RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
सम्राट का गर्जन चारों ओर गूंज उठा। द्वार पर बैठी हुई पर्णिक की माता न जाने क्यों भय से सिहर उठी। सम्राट की मुखाकृति एकाएक वेदनाछन्न हो उठी। उसके नेत्रों के कोरों पर अश्नुकण छलछला आये। 'साम्राज्ञी ! तुम आजन्म निर्वासन दण्ड का भोग करो और तुम्हारे प्रेम का अनन्य पुजारी मैं यहां राज-प्रकोष्ठ में उपस्थित रहकर सुख-शैया पर विश्राम करू-? नहीं यह नहीं हो सकता।' सम्राट की वाणी सिक्त थी-'प्रजाजनो!' सम्राट ने सामने की ओर देखा-'मैंने सम्राट बनकर न्याय किया, अब प्रेम का अनन्य पुजारी मैं साम्राज्ञी का साथ दूंगा। साम्राज्ञी के साथ वनस्थली में रहकर अपने न्याय का प्रतिपालन करूंगा। व्यर्थ है, रोकने की चेष्टा व्यर्थ है, महामंत्री...। मैं जाऊंगा ही।'
सम्राट राजसिंहासन से नीचे उतर गये और आगे बढ़कर उन्होंने साम्राज्ञी का हाथ पकड़ लिया —'चलो साम्राज्ञी! सुखों के उपभोग में तुम्हारा साथ दिया है मैंने, तो निर्वासन में विलग कैसे रह सकता हूं?'
सम्राट साम्राज्ञी को लेकर आगे की ओर बढ़ चले। सबकी आंखें सिक्त हो आयीं। कोई उच्च स्वर में गा उठा, 'जाओ, जाओ ऐ मेरे सजन। रुक न सको तो जाओ...।'
'पर्णिक...।' पर्णिक की माता का उद्दीप्त स्वर सुनाई पड़ा।
सम्राट का अभिनय करते हुए पर्णिक की सारी उत्फुल्लता क्षणमात्र में विलीन हो गई। वह उतावली के साथ दौड़ आया अपनी माता के पास—'क्या है माता जी ?' उसने देखा, उसकी माता की मुखाकृति गंभीर एवं वेदनापूर्ण है।
'इस नाटक की रचना तूने कैसे की? किसने प्रेरणा दी?'
"किसी ने नहीं माता जी। मैंने तो इसे आज स्वप्न में देखा था।' पर्णिक ने कहा- मैंने देखा था कि एक रानी ने एक राजा से असत्य भाषण का महान् अपराध किया। न्यायकर्ता राजा, रानी को राजदंड देने को प्रस्तुत हुआ—परन्तु उसने क्या दण्ड दिया, वह मुझे स्मरण नहीं रहा ...आज प्रात:काल ही से मैं यह सोचने का प्रयत्न करता आ रहा हूं कि स्वप्न में उस राजा ने अपनी रानी को कौन-सा दण्ड दिया होगा—मगर वह बाल स्मृति पटल पर लाख चेष्टा करने पर भी नहीं आई। विवश होकर मैंने अपनी ही बुद्धि से दंड की व्यवस्था सोच निकाली। मेरे न्याय करने में कोई त्रुटि थी माता जी?'
पर्णिक की माता के नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो चले।
'मैं बहुत चाहता हूं, माताजी।' पर्णिक पुन: बोला, 'कि मैं कहीं का सम्राट हो जाऊं, परन्तु कैसे होते हैं सम्राट माताजी? हम ही जैसे तो...? अब तो नित्यप्रति ही ऐसे नाटकों की रचना करेंगे।'
................ वत्स! इस प्रकार का नाटक फिर कभी अभिनीत न करना, समझे।' पर्णिक की माता ने कहा—'जाओ, तुम्हारे साथी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।'
सरल पर्णिक ने माता की आंतरिक व्यथा पर मनन करने का तनिक भी प्रयत्न नहीं किया और शीघ्रतापूर्वक अपने साथियों के साथ चला गया।
"भाई! अब हम यह नाटक कभी नहीं खेलेंगे। माताजी को दुख होता है। उसने अपने साथियों से कहा। सब क्रीड़ा करते हुए आगे बढ़ चले।
उधर से नायक का पुत्र आ रहा था। 'तुम कहां थे....?' एक लड़के ने उससे कहा—'आज हम लोगों ने एक अद्भुत नाटक अभिनीत किया था।'
'अच्छा...!' नायक पुत्र ने विचित्र भंगिमा से नेत्र संचालन किया।
'तुम होते तो देखते कि पर्णिक सम्राट के वेश में स्वत: सम्राट-सा लग रहा था...।'
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