Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
12-28-2018, 12:46 PM,
#31
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"पहले पहले तुम्हारी बहन की बातों से और उसके चले जाने के बाद तुम्हारे बर्ताव से मुझे लगा था तुम दोनो में बहुत ज़्यादा प्यार है. एक भाई बहन के प्यार की एसी गहराई वो भी आजकल के ज़माने मे देखकर मैं हैरान रह गयी थी. मुझे कुछ शक तो पहले से ही था मगर कल जो तुमने किया उससे मेरा शक यकीन में बदल गया"



"को शक? कैसा शक? दुनिया का कोई भी भाई जिसे अपनी बहन से प्यार है, जिसे अपनी बहन की इज़्ज़त का ख़याल है, अपनी बहन के लिए कोई भी हद पार कर सकता है " मैने थोड़ा लापरवाही दिखाते हुए कहा जबकि मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था. 

"कर सकता है. ज़रूर कर सकता है" 

हालाँकि मैं उसकी ओर नही देख रहा था मगर उसकी चाकू की धार जैसी नज़र को मैं खुद के आर पार होता ज़रूर महसूस कर रहा था. "मगर एक भाई के तरीके और एक प्रेमी के तरीके में बहुत फरक होता है. जो दीवानगी कल मैने तुम्हारी आँखो में देखी थी, जो जनुन तुम्हारे सर चढ़ कर बोल रहा था वो एक भाई का हरगिज़ नही था, वो तो अपनी प्रेयसी के लिए पागल किसी प्रेमी..........."

"आपको कोई बहुत बड़ी ग़लतफहमी हो गयी है. ऐसा वैसा कुछ भी नही है जैसा आप सोच रही हैं" मैं उसकी बात को बीच में काटते हुए बोला और एकदम से उठ खड़ा हुआ. मैं वहाँ से हटने ही वाला था कि उसके हाथ ने मेरा हाथ जाकड़ लिया.

"मैं ग़लत हूँ तो इतना घबरा क्यों रहे हो? ऐसे भाग क्यों रहे हो? मैं कोई इल्ज़ाम नही लगा रही तुम्हारे उपर. कम से कम मेरी बात तो सुन लो. बैठो". वो मेरा हाथ खींचते हुए बोली 

मैं ना चाहते हुए भी फिर से बैठ गया. मेरे बैठने के बाद भी उसने मेरा हाथ नही छोड़ा था.

इस बार जब वो बोली तो उसकी नज़र मेरी ओर नही थी. वो सामने देख रही थी. उसकी नज़र सामने खेतों की ओर थी मगर वो खेतों को नही किसी और अग्यात स्थान की ओर देख रही थी.

"मेरा भी एक भाई था. बहुत सुंदर, तुम्हारी तरह उँचा लंबा जवान. जैसे तुम अपनी बहन को प्यार.करते हो.उसका ख़याल.रखते हो उसकी हिफ़ाज़त के लिएकिसी भी हद तक .जा सकते हो वैसे ही वो..वो भी मुझे .मुझे ऐसे ही प्यार करता था.हमेशा मेरा ख़याल रखता था" उसकी आवाज़ भारी हो गयी थी, जैसे उसका गला भर आया था. मैने चेहरा उठाकर उसकी और देखा तो उसकी आँखे नम हो गयी थी, बोलते बोलते उसके होंठ कांप रहे थे. वो एक दो पल के रुकी जैसे खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी. 

"और फिर मेरे पिताजी ने मेरी शादी तय करदी. हमारे पिताजी का नाम हमारा खानदान इतना उँचा था कि मुझे और भाई को.. " मेरा हाथ अभी भी उसके हाथों में था और मैं उसके हाथों का कंपन महसूस कर रहा था. वो अभी भी सामने की ओर देख रही थी. "मेरी शादी के बाद भाई ने खुद को शराब में डुबो लिया. परिवार वालों ने बहुत कोशिस की, मगर वो नही माना, उन्हे तो मालूम ही नही था उसको क्या गम है. शराब उसकी लत नही उसके जीने का सहारा बन गयी. और फिर वो और फिर.वो एक दिन सदा सदा के .......".लिए वो वाक्य पूरा ना कर सकी. उसका चेहरा झुक गया. उसका पूरा जिस्म कांप रहा था. उसकी आँखो से आँसू निकल उसके गालों पर लुढ़क रहे थे. मैं हतप्रभ रह गया. मुझे कुछ समझ नही आया मैं क्या करूँ. 

वो एकदम से उठ खड़ी हुई और अपनी चुनरी से चेहरा पोंछते जाने लगी. मैं उठ खड़ा हुआ. कोई दस एक कदम जाने के बाद वो ठिठक गयी और फिर वापस मेरी ओर घूमी "बहन की चिंता मत करना. उसकी ज़िम्मेदारी मेरी है. मैं उसका पूरा ख़याल रखूँगी" इतना बोल वो मुड़ने ही वाली थी कि फिर रुक गयी "बहन को कोई संदेशा देना है तो बोलो, मैं पहुँचा दूँगी"

संदेशे का नाम सुनकर मुझे चिट्ठी का याद आया जो अभी भी मेरी जेब में थी. मैं चिट्ठी निकाल कर उसके पास गया. उसकी आँखे अभी भी आँसुओं से तर थीं. उसके हंसते मुस्कराते चेहरे के पीछे कितनी वेदना कितनी पीड़ा छिपी हुई थी, इस बात का अहसास होते ही मैं कांप उठा. मैने खत उसको पकड़ाया तो हमारी नज़रें मिली. उसकी आँखो से झाँकती वो अंतहीन उदासी देख मेरा दिल धक से रह गया. उसने खत ले लिया और पीड़ा से विकृत चेहरे से मुस्कराने की कोशिस की मगर वो सफल ना हो सकी और वो मूड कर जाने लगी. मैं उसे कुछ कहना चाहता था. कुछ ऐसा जिससे उसका दुख उसकी वेदना कम हो सके, कुछ ऐसा जो उसके नासूर बन चुके ज़ख़्मो पर मलम का काम करता. मगर मुझे कुछ नही सूझा मैं उसे क्या बोलूं, मेरी कुछ समझ में ना आया और वो चलती चलती मुझसे दूर होती चली गयी. मैं बट बना वहीं खड़ा रहा, तब भी जब उसका साया मेरी नज़रों से ओझल हो गया. 

वापस शेड की ओर जाते हुए जैसे मैं, मैं नही था. मुझे लगता था बहन से बिछड़ कर जो दुख जो तकलीफ़ मैने झेली है वो किसी ने ना झेली होगी. आज मालूम चला था दुख की असली परिभाषा का. मुझे तो उम्मीद थी कि मैं बहन को ढूँढ लूँगा, मेरी बहन मुझे मिल जाएगी और ज़िंदगी फिर से खुशहाल हो जाएगी मगर देविका? उसे तो ना कोई उम्मीद है ना कोई सहारा. उसे तो ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक इस पीड़ा को झेलना होगा, जिंदगी की आख़िरी साँस तक. इसे उपरवाले की निर्दयता कहूँ या अभागी देविका की बदक़िस्मती मगर इतने बड़े संसार में किसे खबर थी, किसे परवाह थी उस निरीह जीव की जिसे ज़िंदगी के उस अनंत सफ़र में आख़िरी पड़ाव तक उस वेदना को झेलना था, उस पीड़ा को बर्दाश्त करना था जिसे मैं कुछ दिन भी भी बर्दाश्त नही कर पाया था और अपनी जान देने पर उतारू हो गया था. ऐसा अंत हुआ था उस जवानी, उत्साह से उमागाते, शानदार प्रेम का! 

ओह जवानी! जवानी! तुम किसी भी चीज़ की परवाह नही करती, तुम तो मानो संसार की सभी निधियों की स्वामिनी हो. तुम्हे तो उदासी में भी खुशी मिलती है, दुख भी अच्छा लगता है, तुममे आत्मविश्वास है, अकड़ है अहंकार है. तुम हर पल यही कहती लगती हो----देखिए, मैं अकेली ही जिंदा हूँ, जबके वास्तव में तुम्हारे दिन जल्दी जल्दी बिताते जाते हैं. गिनती और चिन्हो के सिवा तुम्हारे भीतर और जो कुछ भी है वो उसी तरह लुप्त हो जाता है जैसे धूप में बर्फ शायद तुम्हारा सौन्दर्य सब कुछ कर पाने की संभावना में नही बल्कि यह सोचने में निहित है कि तुम सब कुछ कर लोगि, कि तुम उन्ही शक्तियों को नष्ट कर रही हो जिनका कोई उपयोग नही कर सकती, कि हम में से हर कोई अपनी शक्ति का अप्व्यय करता है..कि हममें से हर किसी को यह कहने का उचित अधिकार प्राप्त है : अगर मैने अपना समय व्यर्थ नष्ट ना किया होता तो मैं क्या कुछ ना कर डालता"

उसदिन शाम को जब मैं खेतों से घर पहुँचा तो बुरी तरह से थक चुका था. बदन का पोर पोर दुख रहा था. घर में घुसते ही मैने माँ को रसोई मे खाना बनाते देखा. माँ ने आवाज़ सुनकर मेरी ओर देखा, उसके चेहरे की मुस्कान ही बता रही थी कि उसे सहर से अच्छी खबर मिली थी, मैं उससे पूछना चाहता था, बहुत सारे सवाल थे मगर मुझे माँ से बहुत झीजक महसूस हो रही थी. 'बाद मैं बात करता हूँ' सोचकर मैं वहाँ नहाने चला गया. नहा कर कमरे में कपड़े पहन ही रहा था कि माँ खाना लेकर आ गयी, होंठो पर वोही मुस्कान चिपकी हुई थी माँ के. 

मैं माँ से नज़रें चुराता बेड पर बैठकर खाना खाने लगा. समझ नही आ रहा था कि माँ से कैसे पूछूँ और माँ थी कि मेरी हालत से खूब मज़ा ले रही थी जैसे उसे मुझे सताने में कोई विशेष आनंद आ रहा था. मैने खाना खाया तो माँ ने बर्तन उठाए और फिर कुछ पलों बाद दूध ले आई. मैं ग्लास पकड़ नज़रें झुकाए बेड पर अधलेटा सा दूध पीने लगा. माँ मेरे पास बैठ गयी. कुछ पल वो यूँ ही चुप रही. 

"उसके लिए इतने परेशान थे, अब पुछोगे भी नही वो कैसी है?" माँ ने मुझे छेड़ते हुए कहा. 

मैने माँ की ओर देखा और फिर नज़रें झुक गयी. मुझसे कुछ बोला ना गया. 
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12-28-2018, 12:46 PM,
#32
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"ओह अभी शरम आ रही है, ठीक है मैं ही बताती हूँ. वो ठीक है.......पहले से थोड़ी दुबली हो गयी है शायद खाना पूरा नही खाती. मैं जब गयी तब वो फॅक्टरी में काम करने गयी हुई थी. उसके हॉस्टिल की वॉर्डन ने उसे फोन करके फॅक्टरी से बुलाया. वो जब आई तो थोड़ी घबराई सी थी. उसे लगा होगा शायद मैं उसे लेने आई हूँ" माँ बोलते बोलते रुक गई, अब वो मुस्करा नही रही थी, चेहरे पर कुछ उदासी छाने लगी थी, आँखो में कुछ नमी भी दिखाई दे रही थी.

"मुझे देखते ही वो भागकर मेरे से आकर लिपट गयी और फुट .......फूटकर रोने लगी" माँ की आवाज़ थोड़ी भारी हो गयी थी. उसने अपना गला सॉफ किया और फिर से बोलने लगी "वो तो बस मुझसे माफी मांगती जा रही थी, बिना रुके बिना साँस लिए ऐसे घर छोड़ने के लिए मुझे बार माफ़ करने को बोल रही थी. उसकी हालत देखकर मुझे भी रोना आ गया, मैने उसे दिलासा दिया कि हम उससे बिल्कुल भी नाराज़ नहीं हैं. फिर वो तुम्हारे बारे में पूछने लगी. कि तुम ठीक तो हो, उसके जाने से तुम गुस्सा तो नही, कि तुम खाना तो समय पर खाते हो, उसे बहुत फिकर हो रही थी तुम्हारी" माँ ने आँखे पोन्छि अब उसके चेहरे पर शांति नज़र आ रही थी, सकुन नज़र आ रहा था. 

