RE: Kamukta Story कांटों का उपहार
उसने अनुभव किया अनगिनत आँखें उसे घूर रही है. उसने सोचा शायद यह उसका भ्रम है. वह दिल कड़ा करके अंदर पहुँची तो आँखें पथरा गयी. पत्थर की अनगिनत मूर्तियाँ कतार में खड़ी उसका स्वागत कर रही थी. उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा. दिल की धड़कानों के साथ उसने अनुभव किया कि इन मूर्तियों का दिल भी चीख चीख कर ठहाका लगा रहा है, उसकी बदनसीबी पर...उसके स्वाभिमान का मज़ाक उड़ा रहा है. अट्टहास कर रहा है. गाओं की एक गोरी का एक राजा से घृणा. ऐसी घृणा जो वह कभी क्षमा नही कर सकी. आख़िर किस अभिमान में डूबकर? किस बात का गर्व है उसे? वह मूर्तियों के और समीप आई. फटी फटी आँखों से इन्हे घूर्ने लगी. यह...यह मूर्तियाँ ! यहाँ ! यहाँ पर यह मूर्तियाँ कैसे आई? इन मूर्तियों को तो बाबा ने बनाया था. अपने हाथों से...आज से लगभग 22 वर्ष पहले, इन मूर्तियॉंके तो अंग अंग से वह परिचित है. फिर भी उसे अपनी आँखों पर विश्वास नही हो रहा था. इन मूर्तियों को तो बाबा ने राजेश नाम के एक बड़े व्यापारी को बेचा था बहुत कीमती दामो में. वह मूर्तियाँ यहाँ कैसे आई. और वह व्यापारी कौन था? कौन था वह जिसका मुखड़ा हमेशा ही एक मोटे चस्मे से ढँका रहता था. जिसकी घनी मुच्छों तथा दाढ़ी के पिछे एक जानी पहचानी सी सूरत झलकती थी. कौन था वह दयालु जो रोज़ ही उसके पास आने की इच्छा रखता था? उससे बातें करता था तो खो जाता था. उसके बच्चे को इतना प्यार करता था कि कभी कभी वह खुद भी कारण ढूढ़ने पर विवश हो जाती थी. क्यों उसे देखते - देखते अचानक ही उस व्यापारी का मुखड़ा उदास हो जाता था?
राधा का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा. उसे यूँ महसूस हुआ मानो वह चक्कर खाकर गिर पड़ेगी. वह मोमबत्ती हाथ में लिए एक एक मूर्ति को बहुत ध्यान से देखते हुए आगे बढ़ती चली गयी. सहसा वह चौंक पड़ी. अरे ! वह मूर्ती...यह भगवान कृष्ण की मूर्ती यहाँ कैसे आ गयी? इसे तो बाबा ने कृष्णा नगर में एक बूढ़े को दो रुपये में बेचा था ताकि खाने को कुच्छ मिल सके. यह यहाँ कैसे पहुँची? और यह मूर्ती...प्रभु यीशू मशीह की मूर्ती, इसे तो बाबा ने फादर फ्रांसिस को भेंट किया था, वह यहाँ कैसे आई? आख़िर यह पहेली क्या है? अचानक अगली मूर्ती के चरणों में रखी अनगिनत गहनों की चकाचौंध ने उसकी दृष्टि अपनी ओर खींच ली. उसने मोमबत्ती रख कर झट उन गहनों को उठा लिया. चाँदी के गहने? माथे का मुकुट, कानों के बड़े बड़े झुमके, गले का हार, कंगन, छल्ले, करघनी, पायल. एक ही दृष्टि में वह उन्हे पहचान गयी. यह तो उसकी सुंदरता के अंग थे. उसके यौवन के चार चाँद थे. आज से 22 वर्ष पहले उसने अपनी शादी के दिन इन गहनों को पहना था. सहसा उसे याद आया. इन गहनो में उसकी एक अंगूठी नही है...वा अंगूठी जिस पर राधा लिखा हुआ था. वा सिसक पड़ी. सिसकते हुए उसने इन गहनो को चूम लिया. फुट-फुट कर रो पड़ी. रोते हुए उसने इन गहनों को आँखों से लगा लिया. वह देख रही थी 22 साल पहले का वह पन्ना जो उसकी ज़िंदगी की पुस्तक पर लिखा गया था. सूरजभान सिंग कह रहे हैं. - "अब यह अंगूठी तभी उतरेगी जब तुम मुझे क्षमा कर दोगि. और मुझे क्षमा इसे वापस अपनी उंगली में धारण कर लोगि. तब मैं समझूंगा कि तुम्हारे दिल में मेरे लिए स्थान बन चुका है. तुम्हारे बाकी गहने भी मेरे पास सुरक्षित हैं. मेरे लिए वे किसी देवी की मूर्ती से भी पवित्र हैं.
