RE: Nangi Sex Kahani जवानी की दहलीज
जवानी की दहलीज-2
मुझे मज़ा आ रहा था पर मैं भोली बनी रही। मैंने अपनी कलाई अपनी आँखों पर रख ली और आँखें मूंदकर अपने चेहरे को छुपाने का प्रयत्न करने लगी।
"एक मिनट सरोज !" कहकर उसने अपना हाथ मेरे घुटने से हटाया और वह पीछे हुआ। उसने पीछे खिसक कर मेरे तलवे का संपर्क अपने भुजंग से अलग किया। उफ़... मुझे लगा शायद ये जा रहा है... मैंने चोरी निगाह से देखा तो भोंपू अपना हाथ अपनी पैन्ट में डाल कर अपने लिंग को व्यवस्थित कर रहा था... उसने लिंग का मुँह नीचे की तरफ से उठाकर ऊपर की तरफ कर दिया। मुझे लगा उसे ऐसा करने से आराम मिला। फिर वह पहले की तरह आगे खिसक कर बैठ गया और मेरे तलवे का संपर्क दोबारा अपने अर्ध-उत्तेजित लिंग से करा दिया। मुझे जो डर था कि वह चला जायेगा अब दूर हुआ और मैंने अंदर ही अंदर एक ठंडी सांस ली।
अब भोंपू ने मेरे घुटने की तरफ से ध्यान हटा लिया था और उसकी उँगलियाँ घुटने के पीछे वाले मुलायम हिस्से और घुटने से थोड़ा ऊपर और नीचे चलने लगी थीं। मुझे भी अपनी मोच और घुटने का दर्द काफूर होता लगने लगा था। उसकी मरदानी उँगलियों का अपनी टांग पर नाच मुझे मज़ा देने लगा था। मेरे मन में एक अजीब सी अनुभूति उत्पन्न हो रही थी। मुझे लगा मुझे सुसू आ रहा है और मैंने उसको रोकने के यत्न में अपनी जांघें जकड़ लीं।
तभी अनायास मुझे महसूस हुआ कि भोंपू का दूसरा हाथ मेरी दूसरी टांग पर भी चलने लगा है। उसके दोनों हाथ मेरी पिंडलियों को मल रहे थे... कभी हथेलियों से गूंदते तो कभी उँगलियों से गुदगुदाते। मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी।
उधर भोंपू ने अपने कोल्हू को थोड़ा और आगे कर दिया था जिससे मेरे तलवे का उसके लिंग पर दबाव और बढ़ गया था। अब मैं अपने तलवे के स्पर्श से उसके लिंग के आकार का भली-भांति अहसास कर सकती थी। मुझे लगा वह पहले से बड़ा हो गया है और उसका रुख मेरे तलवे की तरफ हो गया था। मेरे तलवे के कोमल हिस्से पर उसके लिंग का सिरा बेशर्मी से लग रहा था।
अचानक भोंपू ने अपने कूल्हों को थोड़ा और आगे की ओर खिसकाया और अपने दोनों हाथ मेरे घुटनों के ऊपर... निचली जाँघों तक चलाने लगा। मेरा तलवा अब उसके लिंग को मसलने लगा था। मेरा दायाँ पांव अपने आप दायें-बाएं और ऊपर-नीचे होकर उसके लिंग को अच्छी तरह से से छूने लगा था। मेरे तन-बदन में चिंगारियाँ फूटने लगीं। मुझे लगा अब मैं सुसू रोक नहीं पाऊँगी। उधर भोंपू की उँगलियाँ अब बहुत बहादुर हो गई थीं और अब वे अंदरूनी जाँघों तक जाने लगी थीं। मेरी साँसें तेज़ होने लगी... मुझे ज़ोरों का सुसू आ रहा था पर मैं अभी जाना नहीं चाहती थी... बहुत मज़ा आ रहा था।
भोंपू अब बेहिचक आगे-पीछे होते हुए अपने हाथ मेरी जाँघों पर चला रहा था... मेरा पैर उसके लिंग का नाप-तोल कर रहा था। अचानक भोंपू थोड़ा ज्यादा ही आगे की ओर हुआ और उसके दोनों अंगूठे हल्के से मेरी योनि द्वार से पल भर के लिए छू गए। मुझे ऐसा करंट जीवन में पहले कभी नहीं लगा था... मैं उचक गई और मुझे लगा मेरा सुसू निकल गया है। मैंने अपनी टांगें हिला कर भोंपू के हाथों को वहाँ से हटाया और अपने दोनों हाथ अपनी योनि पर रख दिए। मेरी योनि गीली हो गई थी। मुझे ग्लानि हुई कि मेरा सुसू निकल गया है पर फिर अहसास हुआ कि ये सुसू नहीं मेरा योनि-रस था। मुझे बहुत लज्जा आ रही थी।
उधर भोंपू ने अपने हाथ मेरे जाँघों से हटा लिए थे और अब उसने अपने हाथ अपने कूल्हों के बराबर बिस्तर पर रख लिए और उनके सहारे अपने कूल्हों को हल्का हल्का आगे-पीछे कर रहा था। वह मेरे दायें तलवे से अपने लिंग को मसलने की कोशिश कर रहा था। मुझे मज़े से ज़्यादा लज्जा आ रही थी सो मैंने अपना पांव अपनी तरफ थोड़ा खींच लिया।
पर भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया.