"दस घंटे काम करती है वो और फिर एक दुकान पर जाकर ब्यूटी पार्लर का काम सीखती है. बोल रही थी फॅक्टरी में काम इतना ज़यादा मुश्किल नही है बहुत अच्छे पैसे बन रहे हैं. और रहना भी फ्री है. वो बोल नही रही थी मगर तुमसे मिलने को बहुत आतुर थी. हर बात घूमकर तुम्हारी ओर मोड़ लेती थी, शायद उसे लगा था कि तुम उससे नाराज़गी की वजह से मिलने नही गये. मैने उसे समझाया था कि तुम उससे बिल्कुल भी नाराज़ नही हो, कि तुम जल्द ही उससे मिलने जाओगे"

माँ एक पल के लिए रुकी, उसकी आवाज़ फिर से भारी होने लगी थी, "जब मैं वहाँ से वापस आने को हुई तो वो फिर से रोने लगी........वो वहाँ बिल्कुल भी खुश नही है मुझे मालूम था मगर वो शायद हमारे लिए तुम्हारे लिए वहाँ रह रही है......मेरी बच्ची.....मेरी बच्ची.......अकेली वहाँ........." मैने माँ का हाथ दबाया. माँ आँखे पोंछती उठ खड़ी हुई और वहाँ से चली गयी मगर वो एक मिनिट बाद वापस आई. उसके हाथ में एक लिफ़ाफ़ा सा था. उसने मुझे दिया, मैने ले लिया और सवालिया नज़रों से माँ की ओर देखा. माँ बिना कुछ बोले वहाँ से चली गयी. मैने दूध का खाली ग्लास बेड की पुष्ट पर रखा. उस लिफाफे को खोला, तो हर्षौल्लास से मेरी चीख ही निकल गयी थी. वो बहन की फोटो थी.

वो एक पंजाबी सूट सलवार पहने खड़ी थी. फोटो से लगता था वो किसी स्टूडियो से खिंचवाई थी. वो सिर्फ़ दुबली ही नही हो गयी थी मगर उसका रंग भी थोड़ा पीला पड़ गया था. मगर उसकी खूबसूरती तो जैसे पहले से भी बढ़ गयी थी. मैने फोटो को धीरे से उठाया और अपने होंठ उससे सटा दिए. मेरा दिल कर रहा था कि अभी इसी वक़्त उसके पास चला जाऊ, उसे अपने सीने से लगा लूँ, उसे कभी अपने से जुदा ना होने दूं, एक पल के लिए भी नही. ना जाने कब तक मैं फोटो को निहारता रहा. उस प्यारे चेहरे से नज़रें हटाने को दिल नही कर रहा था. 

फिर ना जाने कैसे मेरा ध्यान देविका की ओर चला गया. उसका दुख, उसकी वेदना, उसकी पीड़ा फिर से मेरा दिल कचॉटने लगी. मैं उठकर बैठ गया और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि ऐसा मेरे साथ कभी ना हो. विरह की पीड़ा से बड़ी पीड़ा और कोई नही हो सकती, इतना मैं जान गया था और देविका की तरह ताउम्र वो पीड़ा झेलने का मादा मुझमे नही था. मैने भगवान से प्रार्थना की कि मेरा और बहन का साथ हमेशा हमेशा के लिए ऐसे ही बना रहे.

सुबह को आज मैं और भी जल्दी उठ गया था. पिछली रात मुश्किल से दो तीन घंटे सो पाया था मगर आज बदन में एक नयी उर्जा थी, अब मंज़िल पर पहुँचने का इरादा और भी पक्का हो गया था बल्कि अब तो मंज़िल पर जल्द से जल्द पहुँचना था. बाहर घुप अंधेरा था, मैने साइकल उठाई खेतों को चल पड़ा. सब्जीयाँ तोड़ी और दूध दोह कर वापस घर आ गया. माँ चाय बना रही थी, 

"अरे इतनी सुबह सुबह क्यों उठ गया. थोड़ा आराम भी किया करो बेटा नही तो देखना बीमार पड़ जाओगे" मैने माँ की बात का कोई जबाब नही दिया. हाथ मूह धोकर चाय पी और खाना डिब्बों में डाल मैं फिर से खेतों की ओर चल पड़ा. अब बर्बाद करने के लिए मेरे पास एक पल का समय भी नही था. मकई की अभी आधी से ज़्यादा फसल खड़ी थी, और 15-20 दिनो मैं धान की फसल भी तैयार हो जाने वाली थी. और इस बार जो आधी से ज़्यादा ज़मीन खाली पड़ी थी उसको भी तैयार करना था, पूरी ज़मीन के लिए पानी का इंतज़ाम करना था, फसल संभालनी थी, बेचनी थी, दुनिया भर का काम था और मेरे पास समय नही था. 

दिन रात लगातार लगे रहने के बावजूद भी मुझे चार दिन लग गये मकयि की फसल काटने को और फिर पोधो से भुट्टे निकाल कर शेड में पहुँचाने को. मैने आधे से ज़्यादा मकयि के सूखे पोधे शेड में रख लिए और बाकी आधे पशुओं के बाडे में. चौथे दिन शाम को जब मैं इतना काम निपटाकर बैठा तो अंधेरा हो चुका था. मुझे थकान का अहसास नही होता था, बदन दर्द कभी का होना बंद हो गया था बस सिर्फ़ एक ही बात की चिंता थी कि मेरे पास वक़्त नही था. अब तो दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ने लगे थे. उस शाम मैं उस टीले पर बैठा जहाँ कभी मैं और माँ बैठा करते थे और अपने लक्ष्य के बारे में सोचने लगा. अगर इस रफ़्तार से चलूँगा तो मंज़िल पर पहुँचने में सात आठ साल लग जाएँगे और इतना वक़्त मेरे पास नही था. मुझे कुछ उपाय करना था. 

उस शाम माँ ने मेरी चिंता का कारण पूछा तो मैने उसे वजह बताई. माँ भी सोचों में पड़ गयी. फिर उसने सुझाव दिया कि मैं किसी को अपने साथ काम करने के लिए रख लूँ. सुझाव अछा था क्यॉंके गाँव में बहुत कम पैसों पर भी लोग काम करने को तैयार हो जाते थे मगर कोई जवान मर्द मेरी तरह मेहनत से काम कर सके तो बात थी और ऐसा कोई मिलना ना मुमकिन ही था.

अगले दिन मुझे धान के खेत में घूमते हुए विचार आया. फसल काटने और बिजने में मशीनों की मदद ली जा सकती है. हाँ यह अच्छा रहेगा क्यॉंके इससे मेरा वक़्त भी बच जाएगा और फसल भी जल्द से जल्द काट कर बेची जा सकती थी और तैयार फसल पर कुदरत के कहर से बचा जा सकता था. हालाँकि मुझे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी मगर फ़ायदा भी कम नही था वरना धान की फसल काटने और झाड़ने के लिए तो आधे महीने से भी ज़्यादा समय लग जाता. और अभी तो सिर्फ़ आधी ज़मीन पर ही फसल बोई थी. पूरी ज़मीन पर फसल को बीजन, काटना बेचना, नही नही मशीनों की मदद लेनी ही पड़ेगी. 

और फिर मैने ज़्यादा सोच विचार नही किया. मैं उसी शाम साथ के एक गाँव में गया जहाँ एक बहुत बड़े ज़मीदार के पास एक कंबाइन मशीन थी जो गेंहू, धान, मकयि वग़ैरह की मेरी फसलों को घंटो में काट सकती थी. ज़मींदार को मैने अपनी फसल काटने के लिए मशीन के लिए बोला तो वो पहले तो बहुत हैरान हुआ कि हमारे गाँवो में कॉन ऐसा पैदा हो गया जो अकेला फसल उगाने की हिम्मत रखता था. उसने मेरी पीठ थपथपाई और फिर एक अच्छे रेट पर फसल काटने को तैयार हो गया. 

मकई और धान की फसल कट गयी और अनाज घर पहुँच गया. गाँव के कयि लोग मेरी मेहनत का फल देखने आए और हैरान रह गये लेकिन उन्हे क्या मालूम था यह तो अभी शुरुआत थी. मगर घर में आनाज़ का अंबार लगने से जो खुशी मैने माँ के चेहरे पर देखी थी वो अतुलनीय थी उसने मुझे ना जाने कितनी बार चूमा और आलिंगन में लिया. कुछ ही दिनो में अनाज बिक गया. गाँव वालों को अब मंडी जाकर आनाज़ खरीद कर लाने की वजाय मुझसे आनाज़ खरीदना कहीं बेहतर लगा. इसमे मेरा भी फ़ायदा था, मुझे मंडी तक आनाज़ ढोने से और मंदी के टॅक्स से राहत मिल गयी थी. आनाज़ बेचने का काम माँ ही करती थी जो अब दुकान सिर्फ़ सुबह और शाम को ही खोलती थी क्योंकि वही वक़्त होता था असली ग्राहकी का. 

जब तक अनाज बिकता मैने बाकी बची ज़मीन से बड़ी बड़ी झाड़ियों और कुछ पेड़ों को उखाड़ दिया जो खेती में बाधा बनने वाले थे जबकि बड़े पेड़ों को वैसे ही रहने दिया. फिर मैने छोटे छोटे पेड़ों और मकयि के सूखे पोधो, झाड़ियों से शेड को दोनो और से कवर करना शुरू कर दिया. तीन दिन बाद शेड में कमरा और उसके सामने थोड़ी सी जगह छोड़कर बाकी पूरी शेड को मैने चारों और से अच्छी तरह बंद कर दिया था और अपने लिए एक अच्छे ख़ासे मुर्गीफार्म की तैयारी कर ली थी. मुर्गियों के लिए शेड तैयार होने तक अनाज भी बिक चुका था. उस शाम मैने और माँ ने जब खाने के बाद बचत का हिसाब लगाया तो हमारे चहेरे खुशी से खिले हुए थे. मेरी उम्मीद से कहीं ज़यादा मुनाफ़ा हुआ था और इस मुनाफ़े को और भी बढ़ावा मिला था दुकान से होने वाली अच्छी कमाई से, क्योंेकि अब ताज़ी सब्जियों और दूध से खूब कमाई होती थी. उस रात खुशी के मारे मुझे नींद नही आ रही थी. 

अगले दिन मेने एक ट्रॅक्टर किराए पर लिया और डीजल से टेंक भरकर ज़मीन जोतने लगा. दो दिनो में नयी और पूरानी ज़मीन जहाँ से मैने धान और मकयि की फसल काटी थी पूरी तैयार थी. अब मुझे नये बोरेवेल्ल और ज़ेन्रेटर पर पैसे खरच करने थे क्यॉंके पूरी ज़मीन के लिए वो बोर्बेल नाकाफ़ी था. खैर बोरेवेल्ल, ज़ेन्रेटर और नयी फसल के बीजों के बाद भी काफ़ी पैसे बच गये थे और उधर मेरी मुर्गियाँ तैयार थीं. मेने फसल बिजने का काम निपटा मुर्गियों की ओर ध्यान देना शुरू किया और नयी शेड को तिरपाल से ढक दिया. दो दिन में पूरी शेड में मुर्गियों के बच्चे चहुँ चहुँ कर रहे थे. मैने दुकान पर से रोज़ाना की ज़रूरत का समान छोड़ बाकी सब वहाँ से हटा दिया. अब किराने, दूध, सब्जियों के साथ गोश्त बेचना था इसके सिवा और कुछ भी नही. माँ ने वो सब बेकार के सामान को जिन्हे मैने दुकान से हटाया था को लेकर मुझसे बहुत झगड़ा किया मगर मैं मानने वाला नही था. मैने माँ को अच्छे से समझाया कि अगर हम इन छोटी छोटी चीज़ों के लिए मेहनत करते रहेंगे तो कभी आगे नही बढ़ पाएँगे. माँ मेरी बात समझती थी मगर फिर भी मानने को तैयार नही थी मगर मेरी ज़िद के आगे उसे झुकना पड़ा. मैने दुकान को रोज़ाना के खाने के सामान से भर दिया था, इसके इलावा खेतों से सुबह शाम ताज़ी सब्जियाँ और दूध आ जाता था और एक हफ्ते के अंदर हम गोश्त भी रखने वाले थे. अब दुकान चार घंटे सुबह और तीन घंटे शाम को खोलनी होती थी. सुबह को सब्जियाँ और दूध मैं खेतों से दुकान पर पहुँचा देता और दुपेहर को माँ दुकान बंद कर खाना लेकर खेतों को आ जाती और जाते हुए सब्जियाँ और दूध ले जाती अब काम ने बिल्कुल सही रफ़्तार पकड़ ली थी. 

