Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
12-28-2018, 12:44 PM,
#21
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
वो एक गहरी साँस लेती है, मगर बिना कुछ बोले बेड पर चढ़ कर उसी मुद्रा में हो जाती है जैसा मैं चाहता था. बेड के एकदम कोने पे घुटने टिकाए वो चौपाया बन जाती है. वो अपने नीचे से अपना हाथ पीछे लाती है और जाँघो के मध्य से होकर मेरा लंड पकड़ अपनी रस टपकाती चूत से भिड़ा देती है. उसके कूल्हे हिल डुल कर होने वाले हमले के लिए तैयार होते हैं और मैं लंड का टोपा धक्का मार कर गीली चूत के अंदर कर देता हूँ. वो चादर को मुट्ठी मे भींच लेती है. "आख़िर कॉन तुम....." मैं कस कर धक्का मारता हूँ और लंड लगभग पूरा लंड चूत में घुसेड देता हूँ. 

पटक! "ओह!....उफफफफफफ्फ़.....उफफफफफफफ्फ़" फिर से वही आवाज़ हवा में गूँजती है
पटक........पटक.......पटक.........पटक...........पटक.......

अगले कुछ मिंटो तक मैं अपनी लाया बदल बदल कर चुदाई करता रहा. मेरी उंगल अब भी उसकी चूत के दाने को सहला रही थी. मेरा दूसरा हाथ उसकी पतली सी कमर को सहला रहा था. मैं उसे नीचे की ओर दबाता हूँ ताकि उसका आगे का हिस्सा बेड से लग जाए और उसकी प्यारी गान्ड उभार कर मेरे सामने आ जाए. मैने दोनो हाथ उसके कुल्हो पर रख उसकी गान्ड को दबाने, मसलने, निचोड़ने लगा" 

"तुम....तुम कितनी खूबसूरत हो, कितनी कामनीय हो.....कितनी मनमोहक!" मैं अपना लंड उसकी चूत में जड़ तक पेल देता हूँ और उसके उपर लेटते हुए उसकी पीठ, उसकी गर्दन और आख़िर में उसके कान को चूमता हूँ.

"मुझे तुम्हारी आँखो में झाँकना है. मुझे तुम्हारी आँखो को देखना है" वो एकदम से बोली.

मुझे अचानक उसकी यह इच्छा समझ में नही आई मगर एकम से उसकी बात से मैं बहुत जज़्बाती हो उठा--प्यार, डर, उदासी, खुशी. कयि भावनाए थी जो उस पल में मेने महसूस की. 

"हूँ......मैं.....मैं भी तुम्हारी आँखो मैं देखना चाहता हूँ" मेरे गले से रुंध रुंध कर आवाज़ निकल रही थी. 

मैने उसकी टाँग और गीली चूत से अपना झटके मारता लंड बाहर निकाला. मैं उसके साथ बेड पर चढ़ गया. उसके बदन के हर सूक्ष्म हर कामुक कटाव को अपनी आँखो में क़ैद कर रहा था. वो करवट लेकर सीधी हो गयी और उसने अपनी टाँगे मेरे स्वागत में खोल दीं. मैने उसका चेहरा देखा, हालाँकि कमरे रोशनी इतनी नही थी मगर फिर भी मैं उसके चेहरे पर पसरी शरम को देख सकता था. मैं उसकी टाँगो के मध्य में होता हूँ. मैं उसके दूध से सफेद मम्मों को दुलारता हूँ, उसके कड़े गुलाबी निप्प्लो को उंगलियों मे लेकर धीरे से मसलता हूँ और मेरा लंड उसकी चूत के चिकने होंठो मे उपर नीचे फिसलता है. मेरी आँखे आँसुओ से भर उठती हैं. उसकी भावें तन जाती हैं.

"क्या हुआ....कोई समस्या है" उसके चेहरे पर चिंता उमड़ आई थी.

