RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
युवराज का हृदय रह-रहकर किन्नरी से मिलने के लिए व्यग्र हो उठता था। अहर्निश किन्नरी का कलापूर्ण शरीर उनके नेत्रों के समक्ष नृत्य करता था। कभी-कभी सुषुप्तावसथा में वे चिल्ला उठते थे, 'किन्नरी ! कलामयी किन्नरी ! कहाँ हो तुम...?'
किन्नरी को कम दुख न था। वह तो अबला थी, युवराज के विछोह से वह अत्यंत व्यथित थी। केवल उपासना के समय राजमंदिर में दोनों का मिलन होता, परन्तु गुरुजी के भय से कोई भी एक-दूसरे से न बोलता।
जब किन्नरी अपने प्रकोष्ठ में अकेली बैठी रहती तो युवराज का स्मरण कर उसका कलेजा मुख को आ जाता। वह फूट-फूटकर रो उठती।
एक दिन, जबकि वह अपने प्रकोष्ठ में बैठकर अश्रुवर्षा कर रही थी, चक्रवाल उसके पास आ पहुंचा।
उसके नेत्रों में अनुकण देखकर चक्रवाल का दयार्द्र हृदय विचलित हो उठा। उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—'रोना बंद करो किन्नरी! फटे भाग्य पर अश्रपात करने की अपेक्षा, उस सर्वव्यापी अन्तर्यामी पर भरोसा करना अधिक उत्तम मार्ग है।'
'चक्रवाल!' किन्नरी सिसकती हुई बोली-'तुम्हारे युवराज मुझसे रुष्ट है क्या?'
'मेरे युवराज! और तुम्हारे नहीं...? भला वे कभी रुष्ट हो सकते हैं तुमसे? जिस प्रतिमा की वे आराधना करते हैं, उससे भला वे रुष्ट होंगे...वे तुमसे भी अधिक सन्तप्त है. किन्नरी! सखकर आधे हो गये हैं वे।' चक्रवाल ने किन्नरी को सान्त्वना दी—'धैर्य रखो। हमारा जीवन, दुखों का सागर है। हमने यातना सहन करने के लिए ही इस आसार संसार में जन्म लिया है, इसमें दोष किसका? उन्हें भूल जाओ। वे युवराज हैं, जम्बूद्वीप के भावी अधीश्वर हैं, वे हमारे नहीं हो सकते किन्नरी।'
चक्रवाल ने दूसरी ओर मुख फेर लिया। कदाचित् उस अगम कलाकार के नेत्रों में भी अश्रु-कण उमड़ पड़े थे-अपनी कला-सहचरी की असीम वेदना देखकर।
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अर्द्धरात्रि की भयानक नीरवता समग्र संसार को आच्छादित किये थी।
आकाश मार्ग पर प्रदीप्त कुछ तारिकायें सुषुप् संसार की ओर अनिमेष दृष्टि से देख रही थी, वायु निश्चल थी एवं प्रकृति निस्तब्ध!
चक्रवाल के नेत्रों में अब तक निद्रा के कोई लक्षण नहीं थे। वह अपने प्रकोष्ठ में छोटी-सी खिड़की के पास बैठा हुआ, आलोकित तारिकाओं की ओर मुग्ध-दृष्टि से देख रहा था।
उसके करों में थी वीणा और वीणा के तारों पर थी उसकी सधी हुई अंगुलियां। निस्तब्धता प्रकम्पित करती हुई वीणा की ध्वनि क्षितिज की सीमा-रेखा दूने लगी।
साथ ही चक्रवाल के मुख से निकलती हुई रागिनी, मानो जड़ को चैतन्य एवं चैतन्य को जड़ बना रही थी।
वह अपनी रागिनी के तन्मय था। उसे क्या पता कि इस समय भी जबकि यावत् संसार सुखद निद्रा में निमग्न है दो प्राणी उसके गायन से अत्यंत व्यथित हो रहे हैं।
किन्नरी निहारिका अपने प्रकोष्ठ में बैठी हुई चक्रवाल के गायन की विकल रागिनी सुन रही थी। उसके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी।
समय संसार रजत प्रकाशधारा में लान करता हुआ उस अगम कलाकार की कला में तन्मय था।
चक्रवाल भी तन्मय था केवल उसकी विकल स्वर-रागिनी थिरक रही थी 'आशा में मधुर मिलन की ये अपनी आंखें डाले।'
"तुम कान्त' तड़पती रहती लेकर अंतर में छाले।।
जीवन की प्यारी घड़ियां, अब यों ही बीती जाती।
ऊषा की लाली में अब, संध्या की झलक दिखाती।।'
एकाएक चक्रवाल के बंद द्वारदेश पर बाहर से किसी ने थपकी दी। उसने अपनी वीणा रख दी और द्वार की अर्गली खोल दी।
'किन्नरी तुम...?' एकाएक चक्रवाल के मुख से आश्चर्यजनक स्वर में निकल पड़ा निस्तब्ध अर्द्धरात्रि में अपने द्वार पर वेदना-विक्षिप्त किन्नरी निहारिका को खड़ी देखकर।
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