मैने पिछली ग़लतियों और तज़ुरबों से बहुत कुछ सीख लिया था. अब मेरे लिए काम आसान होता जा रहा था. मगर फिर भी एक शूल सी दिल में हर वाक़त चुभती रहती थी. मुझे हर पल हर क्षण बहन की याद सताती थी. कभी कभी मुझे वो जुदाई अनंत लगती, कभी कभी मैं इतना उदास हो जाता कि सब छोड़कर बैठ जाता. माँ के दोपेहर को खेतों में आने से कुछ राहत मिलती थी. वो मेरी हिम्मत बढ़ती थी. माँ मुझे हौंसला देती थी. मुझे मालूम था हर बीतते दिन के साथ मैं अपने लक्ष्य के करीब होता जा रहा था मगर फिर भी बहन के बिना एक अजीब सा सूनापन था एक बैचैनि दिल में छाई थी जो तब तक दूर नही होने वाली थी जब तक मैं अपने लक्ष्य को पूरा ना कर लेता. माँ ज़रूर हर महीने के अंत में एक दिन बहन से मिलने जाती और मुझे इससे कुछ राहत मिल जाती. दिल को थोड़ी तस्सली हो जाती कि वो बिल्कुल ठीक ठाक है.
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12-28-2018, 12:46 PM,
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RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
समय अपनी रफ़्तार चलता रहता है. वो किसी के लिए नही रुकता. ना किसी के अच्छे के लिए ना किसी के बुरे के लिए. दूसरी फसल भी तैयार हो गयी. दूसरी फसल काट कर बेच कर मैने और माँ ने पूरे पैसे गिने तो हम दोनो एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे. इतने पैसे मैं दस साल तक नही कमा सकता था. हालाँकि इस बार आनाज़ मुझे मंडी में लेकर जाना पड़ा क्योंकि घर में इतना आनाज़ रखने के लिए जगह ही नही थी और वैसे भी माँ के लिए इतना आनाज़ बेचने का काम बहुत ज़्यादा होता. मंडी में आनाज़ की बिकवाली और पैसे मिलने में बहुत कम वक़्त लगा.मैने कुछ पैसे माँ को दिए और बाकी बॅंक में जमा करवा दिए. इस बार काफ़ी बचत बच जाने वाली थी क्योंकि इस बार मुझे कोई बड़ा खर्चा नही करना था. मैने नयी फसल की विजाई की. इस बार मुझे बहुत जल्दबाज़ी थी, मैं जिसके लिए ये सब कर रहा था मुझे उससे मिलने जाना था. आख़िरकार फसल बीज कर सभी काम निपटा मैं एक इतवार सहर जाने को तैयार हुआ. आज लगभग सात महीने बाद मैं बहन का चेहरा देखने वाला था.

सबसे पहले मैने एक नाई की दुकान पर जाकर बाल कटवाए और शेव करवाई, उसके बाद नये कपड़ों का एक जोड़ा खरीदा. घर जाकर जब मैं नहा-धोकर तैयार हुआ तो माँ मुझे देखते ही रह गयी. "जल्दी जल्दी खाना खा लो...उफ़फ्फ़ आज दुकान खोलने में बहुत देरी........." माँ ने मेरी और देखा तो बोलते बोलते रुक गयी. वो आँखे फाडे मुझे देखे जा रही थी. "कहीं जा रहे हो? किसी की शादी वादी है क्या?" उसने हैरत से पूछा. उसे शायद अभी सूझा नही था. मगर उसका दोष नही था मैने भी कभी बहन से मिलने जाने के बारे में बात नही की थी.

"हां....वो मैं.......वो मैने सोचा.......इतने महीने हो गये हैं...........मैने सोचा दीदी को मिल...." मुझे ना जाने क्यूँ माँ को बताते शरम आ रही थी.

"ओह.....उः..हो....तो यह बात है. मैं भी कहूँ आज इतना बन ठन कर......" माँ ने चुटकी लेते हुए कहा. वो मुस्करा रही थी, मैने शरम के मारे मुँह दूसरी तरफ कर लिया. माँ हंस पड़ी. 

"ओह.....हुहो. ........आज तो रंग ढंग ही बदल गये हैं जनाब के. ठीक है जाओ...जाओ...मैं कुछ नही कहती. मुझे दुकान पर जाना है, जाते हुए ताला लगा कर चाभी मुझे दुकान पर दे जाना"

ना जाने क्यों मुझे इतनी बैचैनि, इतनी बेकरारी हो रही थी. दिल ऐसे जोरों से धड़क रहा था कि धूम धूम की आवाज़ कानो में गूँज रही थी. मेरे होंठो से मुस्कान हटने का नाम नही ले रही थी. केयी बार मैं खुद से बातें करता करता हंस पड़ता तो बस में मेरे साथ की सीट पर बैठी लड़की मेरी ओर अजीब सी नज़रों से देखती. केयी बार मेने लोगों को अपनी ओर घूरते पाया मगर मुझे कोई परवाह नही थी. बहन का हॉस्टिल बस स्टॅंड के बेहद नज़दीक था मगर मुझे पहले सराफ़ा बाज़ार जाना था वहाँ से उसके लिए कुछ खरीदना था. 

बहन के हॉस्टिल के सामने पहुँचते मुझे दिन के बारह बज गये थे. हालाँकि आज रविवार का दिन था मगर माँ के अनुसार बहन किसी भी दिन छुट्टी नही करती थी, रविवार के दिन ओवरटाइम करती थी. 'अब मैं उसके हॉस्टिल जाऊं और उसकी वोडरन को मिलूं? क्या करूँ? हो सकता है वो आज काम पर ना गयी हो,' मुझे समझ नही आ रहा था मैं क्या करूँ. एक दिल कर रहा था कि अंदर चला जाऊं और दूसरी तरफ ना जाने क्यों कुछ घबराहट महसूस हो रही थी. 'अगर वो आज ना मिली तो? हो सकता है वो आज कहीं गयी हो?' ना जाने क्यों दिल में जितनी खुशी जितनी उत्सुकता थी उतना ही एक अजीब सा डर एक अजीब सी बैचैनि भी थी. मैं हॉस्टिल से काफ़ी दूर खड़ा उसके लोहे के मुख्यद्वार को देख रहा था और उसके दूसरी तरफ बनी बड़ी सी बिल्डिंग की खिड़कियों से कभी कभार झाँकने वाले चेहरों में से बहन का चेहरा ढूँढ रहा था. जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था मेरी बैचेनि बढ़ती जा रही थी, मुझे ठंडे मौसम में भी पसीना आ रहा था. मैं मन पक्का कर एक कदम आगे बढ़ाता और फिर एक कदम वापस पीछे की ओर खींच लेता. दोपहर का समय होने और मुख्य सड़क से दूर होने के कारण सड़क पर कभी कभार ही कोई नज़र आता था. 


मैं अंदर जाने का साहस ना जुटा सका और वहीं खड़ा रहा. दो घंटे गुज़रे होंगे कि अचानक सड़क के दूसरी ओर से मुझे लड़कियों का एक झुंड आता दिखाई दिया. पहले तो मैं वहीं खड़ा रहा फिर तेज़ी से चलकर वहाँ से थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में हो गया. लड़कियों का एक नही बल्कि एक दूजे के पीछे कयि झुंड चले आ रहे थे. मेरी हालत उस वक़्त कैसी थी मैं बयान नही कर सकता था. मेरी सांसो की रफ़्तार बढ़ गयी थी, मेरा पूरा बदन कांप रहा था, माथे पर पसीने की बूंदे चमकने लगी थी. लड़कियों का झुंड सड़क के दूसरी ओर बिल्कुल मेरे सामने से गुज़रा, मगर जिसे मेरी आँखे तलाश रही थी वो उनमे नही थी. दूसरा झुंड सामने आया फिर तीसरा. मगर वो उनमे ना थी. चौथे झुंड के पीछे पीछे तीन लड़कियाँ चली आ रही थी. मैने उन्हे देखा और फिर खुद को यकीन दिलाने के लिए अपनी आँखे बंद कर लीं. जब मैने अपनी आँखे खोलीं तो वो तीनो लड़कियाँ सड़क के उस ओर बिल्कुल मेरे सामने से गुज़र रही थी. मेरी नज़र उनमे से एक पर जम गयी. ना जाने कैसे आँखो से आँसू बहने लगे. वो उन लड़कियों की बातें सुनती उनके साथ चली जा रही थी. उसने मेरी ओर नही देखा. 

मैने उसे पुकारा नही, उसे बुलाया नही. मैं तो उस पल की वास्तविकता को महसूस कर रहा था. उसे देखते ही मेरे अंदर की बैचैनि दूर हो गयी, बेकरारी मिट गयी. पूरी रूह में एक अजीब सा सकून एक सुखद अहसास फैल गया. सब दुखों सभी समस्याओ से ध्यान हट गया. वो चलती चलती बिना मुड़े बिना पीछे देखे सीधे गेट के अंदर जाकर लुप्त हो गयी. मैने अपनी आँखे बंद कर लीं सर उपर उठाया और उपर वाले का शुक्रिया अदा करने लगा. मैं उस सुखद अहसास में अपनी आत्मा आनंदित होती महसूस कर रहा था. 

मैं अपनी उस अजीब सी शांति में खोया उस खुशी को महसूस करता खुद को कंट्रोल करने की कोशिश कर रहा था. अब मुझे अंदर जाना था. जहाँ मैं खड़ा था वहाँ से थोड़ी दूर एक छोटा सा पार्क था जिसमे बहुत सारे बड़े बड़े पेड़ उगे हुए थे, लगता था काफ़ी पुराना पार्क था, बीच में कहीं कहीं बैठने के लिए बेंच बने हुए थे. मैने उस पार्क में जाकर एक नल पर अच्छे से मुँह धोया. फिर मैं वापस हॉस्टिल की ओर चल दिया. उसे गये आधा घंटा बीत गया था. अभी मैं पेड़ के पास ही पहुँचा था कि सामने गेट से एक लड़की निकलती दिखाई दी. उसके हाथ में पोलीथिन का एक बॅग था. इस बार उसने कपड़े बदल लिए थे और एक पंजाबी सूट पहना हुआ था. सर पर दुपट्टा ओढ़े वो सड़क के उस ओर चली आ रही थी. वो वोही थी, वोही थी, मैने उसे गेट से निकलते देख पहली नज़र में ही पहचान लिया था. वो सड़क के किनारे किनारे उदास सी अपनी किसी चिंता में खोई चली जा रही थी. मैं सड़क पार करके उस ओर जाना चाहता था मगर मेरे पैर नही हिल रहे थे. मैं चाह कर भी अपने पैर नही हिला पा रहा था जैसे उनके साथ मानो भारी बोझ बाँध दिया गया हो.


वो इतने नज़दीक आ गयी थी कि सर उठाकर मेरी ओर देखती तो मुझे आसानी से पहचान लेती, मगर वो तो बस सीधे चली जा रही थी. वो बिल्कुल मेरे सामने आ गयी, मैने उसे पुकारना चाहा तो गले से आवाज़ ना निकली. वो मेरे सामने से गुज़र रही थी. मेने ज़ोर लगा कर पैरों को हिलाया और पेड़ के पीछे से घूम कर दूसरी ओर चला गया. वो पेड़ से थोड़ा सा आगे थी. नज़ाने कैसे मेरे होंठ कंपकंपाए और धीरे से मेरे मुख से 'दीदी' करके निकला. मेरी आवाज़ इतनी कम थी कि खुद मुझे बड़ी मुश्किल से सुनाई दी थी तो उसे कैसे सुनाई देती. वो दो कदम चली होगी फिर वो ठिठक गयी, फिर वो एकदम से मेरी ओर घूमी. पहले पहले उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव आए, फिर जैसे वो उलझन में हो, फिर उसके चेहरे पर घबराहट, एक डर के भाव आए. वो आँखे फाडे मुझे घूरे जा रही थी. फिर अचानक, एकदम से, उसने हाथ से पोलिथीन का बॅग फेंका और मेरी ओर भागने लगी. मैने घबरा कर सड़क पर इधर उधर देखा कहीं कोई गाड़ी तो नही आ रही थी मगर शुक्र था रास्ता पूरा खाली था. वो बिना रुके बिना अपनी नज़र मुझसे हटाए सीधे भागते हुए मेरे पास आ गयी थी. मेरी बाहें खुद ब खुद खुलती गयीं और वो मेरी बाहों में समा गयी, उसकी बाहें मेरी गर्दन पर लिपट गयी और वो फुट फूटकर रोने लगी, मैने खुद को रोकना चाहा मगर प्यार के वो पल इतने वेग्मयि थे कि मैं भी खुद को रोक ना सका और उसके साथ मैं भी रोने लगा.

