RE: Hindi Sex Kahaniya काँच की हवेली
अपडेट 20
जीप को रुकते देख साया भी अपने स्थान पर खड़ा हो गया. निक्की उस साए को ध्यान से देखने लगी. अंधेरे में उस काले साए को वो पहचान तो नही पाई पर उसके कद काठी का वो अनुमान लगा चुकी थी.
उसकी हाइट 6 फीट के आस-पास थी. निक्की उसे ध्यान से देखती हुई बोली - "कौन हो तुम? सामने आओ"
साया आगे बढ़ा. और जीप के करीब पहुँचा. निक्की ने उसे ध्यान से देखा तो उसकी सूरत कुच्छ जानी पहचानी सी लगी. - "तुम कल्लू हो ना?"
"जी हां निकिता जी, मैं कल्लू ही हूँ." वो सर झुकाकर उदास स्वर में बोला.
कल्लू, गाओं का सबसे काला कलूटा बदसूरत हबशी जैसा दिखने वाला युवक था. वो दिखने में जितना बदसूरत था, अंदर से उतना ही खूबसूरत था. वो मुखिया के खेतों में काम कर अपना और अपनी बूढ़ी मा का पेट भरता था.
वो जब 6 साल का था तभी उसके पिता का देहांत हो गया था. उसके पिता खेती के नाम पर थोड़ी सी ज़मीन छोड़ गये थे. जिसे बाद में उसकी मा ने खुद को और कल्लू को ज़िंदा रखने के लिए कब का बेच चुकी थी. अब उसके पास एक छोटा सा मिट्टी का झोपड़ा के अतिरिक्त कुच्छ भी ना था.
बचपन से लेकर जवानी तक कल्लू ने सिर्फ़ दुख ही देखे थे. अपनी बदसूरत चेहरे की वजह से वो बालपन से ही गाओं के दूसरों बचों से अपमानित होता आया था. बचपन में वो जिसकी तरफ भी दोस्ती के लिए हाथ बढ़ता वो घृणा से अपना हाथ पीछे खींच लेता. वो एक ऐसा अकेला पक्षी था कि जिस डाल पर बैठता सभी उसे तन्हा छ्चोड़कर उड़ जाते.
किशोर अवश्था में पहुँचने के बाद उसके दुख और बढ़ गये. गाओं में किसी भी लड़के को हंस के किसी लड़की के साथ बात करते देखता या किसी को किसी लड़की के साथ अकेले घूमते देखता तो उसकी आत्मा सिसका उठती. हर लड़के की तरह उसका भी मन करता कि कोई उसे भी प्यार करे, कहीं दूर खेत खलिहानो में कोई उसका भी इंतेज़ार करे. कभी वो भी किसी लड़की के साथ किसी झरने के निकट बैठकर उसके ज़ुल्फो से खेले. कोई उसके लिए भी रूठे और वो मनाए. पर उसके तक़दीर में ये सब नही था.
गाओं की सभी लड़कियाँ उससे दूर भागती थी. कोई भी लड़की उससे प्रेम करना तो दूर सीधे मूह उससे बात तक नही करती थी. भला कौन लड़की उस बदसूरत से दिल लगाती, हर लड़की की चाह होती है कि उसका होने वाला पति खूबसूरत हो, पढ़ा लिखा हो, उँचे कुल का और धनवान हो.
लेकिन उसके पास इनमें से कुच्छ भी नही था. ना तो उसके पास वो रूप जिसपे कोई कुँवारी मरती, और ना ही वो पढ़ा लिखा और धनवान था.
लेकिन गाओं की उन लड़कियों के बीच एक ऐसी भी लड़की थी, जिसे कल्लू बहुत पसंद करता था. वो थी कंचन.
पूरे गाओं में वही एक ऐसी लड़की थी जो कल्लू से हंस के बात करती थी, कभी उससे मूह नही चुराती थी. जब कभी वो मिल जाता तो उससे प्यार से हाल-चाल पुछ लेती थी.