मेरा दिल यकायक रोने को कर आया था. "नही, कुछ नही, बस ऐसे ही" मैने उसकी काली आँखो में झाँका तो मुझे लगा जैसे वो मेरी आत्मा मेरे अंतर में देख सकती है. वो मेरे अंदर के उन रक्षासों उन बुराइयों के बारे मे ज़रूर जानती होगी. मगर उस समय मेरे अंतर मे अच्छाई के सिवा कुछ भी नहीं था और वो मेरे अंतर में झाँक उस अच्छाई को देख रही होगी. वो....वो कितनी अदुभूत, कितनी प्यारी कितना ख़याल रखने वाली है, कितनी होशियार कितनी सतर्क है और वो किस तेरह अपने गुस्से पर काबू पा सकती थी. मैं भी उसी की तरह बनाना चाहता था और पिछले तीन महीनो से मैं यही कोशिस कर रहा था. तीन महीने बीत चुके थे, तीन महीने! मेरी गाल पर एक आँसू लुढ़क जाता है.

उसकी भवें फिर से तन जाती हैं. "क्या हुआ....आख़िर बात क्या है?" वो धीमे से कोमल स्वर में बोलती है. 
मैं अपना गला सॉफ करता हूँ और इनकार मे सर हिलाता हूँ. "कुछ नही" 

उसकी आँखे अब भी मेरी आँखो मे झाँक रही थीं. उसने मेरी कमर को थामा और मुझे अपनी और खींचा और उधर अपनी कमर आगे को दबाई. मेरा लंड उसकी चूत में धीरे धीरे सामने लगा. मुझे अपने बदन में झुरजुरी सी दौड़ती महसूस होती है. मेरे आँसू थमने लगते हैं और मेरी सांसो की रफ़्तार फिर से बढ़ने लगती है. 

"अभी अच्छा महसूस हो रहा है ना?"

"उः-हूओन" मैने सहमति में सर हिलाया.

"तुम बहुत सुंदर हो, बहुत प्यारे भी, और बहुत अच्छे भी"

मेरी आँखे फिर से नम होने लगी "मैं जानता हूँ मैं बिल्कुल भी अच्छा नही हूँ मगर मैं बनाना चाहता हूँ.......तुम्हारे लिए"
"नही तुम बहुत अच्छे से हो. और हमेशा से हो"

वो अपनी कमर को हवा में उठाए तेज़ी से मेरे लंड पर पटकने लगी. मैने भी ताल से ताल मिलाते हुए उसके धक्कों का जवाब देने लगा. जल्द ही हम दिनो की साँसे फिर से भारी होने लगी. कभी कभी मैं जड़ तक लंड पेल कर रुक जाता और अपनी कमर घुमा घुमा कर उसकी चूत मे अपना लंड घिसने लगता. वो भी साथ देते हुए अपनी चूत के दाने को मेरे लंड पर रगड़ाती. वो फिर से स्खलित होने के नज़दीक पहुँचती जा रही थी. मैं अपनी रफ़्तार और तीव्रता मे विभिन्नता लाकर उसे चोदे जा रहा था. कभी मेरे धक्के बहुत बहुत धीमे और नरम पड़ जाते और कभी मैं कस कस कर पूरे जोशो ख़रोश से अपना लंड उसकी चूत की जड़ में पेलने लगता. मगर रफ़्तार चाहे कुछ भी हो, मुझे वो हर पल प्यार से भीगा हुआ लग रहा था, हमारी आँखे पूरे समय एक दूसरे पर जमी हुई थी. 

अंत मैं हमारा कामोउन्माद इतना बढ़ गया कि हम जंगली जानवरों की तरह उछलने लगे जैसे हम दोनो में होड़ लगी थी यह दिखाने की कि दूसरे के लिए हमारे दिल मे कितनी मुहब्बत है, कितना प्यार है, कितना जनून है, कि एक दूसरे के जिस्म मे समा कर दो से एक हो जाने की कितनी गहरी तमन्ना है, कि कैसे हम अपने प्यार, अपने जनून की आग में खुद को जलना चाहते थे.