बहन की बाहों का घेरा रह रह कर मेरे गले पर कसता चला जाता. वो खाँसती, गला सॉफ करती और फिर से सुबकने लगती. मैं उसकी पीठ सहलाता अपनी कराहों को गले में दबाने की कोशिश कर रहा था. रोते रोते उसने अपनी पकड़ ढीली की और चेहरा थोड़ा पीछे कर मेरे चेहरे को गौर से देखा. उसने अपने हाथों में मेरा चेहरा थाम लिया और उसी तरह सुबक्ते हुए मेरे चेहरे पर चुंबनो की बरसात करने लगी. मैने खुद को संभाला, वो जगह ठीक नही थी, उस समय वहाँ पर कोई भी आ सकता था और हमारा तमाशा बन सकता था. 

"दीदी यहाँ से चलो. कोई आ जाएगा" मैं उसके हाथ चेहरे से हटाता बोला. मगर उसने जैसे मेरी बात सुनी ही नही. उसने आँसुओं से तर अपना चेहरा मेरा चेहरे से सटा दिया. 

"दीदी, प्लीज़ यहाँ से चलो. कोई आ जाएगा और हमे इस हालत में देखकर क्या सोचेगा?" मैने उसकी बाहें झींझोड़ते हुए कहा. इस बार वो जैसे होश मैं आई. उसने अपना चेहरा दुपट्टे से पोन्छा.

"सॉरी........तुम्हे इतनो दिनो.......बाद ...देखा कि .....चलो.....पार्क...में..चलते हैं..." वो लड़खड़ाती आवाज़ में बोली. 

"एक मिंट रूको" कहकर मैं सड़क के दूसरी ओर को भागा, वहाँ उसका वो पोलिथीन का बॅग पड़ा हुआ था जिसमे उसका कुछ समान था. मैने बॅग उठाया और वापस उसके पास चला आया. हम दोनो पार्क को चल दिए. पार्क पास ही में था. हमने पार्क के दूसरी तरफ पीछे की ओर जाने का फ़ैसला किया. वहाँ से सड़क से कुछ दिखाई नही पड़ता था. पार्क में बड़े बड़े पेड़ों की घनी छाया थी. ऐसे ही एक बेंच पर हम दोनो बैठ गये. कुछ पल खामोशी से बीत गये. वो अभी भी अपनी आँखे पोंछ रही थी जो रह रह कर बरसने लगती थी.
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12-28-2018, 12:47 PM,
#34
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"तुम मुझसे मिलने क्यों नही आए. इतना समय क्यों लगा दिया. जानते हो कितने महीने बीत गये हैं" वो यकायक मेरी तरफ देखकर बोली. उसके स्वर मैं बड़ी बहन का रुआब झलकता था और उसमे शिकवे का भी पुट था.

"मगर तुमने तो खुद ही लिखा था कि मैं तुमसे मिलने ना आऊ.... तुम्हारा खत?......" मैने उसे खत की याद कराते हुए कहा जिसमे उसने लिखा था कि मैं उससे मिलने ना आऊ क्योंकि इससे उसका इरादा कमज़ोर हो जाएगा. 

"जब मैने तुम्हे नही आने का लिखा था तो मेरा मतलब था कि तुम जितना जल्द हो सको मुझे मिलने आना. मैं पहले दिन से तुम्हारी राह देख रही थी. सोचती थी तुम आज आओगे, कल आओगे. मैं घर से उस तरह आ तो गयी थी मगर बाद में तुम नही जानते मैं कितना परेशान थी यही सोचकर कि तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी? जब तुम बहुत दिनो तक नही आए तो मुझे लगने लगा कि शायद तुम मुझसे बहुत गुस्सा हो गये हो. फिर एक दिन मैं हिम्मत हार बैठी और उस दिन छुट्टी लेकर घर को आने वाली थी कि उसी दिन माँ आ गयी. जब उसने बताया कि तुम मेरे जाने के बाद.......तुम किस....किस तरह.....मुझे ढूँढ रहे थे......तो मैं.....मैं.......मुझे माफ़ करदो भाई......मुझे माफ़ करदो....मैने तुम्हे ...दुख के सिवा कुछ नही दिया....मुझे माफ़ करदो" वो फिर से सुबकने लगी थी. मगर इस बार वो थोड़ी शांत थी. वो जैसे अपने अंतर में उस पीड़ा को छिपाने की कोशिश कर रही थी जो उसने इस समय में झेली थी.

"बस करो रोओ नही.......मैं तुमसे बिल्कुल भी नाराज़ नही हूँ......" मैने उसके सर को अपनी छाती से लगा लिया और अपनी बाँह उसके कंधे से उसकी कमर पर लपेट दी. उसकी आँखो से निकलते आँसू मेरी कमीज़ को गीला कर रहे थे. "मुझे तुम्हारा खत बाद में मिला था. मुझे सूझा ही नही था कि तुम उस जगह का इस्तेमाल करोगी खत रखने के लिए. तुम्हारा पता चलने से पहले मैं यही सोचता था कि जैसे ही तुम्हारे बारे मे पता चलेगा मैं तुम्हे ले आउन्गा मगर जब तुम्हारे बारे मे पता चला और फिर वो खत पढ़ा तो मैने यही फ़ैसला किया कि अगर हमे सदा के लिए एक साथ रहना है तो अभी जुदाई झेलनी ही होगी. वैसे भी मैं तुम्हारी कमज़ोरी नही बनना चाहता था बल्कि तुम्हारी हिम्मत बनना चाहता था. मुझे नही मालूम था कि अगर उस समय मैं तुमसे मिलने आता तो मैं तुम्हे यहाँ रहने देता या नही.......उस समय तुमसे बिछड़कर मैं बहुत दुखी था" उन दिनो की याद आते ही बदन में एक झुरजुरी सी दौड़ गयी जिसे बहन ने भी ज़रूर महसूस किया होगा. उसने मेरी छाती से चेहरा उठाकर मेरी ओर देखा. 

"मुझे इसी बात का डर था के तुम्हे शायद खत ना मिले. मगर माँ को पता लगने के डर से मैं वो खत कहीं और ना रख सकी. मुझे आशा थी कि तुम्हे देर सवेर सुझेगा ही उस स्थान को देखने का" अब वो शांत हो गयी थी, उसकी आँखो मे कुछ नमी तो थी मगर वो रो नही रही थी. उसने फिर से अपना सर मेरी छाती पर टिका दिया. "माँ ने जब सारी बातें बताई थी तो मुझे थोड़ा हौसला हो गया था कि तुम मुझसे नाराज़ नही हो. फिर वो जब भी मुझसे मिलने आती तुम्हारे बारे मे बताती, वो सीधा तो नही बोलती थी मगर बात घुमा कर जैसे मुझे बताती थी कि तुम मुझसे मिलने के लिए जल्द ही आओगे. मैं हर दिन खुद को हौसला देती थी, खुद की हिम्मत बढ़ाती थी मगर यहाँ अकेले, इतनी तन्हाई मैं कभी कभी मेरी हिम्मत जबाब दे जाती, मैं सब से छुपकर रोती, मन में एक डर था अगर तुम नही आए तो........" उसकी बाहें मेरे सीने पर कस गयी. मैने कमीज़ के उपर से उसके होंठो का स्पर्श अपनी छाती पर किया. 

"मेरे लिए भी आसान नही था.......कभी कभी मेरी भी एसी ही हालत हो होती थी जैसे तुम बता रही हो...मगर मैं हमारा भविष्य संवारना चाहता हूँ......मैं चाहता हूँ कि हम खुल कर जी सकें......दूसरों की तरह अपना परिवार बना सकें ...बिना किसी के डर के........और ऐसा अपने गाँव में रहकर तो नही हो सकता था......और मैं यह भी देखना चाहता था कि हमारे प्यार में कितनी ताक़त है, कितनी सच्चाई है......कहीं यह सब जवानी का उतबलापन तो नही है..."

"मेरे लिए तो ज़िंदगी का मतलब ही तुम हो.......तुम्हारे सिवा इस दुनिया में मुझे किसी और देखना भी गवारा नही. तुम्हे मुझ पर भरोशा नही है?" वो मेरी आँखो में झाँकते बोली. 

"तुम्हारे इस तरह जाने के बाद दिल डोल सा गया था....कुछ समझ में नही आता था.....मगर जब मैने तुम्हारा वो खत पढ़ा तो मेरी सारी शंकाए दूर हो गयीं. उसी रात मैने फ़ैसला कर लिया था कि मैं हर दिन हर पल अपना पूरा ज़ोर लगा दूँगा और जल्द से जल्द तुम्हे यहाँ से कहीं दूर ले जाउन्गा"

"फिर भी तुम्हे मुझसे मिलने आना चाहिए था.......मैने एक एक पल एक एक साल की तरह गुज़ारा है......" वो कुछ लम्हो की चुप्पी के बाद बोली.

"मैं ज़रूर आता मगर खत में तुमने जो सवाल किए थे मुझे उनका भी ध्यान भी था" 

"सवाल?" उसने सवालिया नज़रों से मेरी ओर देखा. 

"भूल गयी जब तुमने कहा था कि तुम्हे पूरा हक़ चाहिए था....तुम्हे अधूरा प्यार नही पूर्ण प्यार चाहिए था......"

"याद है...याद है....वो तो मैं जज़्बातों में आकर ऐसा लिख गयी थी, मैं तुम्हे मज़बूर ....."

"मजबूर नही.........मगर मैं तुम्हे तुम्हारा हक़ देना चाहता हूँ..." मैं उसकी बात काटता बीच में बोला और मैने अपनी जेब से एक पॅकेट निकाला जो उस दिन मैने एक ज्यूयलरी की दुकान से खरीदा था. उसने मेरे हाथ में वो पॅकेट देखा तो मेरी ओर देखा जैसे पूछ रही हो उसमे क्या है. मैने उसे पॅकेट दिया और उसे खोलने के लिए बोला. वो मुझसे हटाते हुए सीधी होकर बैठ गयी और पॅकेट खोलने लगी. वो बार बार मेरी ओर शंकित नज़रों से देख रही थी. जब उसने पॅकेट खोला और उसमे से वो गले में डालने वाला हार निकला तो वो जैसे भोचक्की सी रह गयी. वो दो धागो में काले मनके डालकर पिरोया हुआ हार था. थोड़ी लंबाई मन्को की थी और फिर थोड़ी लंबाई सोने की चैन की, फिर से मनके और फिर से सोने की चैन, इसी तरह वो हार बना हुआ था. उसमे नीचे सोने का एक दिल के आकार का लॉकेट लगा हुआ था. 

"यह..,यह....यह तो......यह तो...मंगलसूत्र?........" उसे जैसे विश्वास ही नही हो रहा था, हैरत से उसकी आँखे चौड़ी हो गयी थीं.

"हूँ...यह मंगलसूत्र ही है....." मैने उसके हाथों से मंगलसूत्र लिया और जैसे ही मेरे हाथ उसके गले की ओर बढ़े वो अपना दुपट्टा उतारने लगी, उसके होंठ फरकने लगे, जिस्म काँपने लगा और आँखो से अश्रुओं की धाराए बहने लगी. मैने उसके गले मे मंगलसूत्र डाल कर उसकी हुक लगानी चाही तो उसने धीरे से घूम कर अपनी पीठ मेरी ओर कर दी. मैने हुक लगा दी मगर वो मेरी ओर वापस नही घूमी. वो सिसक रही थी. मैने उसका कंधा पकड़ उसे अपनी तरफ घुमाना चाहा मगर वो फिर भी ना घूमी. मैं उठ कर दूसरी तरफ उसके सामने बैठ गया. वो चेहरा नीचे किए रोए जा रही थी. मैने उसका चेहरा उपर उठाया तो उसने मेरी ओर अश्रुओं से भरी आँखो से देखा और फिर से अपनी नज़र झुका ली. मैं थोड़ा आगे हो कर उसके चेहरे पर झुकते हुए अपने होंठो से उसके गालों से वो अनमोल मोती चुगने लगा. आज उसके अंदर का उबाल निकल रहा था. शायद उसे इसकी कोई उम्मीद नही थी उसीलिए उसको खुद पर कंट्रोल नही हो रहा था. वो बहुत समय तक रोती रही जब उसकी आँखो से आँसू निकलने बंद हुए तो मैने उसके चेहरे को अच्छे से पोन्छा. वो रोते हुए और भी खूबसूरत लगती थी. वो हर दशा में खूबसूरत लगती थी. मैने उसकी छोटी सी नाक को प्यार से चूमा और फिर धीरे धीरे उसके होंठो के हल्के हल्के चुंबन लेने लगा. मैं जब लगातार उसके होंठो को चूमता रहा तो वो मुस्करा पड़ी. उसने मेरी ओर चेहरा उठाकर देखा, उसके चेहरे पर शरम की हल्की सी लाली थी. "अब बस भी करो" वो मुस्कराती हुई बोली. 

