RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
“मैं पहले ही तसदीक कर चुका हूं कि तुम होशियार आदमी हो । अभी इतने ही जवाब से तसल्ली करो । और अपनी बात मुकम्मल करो, रात खोटी हो रही है ।”
“बात तो मुकम्मल ही है अगर आप एकाध मामूली सवाल का सीधा सच्चा जवाब दे दें ।”
“किसी मामूली सवाल का जवाब देने से मुझे क्या एतराज होगा ?”
“परसों रात मिस्टर देवसरे के कॉटेज में आपने पीछे से मेरी खोपड़ी पर वार किया था ?”
“मैं पीठ पीछे वार नहीं करता ।”
“बवक्तेजरूरत भी नहीं ?”
“नहीं ।”
“बवक्तेजरूरत क्या करते हैं ?”
“पीठ पीछे से वार नहीं करता । खलास करता हूं ।”
“मुझे आप पर यकीन है, फिर भी पूछना, तसदीक करना, जरूरी समझा ।”
“यकीन क्योंकर है ?”
“मैंने रिजॉर्ट के परिसर में कदम रखते ही सलेटी रंग की फोर्ड आइकान को तेज रफ्तार से वहां से कूच करते देखा था । अगर वो कार आपकी थी और आप चला रहे थे तो बाद में आप मेरी खोपड़ी पर वार करने के लिये पीछे मिस्टर देवसरे के कॉटेज में मौजूद नहीं हो सकते थे ।”
“बढिया । बढिया ।”
“मेरा आगे सवाल ये है, जरा याद करके जवाब दीजिये आपकी यहां मौजदूगी में क्या टी.वी. चल रहा था ?”
“हां ।”
“क्या हां ?”
“चल रहा था ।”
“उस पर क्या आ रहा था ?”
“क्या आ रहा था ?”
“क्या टेलीकास्ट हो रहा था ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“आपने तवज्जो नहीं दी होगी । हो जाता है ऐसा । लेकिन एक बात बिना तवज्जो दिये भी तवज्जो में आ गयी हो सकती है ।”
“क्या ?”
“टेलीकास्ट हिन्दी में था या इंगलिश में ?”
“हिन्दी में ।”
“आप टी.वी. को चलता ही छोड़ कर यहां से रुख्सत हुए थे या आप उसे ऑफ करते गये थे ?”
“ओहो ! तो यूं मुझसे ये कहलवाना चाहते हो कि मैं वहां मौजूद था ।”
“जनाब, मौजूद तो आप थे । अब इतनी बात की हामी भरना...”
“एक आखिरी बात कह कर मैं फोन बन्द कर रहा हूं । कभी वकालत से उकता जाओ तो मेरे पास आ जाना । जिन्दगी बना दूंगा ।”
लाइन कट गयी ।
मुकेश ने भी रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया ।
रिंकी, जो नेत्र फैलाये सब सुन रही थी, बोली - “क्या किस्सा है ?”
“कोई किस्सा नहीं । कुछ सुना है तो भूल जाओ । इसी में तुम्हारी भलाई है ।”
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
“कम इन ।” - मुकेश उच्च स्वर में बोला ।
करनानी ने भीतर कदम रखा ।
रिंकी को देख कर वो ठिठका । फिर करीब आकर वो उसका कन्धा थपथपाने लगा ।
“मुझे पता चला ।” - वो चिन्तित भाव से बोला - “शुक्र है कि झूलेलाल ने मेहर की हमारी पुटड़ी पर । जान बच गयी ।”
रिंकी जबरन मुस्कराई ।
“अब क्या हो रहा है ?” - करनानी बोला ।
“इन्स्पेक्टर का इन्तजार ।” - मुकेश बोला ।
इन्स्पेक्टर अठवले वहां पहुंचा ।
उसके साथ सब-इन्स्पेक्टर सोनकर के अलावा अनन्त महाडिक और मीनू सावन्त भी थे ।
“मैं क्लब में इन लोगों के साथ था “ - इन्स्पेक्टर बोला - “जबकि सब-इन्सपेक्टर सोनकर का फोन आया । मेरी बात अभी मुकम्मल नहीं हुई थी इसलिये मैं इन लोगों को साथ ही यहां ले आया ।”
कोई कुछ न बोला ।
“अब बोलो क्या हुआ ?” - इन्स्पेक्टर बोला ।
“मैंने सब-इन्स्पेक्टर को बोला था ।” - मुकेश बोला ।
“बोला कुछ नहीं था, वारदात की महज खबर दी थी । मैं तफसील से सुनना चाहता हूं और ऐसा तुम कैसे कर सकते हो ? तुम तो उस हमले के शिकार नहीं थे ?”