सहसा उसका ध्यान उस मूर्ती पर गया जिसके चरणों में उसके गहने रखे हुए थे. उसके दिल पर मानो किसी ने बरच्छियाँ चला दी. अपनी आँखों पर उसे विश्वास ही नही हुआ. वह मूर्ती...वह अधूरी मूर्ती जिसे बाबा पूरी तरह से बना भी नही पाए थे. जिसे सबसे पहले उस व्यापारी ने खरीदा था. उसके उपर का भाग बना नही था किंतु नीचे का भाग नारी का था. राधा को इस मूर्ती पर अपना ही प्रतिबिंब नज़र आया था. वह देख रही थी. सब कुछ फटी फटी आँखों से. और उसे विश्वाश करना पड़ रहा था एक ऐसी जीती जागती वास्तविकता पर जिससे दिल इनकार नही कर सकता था. वह फुट फुट कर रो पड़ी. यह सब कैसे हो गया? कोई इंसान कैसे किसी को इतना प्यार कर सकता है. इतना बड़ा तूफान उसके उपर से गुज़र गया और वह मछलि की तरह तह पर बैठी कुच्छ भी ना जान सकी. उसकी हिचकियाँ बँध गयी. आँसू रुकने का नाम ही नही ले रहे थे. कुच्छ पल ठहर कर गहरी - गहरी साँसों के साथ उसने रंग महल का निरीक्षण किया. जहाँ - जहाँ मोमबति की रोशनी जा सकती थी. स्पस्ट या धुध्ला सा, हर जगह दृष्टि दौड़ाई. हर तरफ खामोशी थी...सन्नाटा था. केवल अपनी ही गहरी सांसो की आवाज़ सुन रही थी. और दूसरा वहाँ कोई ना था जिसकी उसे तलाश थी. तमन्ना थी. जिसके द्वारा वह इन सारी पहेलियों को बहुत आसानी से सुलझा सकती थी.
सहसा उसने कुच्छ सोच कर वह मूर्ती वहीं रख दी और झट से प्रभु यीशू मशीह की मूर्ती उठा ली. यदि वह पहेली की तह में पहुँच सकती है तो इसी मूर्ती के द्वारा. इस मूर्ती को बाबा ने बनाकर फादर फ्रांसिस को भेंट की थी, वही बता सकते हैं कि उन्होने यह मूर्ती किसे दी थी? कब दी थी? क्यों दी? किन अवस्थाओं में दी?
मोमबत्ती को वहीं जलता छोड़ कर राधा सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी. हवेली से बाहर निकल कर अपनी कार में बैठी और ड्राइवर को लखनऊ चलने को कहा. फादर फ्रांसिस सेवा निर्वित होने के बाद पिच्छले 5 वर्षों से लखनऊ में ही रह रहे थे. राधा को उनका पता मालूम करने में अधिक समय नही लगा. उनसे मिलने के पश्चात राधा ने उन्हे प्रभु यीशू मशीह की मूर्ती दिखाया और उनसे पुछा कि यह मूर्ती उन्होने कब और किसको दी थी.
फादर फ्रांसिस ने राधा से कुच्छ भी नही छिपाया. राजा सूर्यभान सिंग के संबंध में वह जितना कुच्छ जानते थे उन्होने सब कुच्छ राधा को बता दिया.
फादर की बात सुन कर राधा सन्न रह गयी. जिस व्यक्ति के लिए वह सारी उमर घृणा पालती रही वही व्यक्ति अपना सारा जीवन उसकी खुशी के लिए उसके बच्चे के भविश्य के लिए त्याग करता रहा. उसने उसकी नफ़रत का ऐसा सिला दिया तो उसके प्यार का फल कैसा होता. काश कि उसने एक पल के लिए भी उनसे प्यार किया होता. राधा की रुलाई फुट पड़ने को तैयार थी परंतु फादर की उपस्थिति का भान करके वह खुद को बहुत कठिनाई से संभाले हुए थी.
कुच्छ देर की औपचारिक बातों के बाद राधा फादर से आशीर्वाद लेकर वहाँ से निकल गयी.
|