RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“हल्लो ।” - अशोक अर्चना माथुर की ओर घूमकर मुस्कराता हुआ बोला ।
“बड़ा अच्छा किया तुम आ गये । मैं तो जे पी से तुम्हारे ही बारे में पूछ रही थी ।”
“थैंक्यू ।”
“यह कौन है ?” - अर्चना माथुर ने जैसे पहली बार आशा को देखा ।
“यह मेरी मित्र है ।”
“कौन है ? कोई जूनियर आर्टिस्ट है ? पहचानी हुई सी सूरत लगती है ।” - अर्चना माथुर उसे गौर से देखती हुई बोली ।
“नाम है आशा ।”
“नाम भी सुना हुआ सा लगता है ।” - अर्चना माथुर पूर्ववत उसे घूर रही थी - “मैं तुमसे पहले भी कभी मिली हूं ।”
“जी हां ।” - आशा दबे स्वर से बोली - “एक बार मैट्रो सिनेमा के बाहर सिन्हा साहब ने मेरा परिचय आपसे कराया था । आप ‘अरे बस्क’ देखने आई हुई थीं ।”
“ओह हां याद आ गया ।” - अर्चना माथुर नाक सिकोड़ कर बोली - “तुम तो सिन्हा की सेक्रेटरी हो ।”
“जी हां ।” - आशा धीरे से बोली । एकाएक वह स्वयं को बड़ा अपमानित अनुभव करने लगी थी ।
“अशोक तुम इसे कैसे जानते हो ?” - वह अशोक की ओर मुड़कर ऐसे स्वर से बोली जैसे किसी बेहद घटिया चीज का जिक्र कर रही हो - “और इतनी बड़ी बम्बई में तुम्हें कम्पनी के लिये इससे बेहतर हैसियत की लड़की दिखाई नहीं दी ?”
आशा का चेहरा पीला पड़ गया । वह अपने आप में सिमट कर रह गई । ठीक ही तो है, वह इन लोगों में कैसे खप सकती है । उसका तो लिबास ही उसकी चुगली कर रहा होगा ।
“शटअप, अर्चना ।” - अशोक तनिक क्रोधित स्वर से बोला - “तुम आशा की तौहीन कर रही हो । ऐसी घटिया बातें करते हुए शर्म आनी चहिये ।”
“ओह, आई एम सारी ।” - अर्चना अभिनय सा करती हुई बोली ।
अशोक आशा की बांह थामकर आगे बढ गया ।
“अशोक ।” - आशा रुआंसे स्वर से बोली - “मैं यहां से फौरन जाना चाहती हूं ।”
“तुम अर्चना की बात का बुरा मत मानो, आशा ।” - अशोक उसे समझाता हुआ बोला - दो कौड़ी की औरत है यह अक्ल तमीज से तो इसका दूर दूर तक का वास्ता नहीं है ।”
“लेकिन...”
“थोड़ी देर और ठहरो, फिर चलते हैं ।”
आशा चुप हो गई ।
अशोक उसका हाथ थामे मेहमानों में से गुजरता हुआ आगे बढता रहा । हर कोई अशोक को ‘हल्लो’ कहता था और फिर विचित्र नेत्रों से आशा को देखने लगता था । पार्टी में मौजूद हर आदमी अशोक को जानता था । अशोक अपने होठों पर फैली हुई एक नपी तुली मुस्कराहट से ही सबकी ‘हल्लो’ का उत्तर देता हुआ अन्त में हाल के दूसरे सिरे पर पहुंच गया जहां एक विशाल सोफे पर एक विशाल शरीर बैठा हुआ था । उसके आस पास पांच छ: स्त्री पुरुष और भी मौजूद थे लेकिन वह तो सबके आकर्षण का केन्द्र मालूम हो रहा था । वह एक लगभग पचास वर्ष का सुर्ख चेहरे वाला वृद्ध था । उसका सिर एक दम गंजा था । उसके एक हाथ में व्हिस्की का गिलास था, दूसरा हाथ अपनी बगल में बैठी हुई युवती की कमर में था और हो हो करके हंस रहा था । उसकी हंसी की तालमेल में ही उसका विशाल पेट हिल रहा था ।
वृद्ध की नजर अशोक पर पड़ी और वह ऊंचे स्वर से बोला - “आओ, आओ, बरखुरदार ।”
“ये मेरे डैडी हैं ।” - अशोक धीरे से बोला ।
आशा ने मशीन की तरह अपने दोनों हाथ जोड़ दिये । उस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला ।
“और जेपी यह आशा है जिसका जिक्र मैंने आपसे किया था ।” - अशोक वृद्ध से बोला ।
जेपी की तीक्ष्ण दृष्टि आशा के सिर से लेकर पांव तक फिर गई । अपना निरीक्षण समाप्त कर चुकने के बाद वह ऊंचे स्वर से बोला - “अच्छा, यह है वह लड़की । बरखुदार तुम्हारी पसन्द की दाद देता हूं मैं । सारी बम्बई में मैंने इससे ज्यादा खूबसूरत औरत नहीं देखी ।”
न जाने क्यों आशा को अपने लिये औरत की संज्ञा का इस्ते माल बड़ा बुरा लगा । जेपी के कहने का ढंग भी उसे बड़ा अश्लील लगा ।
“यहां आओ ।” - वह आशा से बोला ।
अशोक ने आशा का हाथ छोड़ दिया ।
आशा झिझकती हुई आगे बढी ।
जेपी ने विस्की का गिलास सामने मेज पर रख दिया और अपना दूसरा हाथ बगल में बैठी हुई कमर में से निकाल लिया । वह उठकर खड़ा हो गया । फिर उसका भारी भरकम दायां हाथ आशा की पीठ पर पड़ा । जेपी की प्रशंसात्मक निगाहें आशा के चेहरे पर टिक गई । आशा ने नेत्र झुका लिये । जेपी की निगाहें चेहरे से फिसलीं और आशा के उन्नत वक्ष पर टिक गई । हाथ पीठ से फिसला और कमर पर आ गया । आशा ने उसके हाथ का स्पर्श अपनी नंगी कमर पर अनुभव किया और उसके शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गई । हाथ कमर से भी फिसला और नीचे सरक गया । फिर उस हाथ ने आशा के शरीर के गोश्त की मुट्ठी सी भर ली ।
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