RE: स्पर्श ( प्रीत की रीत )
स्टेशन आ चुका था। जय ने गाड़ी रोक दी। डॉली गाड़ी से उतरी और एक कदम चलकर रुक गई। सोनपुर जाना था उसे दूर के रिश्ते की बुआ के पास पर उसने तो कभी उसकी सूरत भी न देखी थी। केवल सुना ही था कि पापा की एक ममेरी बहन भी थी। क्या पता था उसे वहां भी आश्रय मिले न मिले। क्या पता-बुआ उसे पहचानने से भी इंकार कर दे। विपत्ति में कौन साथ देता है। यदि ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा? कहां जाएगी वह-कौन आश्रय देगा उसे? किस प्रकार जी पाएगी वह अकेली?
डॉली सोच में डूब गई। पश्चात्ताप भी हुआ। यों भटकने से तो अच्छा था कि वह रामगढ़ में ही रहती। बिक जाती-समझौता कर लेती अपने भाग्य से।
तभी विचारों की कड़ी टूट गई। किसी ने उसके समीप आकर पूछा- 'क्या आपको वास्तव में सोनपुर जाना है?'
डॉली ने चेहरा घुमाकर देखा-यह जय था जो न जाने कब से निकट खड़ा उसके विचारों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। डॉली उसके प्रश्न का उत्तर न दे सकी।
जय फिर बोला- 'मैं समझता हूं-आप सोनपुर न जाएंगी।'
'जाना तो था किन्तु।' डॉली के होंठ खुले।
'किन्तु क्या?'
'सोचती हूं-मंजिल न मिली तो?'
'राहें साफ-सुथरी हों और मन में हौसला भी हो तो मंजिल अवश्य मिलती है।'
'राहें अनजानी हैं।'
'तो फिर मेरी सलाह मानिए।'
'वह क्या?'
'लौट चलिए।'
'कहां?'
'उन्हीं पुरानी राहों की ओर।'
'यह-यह असंभव है।'
'असंभव क्यों?'
'इसलिए क्योंकि उन राहों में कांटे हैं। दुखों की चिलचिलाती धूप है और नरक जैसी यातनाएं हैं। जी नहीं पाऊंगी। इससे तो अच्छा है कि यहीं किसी गाड़ी के नीचे आकर...।' कहते-कहते डॉली की आवाज रुंध गई।
'जीवन इतना अर्थहीन तो नहीं।'
'अर्थहीन है जय साहब! जीवन अर्थहीन है।'
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