"क्यों, मैं अपनी दुल्हन को चूम नही सकता" मेरे इतना कहते ही उसके गाल सुर्ख लाल हो गये. उसने चेहरा नीचे झुका लिया. मैने उसका चेहरा पकड़ उपर उठाया. वो शरमा रही थी , मगर उसका पूरा चेहरा खुशी से खिल उठा था. "उफ्फ कितनी सुंदर है" खुशी से चमकता उसका वो सुंदर चेहरा देखकर मुझे अहसास हुआ कि मैं कितना किस्मत वाला हूँ.

"खत मैं तुमने एक बात और भी लिखी थी जा मुझसे कही थी, मगर वो बात मैं तुमसे कभी नही कह पाया था" मैं एक पल के लिए रुका फिर उसके हाथ थामते बोला "मैं तुमसे प्यार करता हूँ, इतना प्यार करता हूँ कि तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नही कर सकता" उसकी आँखे डबडबाने को हुई तो मैने उसके हाथ दबा दिए "नही रोना नही...... रोना नही"

उसने मेरे हाथ दबाए. " मैं आज, यह मंगलसूत्र पहनकर तुम्हे सदा के लिए अपनी पत्नी माना है, आज मैं तुम्हे पूरा हक़ देता हूँ, तुम्हे मेरा पूर्ण प्यार मिलेगा, अधूरा नही. तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा, हमेशा! और मैं अपनी आख़िरी साँस तक सिर्फ़ तुमसे और सिर्फ़ तुमसे प्यार करूँगा" उसने अपने होंठ भींच लिए, शायद वो खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी मगर फिर भी उसकी आँखे भर आई. वो एकदम से उठी और मेरे सामने ज़मीन पर झुक गयी उसने मेरे पैर पकड़ कर अपना माथा मेरे पावं से छुआया. मैने उसे उठाया और अपने सीने से भींच लिया. हमारे होंठ आपस में मिल गये. जनम जनम की प्यास मिट गयी. हम दो से एक हो गये. मैं जब उससे अलग हुआ तो मैने उसके हाथ अपने हाथों में लिए और उन्हे अपने दिल पर ज़ोर से दबाया. उत्तेजना से मैं साँस भी नही ले पा रहा था. मेरे लिए बैठना भी मुश्किल हो गया था. "दीदी......दीदी...." मैं बस लगातार दोहराता जा रहा था और वो इतनी मासूमियत से रोने लगी, खुद अपने आँसुओं पर मुस्कराते हुए. 

जिस किसी ने अपने किसी चाहने वाले की आँखो में वो आँसू नही देखे, उसने जाना ही नही कि अंतहीन प्यार की खुशी से अबिभूत इंसान इस धरती पर किस हद तक सुखी हो सकता है.

शाम ढल चुकी थी. गाँव की आख़िरी बस पकड़ने के लिए मुझे अब जल्द ही उससे रुखसत लेनी थी. वो मेरे कंधे पर सर रखे धीरे धीरे साँसे लेती कभी मेरे चेहरे को देख लेती, कभी मुस्करा कर मेरी गाल चूम लेती. कभी अपनी बाहें मेरी कमर पर कस देती. प्यार के वो पल अनूठे थे. लगता था जैसे संसार की सभी निधियां हमे मिल गयीं हो. बोलने को बहुत कुछ था मगर हम बोल नही रहे थी. दिल से दिल की बात आँखो से हो जाती है. मगर वो खुशी वो सुख का समय सीमित था. समय हमरे लिए रुकने वाला नही था. मगर ना मैं ना वो कोई भी एक दूसरे से विदा लेने की सोच रहे थे. उसकी पीठ सहलाता, उसे दुलारता, उसके बालों को चूमता मैं उन कुछ लम्हो को जितना लंबा हो सके, खींचना चाहता था. मगर अंतत हमे विदा लानी ही थी. मुझे समझ नही आ रही थी उसे क्या कहूँ, कैसे उसे बताऊ कि अब मुझे जाना होगा. 
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12-28-2018, 12:47 PM,
#35
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
उसी ने मुझे उस दूबिधा से उभारा. जब उसने अपनी घड़ी देखी तो एकदम से सीधी होकर बैठ गयी. "उफफफ्फ़ तुम्हारी बस निकल जाएगी. कितना समय हो गया है. चलो, चलो उठो जल्दी से" वो बेंच से उठती हुई बोली. मगर मैं हिल भी ना सका. वो पल बहुत भारी थे.

"उठो भी बाबा.......कितना समय हो गया है......बाद मैं पैदल जाना पड़ेगा...चलो उठो जल्दी से" उसने मेरे हाथ पकड़ मुझे उठाते हुए कहा. मैं लंबी साँस लेता धीरे से उठ खड़ा हुआ. उसने बेंच से अपना बॅग उठाया. हम दोनो पार्क से बाहर की ओर चल पड़े. वो कुछ बोल रही थी मगर मुझे कुछ सुनाई नही दे रहा था, अगर सुनाई दे रहा था तो समझ नही आ रहा था. पार्क से बाहर हम बस स्टॅंड की ओर जाने वाली सड़क पर आकर खड़े हो गये. मैने उसे देखा. मेरा मन बहुत उदास हो उठा था.

"जी छोटा मत करो. समझो हमारी परीक्षा है. हमे धीरज रखना ही होगा. यह वक़्त भी कट जाएगा, हौसला रखो" उस पल उसे देख मुझे हैरत हो रही थी क्या यह वही है जो पहले ऐसे सूबक सूबक कर रोरही थी. कमाल की हिम्मत थी उसमे. 

"तुम्हे ऐसे अंजाने लोगों के बीच अकेला छोड़ने को दिल नही मानता"

"मैं अब अकेली कहाँ हूँ.....पहले थी अब नही हूँ" उसने अपने दुपट्टे के नीचे से मंगलसूत्र निकाला और उसे चूमा. "तुम सदैव मेरे साथ ही रहोगे, अब मुझे किसी बात की चिंता नही है"

मेरे चेहरे से शायद कुछ ज़यादा ही उदासी झलक रही थी. उसने मेरा हाथ दबाया. "चिंता मत करो. वो दिन दूर नही है जब हम साथ साथ रहेंगे.; हमेशा हमेशा के लिए. बस थोड़ा सा इंतज़ार और है" वो एक पल के लिए चुप हो गयी "और अपना ख़याल रखना. बहुत दुबले हो गये हो. इतना काम करते हो, अपनी सेहत का बी ख़याल रखा करो. इस बार माँ मुझसे मिलने आएगी तो उसे बोलूँगी मैं" 

"तुम भी तो कितनी दुबली हो गयी हो, रंग भी कितना पीला पड़ गया है" मैं उसके चेहरे को देखता उदासी से बोला.

"अब नही होगा. अगली बार आओगे तो देखना" उसकी बात से मेरे होंठो पर मुस्कराहट आ गयी. "दीदी आप अब पार्लर पर जाओगी?" 

"नही...अब जाने का फ़ायदा नही. अब मैं हॉस्टिल जाकर खाना बनाकर खाउन्गी और घोड़े बेचकर सोउंगी" उस बात से हम दोनो हंस पड़े. 

"माँ ने मुझे बताया था तुमने कितना अनाज उगाया है और कितना पैसा कमाया है, माँ को तुम पर बहुत फख्र है, मुझे भी. वो बहुत खुश थी बोल रही थी इतनी उपज और कमाई देखकर गाँव वाले दंग रह गये हैं. मैने कभी माँ को कभी इतना खुश नही देख जितना वो उस दिन थी" 

"हां इस बार फसल काफ़ी अच्छी हो गयी थी, कमाई भी खूब हुई है और अभी मुर्गियों की खेप तैयार है. उम्मीद है दो साल के भीतर मैं इतना पैसा जमा कर लूँगा कि तुम्हे यहाँ से दूर कहीं ले जाकर अपना घर बसा सकूँ" मैने भविष्य की कल्पना करते हुए कहा. "मगर तुम तो मुझसे भी ज़यादा मेहनत करती हो ...पहले फॅक्टरी में नौकरी फिर यह ब्यूटी पार्लर"

"अर्रे नही...फॅक्टरी की नौकरी इतनी मुश्किल नही है बस कभी कभी टाइम पास नही होता. हां पार्लार का काम थोड़ा थकने वाला ज़रूर है. बहुत औरतें आती हैं. मगर अब मैं लगभग काम सीख चुकी हूँ इसलिए उन लोगों ने मुझे थोड़े थोड़े पैसे भी देने सुरू कर दिए हैं, जल्द ही पार्लर की मालकिन ने कहा है वो मुझे पर लेडी के हिसाब से पैसे देंगी. तनख़्वा मिलाकर बहुत अच्छी कमाई हो जाती है"

"दीदी अगर तुम बुरा ना मानो तो मैं तो कहता हूँ तुम मेरे साथ चलो, खेतों से बहुत कमाई हो रही है, क्या ज़रूरत है...."

"ज़रूरत है...अभी नही शायद बाद मे. एक दिन हमे गाँव छोड़ना है...ज़मीन भी. फिर सहर मे हमे कैसे गुज़र बसर करना है इसका अभी से ख़याल करना है. तुम चिंता मत करो. वैसे भी डेविका यहाँ मेरा ख्याल रखती है. उसने वॉर्डन को भी बोला है. तनख़्वा भी औरों से ज़्यादा है, वो बहुत अच्छी है भाई, बहुत अच्छी"

"जानता हूँ, जानता हूँ" बहन से नज़र चुराते मेने कहा. लगता था उसने बहन को कुछ भी नही बताया था और इससे मेरे दिल में उसकी इज़्ज़त और भी बढ़ गयी थी. 

"अच्छा अब वक़्त बहुत हो गया है, तुम्हे जाना चाहिए" वो मेरे चेहरे को देखते बोली. 

"हुन्न्ं. ठीक है मैं चलता हूँ" मैने खुद को मन ही मन तैयार करते कहा.

"भाई एक बात और.....देखो मेरी बात का बुरा मत मानना, प्लीज़" वो मेरे हाथ दबाते बोली. "क्या" मैं थोड़ा सा आश्चर्यचकित होता बोला, ऐसी कोन्सि बात थी उसकी जिससे मैं बुरा मान जाता, ऐसा तो असंभव था. 

"भाई माँ का ख़याल रखना......वो बहुत अकेली है.....कभी कभी मैं सोचती हूँ कि उसने कैसी एकाकी, नीरस ज़िंदगी गुज़ारी है...भाई वो मुँह से नही बोली मगर मैं जानती हूँ........पिताजी ने भी शायद ही उन्हे कभी कोई खुशी दी हो...भाई तुम माँ को खुश रखना"

"हुम्म जानता हुन्न्ं......मैं कोशिश भी करता हूँ......जबसे मैं कमाने लगा हूँ वो थोड़ी खुश तो रहने लगी है.....मगर मैं ध्यान रखूँगा.......और भी कोशिस करूँगा.......पर यह तो बताओ इसमे बुरा मानने की कौन सी बात है?" 

"भाई मैं दूसरे तरीके से.........वो बहुत अकेली है.........समझते हो ना......उसकी भी तो इच्छाएँ होंगी ना......" अब मुझे उसकी बात समझ आ गयी थी वो क्या कहना चाहती थी. मेने चेहरा झुका लिया.

"तुम जानती हो....जिस दिन.....तुम वहाँ से आई थी......उस दिन......." 

"मुझे मालूम है...मैं जानती हूँ" वो मेरी बात बीच मे काटती हुई बोली. 

"तुम्हे मालूम है?" मैं हैरानी से बोला

"हां....मुझे माँ ने बताया था वैसे भी उस समय मैने देखा था तुम और माँ कितने करीब थे....मुझे अंदाज़ा हो गया था कि तुम्हारे बीच संबंध बन ही जाएगा सिर्फ़ समय की ज़रूरत थी"

"तुम्हे माँ ने खुद ही बताया था?" मैं असचर्यचकित था. 

"हां.....उसने खुद मुझे बताया था जब मैने उसके सामने कबूल किया था कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच भी सकती. वो हमारे बारे में सुरू से जानती थी मगर उसने कहा था कि वो हमारी खुशी देखकर चुप रही"

"तुम्हे बुरा नही लगा कि मैने तुम्हारे साथ धोखा......"

"मुझे कोई बुरा नही लगा.......और उस समय तो हमने साथ निभाने का फ़ैसला भी नही किया था......भाई हमारे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है मगर माँ की ज़िंदगी से बाहर की रूठ जाने वाली है.......इसीलिए कहती हूँ तुम उसे खुश रखना....मैं खुद तुम्हे बोल रही हूँ.....मेरी बात मनोगे ना?" 

