RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
अर्द्धरात्रि का आगमन जैसे किन्नरी निहारिका के लिए युवराज के आवाहन का शुभ संदेश था। राजोद्यान में सन्नाटा छाया हुआ था। संगमरमर की चौकी पर बैठे हुए युवराज नारिकेल, किन्नरी की प्रतीक्षा कर रहे थे। किन्नरी आई। युवराज को सम्मान प्रदर्शन किया उसने। युवराज ने कोमल वाणी में कहा—'बैठो...।'
और किन्नरी आज बिना किसी हिचक के युवराज की बगल में बैठ गई। 'किन्नरी...!
'देव...।' दोनों का स्वर कांप रहा था।
'कष्ट के लिए क्षमा करना निहारिका...।'
'कष्ट किस बात का देव।' निहारिका अपनी आंखों से निकल पड़ने के लिए मचलते आंसुओं को बड़े यत्न से रोके हुए थी।
'कल मैं रणक्षेत्र को जा रहा हूं। हृदय अत्यंत व्यथित था तुमसे मिलने की लालसा रोक न सका...।'
'यह श्रीयुवराज की अत्यंत कृपा है...मगर हम लोगों की क्या अवस्था होगी, श्रीयुवराज! आपका बिछोह हम लोग किस प्रकार सहन कर सकेंगे?' किन्नरी का स्वर कम्पित था।
'मनुष्य को महामाया ने सहन-शक्ति प्रदान की है, किन्नरी...।'
'परन्तु मनुष्य का हृदय पाषाण-सा कठोर नहीं बनाया है, देव...।'
'यह क्या ? तुम रो रही हो...तुम्हें पीड़ा पहुंच रही है कलामयी। मुझे कायर न बनाओ। इन अश्रु-बिन्दुओं को देखकर मेरी सारी शक्ति क्षीण हो जायेगी।'
'ये अश्रुकण ही तो शेष हैं, देव। और मेरे पास है ही क्या...? और सब तो आपके चरणों पर अर्पित कर चुकी हूं। विश्राम, सुख एवं हृदय सब कुछ तो आपने छीन लिया।'
'ऐसा न कहो किन्नरी। तुम्हारे पास अगम ऐश्वर्य एवं अतुल सम्पदा का कोष है—मैं कितना दीन सकता हूं...तुम कलायमयी हो, देवी हो।'
'आप तो मुझे निराश्रय छोड़े जा रहे हैं, श्रीयुवराज! आपकी अनुपस्थिति किस प्रकार सहन कर सकूँगी मैं...।'
युवराज कुछ न बोले। विछोह के स्मरणमात्र से उनके हृदय में संघर्ष-सा मच गया था। राजोद्यान के कुमुदिनी-पुष्पों द्वारा आच्छादित सरोवर का जल, दोनों के परों के सन्निकट हिलोरे मार रहा था।
सौंदर्य और सुगंधित-युक्त कुमुदिनी के पुष्प, उन दोनों के मूक हृदय में मादकता कमी सृष्टि कर रहे थे।
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चक्रवाल अपने प्रकोष्ठ में बैठा हआ इस इस अर्ध-रात्रि की बेला में विहाग की करुण स्वर रागिनी अलाप कर प्रकृति को विकल कर रहा था
'कुमुदिनी तू क्वारी केहि हेत।
बरबस वयसि वितावति बावरी।
जलजहि वरि किन लेत?'
मदमत्त कुमुदिनी-पुष्पव वायु के वेग से हिलकर एक-दूसरे का चुम्बन कर रहे थे—मानो चक्रवाल का गायन सुनकर स्नेहपूर्वक एक-दूसरे से पूछ रहे हों कि वास्तव में जलज को वरण कर लेना चाहिये।
युवराज ने किन्नरी का सुकोमल कर अपने कर में ले लिया और अपनी अनामिका की उरत्नजड़ित मुद्रिका निकालकर किन्नरी की अनामिका में पहना दी।
बहुत काल तक दोनों निस्तब्ध रहे। नीरव रजनी की स्थिरता के साथ-साथ उनके नेत्र भी स्थिर थै— एक-दूसरे की मुखाकृति पर। --
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प्रात:काल महामाया के मंदिर में बृहद पूजनोत्सव हुआ, क्योंकि आज युवराज के रणक्षेत्र में जाने के पहले, उनके मस्तक पर परम कल्याणकारी देवी के चरण का प्रसाद 'कुंकुम' लगाया जाने वाला था।
महापुजारी ने महामाया की विधिवत् आराधना की। किन्नरी ने धड़कते हुए हृदय से आरती का थाल उठाकर आरती की।
चक्रवाल ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से गाया—'वर दे, शत्रु विनासिनी बर ।' पूजन के पश्चात किन्नरी ने कुंकुम की थाली उठा ली और मंथर गति से वह युवराज की ओर बढ़ी।
चक्रवाल ने अपनी वीणा उठाई। उसकी वाणी सिक्त थी, परन्तु उसने गाया
लेकर कुंकुम थाली कर में,
चलो चलें हम एक नगर में,
जहां न दु:ख का मान हो आली,
सुख की सरिता करे कलोल।
प्राण पपीहे पी पी बोल।।
बहुत ही करुणाजनक दृश्य था। सबके हृदय पर आसीन, कर्तव्यशील युवराज की विदाई का वह दृश्य, अत्यंत हृदयद्रावक था। सभी के नेत्रों से अश्रु-कण प्रवाहित हो रहे थे। परम धैर्यवान महापुजारी भी अपना मुख दुसरी ओर फेरकर बैठे हुए थे। कदाचित् उनके नेत्र-अश्व का प्रबल वेग सम्भालने में असमर्थ हो रहे थे। कुंकुम की थाली लेकर किन्नश्रीयुवराज के समक्ष आकर खड़ी हो गई। उसके नेत्र आंसुओं से फट पड़ना चाहते थे। उसका स्वर फूट-फूटकर रो उठना चाहता था। किन्नरी ने कम्पित करों से थोड़ा-सा कुंकुम उठाकर युवराज के मस्तक पर लगाया।
लगाते समय उसके सिक्त नेत्रों से मोतियों के सदृश अश्रुबिन्दु टपक कर युवराज के सामने धरती पर गिर पड़े।
एक क्षण के लिए युवराज प्रेम-विह्वल हो अस्थिर हो गये, परन्तु दूसरे ही क्षण गुरुजनों की उपस्थिति ने उनके ज्ञान-चक्षु खोल दिये।
किन्नरी लौट चली। उसके पग कांप रहे थे—उसका शरीर निष्प्रभ-सा हो रहा था। चार पग आगे बढ़ते ही वह धड़ाम से भूमि पर गिर पड़ी। कुंकुम इधर-उधर उड़कर भूमि का चुम्बन करने लगा।
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