भोंपू को कुछ हो गया था... उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी... उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया...
भोंपू के अचानक भागने की आवाज़ सुनकर शीलू और गुंटू दोनों कमरे में आ गए,"क्या हुआ दीदी? सब ठीक तो है?"
"हाँ... हाँ सब ठीक है।"
"मास्टरजी कहाँ गए?"
"बाथरूम गए हैं... तुमने सवाल कर लिए?"
"नहीं... एक-दो बचे हैं !"
"तो उनको कर लो... फिर खाना खाएँगे... ठीक है?"
"ठीक है।" कहकर वे दोनों चले गए।
भोंपू तभी गुसलखाने से वापस आया। उसका चेहरा चमक रहा था और उसकी चाल में स्फूर्ति थी। उसने मेरी तरफ प्यार से देखा पर मैं उससे नज़र नहीं मिला सकी।
"अब दर्द कैसा है?" उसने मासूमियत से पूछा।
"पहले से कम है...अब मैं ठीक हूँ।"
"नहीं... तुम ठीक नहीं हो... अभी तुम्हें ठीक होने में 2-4 दिन लगेंगे... पर चिंता मत करो... मैं हूँ ना !!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
"नहीं... अब बहुत आराम है... मैं कर लूंगी..." मैंने मायूस हो कर कहा।
"तो क्या तुम्हें मेरा इलाज पसंद नहीं आया?" भोंपू ने नाटकीय अंदाज़ में पूछा।
"ऐसा नहीं है... तुम्हें तकलीफ़ होगी... और फिर चोट इतनी भी नहीं है।"
"तकलीफ़ कैसी... मुझे तो मज़ा आया... बल्कि यूँ कहो कि बहुत मज़ा आया... तुम्हें नहीं आया?" उसने मेरी आँखों में आँखें डालते हुए मेरा मन टटोला।
मैंने सर हिला कर हामी भर दी। भोंपू की बांछें खिल गईं और वह मुझे प्यार भरे अंदाज़ से देखने लगा। तभी दोनों बच्चे आ गए और भोंपू की तरफ देखकर कहने लगे,"हमने सब सवाल कर लिए... आप देख लो।"
"शाबाश ! चलो देखते हैं तुम दोनों ने कैसा किया है... और हाँ, तुम्हारी दीदी की हालत ठीक नहीं है... उसको ज़्यादा काम मत करने देना... मैं बाहर से खाने का इंतजाम कर दूंगा... अपनी दीदी को आराम करने देना... ठीक है?" कहता हुआ वह दोनों को ले जाने लगा।जाते जाते उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा और एक हल्की सी आँख मार दी।
"ठीक है।" दोनों ने एक साथ कहा।
"तो क्या हमें चिकन खाने को मिलेगा?" गुंटू ने अपना नटखटपना दिखाया।
"क्यों नहीं !" भोंपू ने जोश के साथ कहा और शीलू की तरफ देखकर पूछा,"और हमारी शीलू रानी को क्या पसंद है?"
"रस मलाई !" शीलू ने कंधे उचका कर और मुँह में पानी भरते हुए कहा।
"ठीक है... बटर-चिकन और रस-मलाई... और तुम क्या खाओगी?" उसने मुझसे पूछा।
"जो तुम ठीक समझो !"
"तो ठीक है... अगले 2-4 दिन... जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती तुम आराम करोगी... खाना मैं लाऊँगा और तुम्हारे लिए पट्टी भी !"
"जी !"
"अगर तुमने अपना ध्यान नहीं रखा तो हमेशा के लिए लंगड़ी हो जाओगी... समझी?" उसने मेरी तरफ आँख मारकर कहा।
"जी... समझी।" मैंने मुस्कुरा कर कहा।
"ठीक है... तो अब मैं चलता हूँ... कल मिलते हैं..." कहकर भोंपू चला गया।
मेरे तन-मन में नई कशिश सी चल रही थी, रह रह कर मुझे भोंपू के हाथ और उँगलियों का स्पर्श याद आ रहा था... कितना सुखमय अहसास था। मैंने अपने दाहिने तलवे पर हाथ फिराया और सोचा वह कितना खुश-किस्मत है... ना जाने क्यों मेरा हाथ उस तलवे से ईर्ष्या कर रहा था। मेरे तन-मन में उत्सुकता जन्म ले रही थी जो भोंपू के जिस्म को देखना, छूना और महसूस करना चाहती थी। ऐसी कामना मेरे मन में पहले कभी नहीं हुई थी।
मैंने देखा मेरे पांव और घुटने का दर्द पहले से बहुत कम है और मैं चल-फिर सकती हूँ। पर फिर मुझे भोंपू की चेतावनी याद आ गई... मैं हमेशा के लिए लंगड़ी नहीं रहना चाहती थी। फिर सोचा... उसने मुझे आँख क्यों मारी थी? क्या वह मुझे कोई संकेत देना चाहता था? क्या उसे भी पता है मेरी चोट इतनी बड़ी नहीं है? ...क्या वह इस चोट के बहाने मेरे साथ समय बिताना चाहता है? सारी रात मैं इसी उधेड़-बुन में रही... ठीक से नींद भी नहीं आई।
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