"मगर मैं ऐसा कैसे कर पाउन्गा जब मैने तुम्हे अपनी पत्नी स्वीकार किया है तो?"

"वो मेरा ही हिस्सा है भाई.....वो तुम्हारा भी हिस्सा है.......हम उसके बिना और वो हमारे बिना अधूरी है....भाई ज़रा सोचकर तो देखो उसने कितना दुख भोगा है"

"ठीक है ठीक है...मैं कोशिश करूँगा" मैने उसे कहा. बहन का दिल कितना बड़ा था, सोचकर मुझे खुद पर शरम सी आ गयी. वो जो भी करती थी अपने परिवार के लिए, हम सबकी खुशी के लिए मगर मैं ऐसा स्वार्थी था जो हमेशा अपनी जिंदगी के बारे में ही सोचता था.

"भाई माँ खुश होगी तो समझ लेना मैं भी खुश हूँ" हम दोनो ने एक दूसरे की तरफ देखा. "और हां यह छूट सिर्फ़ माँ के लिए है, कहीं ऐसा मत समझना मेने तुम्हे गाँव की औरतों के साथ भी छूट दे दी है" मैं मुस्करा पड़ा. 

"अच्छा अब जाओ. यहाँ से रिक्शा ले लेना, नही तो बस छूट जाएगी...बातों बातों में देखो तुम कितना लेट हो गये हो....अब जाओ जल्दी से" 


"अपना ख़याल रखना दीदी.....मुझे तुम्हे ऐसे छोड़ कर जाते अच्छा नही लगता"

"मैने तुम्हे कहा ना यह हमारी परीक्षा है, और इसमे हमे पास होना है अगर हमे साथ जीवन बिताना है तो" 
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12-28-2018, 12:47 PM,
#36
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
मैने उसे आख़िरी बार देखा, और वापस मूढ़ कर बस स्टॅंड की ओर जाने लगा. अभी पाँच कदम भी नही चला हुँगा कि उसने मुझे फिर से पुकारा, मैने मूड कर उसकी ओर देखा.

"भाई अपना ख़याल रखना......माँ का भी......अगली बार मिलने आना तो सुबह में आना" उसके होंठ फडक रहे थे, मुझे मालूम था मेरे आँखो से ओझल होते ही वो रोने लग जाएगी. मैने हाँ मैं सर हिलाया, गला भरा था चाहकर भी बोल नही सकता था.

"अच्छा अब जाओ.....जाओ" उसकी आवाज़ कंपकंपा रही थी मैं वापस मूड कर चलने लगा. उसकी रुआंसी शकल से मेरा दिल बैठ गया था. थोड़ी दूर गया हुंगा कि एक ऑटो वाला पीछे से आ गया. मैं उसमे बैठ गया. पीछे मूड कर देखा तो वो अब भी वहीं खड़ी थी. जब तक मुझे वो दिखाई देती रही वो वहीं खड़ी थी, दिल तो चाह रहा था उसे बस अपने साथ गाँव ले चलूं मगर मैं चाहकर भी ऐसा नही कर सकता था. उसकी बात सच थी एक दिन गाँव छोड़ना पड़ेगा, फिर वो ज़मीन नही रहेगी जिसके बलबूते मैने इतने बड़े बड़े सपने देखे थे. हमे अभी से भविष्य की तैयारी करनी थी. मगर फिर भी अपनी निर्दोष, मासूम बहन को ऐसे अकेला छोड़ कर जाते हुए मेरी आत्मा क्राह रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे कोई कांतिले हाथो से मेरा दिल भींच रहा हो. मगर मैं कुछ कर नही सकता था बस एक उम्मीद थी कि एक दिन यह जुदाई हमेशा हमेशा के लिए ख़तम हो जाएगी

पूरे रास्ते में पूरी तरह मौन मैं बॅस जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था. मैं दुखी नही था, बहन से मिल कर दिल का बोझ हल्का हो गया था. अभी तक सब कुछ ठीक तक चल रहा था. वो वहाँ अच्छे से रह रही थी और सुरक्षित थी, यह मेरे लिए सबसे ज़्यादा सकून देने वाली बात थी. आज उसे अपनी आँखो से देख मन को थोड़ी तस्सली हो गयी थी. बस एक उदासी थी उससे फिर से दूर हो जाने की. जब भी उसका प्यारा सा मुखड़ा मेरी आँखो के सामने से घूमता तो मैं अपनी मुत्ठियाँ भींच कर खुद को संभालने की कोशिश करता. उस रात खाना खाने का भी दिल नही था, मैं बॅस उसकी यादों में खोए रहना चाहता था. मगर माँ ने ज़िद करके मुझे खाना खिलाया. मैने माँ को तस्सली दी कि वो ठीक है. माँ ने मेरा दिल हल्का करने के लिए मुझसे मज़ाक किया मगर प्रतिक्रिया मे मेरा उदास चेहरा देखकर चुप हो गयी. दूध पीने के बाद उसने मुझे अकेला छोड़ दिया. मैं बहन के साथ बिताए हर पल को, उसकी हर बात को उसकी हर भाव-भंगिमा को याद कर रहा था. दिल के किसी कोने में हसरत थी अगर वो उस समय मेरे पास होती तो मैं उसे रात भर दिल खोलकर प्यार करता. मगर मेरी यह हसरत फिलहाल पूरी नही होने वाली थी.
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12-28-2018, 12:47 PM,
#37
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
ज़िंदगी वापस उसी तरह चलने लगी. इस बार मैने फसल बीजकर मुर्गियों की ओर ध्यान देना सुरू किया. जिस हिसाब से गोश्त का रेट चल रहा था मेरे लिए वो मुनाफ़े का बड़ा सौदा था. मैने भगवान से किसी अनहोनी से बचाने की प्रार्थना की. फसलों में अभी कम काम होता था. दोपहर तक मैं फसलों को देखता और दोपेहर बाद मुर्गिफार्म को. पशुओं का काम बहुत कम था. बेहन से मिलने के बाद अब मुझे मंज़िल पर पहुँचने की और भी जल्दबाज़ी हो गयी थी. मैं अब पूरा हिसाब रखने लगा कि मुझे किस काम से कितना मुनाफ़ा मिल रहा है, किसमे कितनी मेहनत लग रही है. हर बात का ख़याल रख रहा था. बस एक ही डर रहता था वो था मौसम के मिज़ाज का. बारिश का समय पर होना और सही अनुपात में होना बहुत ज़रूरी था. बोरबेल से फसलें बीजी जा सकती थी मगर पाली नही जा सकती थी. इतनी ज़मीन पर दो बोरबेल नाकाफ़ी थे, मैं बहुत हद तक अभी भी बारिश पर निर्भर था.

सब्जियों और दूध के अलावा दुकान की कमाई से काफ़ी बचत होने लगी थी. इस बार की फसल के बाद मुझे उम्मीद थी कि तस्वीर सॉफ हो जाएगी कि मुझे अभी बेहन से कितना समय और दूर रहना था.

इस सीज़न में मेरी किस्मत ने मेरा साथ भी दिया और नही भी दिया. जहाँ मुर्गियों से मुझे मेरी उम्मीद से भी कहीं ज़यादा मुनाफ़ा हुआ था वहीं मकयि की तैयार फसल पर भारी बारिश होने से बहुत नुकसान हुआ. हालाँकि पूरी फसल बर्बाद नही हुई थी मगर फिर भी मकयि की लगभग एक तिहाई फसल बेकार हो गयी थी. दाने काले पड़ गये थे और उन्हे कोई फ्री में भी खरीदने वाला नही था मगर एक अच्छी बात यह थी उस बारिश से धान की फसल की पैदावार अच्छी हो गयी थी क्यॉंके धन को अंत तक खूब पानी की ज़रूरत होती है. मकाई की खराब फसल मैने मुर्गियों को डालने के लिए रख छोड़ी मगर वो फसल बहुत ज़यादा थी. जब भी मेरी नज़र उस पर पड़ती तो मन उदास हो जाता. मैं भगवान से रार्थना करने लगता एसा नुकसान दोबारा ना हो.

उस दिन मैं पूरी ज़मीन पर फसल विजने का काम निपटा कर खाली हुआ ही था जब माँ दोपेहर का खाना लेकर आई. मैने ट्रॅक्टर वाले का हिसाब चुकता किया और फिर माँ के साथ खाना खाने लगा. हम मुनाफ़े को लेकर बाते कर रहे थे और मैने माँ को बताया कि सबसे ज़्यादा फ़ायदा मुर्गियों से हुआ है, तब माँ ने मुझे एक ऐसा सुझाव दिया जो खुद मेरे दिमाग़ मे नही आया था.

"क्यों ना तुम कुछ पेड़ों की लकड़ी से एक और शेड तैयार कर लो. हम और मुर्गियाँ डाल लेते हैं. दुकान बंद करके मैं भी तुम्हारे साथ आ जाती हूँ. क्यॉंके अब मुझे भी लगने लगा है कि दुकान में मेहनत ज़यादा है और कमाई कॅम. माँ की बात सही थी. हम अपने टीले पर कुछ पेड़ गिरा कर एक शेड डाल सकते थी और मकयि की बेकार फसल भी काम आ सकती थी. सहसा इस सुझाव से मेरा दिल हिल उठा. बड़े दिनो बाद मेने अपने अंदर खुशी और आतमविश्वास की नयी लहर दौड़ती महसूस की. हालाँकि मुर्गियों में रिस्क बहुत ज़यादा होता है मगर कमाई देखकर मैं यह रिस्क उठाने को तैयार था. इस बार फसल बेचने के बाद जब मैं बेहन से मिलने गया तो उसने भी मेरा खुल कर अनुमोदन किया. मैं सहर से लौटा तो अगले ही दिन से एक आस्थाई मुर्गिफार्म की तैयारी सुरू कर दी. टीले से कुछ पेड़ मैने उखाड़ दिए और कुछ को मैने ज़मीन से नहीं बल्कि शेड की उँचाई से काटा. अब उनकी जड़ सही सलामत होने से शेड को अच्छी ख़ासी मज़बूती मिल गयी थी. ढाँचा तैयार कर मैने मकई के सूखे पोधो, झाड़ झांकड़, और बड़े पोलिथीन की तीन परतें लगा कर अपनी शेड तैयार कर ली. एक महीने की उस कमर तोड़ मेहनत का फल मेरे सामने था.

जैसा हम ने पहले सोचा था उसके विपरीत माँ ने सिर्फ़ सुबह को दुकान खोलने का फ़ैसला किया. हालाँकि गाँव वाले बेहद नाराज़ थे मगर हम उनके लिए उससे ज़्यादा कुछ नही कर सकते थे. ताज़ी सब्ज़ियों और दूध के कारण वो और सामान भी हमारी दुकान से ही खरीदते थे. माँ हर सुबह चार घंटे दुकान खोलती और फिर खाना लेकर खेतों को आ जाती. दुकान सिरफ़ चार घंटे के लिए खोलने के कारण वहाँ बहुत रश होता था. मगर माँ कभी शिकायत नही करती थी. वो भी पूरा दमखम लगा कर काम में मेरी मदद करती.

शेड में मुर्गियाँ पल रही थीं और मेरी मकयि की बेकार फसल भी काम आ गयी थी. और इस बार बारिश के सही आसार लग रहे थे. उम्मीद थी इस बार अगर सब सही रहा तो मैं अपने लक्ष्य के बेहद करीब पहुँच जाने वाला था.

ऐसे ही टीले पर दोपेहर को खड़ा मैं माँ के आने का इंतज़ार कर रहा था. सामने लहलहाती फसल थी. मुझे बेहन की बहुत याद आ रही थी, काश वो उस समय वहाँ होती और देखती किस तरह हमारी ज़मीन का कोना कोना सोना उगल रहा था. मैं फसलों के बीच से घूमता हुआ इधर उधर खेतों में ऐसे ही भटकने लगा. तभी माँ की आवाज़ कानो में पड़ी. मैने देखा वो टीले पर खड़ी मुझे खाने के लिए पुकार रही थी. मगर मेरा दिल नही कर रहा था वहाँ से जाने का; सफलता का भी एक अलग ही मद होता है जो इंसान को बहुत आनंद देता है. मैं वैसे ही वहाँ कुछ समय खड़ा रहा और और सर जितनी उँची फसल के पोधो को छू छू कर देखता रहा. माँ भी वहीं आ गयी. वो मेरे चेहरे को देखकर ही भाँप गयी कि मैं आज अपनी मेहनत के फल को देखकर खुश हो रहा था. वो मेरे बराबर आ गयी. मैं एक पोधे के हरे पत्तों को अपने हाथों से सहला रहा था, आज मुझे महसूस हो रहा था कि मंज़िल अब वाकई करीब ही है. माँ ने मेरी पीठ पर हाथ रखा और धीरे से बोली "तुम असली मर्द हो, तुमने जितनी मेहनत की है और हमारी तकदीर बदली है वैसा इस गाँव में कोई नही कर सका, कोई भी नही"

"क्या तुम सच में मुझे असली मर्द मानती हो?" मैने माँ की आँखो में आँखे डालते पूछा.

