RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
आशा आज की शाम के बारे में सोच रही थी । अपनी ओर से तो वह अशोक के साथ इसलिये ‘बोर’ होने के लिये चली आई थी क्योंकि वह उससे साथ चलने के लिये हां कर बैठी थी लेकिन अशोक के साथ इतना समय कब गुजर गया उसे मालूम भी नहीं हुआ । इतनी ढेर सारी बात उसने सरला के सिवाय आज तक किसी के साथ नहीं की थी । और फिर शायद यह अशोक के व्यवहार की विशेषता थी कि उसने पहुंचने के बाद से ही वह उससे यूं खुलकर बात करने लगा था, जैसे उसे बरसों से जानता हो । एक ही शाम की मुलाकात में कितनी ढेर सारी बातें कर डाली थी उन्होंने उसे ‘आप’ कहता था । क्या हर्ज है ? उम्र में तो वह अशोक से बड़ी ही होगी । उसने एक उड़ती हुई दृष्टि अशोक पर डाली । वह बड़ी गम्भीर मुद्रा बनाये आशा के साथ चल रहा था ।
एकाएक आशा को यूं लगा जैसे वह कोई बड़ी ही जानी पहचानी सूरत देख रही हो ।
***
अगले दिन आशा दफ्तर में आई ओर बम्बई के मोनोटोनस (एक रसतापूर्ण) जीवन का एक और दिन गुजारने में जुट गई ।
हमेशा की तरह आज अमर ने चाकलेट नहीं भिजवाई थी ।
बारह बजे तक आशा कई बार अपने केबिन से बाहर अमर की सीट पर झांक चुकी थी लेकिन अमर वहां नहीं था ।
शाम को चार बजे जब चपरासी आशा के लिये चाय लाया तो आशा ने उस से पूछा - “सुनो, आज अमर साहब कहां हैं ?”
“आप को नहीं मालूम, मेम साहब !” - चपरासी आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“अमर साहब की तो छुट्टी हो गई ।”
“क्या मतलब ?” - आशा अचकचा कर बोली ।
“सिन्हा साहब ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया है ।”
“क्या ?” - आशा हैरानी से लगभग चिल्ला पड़ी । वह चाय पीना भूल गई ।
“जी हां” - चपरासी बोला - “सिन्हा साहब ने कल ही उनका हिसाब कर दिया था ।”
“शाम को । पांच बजे के बाद ।” - आशा के मुंह से अपने आप निकल गया कहीं इसलिये तो सिन्हा साहब ने कल अमर को छुट्टी हो जाने के बाद नहीं रोका था ।”
“जी हां ।”
“लेकिन वजह क्या थी ?”
“वजह तो मालूम नहीं, मेम साहब ।”
आशा चुप हो गई । उसके दिल में एक गुबार सा उमड़ने लगा ।
चपरासी चला गया ।
एकाएक आशा ने चाय का कप परे सरका दिया और अपनी सीट से उठ खड़ी हुई । वह सीधी सिन्हा के केबिन में घुस गई ।
सिन्हा ने सिर उठाया और तनिक अप्रतिभ स्वर से बोला - “मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया ।”
आशा सिन्हा की मेज के सामने जा खड़ी हुई और फिर अपने स्वर को भरसक सन्तुलित रखने का प्रयत्न करती हुई बोलो - “मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं ।”
सिन्हा ने एक सरसरी निगाह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर सहज स्वर से बोला - “पूछो ।”
“आपने अमर को नौकरी से क्यों निकाल दिया ?”
“तुम वजह क्यों जानना चाहती हो ?”
“सवाल पहले मैंने किया था ।” - आशा धैर्यपूर्ण स्वर से बोली ।
“मैं उसके काम से सन्तुष्ट नहीं था ।” - सिन्हा शान्त स्वर से बोला - “इसलिये मैंने उसे नौकरी से अलग कर दिया ।”
“सिन्हा साहब, आपने अमर को कल की चिट्ठी की वजह से नौकरी से अलग किया है ।”
“उस चिट्ठी का अमर की बर्खास्तगी से कोई वास्ता नहीं है । मैं बहुत पहले से अमर को नोटिस देने की सोच रहा था ।”
“आप झूठ बोल रहे हैं ।” - आशा आवेशपूर्ण स्वर से बोली - “आपको अमर से कोई शिकायत नहीं थी । आपने उसे केवल इसलिये नौकरी से निकाल दिया है क्योंकि उसने आपकी सैक्रेट्री से मुहब्बत जाहिर की थी । आप...”