कंचन की यही अच्छाई कल्लू को भा गयी थी और वो मन ही मन कंचन से प्यार करने लगा था. लेकिन वो अपने दिल की बात कभी कंचन से कह नही पाया. बस दूर से देखकर अपने दिल की प्यास बुझा लेता.
वो ये अच्छी तरह से जानता था, कि चाँद और चकोर का मिलन ना कभी हुआ है ना कभी होगा.
कंचन ग़रीब ही सही पर उससे लाख गुना अच्छी थी, वो सुंदर थी, पढ़ी लिखी थी. उसका और कंचन का कोई मेल नही था. उसे डर था की अगर उसने कंचन से अपने दिल की बात कही तो कहीं ऐसा ना हो कि वो बुरा मान जाए. और जो वो बुरा मान गयी तो फिर कभी उससे बात नही करेगी. जो अभी थोड़ी बहुत उससे बात चीत होती है कहीं वो भी ना बंद हो जाए...
वो कंचन को पाने से कहीं ज़्यादा खोने से डरता था. उसकी एक ग़लती उसे कंचन से सदा सदा के लिए दूर ना कर दे, यही सोचकर उसने अपने दिल में मचलती भावनाओ को कभी अपने होंठो तक आने नही दिया था.
वो दिन भर जानवरों की तरह खेतों में मेहनत करता और रात में कंचन को अपने ख्यालो में बसाकर अपने प्यासे मन को तृप्त करने का प्रयास करता. पर तन्हाई में कंचन की याद उसके प्यासे मन की प्यास को और बढ़ा देती. दर्द जब हद से बढ़ जाता तो बच्चो की तरह फुट फुट कर रो पड़ता. पर अपने दिल का दर्द किसी को नही बताता.
उसके इस दर्द को उसके सिवा कोई नही जानता था. किसी को उस अभागे इंसान से सरोकार हो भी कैसे सकता था.
उसके अकेलेपन के दर्द से अगर कोई परिचीत था तो सिर्फ़ उसकी मा थी. वो जब कभी कल्लू को उदास देखती तो उसे अपनी ममता के आँचल में लेकर उसे बहलाती. वो बदसूरत ही सही पर उस मा के दिल का टुकड़ा था. उसका सहारा था. लेकिन उसकी मा को भी इस बात की हरदम चिंता रहती थी कि उसके ग़रीब बदसूरत बेटे को कौन अपनी बेटी देगा? क्या उसका बेटा हमेशा अकेला ही रहेगा?
लेकिन वो अपनी चिंता कल्लू पर प्रकट नही करती.
दोनो मा बेटे जब भी एक दूसरे के सामने होते एक दूसरे से अपने अपने दुख छुपाकर एक दूसरे पर अपना प्यार लुटाते.
इस वक़्त वो सुगना के घर जा रहा था, बुखार से उसका बदन तप रहा था, और सर्दी से बदन थर-थर काँप रहा था. सर्दी से बचने के लिए उसने अपने बदन पर एक फटा पुराना शॉल ओढ़ रखा था. बुखार इतना तेज़ था कि उससे चला भी नही जा रहा था, पर सुगना के बुलावे पे वो इस हालत में भी मिलने जा रहा था.
बस्ती में दो लोग ऐसे थे जिनका कहा कल्लू कभी नही ठुकराता था. एक तो मुखिया धनपत राई, जो उसे मज़दूरी देता था. तो दूसरा सुगना, सुगना की बात वो इसलिए नही टालता था क्योंकि वो कंचन का पिता था.
आज जब सुगना ने उसे बुलाया तो ऐसी दशा में भी उसके घर जाने के लिए निकल पड़ा था.
उसका घर बस्ती के आखरी छ्होर पर था., अभी वो अपने घर से निकल कर सड़क तक पहुँचा भी नही था कि जीप के रुकने की आवाज़ से उसके बढ़ते कदम रुक गये थे. फिर निक्की के आवाज़ देने पर उसकी जीप के निकट जाकर खड़ा हो गया था.