"मैं क्या पूरा गाँव मानता है, तुमने साबित कर के दिखाया है!" माँ के लहज़े में अपने बेटे के लिए अभिमान था, गर्व था.

"मर्द सिरफ़ काम करने और पैसा कमाने से नही बनते!" मैने माँ की आँखो में झाँकते हुए कहा.

"क्या मतलब?" माँ थोड़ा हैरत से बोली.

"मतलब यह कि मर्द का एक और काम भी होता है अपनी औरतों को खुश रखने का" कहकर मैने अपना हाथ माँ के कंधे पर रखा और उसका आँचल पकड़ उसकी छाती से हटाने लगा. माँ इस अचानक हमले से थोड़ा घबरा सी उठी.

"ये तुम क्या कर रहे हो! आज अचानक ये तुम्हारे दिमाग़ में......."

माँ ने मुझे रोकना चाहा मगर मैने माँ का हाथ हटा दिया और उसका आँचल को पकड़ नीचे गिरकर चोली में कसे उसके भारी मम्मों को नुमाया कर दिया. "एकदम से नही माँ...मेरा बस चले तो मैं तुम्हे हर दिन प्यार करूँ...पर तुम जानती हो मैने पिछले दो सालों से कैसी जिंदगी जी है. मैं बस अपने लक्ष्य से भटकना नही चाहता था नही तो मैं तो रात रात भर तुमसे प्यार करता" माँ मेरी बात से ज़्यादा संतुष्ट नज़र नही आ रही थी, उसे कुछ संदेह था मगर मैने कोई ध्यान ना दिया और उसकी चोली के उपर से उसके मम्मों को अपने हाथों मे तोलने लगा.

"मैं तो भूल ही गया था ये कितने बड़े बड़े और कितने सख़्त हैं"
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12-28-2018, 12:47 PM,
#38
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
साड़ी के मोटे आँचल के उपर से मालूम नही चलता था मगर जैसे ही मैने आँचल हटाया तो देखा कि उसके मोटे मोटे सख़्त मम्मे उसकी चोली को फाड़ने को आतुर थे. मैने उन पर प्यार से हाथ फेरा. माँ अभी भी मुझे बड़ी अजीब सी नज़रों से देख रही थी. शायद इस अचानक हमले से सकते मे आ गयी थी. मैने चेहरा नीचे कर चोली के उपर से उसके मम्मों को अपने होंठो से सहलाया. बड़े प्यार से धीरे धीरे मैं उसके मम्मों पर हल्के हल्के चुंबनो की बरसात करने लगा. कुछ देर बाद जब मैने चेहरा उपर उठाया तो देखा माँ अपने होंठ भींच रही थी, उसके चेहरे का रंग थोड़ा थोड़ा लाल होने लगा था और उसकी चोली पर से दोनो मम्मों के निपल अपनी मोजूदगी का एहसास करवाने लगे थे. दिल तो मेरा बहुत था कि अभी उन्हे ऐसे ही प्यार से दुलारू, सहलाऊ मगर एक साल से उपर हो गया था मुझे चुदाई किए हुए. जब तक मन में चुदाई को लेकर कोई विचार नही आया था तब तक मुझे सेक्स की कोई इच्छा महसूस नही हुई थी मगर आज माँ का आँचल हटते जैसे ही मेरी नज़र उसके मॅमन पर गयी तो मेरा लंड पेंट में दुहाई देने लगा. एक साल की दबी हुई भावनाएँ जैसे समुंदर में तूफान बनकर सामने आ गयी. आज माँ की खैर नही थी.

मैने माँ के कंधे पर हाथ रख उसे पीछे की ओर घुमाया तो वो बिना किसी हील हुज्जत के घूम गयी. वैसे भी उसकी तेज़ तेज़ साँसे मुझे बता रही थी वो इस समय किस हालत में है. मैने चोली के पीछे लगी हुक खोल दी और साथ ही उसकी ब्रा की हुक भी. पीछे से माँ से चिपटता हुआ मैं उसकी चोली और ब्रा उतारने लगा तो माँ ने बाहें सीधी कर मेरी मदद की. माँ अब कमर के ऊपर से नंगी खड़ी थी. मैं माँ से पूरी तरह चिपक गया और अपने हाथ उसके फूल से नरम मगर पत्थर की तरह सख़्त मम्मों पर रख दिए. इधर मेरे हाथ उनपर कसे उधर माँ के मुँह से सिसकी निकल गयी. मेरी उत्तेजना अपनी हद की ओर अग्रसर होने लगी और शायद माँ की भी. मेरे हाथ उसके मम्मों को आटे की तरह गुंधने लगे, कभी मैं पीछे से उसके निपलों को अपनी अंगुलियों के बीच लेकर मसलता. माँ अपने हाथ मेरे हाथों पर रखकर कभी मेरे हाथों को दबाती तो कभी उनको रोकने की कोशिश करती. माँ अब उँची उँची सिसक रही थी, उसका बदन भी हल्का हल्का कांप रहा था. खुद मेरा बहुत बुरा हाल था. मैने फिर से माँ को अपनी ओर घुमाया. इस बार जब वो घूमी तो मेरी पहली नज़र उसके चेहरे पर पड़ी जो वासना और उत्तेजना से लाल हो गया था. उसके होंठ खुले हुए थे. आँखो से मदहोशी झलक रही थी. साँस धोन्कनि की तरह चल रही थी. प्यासी वो भी बहुत थी. आग दोनो तरफ बराबर लगी हुई थी.
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12-28-2018, 12:47 PM,
#39
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
मैने अपनी नज़र नीचे की तो पेंट में तना मेरा लंड और भी तन गया. सामने माँ के गोल मटोल मम्मे पूरे तन कर मोर्चा संभाले खड़े थे. मेरे मसलने से उनकी दूधिया रंगत बदलकर सुर्ख लाल हो गयी थी और उस पर उसके लाइट ब्राउन निपल जो देखने भर से मालूम चल रहा था कितने सख़्त थे. माँ तो पूरी गरमा गयी थी. मैने नज़र उठाई तो वो मेरी ओर ही देख रही थी. मैने उसकी आँखो में झाँकते हुए अपना चेहरा नीचे किया और उसके एक निपल पर अपने सूखे होंठ रगडे फिर दूसरे पर. माँ ने खुले होंठो से एक गहरी साँस ली. मैने वैसे ही नज़र टिकाए अपनी जीभ बाहर निकाली और उसके एक निपल को उससे छेड़ा. इस बार माँ बर्दाशत ना कर पाई और वो कराह उठी. मैने उसके निपल को अपने होंठो में दबोचा और अपनी जीभ से उसे चाटने लगा. माँ ने मेरा सर अपने हाथों में थाम लिया. मैं अपने हाथ नीचे ले जाकर अपनी पेंट खोलने लगा. पेंट खुलते ही मैने माँ का हाथ अपने सर से हटाया और उसे नीचे ले जाकर अपने अंडरवेर के उपर रख दिया. माँ ने बिना एक पल गँवाए मेरे लंड को पेंट के उपर से थाम लिया और उसे दबाने लगी. मेरी जीभ कभी उसके एक निपल को कुरेदती तो कभी दूसरे को. एक पर मेरा मुख होता तो दूसरे पर मेरा हाथ अपना अधिकार जमाए होता. जब जब मेरे दाँत उसके निपल को भींचते तो उसके हाथों में मेरा लंड भी भिन्च जाता. जब जब मेरा हाथ उसके मम्मे को कस कर मसलता वैसे ही खुद व खुद उसका हाथ भी मेरे लंड को कस कर निचोड़ने लगता. मैने अब उसके मॅमन को जितना मुँह में आ सकते थे भर कर चूसना सुरू कर दिया. बीच बीच में उसके निप्प्लो को चूस्ता. माँ अब पूरी तरह बेबस हो चुकी थी. उसकी हर साँस एक कराह के रूप में निकल रही थी, उसने अपना हाथ मेरी अंडरवेर के अंदर घुसा दिया और मेरे नग्न लंड को पकड़ लिया. माँ के हाथ का स्पर्श पाते ही मेरी उत्तेजना अपनी हदें पार करने लगी. मेरे होंठो, मेरी जिव्हा और मेरे दाँतों ने मिलकर जो हालत माँ की की थी वोही हालत अब वो मेरी कर रही थी. लंड के सुपाडे को खींचती वो आ.उन्न्न्न्ह्ह्ह्ह्ह कर रही थी. उसके मम्मे चूस्ते चूस्ते मेरे गले से गुणन्ञननणनगुणन्ञणन् करके सिसकिया निकल रही थी. आग बुरी तरह भड़क उठी थी, मुझे अब जलद ही कुछ करना था. मैने माँ के मम्मों से अपना मुँह हटाया और उससे दूर हटकर अपनी पेंट और अंडरवेर उतार फेंकी, उसके बाद अपनी कमीज़ भी. माँ के सामने पूरा नंगा खड़ा था मैं. लंड मेरी नाभि को छू रहा था, इतना सख़्त हो गया था कि हिल भी नही रहा था. वाकाई मे खुद मैं भी अपने लंड का भयंकर रूप देखकर थोड़ा चकित हो गया. उधर मुझे कपड़े उतार नंगा होते देख माँ भी अपने पेटिकोट को खोलने लगी तो मैने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया. 

"नही माँ आज तुम्हे मैं नग्न करूँगा, अपने इन हाथों से. तुम अपने बेटे के हाथों नंगी होगी. आज तुम जानोगी मर्द अपनी औरतों का कैसे भोग करते हैं"

माँ के पेटिकोट की हुक खोलकर मैने उसे नीचे सरका दिया और वो नीचे उसके पाँवो में जा गिरा. अब माँ के पूरे बदन पर एक काली कच्छि बची थी. मैं दो कदम पीछे हटा और माँ को निहारते हुए अपना कुर्ता और पेंट निकालने लगा. या तो मुझे सेक्स किए हुए बहुत टाइम हो गया था या मैं माँ को बहुत समय बाद नंगी देख रहा था या फिर मेरी उत्तेजना मेरे सर चढ़ कर बोल रही थी या फिर माँ सच में ही बदल गयी थी. यक़ीनन मैं बहुत ज़यादा उत्तेजित था, मेरा लंड लोहे की रोड तरह आकड़ा खड़ा था मगर माँ के जिस्म में भी कुछ बदलाव ज़रूर हो गया था. पिछले पंद्रह महीनो की सख़्त मेहनत ने और खेतों से घर और दुकान के बीच की भागदौड़ ने उसकी कमर को एकदम सपाट कर दिया था. हालाँकि वो मोटी तो कभी नही थी मगर उस कठोर परिश्रम से उसकी कमर बहुत पतली हो गयी थी. कमर पतली होने से उसके जिस्म का अग्रभाग कुछ ज़्यादा ही कामुक लग रहा था. उस पतली कमर के उपर वो मोटे मोटे मम्मे और नीचे उसकी पुष्ट जाँघो के काली कच्छि से गीली होकर चिपकी झाँकती उसकी चूत देखकर किसी तपस्वी का भी मन डोल जाता तो मैं तो एक अदना सा इंसान मात्र था. वाकाई में उस कमर के उपर उसके वो ठोस मम्मे इतना दिलकश नज़ारा पेश कर रहे थे कि उत्तेजना से मेरा बदन काँपने लगा. माँ मुझे कपड़े उतारे देख रही थे. उसकी आँखो की लाली, उसके काँपते होंठ, उसके मम्मों के आकड़े भूरे निपल' उसकी काली कच्छि से गीली होकर चिपकी चूत बता रहे थे कि वो भी चुदने को कितनी बेकरार है. 

मकई के खेत के बीचों बीच उस भरी दोपेहर में हम माँ बेटे नंगे खड़े थे और चुदाई के लिए बेकरार हमारे जिस्म इस बात की गवाही भर रहे थे कि कामबान कितना शक्तिशाली होता है. जब काम किसी के सर चढ़ता है तो सब रिश्ते नाते भूल जाते हैं बस फिर तो इंसान खुद को काम की अग्नि में जलाकर खाक कर देने को आतुर हो उठता है.

