RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
युवराज के मस्तक पर चिंता की रेखायें खिंच आई। 'किन्नरी कहती थी कि महापुजारी जी ने आपकी प्रदान की हुई मणिमाला उसके कंठ-प्रदेश में देख ली है...।' चक्रवाल बोला।
'मणिमाला देख ली है...?' युवराज कांप उठे—'क्या कला की उपासना करना इतना बड़ा अपराध है ? सौन्दर्योपासना में सदैव वासना ही क्यों दिखाई देती है इस दुनिया को...?'
'इस जगत के अधम प्राणी यह सब नहीं समझ सकते श्रीयुवराज।
'अधम प्राणी...यह किसे कह रहे हो तुम, चक्रवाल...? पिताजी को या महापुजारी को...? सावधान ! फिर कभी ऐसा वाक्य मुख से न निकालना। पिता जी मेरे पूज्य हैं, महापुजारी गुरुदेव हैं भला वे कभी हमारे अहित की कामना कर सकते हैं?'
'श्रीयुवराज मुझे क्षमा प्रदान करें—वह देखिए, श्रीसम्राट का द्वारपायक इधर ही आ रहा है।' द्वारपायक ने आकर युवराज को अभिवादन किया और बोला-'श्रीसम्राट आपको इसी समय स्मरण कर रहे हैं। आप मेरे साथ ही चलने की कृपा करें।'
'चलो...! तुम घबराओ नहीं चक्रवाल। मैं पिताजी से सब स्पष्ट कह दूंगा।'
यवराज ने ज्योंही द्रविडराज के प्रकोष्ठ में प्रवेश किया, द्रविड़राज का सारा क्रोध विलीन हो गया, युवराज की सहज निष्कलंक मुखाकृति का अवलोकन कर। युवराज ने आगे बढ़कर महापुजारी एवं द्रविड़राज के चरण छुए।
'वत्स...! महापुजारीजी का कथन है कि तुम्हारे कार्यों से द्रविड़ कुल की उज्ज्वल मर्यादा विनष्ट होना चाहती है...।' द्रविड़राज ने स्थिर दृष्टि के युवराज के नेत्रों में देखते हुए कहा।
'यदि मेरा कोई आचरण महापुजारी को निकृष्ट प्रतीत हुआ हो तो मैं उनसे क्षमा मांगता हूं...युवराज ने संयत वाणी में कहा।
'आपकी मणिमाला कहां है, श्रीयुवराज...?' महापुजारी जी ने पछा।
द्रविड़राज कांप उठे—यह सोचकर कि यदि कहीं युवराज ने मणिमाला के विषय में असत्य सम्भाषण किया तो उन्हें युवराज को भी उसी प्रकार न्याय दण्ड देना पड़ेगा, जिस प्रकार उन्होंने राजमहिषी त्रिधारा को दिया था।
द्रविड़राज तीक्ष्ण दृष्टि से युवराज की ओर देखते रहे। उनका हृदय तीव्र वेग से स्पंदित होता रहा।
'मैंने उसे किन्नरी निहारिका को प्रदान कर दिया...।' युवराज की गंभीर वाणी गंज उठी, साथ ही द्रविड़राज प्रसन्नता से आल्हादित हो उठे युवराज की सत्यता पर।
'क्यों...? मणिमाल किन्नरी को प्रदान करने का कारण?' महापुजारी ने पूछा।
'उसकी सर्वतोमुखी कला का अवलोकन कर, किसी के भी हृदय में आकर्षण का उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है।
युवराज का स्पष्ट कथनसुनकर महापुजारी अवाक् और स्तब्ध रह गये। क्रोधपूर्ण मुखमुद्रा गंभीर हो गई।
-
कई क्षण तक प्रकोष्ठ में नीरवता का साम्नाज्य छाया रहा।
'जाओ...। फिर कभी किन्नरी से मिलने का प्रयास न करना...।' द्रविड़राज ने कहा। महापुजारी एवं सम्राट के चरण छूकर युवराज अपने प्रकोष्ठ की ओर चले गए। तब युवराज ने फिर कभी किन्नरी से मिलने का प्रयास नहीं किया।
यद्यपि दारुण ज्वाला उनके हृदय में धधकती रहती थी, तथापि अपने गुरुजनों के अभीष्ट मार्ग पर चलना ही तो उनका परम कर्तव्य था।
|