RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
युवराज किन्नरी को लेकर सरोवर के पास आये। किन्नरी के नहीं कहने पर भी उन्होंने उसका घाव निर्मल जल से धोया, फिर अपने मूल्यवान मुकुटबंध का थोड़ा-सा भाग फाड़कर पट्टी बांध किन्नरी एक मादक स्वप्न का आभास पाकर सिहर उठी।
'बैठो।' युवराज स्फटिक शिला पर बैठते हुए बोले। किन्नरी भूमि पर बैठने लगी।
'वहां नहीं, यहां बैठो।' युवराज ने उसे अपने पास स्फटिक शिला पर बैठने का संकेत किया —'तुम कलामयी हो, तुम्हारा मैं आदर करता हूं।'
'ऐसा न कहो श्रीयुवराज! म्लान पुष्प को देवता के मस्तक पर चढ़ने का सौभाग्य कहां ...?'
'तुम म्लान पुष्प नहीं, हृदयोद्यान की प्रस्फुटित कलिका हो, कलामयी ! तुम अनुपम हो, अगम हो।' युवराज ने किन्नरी को हठपूर्वक उस स्फटिक-शिला पर बैठा लिया—'तुम अद्भत कलामयी हो, मैं तुम्हारा पुजारी है। तुम मेरी आराध्य देवी हो, मैं तुम्हारा उपासक हं। इन कला पारखी नेत्रों में तुम्हारे प्रति अपूर्व श्रद्धा विराजमान है, सच्चे कला पारखी के मन में उच्चता एवं हीनता का भाव नहीं रह जाता, किन्नरी।'
'आप धन्य हैं युवराज...।'
"धन्य ह...?' युबराज मंद मुस्कान के साथ बोले—'धन्य नहीं, कला का अनन्य भक्त हूँ मैं। जिस प्रकार चक्रवाल की गायन-कला का आदर करता हूं, उसी प्रकार नर्तन-कला का भी। वास्तव में प्रकृति देवी की अद्भुत कला की अनुपम प्रतिमा इस जगती-तल पर साकार रूप धारण करके आ गई है, तुम्हारे रूप में...।' '...........।
' किन्नरी के हृदय में मृदु स्पन्दन हो रहा था। 'किन्नरी!'
'देव!'
'तुम्हें कष्ट हुआ यहां आने में?'
'कष्ट किस बात का आदरणीय...?' हास्य कर उठी सौंदर्य की वह अनुपम राशि। उसकी उज्ज्वल दंत पंक्तियां विद्युत रेखा -सी चमक उठीं-'श्रीयुवराज ने मुझे किस हेतु यहां आने की आज्ञा दी थी।'
'इसलिए कि एकांत में तुम्हारी कला का विधिवत् आनंद ले सकू।'
'तो क्या युवराज की यह अभिलाषा है कि मैं किसी नृत्य का प्रदर्शन करूं?'
'रहने दो। तुम्हें कष्ट है ...तुम्हारा हृदय व्यथित हो रहा है...।'
'श्रीयुवराज का तात्पर्य...?' किन्नरी ने अझै न्मिलित नयनों द्वारा युवराज की ओर देखा।
'यही कि तुम्हारा मणिबंध क्षत है...पीड़ा होती होगी उसमें...।
' बड़ी देर तक दोनों मौनावस्था में स्फटित शिला पर बैठे रहे।
नीलाकाश में धवल चन्द्र अपनी हृदयग्राही मुस्कान बिखेर रहा था, परंतु लज्जित हो रहा था, युवराज के पार्श्व में बैठे हुए उस अनुपम भूचन्द्र का अवलोकन कर।
'अब जाओ निहारिका! देर होगी तुम्हें।' युवराज ने कहा और उठ खड़े हुए। निहारिका भी खड़ी हो गई।
'यदि सकुशल रहा तो फिर कल प्रात:काल मंदिर में मिलन होगा।' 'महामाया की माया से युवराज चिरकाल तक सकुशल रहेंगे।' किन्नरी बोली और उसने झुककर युवराज का अभिवादन किया।
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उस समय जबकि रात्रि की भयानक निस्तब्धता यावत् जगत पर आच्छादित थी, किन्नरी निहारिका अपने प्रकोष्ठ में बैठी हुई न जाने किस प्रगाढ़ चिंता में निमगन थी।
उसके मणिबंध पर अभी तक युवराज के मुकुटबंद का टुकड़ा बंधा हुआ था, उसने उसे सावधानी से खोला और मस्तक से लगाकर यत्नपूर्वक एक स्थान पर रख दिया।
पुन: वह चिंता में निमग्न हो गई। कदाचित् वह युवराज के विषय में ही चिंतन कर रही थी। तभी तो कभी-कभी वह उन्मत्त दृष्टि उठाकर युवराज के मुकुटबंध के उस धवल टुकड़े की ओर देख लेती थी।
मानवीय हृदय में उथल-पुथल होता रहता है, परन्तु कभी-कभी वह इतनी पराकाष्ठा तक पहुंच जाता है कि सहनशीलता उसका वहन करने में पूर्णतया असमर्थ हो जाती है।
पार्श्व के प्रकोष्ठ में खिड़की के पास बैठा हुआ चक्रवाल धवल चन्द्रिका का कल्लोल देख रहा था, साथ ही गीत की स्वरलहिरी भी मधुर गति से प्रवाहित हो रही थी।
वह गुनगुना रहा था 'जो केलि कुंज में तुमको, कंकड़ी उन्होंने मारी। क्यों कसक रही वह अब भी, तेरे उर में सुकुमारी।।' -- -- आज फिर वही दृश्य। तारिका जडित आकाश के वक्षस्थल पर अपनी प्रभा बिखेरता हुआ चन्द्र, राजोद्यान के सरोवर में विकसित होती हुई कुमुदिनी और स्वच्द स्फटिक-शिला पर बैठे हुए युवराज नारिकेल, किन्नरी निहारिका एवं चक्रवाल
रात्रि का प्रगाढ़ अंधकार चारु-चन्द्रिका का आलिंगन कर यथावत्, जगत पर एक असहनीय विकलता प्रसारित कर रहा था।
युवराज एवं किन्नरी अविचल बैठे थे—चक्रवाल भी शांत था। पक्षियों का गुंजरित कलरव रात्रि की निस्तब्धता में विलीन हो गया।
'आप व्यग्र क्यों हैं श्रीयुवराज...?' पूछा चक्रवाल ने।
'व्यग्न तो नहीं हूं।' युवराज ने कहा—'मैं उत्सुक दृष्टि से उस दीप्त चंद्र को देख रहा था एवं सोच रहा था कि कितना मुग्धकारी एवं कलापूर्ण नृत्य है उसका, स्वच्छाकाश के वक्ष पर।
'श्रीयुवराज का हृदय कितना उदार एवं कितना निर्मल है...?' किन्नरी ने मधुर स्वर में कहा। 'क्या श्रीयुवराज द्वारा भूचन्द्र के कलापूर्ण नर्तन अवलोकन नहीं करेंगे?'
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