“आशा ।” - सिन्हा बोला - “माइन्ड युअर लैंग्वेज । माइन्ड युअर मैनर्स ।”
आशा चुप हो गई । उसका चेहरा आवेश से तमतमा उठा था । उसने दुबारा कुछ कहने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर उसने इरादा बदल दिया । उसने एक क्रोध और बेबसी भरी दृष्टि सिन्हा पर डाली और फिर वापिस जाने के लिये घूम पड़ी ।
“सुनो ।” - सिन्हा ने पीछे से आवाज दी ।
आशा रुक गई ।
सिन्हा कुर्सी से उठा और अपनी विशाल मेज के गिर्द होता हुआ आशा के सामने आ खड़ा हुआ ।
“तुम्हें अमर में बहुत दिलचस्पी है ।” - सिन्हा उनके नेत्रों में झांकता हुआ बोला ।
“सवाल मेरी दिलचस्पी का नहीं है, सिन्हा साहब । सवाल इस बात का है कि मेरी वजह से किसी तीसरे आदमी का अहित क्यों हो ?”
“तुम अमर से मुहब्बत करती हो ?”
सवाल तोप के गोले की तरह आशा की चेतना से टकराया । उसने उत्तर में कुछ कहना चाहा लेकिन उपयुक्त शब्द उसकी जुबान पर न थे ।
“देखो ।” - सिन्हा बोला - “अगर तुम वाकई अमर में कोई दिलचस्पी रखती हो तो मैं केवल तुम्हारी खातिर उसे पहले से दुगनी तनख्वाह पर दुबारा नौकरी देने को तैयार हूं ।”
“मेरी खातिर !” - आशा के मुंह से अपने आप निकल गया ।
“हां । बशर्ते कि तुम भी मेरी खातिर कुछ करो ।”
“आप मुझसे क्या चाहते हैं ?” - आशा ने संशक स्वर से पूछा ।
उत्तर में सिन्हा ने अपना हाथ आशा की नंगी कमर में डाल दिया ।
आशा तत्काल उससे छिटककर अलग हो गई । उसकी सांस तेजी से चलने लगी ।
“मर्जी तुम्हारी ।” - सिन्हा लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ बोला और दुबारा अपनी सीट पर जा बैठा ।
आशा लम्बे डग भरती हुई केबिन से बाहर निकल गई ।
वह वापिस अपनी सीट पर आ बैठी ।
उसी क्षण टेलीफोन की घण्टी घनघना उठी ।
“हल्लो !” - आशा ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और बोली - “हल्लो ।”
“आशा जी” - उसके कानों में अशोक का उल्लासपूर्ण स्वर पड़ा - “मैं अशोक बोल रहा हूं ।”
“अशोक” - आशा के स्वर में रूक्षता का गहरा पुट था - “इस समय मेरी तबीयत ठीक नहीं है । मैं तुमसे फिर बात करूंगी ।”
और उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया ।
कितनी ही देर वह यूं ही बठी हुई लम्बी सांस लेती रही । वह स्वयं को नियंत्रित करती हुई उठी और अपने केबिन से बाहर निकल आई ।
उसने दफ्तर के कई लोगों से अमर के घर का पता पूछा लेकिन कोई भी अधिक कुछ नहीं बता सका कि अमर भिंडी बाजार में कहां रहता था ।
शाम को आफिस से छुट्टी होने के बाद आशा भिंडी बाजार पहुंची लेकिन भिंडी बाजार में केवल नाम के सहारे किसी आदमी को तलाश कर लेना भूस के ढेर में हुई ढूंढने से भी कठिन काम था । पूरे तीन घण्टे भिंडी बाजार के इलाके को छान चुकने के बाद वह थक हार कर कोलाबा लौट आई ।
वह अपने फ्लैट में पहुंची और हताश सी एक कुर्सी पर लेट गई ।
सारी रात आशा के नेत्रों के सामने अमर का चेहरा घूमता रहा ।
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