"उफ्फ....तुमने तो मुझे डरा ही दिया था." निक्की लंबी साँस छोड़कर बोली - "ऐसा रूप धारकर कहाँ जा रहे हो?"
"जी....सुगना काका के घर जा रहा हूँ. उन्होने किसी काम से बुलाया है."
"ओह्ह्ह.....इस तरह शॉल ओढकर क्यों जा रहे हो?"
"मुझे थोड़ा बुखार है जी." कल्लू शॉल को संभालते हुए बोला - "ईसलिए शॉल ओढ़े रखा हूँ."
"तो आओ मेरी जीप में बैठ जाओ, मैं भी कंचन के घर ही जा रही हूँ." निक्की बोली और उसे सीट पर बैठने का इशारा किया.
"मैं ऐसे ही चला जाउन्गा निक्की जी. आप कष्ट ना करो"
"अरे...जब मैं उधर ही जा रही हूँ तो मेरे साथ चलने में क्या परेशानी है." निक्की भड़की. उसे कोई इनकार करे तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता था. वो आगे बोली - "चुपचाप मेरे साथ गाड़ी में बैठो."
कल्लू इस बार इंकार नही कर सका. आगे बढ़कर जीप में उसके बराबर बैठ गया. आज उसने जीवन में पहली बार किसी चार पहिए वाली गाड़ी पर बैठा था.
निक्की ने उसके जीप में बैठते ही जीप को आगे बढ़ा दी.
कुच्छ ही देर बाद जीप कंचन के घर के सामने जाकर रुकी. पहले निक्की उतरी और आँगन के दरवाज़े को धकेल कर अंदर दाखिल हो गयी. कल्लू भी उसके पिछे पिछे आँगन में आया.
आँगन में शांता बुआ रोटी पका रही थी. पास की चारपाई पर सुगना बैठा हुक्का पी रहा था.
निक्की को देखते ही बुआ हैरत से भरकर सुगना से बोली - "भैया देखो तो सही कोई लड़की आई है."
शांता की बात सुनते ही सुगना ने दरवाज़े की तरफ गर्दन घुमाया. निक्की मुस्कुराती हुई उसकी ओर चली आ रही थी. उसपर नज़र पड़ते ही सुगना बोला - "अरे शांता ये तो निक्की है, क्या तुम इसे नही पहचान पाई?"
शांता ने आश्चर्य से सुगना को देखा. फिर अपनी निगाहें निक्की पर जमा दी. वो कुच्छ बोलती उससे पहले निक्की उनके करीब आकर बोली - "नमस्ते काका. नमस्ते बुआ." उसने हाथ जोड़कर दोनो को बारी बारी से नमस्ते किया. फिर झुक कर सुगना के पावं च्छू लिए.
"कितनी बड़ी हो गयी है तू निक्की." बुआ आश्चर्य से बोली - "कितनी छोटी थी जब तू यहाँ आई थी."
निक्की बुआ की बातों से मुस्कुरा उठी. - "कंचन कहाँ है बुआ?"
"दीदी यहाँ है." चिंटू की आवाज़ से निक्की की गर्दन घूमी, बरामदे में उसे चिंटू और कंचन खड़े दिखाई दिए. वे दोनो निक्की की आवाज़ सुनकर बाहर निकले थे.
निक्की को देखते ही कंचन उसकी ओर लपकी. फिर उसका हाथ पकड़कर बोली - "आज मेरे घर का रास्ता कैसे भूल गयी?"
"आ गयी, अकेले मेरा जी नही लग रहा था. सोचा तुमसे मिल आऊ" निक्की ने उत्तर दिया.
"दीदी मेरे लिए क्या लाई हो शहर से?" चिंटू निक्की की कुरती खींचता हुआ बोला.
निक्की उसे बताने लगी. निक्की के आने से सब के सब उसी के संग रंग गये थे. पास ही थोड़ा हट के बुखार से थर थर कांपता कल्लू खड़ा था पर उसकी ओर किसी का ध्यान नही जा रहा था.
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