RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
थोड़ी देर बाद जब उसने नीचे देखा तो राजन दूर जा रहा था। वह मुंडेर से बाहर आ गई और उसे देखने लगी। दूर कंपनी का ट्रक खड़ा था। शायद कहीं बाहर जा रहा था। किसी के आने की आहट पर उसने आँसू पोंछ डाले। केशव समीप आते हुए बोला-
‘क्यों पार्वती, क्या देख रही हो?’
‘दूर बर्फ से ढकी चट्टानों को।’
‘ओह! आज ‘वादी’ की काली पहाड़ियां सफेद हो गयीं।’
‘हाँ काका, तुम कहते थे राजन अछूत है और नास्तिक भी।’
‘हाँ तो।’
‘तो उसकी माँ प्रतिदिन पूजा करने क्यों आती है?’
‘उसका अपना विश्वास है। फिर भगवान का द्वार तो हर मनुष्य के लिए खुला है और मंदिर के पट तो तुम्हारे बाबा ने ही अछूतों के लिए खोले थे।’
‘हाँ काका, यदि उन्हें अछूतों से घृणा होती तो वह राजन को अपने घर रखते ही क्यों?’
‘हाँ!’ काका कुछ दबे स्वर में बोले।
‘वास्तव में हमें दूर करने के लिए भगवान नहीं बल्कि इंसान है, यह समाज है और उसके बनाए हुए नियम।’
‘पार्वती! संसार को चलाने के लिए इन सामाजिक रीति-रिवाजों का होना आवश्यक है, हमें इनको मानना पड़ेगा।’
‘परंतु मनुष्य इन्हें तोड़ भी तो नहीं सकता।’
‘हाँ, यदि तोड़ने से उसकी भलाई हो तो...।’
‘मेरी तथा राजन की भलाई तो इसी में है-हमें औरों से क्या?’
‘तुम भूल रही हो-हम इस संसार में अकेले नहीं जी सकते-न ही दूसरों का सहारा लिए बिना आगे बढ़ सकते हैं।’
‘हमें किसी का सहारा नहीं चाहिए।’
‘तो जानती हो इसका परिणाम?’
‘क्या?’
‘राजन का अंत।’
‘नहीं काका।’ पार्वती चीख उठी।
‘यह कंपनी से निकाल दिया जाएगा। हरीश उसे घृणा की दृष्टि से देखेगा। पढ़ा-लिखा तो है नहीं, दर-दर की ठोकरें खाता फिरेगा और बूढ़ी माँ के लिए किसी दिन संसार से चल बसेगा।’
‘ऐसा न कहो काका।’
‘कहने या न कहने से क्या होता है? एक निर्धन का जीवन तो एक छोटा-सा बुलबुला है, जो जरा से थपेड़े से भी टूट सकता है। वह सब कुछ तुम्हें अपने लिए नहीं, बल्कि राजन तथा उसकी बूढ़ी माँ के लिए करना है। इस बलिदान का नाम ही सच्ची लगन है।’
‘तो काका मैं अपना दिल पत्थर के समान कर लूँगी। मैं उसे नष्ट होते नहीं देख सकती। मैं उसके जीवन में एक काली छाया नहीं बनना चाहती।’
‘पार्वती, दूसरे के लिए जीना ही तो जीवन है। वही प्रेम सच्चा है जो निःस्वार्थ हो, जैसे पतंगे का दीप शिखा के प्रति, चकोर का चाँदनी तथा भक्त का भगवान के प्रति।’
पार्वती चुप हो गई। केशव ने स्नेह से भरा अपना हाथ कंधे पर रखा और उसे देख मुस्कराया। फिर बोला-
‘जाड़ा अधिक होता जा रहा है, अब तुम चलो-आज मैं शीघ्र आ जाऊँगा।’
पार्वती ने दुशाला अच्छी प्रकार से ओढ़ते हुए उत्तर में ठोड़ी हिला दी और सीढ़ियाँ उतर गई।
वह सीढ़ियाँ उतरती नीचे की ओर जा रही थी और उसे लग रहा था जैसे विगत जीवन की एक-एक बात चलचित्र की भाँति उसके सामने आकर मिटती जा रही थी।
उसे लगा-जैसे उसके दिल में कहीं कुछ छिप गया है, धीरे-धीरे कुछ साल रहा है। उसका गला रुँध गया है। जिन सीढ़ियों पर कभी वह हँसी बिखेरती आती थी और दिल में लाती थी राजन से मिलने की उमंगें! अरमान!... उन्हीं सीढ़ियों पर झर रहे थे उसकी आँखों से तप्त तरल आँसू! और दिल में भरी थी दारुण व्यथा! ऐसी टीस, जिसे वह किसी प्रकार सह नहीं पा रही थी।
वह बार-बार आंचल से आँसू पोंछती, धीरे-धीरे पग उठाती सीढ़ियाँ उतरती घर की ओर जा रही थी।
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