RE: DesiMasalaBoard साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन
सुनील के बारे में ऐसी उत्तेजक बातें सुनकर ज्योति के जहन में भी काम की ज्वाला भड़क उठी। ज्योतिजी ने सुनीता से कहा, "बहन, तू भी बहुत चालु है। तू जानती है की मुझे कैसे भड़काना है। मैं तेरे पति के बारे में सोचती हूँ तो मेरी चूत में आग लग जाती है। उनकी गंभीरता, उनकी सादगी और उनकी शरारती आँखें मेरी चूत को गीली कर देती हैं। मैं जानती हूँ की आग दोनों तरफ से लगी है। अब तो तू मेरी बहन और अंतरंग सहेली बन गयी है ना? तो तू कुछ ऐसा तिकड़म चला की उनसे मेरी चुदाई हो जाए!"
फिर ज्योतिजी ने सोचा की उनकी ऐसी उटपटांग बात सुनकर कहीं सुनीता नाराज ना हो जाए, इस लिए वह थोड़ा सम्हाल कर सुनीता के सर पर हाथ फिराते हुए बोली, "बहन, मुझे माफ़ करना। मेरी बेबाकी में मैं कुछ ज्यादा ही बक गयी। मैं तुझे तेरे पति के बारे में ऐसी बातें कर परेशान कर रही हूँ।"
सुनीता ने जवाब में कहा, "दीदी, मैं जानती हूँ, मेरे पति आप पर फ़िदा हैं। और मैं उसे गलत नहीं समझती। आप जैसी कामुक बेतहाशा खूबसूरत कामिनी पर कौन अपनी जान नहीं छिड़केगा? अब तो हम दोनों ऐसे मोड़ पर आ गए हैं की क्या बताऊँ? मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लगा दीदी, क्यूंकि मैं जानती हूँ की आप अपने पति जस्सूजी से बहुत प्यार करते हो। यही तो कारण है की आप मुझे उनसे चुदवाने के लिए ऐसे वैसे बड़ी कोशिश कर प्रोत्साहित कर रहे हो। कौन पत्नी भला अपने पति से चुदवाने के लिए किसी स्त्री को तैयार करेगी, जब तक की उसे अपने पति से बहुत प्यार ना हो और उन पर पूरा विश्वास ना हो?"
सुनीता की ऐसी कामुकता भरी बातें सुनकर ज्योतिजी गरम हो रहीथी। वैसे भी सुनीता के उँगलियों से चोदने से काफी गरम पहले से ही थी। ज्योतिजी की साँसे तेज चलने लगीं.. उन्होंने कहा, "सुनीता, मैं अब झड़ने वाली हूँ।"
सुनीता ने उँगलियों से चोदने की फुर्ती बढ़ाई और देखते ही देखते ज्योतिजी एक या दो बार पलंग पर अपने कूल्हे उठाके, "आह... ऑफ़... हायरे... " बोलती हुई उछली और फिर पलंग पर अपनी गाँड़ रगड़ती हुई एकदम निढाल हो कर चुप हो गयी। उसकी साँसे तेज चल रही थी। ज्योतिजी का छूट गया और वह शांत हो गयी। परन्तु उनके मन में से अपन पति से सुनीता को चुदवाने का विचार अभी गया नहीं था। वह इस बात को पक्का करना चाहती थी।
साँस थमने ज्योतिजी ने सुनीता का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, "मेरी प्यारी बहन, तू क्या बोलती है? जब तुझे सारी बातें साफ़ है तो फिर कुछ करते हैं जिससे तू जस्सूजी के लण्ड का अनुभव कर सके।"
ज्योति जी की बात सुनकर सुनीता थोड़ी सकपका गयी, क्यूंकि वह जो बोलने वाली थी उससे ज्योतिजी काफी हतोत्साहित हो सकती थी। सुनीता ने दबे स्वर में बड़ी ही गंभीरता से कहा, "दीदी मैं आपसे माफ़ी मांगना चाहती हूँ। पर दीदी, मैं आपसे एक बात बताना चाहती हूँ की ऐसा हो नहीं पाएगा। ऐसा नहीं है की मैं जस्सूजी को पसंद नहीं करती। मैं ना सिर्फ उन्हें पसंद करती हूँ बल्कि दीदी मैं आज आपसे नहीं छुपाउंगी की मैं मैं जब भी उनको देखती हूँ तब मैं उनपर वारी वारी जाती हूँ।
अगर आप की शादी उनसे नहीं हुई होती और अगर मैं उनसे पहले मिली होती तो मैं जरूर उनको आपके हाथों लगने नहीं देती। जैसे आपने उनको और स्त्रियों से छीन लिया था ऐसे मैं भी कोशिश करती की मैं उनको आपके हाथों से छीन लूँ और वह मेरे हो जाएं । पर अब जो हो चुका वह हो चुका। वह आपके हैं और हमेशा आपके रहेंगे। पर मेरी मजबूरी है की मेरी कितनी भी इच्छा होते हुए भी मैं आपकी मँशा पूरी नहीं कर सकती।"
सुनीता की बात सुनकर ज्योतिजी को बड़ा झटका लगा। उन्हें लगा था की सुनीता तो बस अब फँसने वाली ही है, पर यह तो सब उल्टापुल्टा हो रहा था। ज्योतिजी ने पूछा, "पर क्यों तुम ऐसा नहीं कर सकती? क्या तुम्हें अपने पति से डर है? या फिर लज्जा, या कोई धार्मिक आस्था का सवाल है? आखिर बात क्या है?"
