RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
“कार पहचानी थी आपने ?”
“पहचानी तो थी ।”
“वैरी गुट ।”
“मुझे वो” - रिंकी ने एक गुप्त निगाह महाडिक पर डाली - “मिस्टर महाडिक की जेन लगी थी ।”
“नहीं हो सकता ।” - महाडिक बोला ।
“मैंने रंग पहचाना था, मेक पहचाना था ।”
“गलत पहचाना था । मुगालता लगा था तुम्हें सफेद जेन एक आम कार है जो कि अकेले मेरे ही पास नहीं है ।”
“हो सकता है ।”
“तो” - इन्स्पेक्टर ने वार्तालाप का सूत्र फिर अपने काबू में किया - “मैडम के कहे के मुताबिक आप यहां नहीं थे ?”
“नहीं था ।”
“साबित कर सकते हैं ?”
“मुझे क्या जरूरत पड़ी है ?”
“क्या मतलब ?”
“ये आपका कारोबार है, आप साबित करके दिखाइये कि मैं यहां था ।”
“गवाही सबूत ही होता है । गवाह ऐसा कहता है ।”
“गलत कहता है । गलतफहमी के तहत कहता है । मैं यहां नहीं था ।”
“तो कहां थे ?”
“मौकायवारदात पर नहीं था तो इस बात की कोई अहमियत नहीं कि मैं कहां था ?”
“जुबानदराजी अच्छी कर लेते हैं ।”
महाडिक ने लापरवाही से कन्धे उचकाये ।
“आपने” - इन्स्पेक्टर ने रिंकी से पूछा - “कार अन्दाजन किस वक्त देखी थी ?”
“मेरे खयाल से” - रिंकी बोली - “साढे ग्यारह या पांच मिनट ऊपर का टाइम रहा होगा तब ।”
“आप यहां किस वक्त पहुंचे थे ?” - इन्स्पेक्टर ने मुकेश से पूछा ।
“साढे ग्यारह के बाद ही पहुंचा था ।” - मुकेश बोली - “पांचेक मिनट ऊपर होंगे ।”
“यानी कि ग्यारह पैंतीस पर ?”
“हां ।”
“आप ने ड्राइव-वे पर कोई सफेद जेन देखी थी ?”
“नहीं ।”
“देखी नहीं थी या तवज्जो नहीं दी थी ?”
“तवज्जो नहीं दी थी । लेकिन....”
“हां, हां । बोलिये ।”
“जब मैं क्लब से रवाना हुआ था तो मुझे वहां की पार्किंग में मिस्टर महाडिक की सफेद जेन नहीं दिखाई दी थी ।”
इन्स्पेक्टर ने इलजाम लगाती निगाहों से महाडिक की तरफ देखा ।
महाडिक परे देखने लगा ।
“इधर मेरी तरफ देखिये ।” - इन्स्पेक्टर तनिक कर्कश स्वर में बोला ।
महाडिक ने बड़े यत्न से इन्स्पेक्टर की तरफ निगाह उठाई ।
“साढे ग्यारह बजे आपकी जेन क्लब की पार्किंग में नहीं थीं लेकिन वो यहां देखी गयी थी । क्या आपने अपनी कार किसी को इस्तेमाल के लिये दी थी ?”
“नहीं ।”
“यूं देते हैं कभी कार किसी को ?”
“नहीं ।”
“यानी कि कार अगर यहां थी तो उसके ड्राइवर आप ही हो सकते थे ।”
“कार यहां नहीं थी ।”
“साढे ग्यारह बजे के आसपास आप यहां नहीं आये थे ?”
“नहीं ।”
“तो कहां गये थे ? जब कार क्लब की पार्किंग में नहीं थी तो कहीं तो गये थे ।”
“वो बात अहम नहीं । उसका मौजूदा वारदात से न कोई रिश्ता है न हो सकता है ।”
“मेरी सोच कहती है” - इन्स्पेक्टर बोला - “कि कातिल ने अपनी कारगुजारी ग्यारह और साढे ग्यारह के बीच किसी वक्त की थी....”
“इस सोच की वजह ?” - करनानी बोला ।
इन्स्पेक्टर ने वजह बयान करने की कोशिश न की । वो अपनी बात कहता रहा ।
“...एक शख्स - विनोद पाटिल - को छोड़ कर सबको मालूम था कि मकतूल खुदकुशी की दो कोशिशें कर चुका था और तीसरी कर सकता था । इस लिहाज से गोली यूं चली होनी चाहिये थी कि वो मकतूल का खुद का कारनामा लगता ताकि बाद में यही नतीजा निकाला जाता कि वो खुदकुशी की अपनी तीसरी कोशिश में कामयाब हो गया था ।”
“ऐसा हुआ होता तो वाल सेफ खुली न मिलती ।” - मुकेश बोला ।
“ऐसा तो हुआ ही नहीं है क्योंकि मकतूल को गोली पीठ पर लगी है । ऊपर से आपकी वाल सेफ खुली होने वाली बात भी दमदार है । लेकिन सवाल ये है कि वाल सेफ क्यों खुली है ? क्योंकर किसी को इसकी खुफिया पैनल के कन्ट्रोल की खबर लगी ? क्योंकर किसी को सेफ के बाहरी दरवाजे पर फिट पुश बटन डायल का कोड पता लगा ?”
“कातिल ने मकतूल को मजबूर किया होगा सेफ खोलने का तरीका बताने के लिये ? “
“पीठ से रिवॉल्वर सटा कर ?”
