RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
अन्त में जिस समय चाय के पैसे चुकाकर आशा अशोक के साथ रेस्टोरेन्ट से बाहर निकली उस समय उसका चेहरा गुलाब की तरह खिला हुआ था । पिछले दिन से जो उदासी उसके मन पर छाई हुई थी, वह एकाएक न जाने कहां गायब हो गई थी ।
रेस्टोरेन्ट से निकलकर दोनों बस स्टाप की ओर बढ चले ।
“अशोक ।” - एकाएक आशा बोली ।
“फरमाइये ।”
“भविष्य में तुम मुझे तुम कहकर पुकारा करो, आप कह कर नहीं ।”
“अच्छी बात है, आशा जी” - अशोक विनोदपूर्ण स्वर से बोला - “आगे से मैं आपको तुम कहा करूंगा ।”
“इस वाक्य को यूं कहो ।” -आशा बोली - “अच्छा आशा, आगे से मैं तुम्हें तुम कहा करूंगा ।”
“अच्छा आशा” - अशोक उसके स्वर की नकल करता हुआ बोला - “आगे से मैं तुम्हें तुम कहा करूंगा ।”
और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़े ।
अगले कुछ दिनों में आशा और अशोक में कई मुलाकातें हुई । उन मुलाकातों के बाद दोनों में रहा सहा तकल्लुफ भी समाप्त हो गया ।
दफ्तर में अमर के स्थान पर एक नया कर्मचारी आ गया था ।
अमर दुबारा फिर कभी सिन्हा के दफ्तर में नहीं आया और न ही महालक्ष्मी में ही कहीं दिखाई दिया । फिर भी न जाने क्यों आशा के मन से यह बात निकलती नहीं थी कि अमर जरूर उसे अपनी नई स्थिति की सूचना देगा ।
शाम को तीन बजे के करीब सिन्हा ने आशा को अपने कमरे में बुलाया ।
“आशा” - वह बोले - “आज फिल्म देखने चलो ।”
“आई एम सारी, सर ।” - आशा शिष्ट स्वर से बोली - “आज तो मैं नहीं जा सकूंगी ।”
आशा ने अपने व्यवहार से सिन्हा को कभी भी बढावा नहीं दिया था लेकिन फिर भी कई अप्रिय घटनायें हो जाने के बावजूद भी न जाने क्यों अभी तक सिन्हा ने प्रयत्न करना छोड़ा नहीं था ।
“क्यों ?”
“आज मुझे बहुत जरूरी काम है ।”
“क्या जरूरी काम है आशा !”
आशा चुप रही ।
“आज मैंने घर पर किसी को खाने के लिये बुलाया हुआ है ।” - आशा सरासर झूठ बोलती हुई बोली ।
“उसे खाने पर किसी और दिन बुला लेना ।”
“ऐसा तो अच्छा नहीं लगता सर ।”
“क्या बहुत महत्वपूर्ण मेहमान है वह ?”
“महत्व की बात नहीं है सर । लेकिन मैं किसी की असुविधा का कारण नहीं बनना चाहती ।”
“मैंने तो टिकट मंगवा लिये थे ।”
“आई एस सॉरी सर ।”
“तुम्हें मेरी असुविधा का ख्याल नहीं है ।”
आशा चुप रही ।
“मेहमान कौन है ? ब्वाय फ्रेंड ?”
आशा ने उत्तर नहीं दिया ।
“अच्छी बात है ।” - सिन्हा पटाक्षेप सा करता हुआ बोला - “मर्जी तुम्हारी ।”
आशा छुटकारे की गहन निश्वास लेती हुई कमरे से बाहर निकल आई ।
शाम को उसे अशोक मिला ।
दोनों चौपाटी की रेत में जा बैठे ।
“आज मजा नहीं आ रहा” - एकाएक अशोक बोला - “पता नहीं सुबह किस मनहूस का मुंह देखा था । सारा दिन सख्त बोरियत में गुजरा है ।”
“तो फिर क्या किया जाये ?” - आशा सहज स्वर से बोली ।
“तुम राय दो कुछ ।”
“मेरी राय तो यह है कि छुट्टी करें । तुम अपने घर जाओ । मैं अपने घर जाती हूं । लेट्स काल इट ए डे ।”
“नहीं आज एक मेरी बात मानो ।”
“क्या ?”