मैं माँ के करीब गया, उसके मम्मों को सहलाता बोला "माँ मेरा तो कभी ध्यान ही नही गया, तू तो सच में बहुत सुंदर हो गयी है. माँ ने जबाब में एक ज़ोरदार सिसकी ली. "ज़रा घूम कर अपनी गान्ड तो दिखा" मैं माँ को पीछे की ओर घुमाता बोला. माँ के घूमते ही मेरी नज़र उसके चुतड़ों पर पड़ी. उसकी बड़े बड़े चुतड़ों ने उसकी कच्छि को फटने की हद तक फैला रखा था. चुतड़ों की गहराई में धसि उसकी कच्छि उसकी गोल मटोल गान्ड को बड़े अच्छे से दर्शा रही थी. मैने अपने हाथ उसके चुतड़ों पर रख उन्हे मसलने लगा, कभी कभी उन्हे अपनी मुट्ठी में भींच लेता. कठोर मेहनत का नतीजा उसके चुतड़ों पर भी दिख रहा था, उसके चूतड़ पहले से ज़्यादा सख़्त हो गये थे, गान्ड एकदम कसी कसी महसूस हो रही थी जैसे किसी कुवारि लड़की की हो. मेरे हाथ उसकी गान्ड पर कुछ ज़यादा ही ज़ोर आज़माइश कर रहे थे.माँ आह, उन्ह, हाए हाए करती तुनकने लगी. उन्हे खूब मसल कर, सहला कर मैं माँ के पीछे उसके चुतड़ों की खाई में अपना लंड दबाता उससे चिपक गया. अपने हाथ उसकी बगलों से आगे कर मैने उसके मम्मे मसल्ने सुरू कर दिए.

"सच कहता हूँ माँ अगर मैने तुझे पहले नंगी देख लिया होता तो तेरी तो अब तक नज़ाने कितनी बार ले चुका होता" मैने माँ के कानो मैं फुसफुसा कर कहा, वो सिसक उठी. अब तो खुल कर उँची उँची सिसकिया भर रही थी. "तेरे तो अंग अंग से मादकता बह रही है" मैं उसके निप्लो को अपनी उंगलिओ के बीच लेकर मसलता हुआ बोला. माँ अपने हाथ मेरे हाथो पर रख हाए हाए कर रही थी और अपनी गान्ड गोल गोल घुमा कर मेरे लंड पर दबा दबा कर रगड़ रही थी. बेचारी बुरी तरह से कामोत्तेजित थी, बर्दाशत नही कर पा रही थी. मैने उसे फिर से अपनी ओर घुमाया. और उसके सामने घुटने टेक कर बैठ गया. उसकी चूत और मेरे मुँह में एक फुट का फासला था मगर फिर भी उसकी उत्तेजना के रस से महकती चूत की गंध मेरे नथुनो को महका रही थी. उसकी कच्छि गीली होकर उसकी चूत के होंठो से चिपकी हुई थी. मैं चूत की लकीर को भी आसानी से देख सकता था. मैने अपना मुँह आगे लेजा कर कच्छि के उपर से एकबार उसकी चूत को हल्के से चूमा.

"आअंह...ऊवन्न्न्नह" वो कराह उठी. मैं मन ही मन इस बात पर गर्व महसूस कर रहा था कि मैने उसे बिना चोदे बिना पूरी नंगी किए इस हालत में पहुँचा दिया था. मेरी लपलपाति जिव्हा बाहर निकली और मैने कच्छि में से झाँकती उसकी चूत के होंटो की लकीर पर उसे उपर से नीचे तक फेरा. "हाए.....हाए....उउफगफफ्फ" माँ इस बार ज़ोर से कराही थी. अब देर करना मुनासिब नही था. खुद मेरी हालत बहुत बुरी हो चुकी थी. माँ के नंगे बदन की मादकता और उसकी सिसकिओं और आओं कराहों ने मेरी उत्तेजना सातवे आसमान तक पहुँचा दी थी. मैने कच्छि की एलास्टिक में अपनी उंगलियाँ फँसाई और उसे नीचे की ओर बिल्कुल धीरे धीरे खींचने लगा. उसकी कच्छि नीचे जाने लगी तो सबसे पहले मेरा ध्यान उसकी चूत के उपर छोटे छोटे बालों की ओर गया. लगता था माँ ने दो चार दिन पहले ही सफाई की थी. फिर उसकी गीली चूत से चिपकी कच्छि धीरे धीरे अलग होती नीचे जाने लगी और उसकी चूत मेरी नज़र के सामने नुमाया होने लगी. मैने नज़र उपर उठाई तो माँ मुझे ही देख रही थी, मुझे देखते ही उसकी आँखे बंद हो गयी, उसके चेहरे से मादकता और उत्तेजना बरस रही थी, वो चुदवाने को आतुर नही थी बल्कि तड़प रही थी. मैने कच्छि खींच उसके पैरों में करदी जहाँ उसका पेटिकोट पहले ही पड़ा हुआ था. माँ ने एक एक कर अपने पैर पेटिकोट और कच्छि से बाहर निकाल लिए. अब माँ मेरे सामने पूरी नंगी थी और कामरस से चमकती उसकी चूत मेरी नज़र के सामने. हल्के हल्के बालों के बीच से उसकी गीली चूत लंड के लिए दुहाई दे रही थी. मैने अपने होंठ आगे कर उसकी चूत को तीन चार बार चूमा और अपनी जीभ उसके होंठो में घुसा दी. माँ के हाथों ने मेरे बाल भींच लिए. वो कांप रही थी. हाए, उफफफफ्फ़,आआअहह करती वो सिसक रही थी, कराह रही थी जैसे लंड के लिए भीख माँग रही हो. मैने अपना मुख उसकी चूत पर दबाया तो उसकी टाँगे खुद व खुद चौड़ी हो गयी और मैने उसकी मुलायम चूत को अपनी खुरदरी जीभ से रगड़ा तो माँ चीखने लगी. वो मेरे बाल खींच रही थी. मैं उठ खड़ा हुआ, लोहा पूरा गरम हो चुका था अब चोट मारने का वक़्त आ गया था. 
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12-28-2018, 12:48 PM,
#40
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"चल माँ चुदने के लिए तैयार हो जा" मैं खड़ा होता माँ से बोला


माँ तो ना जाने कब से चूत में लंड डलवाने के लिए तड़प रही थी. खड़े होते ही मैने उसके होंठो पर एक ज़ोरदार चुंबन लिया. माँ ने भी जीभ से जीभ, होंठो से होंठ भिड़ा कर खूब साथ दिया. मैने एक हाथ नीचे लेजा कर माँ की जाँघ को अंदर से पकड़ उपर उठाया और उसे अपनी कमर पर दबाया. फिर मैने आगे बढ़कर अपना लंड माँ की चिपचिपाती चूत से भिड़ा दिया. माँ 'हाए' कर उठी. मैने फिर से अपने होंठ उसके होंठो पर रख एक गीला चुंबन लिया और उसका हाथ पकड़ नीचे अपने पत्थर की तरह कठोर लंड पर रख दिया. 

"माँ ज़रा अपने बेटे के लंड को अपनी चूत का रास्ता तो दिखलाओ" मैने चुंबन तोड़ते हुए कहा. माँ मदहोश सी थोड़ा सा उपर होकर एडिओं के बल उसने मेरे लंड को थोड़ा हिलाडुलाकर अपनी चूत के मुँह पर फिट कर दिया. लंड की हल्की सी घिसाई से ही उसकी सिसकियाँ निकल रही थी, वो होंठ भींच रही थी. एक बार लंड निशाने पर लगते ही उसने मेरे कुछ करने से पहले खुद अपने हाथ मेरी कमर पर ज़माकर लंड पर अपनी चूत को ज़ोर से दबाया. चूत इतनी गीली थी कि लंड बिना किसी रुकावट के सर्र्र्र्र्र्र्ररर करता आधा अंदर घुस गया. 'हाए' हम दोनो माँ बेटे सीत्कार कर उठे. माँ ने मेर कमर पर अपनी पकड़ और भी मज़बूत कर फिर से ज़ोर लगाया और इस बार लंड चूत की तंग दीवारों को खोलता पूरा जड़ तक अंदर घुस गया. 'आआहह' माँ ज़ोर से सिसकी. लंड चूत में घुसते ही मुझे माँ की हालत का अंदाज़ा हुआ. चूत तो अंदर भट्टी की तरह दहक रही थी.

मैने माँ की टाँग को कस कर पकड़ा और दूसरा हाथ उसके मम्मे पर टिका कर अपनी टाँगे थोड़ी सी चौड़ी कर अपनी स्थिति सही की. लंड टोपे तक बाहर खींच एक ज़ोरदार घस्सा मारा लंड वापस चूत की जड़ तक पेल दिया. फिर से बाहर निकाला और वापस अंदर डाल दिया. ऐसे ही लंड अंदर बाहर करते मैं माँ को चोदने लगा. माँ भी अपनी कमर मेरे लंड पर मार मार कर मेरा पूरा साथ दे रही थी. हम दोनो के मुखो से आहें कराहें फूट रही थीं. जैसे ही मैं लंड बाहर निकाल उसकी चूत मे घुसाने के लिए ज़ोर लगाता मेरे मुख से कराह निकल जाती उधर माँ की चूत की दीवारों को रगड़ता जब मेरा लंड उसके अंदर चोट मारता तो वो 'हीईीईईईईईईईईईई' कर उठती. 

"माँ तेरी चूत तो जल रही है, उफ्फ लगता है मेरे लंड को जलाकर खाक कर देगी" मैं माँ के मम्मे को मसलता लंड अंदर ठोकता बोला. मगर माँ जबाब ना दे सकी. मुझे उसकी चूत कुछ सिकुड़ाती हुई महसूस हो रही थी, उसकी चूत मे कुछ कंपन सा महसूस हो रहा था. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता माँ एकदम से मुझसे कस कर लिपट गयी, ज़ोरों से चीखने लगी. वो अपनी चूत मेरे लंड पर घिस रही थी, मुझे घस्से मारने में दिक्कत होने लगी. माँ ने अपने हाथ मेरे चुतड़ों पर रख अपनी चूत पूरे ज़ोर से मेरे लंड पर दबाई और फिर एक ज़ोरदार चीख से वो सखलित होने लगी. उफफफफ्फ़ मात्र पंद्रह बीस धक्कों से ही वो सखलित हो गयी थी. उसकी चूत से निकलता रस मेरे लंड को भिगोता हमारी जाँघो पर बहने लगा. माँ की पकड़ मेरे चूतड़ो पर ढीली होने लगी. मैने बिना कुछ किए कुछ पल इंतजार किया. उसकी आँखे मुंदी हुई थी, होंठ खुले हुए थी और वो होंठो से ज़ोर ज़ोर से साँसे ले रही थी. उसका उपर नीचे होता सीना उसकी हालत बयान कर रहा था. उसकी सिसकियों की आवाज़ अब कम होने लगी थी. उसकी चूत से पानी बहना भी बंद हो गया था और चूत का संकुचन भी काफ़ी कम हो गया था. मैने माँ की टाँग नीचे रखी कुछ पल और इंतेज़ार किया. वो अब बिल्कुल ढीली पड़ गयी थी. मैने अपने हाथ उसकी कमर पर रख उसे खड़े रहने में मदद की. मेरा लंड उसकी चूत में झटके मार रहा था जैसे अपना गुस्सा जाहिर कर रहा था कि उसे चूत रगड़ने को नही मिल रही लेकिन अब उसका गुस्सा मैं शांत करने वाला था. माँ अब शांत पड़ गयी थी हालाँकि उसकी आँखे अभी भी बंद थी मगर सांसो की रफ़्तार धीमी पड़ गयी थी. मैने माँ के होंठो पर एक कस कर चुंबन लिया. और अपने लंड को बाहर निकाल एक हल्का सा झटका दिया. माँ बंद आँखो से ही धीरे से सिसकी. मैने हल्के हल्के झटके लगाने चालू रखे. रफ़्तार भी अभी धीमी ही थी. मेरे हाथ धीरे धीरे नीचे सरकने लगे और उसके चूतड़ो को थाम मैने धक्कों की रफ़्तार धीरे धीरे बढ़ानी चालू कर दी. बीच बीच में माँ के होंठो को चूम लेता. बीच बीच में वो आँखे खोल मेरी ओर देखती और फिर हमारे बीच जहाँ मेरा लंड उसकी चूतरस से भीगा अंदर बाहर हो रहा था. जल्द ही मेरे धक्कों की रफ़्तार तेज़ होने लगी. मैं उसके चूतड़ो को अपनी मुठियों में भींच उन्हे ज़ोरों से मसल रहा था.
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