्होने खींची थी. और उसके बाद हर पेज पे कुछ ने कुछ.. ढेर सारी कविताए और कयि पे मेरी फोटौ भी. वो बोले रोज तुम्हारी बेइंतहा याद आती थी, बस इसी लिए.. हर रोज तुम मेरे ख्यालो मे होती थी और तुमसे बतियाते जो कुछ मैं लिख लेता था, बस वो यहा टांक लेता था. मेने पन्ने पलते एक दिन भी नागा नही गया. रोमांच से मेरे रोगते खड़े हो गये. कोई मुझे इतना चाह सकता है, मेने सोचा भी नही था. मेरी आँखो मे पानी भर आया. मिलने के अगले दिन का पन्ना और उस पर एक कविता थी "तुम". वो बोला, उस दिन तुम लोगो को देहरादून मे छोड़ के आया तो रात भर नींद नही आई. उसी दिन लिखा था. मैं पढ़ने लगी,
मधुर मधुर तुम ,
मधुरिम मन के ,
आलंबन .
मेरे जीवन के तृप्त तुम्हे ,
देख होते है, त्रिशित नेयन ,
मन उपवन के.
रूप तुम्हारा, निर्मित करता ,
नित नूतन ,
चित्र सृजन के ,
तुम ही तो हो इस मधुबन मे ,
केंद्र बिंदु ,
नव आकर्षण के.
मैं तो एक दम सिहर गयी. मैं सोच भी नही सकती थी कि कोई इस तरह वो भी मेरे बारे मे सोचता होगा. कविता लिखने की बात तो दूर. मेने लाड से उसके घुंघराले बाल बिगाड़ दिए और बोली, बावारे तुम एक दम पागल हो.
और उस के बाद ढेर सारी कवितए मेरे बारे मे हाशिए मे लिखा मेरा नेम. और कुछ कविताओ के बाद एक सीरिस थी, केश, आँखे, अधर वो बोला रोज तुम मुझे सपने मे आ के तंग करती थी. इसलिए जैसा तुम दिखती थी, नेक **** वर्णें, सारे अंगो के. मैं प्यार से लताड़ के बोली, केसरे अंगो के वो हंस के बोला. हाँ पढ़ो तो सारे अंगो के.
मुझसे क्या छुपाव, दुराव. मेने पढ़ना शुरू किया. पहली कविता थी "केश"
उन्मुक्त कर दो केश,
मत बांधो इन्हे.
ये भ्रमर से डोलाते ,
मुख पर तुम्हारे,
चाँद की जैसे नज़र कोई उतारे.
दे रहे संदेश,
मत बांधो इन्हे.
खा रहे है खम दमकते भाल पे ,
छोड़ दो इनको ,
इन्ही के हाल पे ,
दे रहे आदेश ,
मत बांधो इन्हे.
और उसके बाद आँखो और फिर होंठो और उसके साथ साथ वो और ज़्यादा रसिक होते जा रहे थे. "मीन सी, कानो से बाते करती, आँखे, ढीठ डित, लज़ाई सकूचाई, मेरे सपने जहाँ जाके पल भर चुंबनो के स्वादों से लदी थकि पलके, कतर सी तिरछी भौंहे, और सुधा के सदन, मधुर रस मयि अधर, प्रतीक्ष्हरत मेरे अधर जीनेके स्वाद के स्नेह केलेकिन सबसे ज़्यादा कविताए जिन पे थी वे थे मेरेउरोज. पूरी 7 और एक से एक और सिर्फ़ उन पर ही नही मेरे निपल्स के बारे मे, उसके आस पास के रंग के बारे मे "
ये तेरे यौवन के रस कलश,
ये किशोर उभार,
खोल दो घाट पी लेने दो
मेरे अतृप्त नेयन, प्यासे आधार""व्याकुल है
मेरे कर युगल पाने को,
पागल है मेरा मन, ये ये आनंद शिखर,
उन पे शोभित कलश,
तनवी तेरी देह लता के ये फल चखने को"
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