“सिनेमा देखने चलते हैं ।”
“न बाबा । आखरी शो देखने में मेरी दिलचस्पी नहीं है ।”
“आखिरी शो की कौन बात कर रहा है, मैडम” - अशोक बोला - “अभी ईवनिंग शो में चलते हैं ।”
“ईवनिंग शो की टिकट कैसे मिलेगी ?”
“टिकट की तुम चिंता मत करो । वह मेरी सिरदर्द है । तुम तो केवल हां कर दो ।”
“कौन से सिनेमा पर चलोगे ?”
“अप्सरा पर । वहां नई फिल्म लगी है ।”
“फिर तो टिकट मिल चुकी ।”
“कहा न तुम टिकट की फिक्र मत करो ।”
“सवा छः तो बज गये हैं ।” - आशा संशक स्वर से बोली
“फिर क्या हो गया । अभी बहुत वक्त है ।”
“शो के वक्त तक तो पहुंच भी नहीं पाओगे ।”
“टैक्सी में चलते हैं । पांच मिनट में पहुंच जायेंगे । मगर बस पर गये तो जरूर लेट हो जायेंगे ।”
“तुम्हें पूरा विश्वास है कि तुम टिकट हासिल कर लोगे ।”
“हां ।”
“ब्लैक में लोगे ?”
“कुछ तो करूंगा ही ।”
“खामखा पैसे बरबाद करोगे ।” - आशा उठती हुई बोली ।
“आज बरबादी ही सही ।”
दोनों ने सड़क पर से टैक्सी ली और अप्सरा सिनेमा के सामने पहुंच गये ।
“तुम नहीं ठहरो । मैं अभी आता हूं ।” - अशोक बोला और उसे सिनेमा के बाहर ही खड़ा करके सिनेमा में प्रवेश कर गया ।
पांच मिनट बाद वह वापिस आया ।
“आओ ।” - वह बोला ।
“टिकट मिल गई ?”
“और क्या ? यह देखो ।” - अशोक उसे दो टिकट दिखाता हुआ बोला ।
“कमाल है !” - आशा मंत्रमुग्ध सी बोली - “कैसे ?”
“कैसे को छोड़ो मेम साहब । आम खाने से मतलब रखो, पेड़ गिनने से नहीं । मेरे सारे सीक्रेट एक ही बार में जानने की कोशिश मत करो ।”
“फिर भी ?”
“बस इतना समझ लो कि इंश्योरेंस के धन्धे की वजह से बम्बई में हर जगह मेरे यार मौजूद हैं । आओ ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
अशोक लॉबी से होता हुआ बाल्कनी की ओर ले जाने वाली सीढियों की ओर बढा ।
“बाल्कनी की टिकट लाये हो ?” - आशा ने पूछा ।
“हां ।”
“इतने पैसे खराब करने की क्या जरूरत थी । फिल्म फिर कभी देख लेते ।”
“मूड तो आज था ।”
आशा चुप हो गई ।
जिस समय वे हाल में प्रविष्ट हुए, स्कीन पर कमर्शियल दिखाये जा रहे थे । हाल में अन्धकार था । डशन ने उन्हें दो कोने वाली सीटों पर बैठा दिया ।
फिल्म शुरू हुई ।
इन्टरवैल हुआ और हाल की बत्तियां जगमगा उठी ।
लोग सीटों से उठने लगे और खाली कुर्सियों की खड़खड़ाहट से हाल गूंज गया ।
एकाएक आशा की दृष्टि अपने से अगली कतार में सेन्टर कार्नर की सीटों पर पड़ी और वह चौंक गई ।
वहां सिन्हा बैठा था । उसके साथ एक लड़की थी जो फेमससिने बिल्डिंग के ही एक अन्य दफ्तर में काम करती थी ।
“अशोक !” - वह हड़बड़ाकर बोली ।
“हां ।” - अशोक बोला ।
“बाहर चलो ।”
“चलो ।” - और वह अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ ।
आशा भी उठी और तेज कदमों से चलती हुई बालकनी से बाहर निकल गई । वह सीढियों की ओर बढी ।
“उधर कहां जा रही हो ।” - अशोक ने हैरानी से पूछा ।
“तुम आओ तो सही ।” - आशा बोली ।
आशा सीढियां तय करके नीचे पहुंची और फिर सिनेमा की चारदीवारी से बाहर सड़क पर आ गई ।
अशोक भी उसके पीछे था ।
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