सुनीता ने सरलता से कहा, "ज्योतिजी बात थोड़ी समझने में मुश्किल है। मैं एक राजपूतानी हूँ। मेरी माँ की मैं चहेती बेटी थी। मेरी माँ मुझसे सारी बातें स्पष्ट रूप से करती थीं। जब कोई लड़कों के बारेमें बात होती थी तो मुझे माँ ने बचपन से ही यह सिखाया था की औरत का शील ही उसका सबकुछ है। उसके साथ कभी छेड़ छाड़ मत करना।"
जब मैं थोड़ी बड़ी हुई और माँ ने देखा की ज़माना बदल चुका था। लड़के लडकियां एक दूसरे से इतनी मिलती जुलती थीं की उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण होना और चुम्माचाटी आम बात हो गयी थी तब माँ ने अपनी सिख बदली और कहा, "ठीक है। आज कल ज़माना बदल चुका है। आज कल के जमाने में लड़का लड़की में कुछ चुम्माचाटी चलती है। तो चिंता की कोई बात नहीं। पर तुम अपना सब कुछ, अपना शील उसीको देना जो तुम्हारे लिए अपना जीवन तक छोड़ने के लिए तैयार हो और अपनी जान पर खेल कर तुम्हारी रक्षा करे।"
मेरी माँ की सिख मेरे लिए मेरे प्राण के सामान है। मैं उसको ठुकरा नहीं सकती। दीदी मैं आपको निराश कर के बहुत दुखी हूँ। आई एम् सो सॉरी। बल्कि सचमें तो मैं भी जस्सूजी की कायल हूँ और उनसे मुझे कोई परहेज भी नहीं है। मेरे पति तो उलटा जस्सूजी की बातें कर के मुझे छेड़ते रहते हैं। सिनेमा हॉल में उन्हों ने ही मुझे जस्सूजी के पास बिठा दिया था और जस्सूजी की और मेरी जो राम कहानी हुई थी वह सब मेरे पति सुनीलजी को पता है। आपकी जो मँशा है वही मेरे पति की भी है। मैंने आपको बता ही दिया है की कैसे जस्सूजी ने मेरे हाथों में अपना लण्ड पकड़ा दिया था और मैंने कैसे जस्सूजी को मेरी ब्रेस्ट्स से खेलने की भी इजाजत दे दी थी।"
ज्योतिजी सुनीता की बात सुनती रही। सुनीता ने ज्योतिजी की और देखा और बोली, "मेरे पति सुनील ने मेरे साथ शादी कर अपना सब कुछ मेरे हवाले कर दिया। वक्त आने पर वह मेरे लिए अपनी जान पर भी खेल सकते हैं तो मैं उनकी हो गयी। अब मैं अपनी माँ की बात कैसे ठुकराऊँ?"
ज्योतिजी सुनीता की बात सुन कर चुप हो गयी। शायद उनको लगा जैसे सुनीता ने उनके सारे मंसूबों पर ठंडा पानी डाल दिया। सुनीता ने महसूस किया की ज्योतिजी उसकी बातें सुनकर काफी निराश लग रहे थे।
सुनीता ने आगे बढ़ते हुए ज्योति दीदी का हाथ थमा और बोली, "दीदी, मैं आपका दिल तोड़ना नहीं चाहती। पर आप भी मेरे मन की बात समझिये। मैं मेरी माँ से वचन बद्ध हूँ। मेरी माँ की इच्छा और सिख की अवज्ञा करना उनका अपमान करने बराबर है। बस मैं आपसे इतना वादा करती हूँ की आप मेरे पति के साथ जब चाहे जहां चाहे सो सकती हैं, मतलब चुदवा सकतीं हैं। मुझे उसमें कोई एतराज ना होगा।
जहां तक मेरा सवाल है, मने मेरी मजबूरी बतायी। हाँ मैं जस्सूजी को जी जान से प्यार करती हूँ और करती रहूंगी। मैं कोशिश करुँगी की जो सुख मैं उनको नहीं दे सकती उसके अलावा जो सुख मैं उनको दे सकती हूँ वह उनको जरूर दूंगी। मैं प्रार्थना करुँगी की इस जनम में नहीं तो अगले जनम में ही सही मुझे जस्सूजी की शैयाभागिनी बनने का मौक़ा मिले।"
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