“हां ।”
“इस काम के पीछे मकसद जब सेफ खोलना था तो गोली क्यों चलाई ?”
“गोली इत्तफाकन चल गयी होगी ।”
“हो सकता है । लिहाजा गोली चल चुकने के बाद उसने वाल पैनल हटाई, पुश बटन डायल पर कोड पंच करके सेफ का बाहरी दरवाजा खोला और जब वो चाबी लगा कर भीतरी दरवाजा खोलने को आमादा था तो ऊपर से आप आ गये । नतीजतन वो आप पर हमला बोल कर भाग खड़ा हुआ ।”
“ऐसा था तो सेफ के भीतर से हजार के नोटों की गड्डी किसने निकाली ? सेल डीड की कापी किसने निकाली ?”
“उसी ने निकाली होंगी दोनों चीजें । वो चीजें निकाल कर वो सेफ के भीतरी दरवाजे को ताला लगा रहा होगा जबकि उसे आपके लौटने की आहट मिली होगी और उसने सेफ को बदस्तूर लाक्ड और कंसील्ड छोड़ने का काम अधूरा छोड़ दिया होगा ।”
“जब हजार के नोट निकाले थे तो बाकी सौ के नोट पीछे क्यों छोड़ दिये थे ?”
“हड़बड़ी में उनकी तरफ उसकी तवज्जो नहीं गयी होगी ?”
“अगर उस शख्स का मकसद चोरी था तो क्यों नहीं गयी होगी ?”
“आप भी तो ऊपर से पहुंच गये थे इसलिये उसने जो हाथ आया था, उसी से तसल्ली कर ली थी ।”
“क्योंकि मेरे पहुंच जाने की वजह से उसे वक्त का तोड़ा था, वो जल्दी न करता तो रंगे हाथों पकड़ा जाता ? “
“हां ।”
“ऐसे शख्स ने सेफ को बदस्तूर बन्द करने की कोशिश में वक्त क्यों जाया किया ?”
“ये भी ठीक है । फिर तो इसका एक ही मतलब हो सकता है ।”
“क्या ?”
“यही कि कातिल कोई और था और चोर कोई और था ।”
“मेरे पर हमला किसने किया होगा ? कातिल ने या चोर ने ?”
“इसका जवाब मै तब दूंगा जब मुझे यकीन आ जायेगा कि आप पर कोई हमला हुआ था ।”
“और ये मेरे सिर में निकला गूमड़...”
“आपने खुद बनाया हो सकता है । पहले भी बोला ।”
“बढिया । तो फिर मैं कातिल हूं या चोर ? या दोनों ?”
“आप बताइये । आप क्या हैं, ये बात आप से बेहतर कौन जानता हो सकता है ?”
“मेरे बताये का क्या फायदा ? मेरे बताये को तो आप किसी खातिर में नहीं लाना चाहते ।”
“अपना क्रेडिट बनाइये सच बोल कर । कत्ल किया होना कुबूल कीजिये, फिर मैं आपकी बाकी बातें भी कुबूल कर लूंगा ।”
“फिर बाकी क्या रह जायेगा ?”
इन्स्पेक्टर हंसा, फिर फौरन संजीदा हुआ ।
“अभी थोड़ी देर पहले इस बाबत एक मुद्दा और भी उठा था जिसे कि आपने बीच में ही छोड़ दिया था ।”
“कौन सा मुद्दा ?” - इन्स्पेक्टर बोला ।
“कत्ल के उद्देश्य का मुद्दा ।”
“अच्छा वो ।”
“जी हां, वो ।”
“जिसकी बाबत मैंने कहा था कि कत्ल के उद्देश्यों में एक और उद्देश्य का इजाफा हो गया था ।”
“कहा ही था, बताया कुछ नहीं था ।”
“अब बताता हूं । लेकिन अपनी वकील की हैसियत में पहले आप बताइये कि किसी दौलतमन्द शख्स का कत्ल हो जाये और पीछे उसकी वसीयत के तहत उसका जो इकलौता वारिस हो उस पर कातिल होने का शक किया जाना चाहिये या नहीं ?”
“किया जाना चाहिये क्या, हमेशा किया जाता है ।”
“दुरुस्त । अब बताइये विरसे की दौलत हथियाना कत्ल का मजबूत उद्देश्य होता है या नहीं ?”
“होता है ।”
“तो फिर आपके पास कत्ल का मजबूत उद्देश्य है । “
“जी !”
“और ये बात आपने खुद, अपनी जुबानी तसलीम की है ।”
“मैंने ! कब की ?”
“अभी की । जब आपने इस बात की तसदीक की कि विरसे की दौलत हथियाना वारिस के लिये कत्ल का पुख्ता उद्देश्य होता है ।”
“कैसी दौलत ? कौन वारिस ।”
“मकतूल की दौलत । आप वारिस ।”
“क्या ?”
“आपके वसीयत स्पैशलिस्ट पार्टनर एडवोकेट पसारी ने अभी फोन पर मुझे यही बताया था ।”
“क्या ? क्या बताया था ।”
“ये कि मकतूल ने दो हफ्ते पहले अपनी एक वसीयत तैयार करवाई थी जिसके तहत उसने अपनी आधी सम्पत्ति धर्मार्थ कार्यों में लगायी जाने का निर्देश दिया है और बाकी आधी का इकलौता वारिस आपको करार दिया है ।”
“मुझे ! खामखाह !”
“मकतूल का कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं, शायद इसलिये ।”
“लेकिन फिर भी...”
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