असहाय भाव से गर्दन हिलाते हुए मुकेश ने रिंकी की ओर देखा ।
रिंकी ने सहमति में सिर हिलाया और फिर सविस्तार अपनी आपबीती सुनाई ।
वो खामोश हुई तो महाडिक एकाएक हंसा ।
उस घड़ी के माहौल में उसकी हंसी सबको अखरी ।
“ये कब का वाकया है ?” - वो बोला ।
“यही कोई आधे घन्टे पहले का ।” - मुकेश बोला ।
“यानी कि इलजाम मेरे पर आयद नहीं हो सकता । मैं तब भी इन्स्पेक्टर साहब के रूबरू था । लिहाजा ये ही मेरे गवाह हैं कि मैं रिंकी का हमलावर नहीं हो सकता था । मैं एक ही वक्त में दो जगह - अपनी क्लब में भी और रिजॉर्ट के प्राइवेट बीच पर भी - मौजूद नहीं हो सकता था ।”
मीनू सावन्त ने मुस्कराते हुए यूं आंखों में उसे शाबाशी दी जैसे दलील से उसने कोई बहुत बड़ा किला फतह किया हो ।
इन्स्पेक्टर अठवले के चेहने पर अप्रसन्नता के भाव आये ।
“मतलब क्या हुआ इसका ?” - फिर वो मुकेश की तरफ घूम कर बोला - “क्या मैडम पर हुए हमले का कत्ल से कोई रिश्ता हो सकता है ?”
“हो सकता है ।” - मुकेश बोला ।
“बड़े यकीन से कह रहे हो ! कुछ जानते मालूम होते हो !”
“नहीं भी हो सकता ।”
“ये क्या बात हुई ?”
“कुछ बताने से पहले मैं कुछ पूछना चहता हूं ।”
“क्या ? किससे ?”
“बात रिंकी से ताल्लुक रखती है लेकिन मेरे खयाल से उसका जवाब करनानी के पास है ।”
करनानी हड़बड़ाया ।
“तुम एक गुमशुदा वारिस की तलाश में हो ।” - मुकेश करनानी से सम्बोधित हुआ - “इस सिलसिले में आनन्द बोध पंडित तुम्हारा क्लायन्ट था जो कि अब इस दुनिया में नहीं है । जिस गुमशुदा की तुम्हें तलाश है वो मरहूम आनन्द बोध पंडित की इकलौती बेटी है जिसका नाम तनु है । मैंने ठीक कहा ?”
करनानी एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “हां ।”
“कल मीनू से मेरा कुछ व्यक्तिगत वार्तालाप हुआ था । उसके बाद मुझे लगा था कि जिस गुमशुदा लड़की की तुम्हें तलाश थी वो मीनू थी ।”
“मीनू ?”
“मैं ?” - मीनू सावन्त हैरानी से बोली - “मैं ?”
“मुझे तुम्हारी लाइफ स्टोरी गुमशुदा वारिस की स्टोरी से मैच करती लगी थी । तुम कहती हो कि तुम अपने पिता को नहीं जानती क्योंकि कई साल हुए वो तुम्हारी मां को छोड़ के भाग गया था और तुम्हें ये भी मालूम था कि वो जिन्दा था कि मर गया था । तुम अभाव को जिन्दगी जीती अपनी मां के साथ पली बढी हुई हो । तुम्हारी बातों से मुझे लगा था कि तुम आनन्द बोध पंडित की गुमशुदा संतान हो सकती थीं । नतीजतन मैंने अपने ऑफिस के एक कुलीग की मार्फत आनन्द बोध पंडित की वसीयत चैक करवाई थी । अभी थोड़ी देर पहले टेलीफोन पर वसीयत की बाबत जानकारी मेरे तक पहुंची थी । वो जानकारी हासिल होने के बाद अब मेरा खयाल बदल गया है ।”
“अच्छा !” - करनानी बोला ।
“हां ।” - मुकेश रिंकी की तरफ घूमा - “रिंकी तुम्हारी असली नाम है ?”
“क्या मतलब ?” - वो हड़बड़ाई सी बोली ।
“बच्चों के कुछ प्यार के नाम होते हैं जो इतने मकबूल हो जाते हैं कि उनका असली नाम रिकार्ड में दर्ज कराने के काम का ही रह जाता है । जैसे कि टीनू, चंकी, लवली, पिंकी वगैरह । रिंकी मुझे ऐसा ही नाम जान पड़ता है । प्यार का नाम जो कि मकबूल हो गया है । नो ?”
“यस ।”
“तुम्हारा असली, स्कूल सर्टिफिकेट वाला, नाम क्या है ?”
“तनुप्रिया ।”
“पंडित ?”
“हां ।”
“शर्मा किस लिये ।”
“एक बी बात है । पंडित मुझे अच्छा नहीं लगता था इसलिये ।”
“बहरहाल तुम्हारा असली और पूरा नाम तनुप्रिया पंडित है ?”
“हां ।”
“और तुम आनन्द बोध पंडित की गुमशुदा बेटी हो !”
“नहीं हो सकता । मेरे पिता को मरे एक जमाना गुजर चुका है । मैं छः साल की थी जबकि वो एक सिनेमा हॉल में लगी आग में जल कर मर गये थे ।”
“इस बाबात तुम्हें कोई मुगालता है ।”
रिंकी ने बड़ी मजबूती से इनकार में सिर हिलाया ।
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