RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
'भरोसा है तो फिर जाने की बात क्यों?'
'आप समाज को नहीं जानते।'
'आप यही तो कहना चाहती हैं कि लोग क्या कहेंगे?'
'हां।'
'चिंता मत कीजिए। लोगों की जुबान मैं बंद कर दूंगा।' जय ने कहा- 'यह कहकर कि...।'
'न-नहीं जय साहब!' डॉली ने कहा और एक झटके से उठ गई।
जय ने देखा-खिड़की से छनकर आती धूप में उसका मुख सोने की भांति दमक रहा था। डॉली के कंधों पर फैले बाल तो इतने सुंदर थे कि उनके आगे घटाओं का सौंदर्य भी फीका लगता था।
वह कुछ क्षणों तक तो डॉली के इस सौंदर्य को निहारता रहा और फिर बोला- 'आप शायद बुरा मान गईं।'
'जय साहब! आप नहीं जानते कि...।'
'मैं जानता हूं-मैंने यह सब कहकर अपराध किया है। अपराध इसलिए क्योंकि आपके मन को टटोला भी नहीं और अपने मन की बात कह बैठा। हो सकता है-आपने यह भी सोचा हो कि मैं आपकी विवशताओं से खेलने का प्रयास कर रहा हूं किन्तु विश्वास कीजिए-यह सत्य नहीं है। सच्चाई यह है कि आपको भी मंजिल की तलाश
थी और मुझे भी। मैंने तो सोचा था इस प्रकार आपको भी अपनी मंजिल मिल जाएगी और मुझे भी। आप तो जानती हैं-जीवन के लंबे रास्ते यूं भी अकेले नहीं कटते। इस सफर में किसी-न-किसी साथी का होना जरूरी होता है किन्तु यदि मैं आपके योग्य नहीं तो!
' 'ऐ-ऐसा न कहिए जय साहब!' डॉली ने चेहरा घुमा लिया और तड़पकर बोली- 'आप तो देवता हैं। आप तो इतने महान हैं कि मैं आपकी महानता को कोई नाम भी नहीं दे सकती।'
'फिर क्या बात है?'
डॉली इस प्रश्न पर मौन रही।
|