मैने एक बार फिर से पूरा लंड पेल कर उसकी चूत में रगड़ने लगा. उसने भी मेरे प्रतिबिंब की तरह अपनी कमर उठाकर लंड को चूत में घिसने लगी.

वो चूत के दाने को मेरे लंड पर घिस रही थी. "ओफफफफफफ्फ़...हे भगवान........अब .......अब......बस.......हाए...हाए....हाए........" जैसे ही वो मंज़िल पर पहुँची मेरे लंड से गरम वीर्य की पहली फुहार छूटी. उसका जिस्म ऐंठने लगा. मेरा जिस्म अकडने लगा, वीर्य की हर पिचकारी के साथ मेरे बदन को झटका लगता. मेरे जिस्म से गर्मी निकल उसके अंतर मे समा रही थी, और ये चलता जा रहा था, चलता जा रहा था, मगर असलियत में इसमे आधा मिनिट से ज़यादा समय नही लगा होगा. हम दोनो के चेहरे थोड़े विकृत हो गये थे मगर वो उस हदें पार कर जाने वाले आनंद की वजह से था ना कि किसी पीड़ा की वजह से. उसकी आँखे मेरी आँखे से एक पल के लिए भी नही हटी थी. उस परस्पर स्खलन के समय मैने वास्तव में ऐसा महसूस किया जैसे हम एक हो गये हों. आख़िरकार हमारे जिस्म सिथिल पड़ने लगे. उसका मुख खुला और वो हान्फते हुए साँसे लेने लगी जैसे उस समय मैं ले रहा था. 

मुस्कराते हुए उसने मेरा चेहरा पकड़कर अपने चेहरे के पास खींचा और मेरे होंठो और गालों पर चुंबनो की बरसात करने लगी. उसकी उंगलिया मेरे चेहरे को स्पर्श करने लगी. "तुम अदुभूत हो" वो फुसफसा कर बोली.

मेरे अंतर में फिर से जज़्बात उमड़ने लगे. "मैं नही तुम अद्भुत हो" 

वो खिलखिलाती हँसी हँसने लगी '"नही, देखो आज की रात कोई बहसबाज़ी नही, ठीक है?" 

"ठीक है" मैने सहमति में सर हिलाया. मेरे अंदर का भावावेश अब निद्रा में तब्दील हो रहा था, मैं लगभग उंघ रहा था. ऐसा पहले कभी नही हुआ था, बल्कि इसके विपरीत हम जब भी पहले प्यार करते, संभोग करते जैसे हमने आज किया था तो मैं अपने अंदर एक उर्जा महसूस करता. कम सेकम इतनी ताक़त महसूस करता कि उससे से बातें कर सकूँ, उसके साथ हंस सकूँ, उसे कुछ समय तक छेड़ सकूँ. मैने एक गहरी साँस ली एक आह भारी.

"तुम्हे नींद आ रही है, है ना?" वो मुस्करा रही थी.

"उः...हा. हल्की हल्की. तुम्हे नही नींद आ रही?" 

"हुउऊउन्ण...आ रही है" वो मेरे होंठो को प्यार से कोमलता से चूमते बोली.

मैने फिर से महसूस किया जैसे वो मेरे अंतर में झाँक रही है, मेरे दिल में, मेरी आत्मा में. जज़्बातों का तूफान फिर से उमड़ रहा था मगर नींद के ज़ोर ने जैसे उसे दबा दिया. उसकी चूत में मेरा लंड अब सिकुड़ने लगा था. एक मिनिट बाद वो फिसल कर बाहर आ गया. जब यह हुआ तो हम दोनो को हँसी आ गयी.

"तुम्हे नींद आ रही है? सोना चाहते हो?"

"हुउन्न्ं! अगर तुम्हे बुरा नही लगेगा तो मुझे बड़े ज़ोरों की नींद आ रही है" 

"नही मुझे बिल्कुल भी बुरा नही लगेगा .इधर मेरे कंधे पर सर रखकर सोओ"

मैं उसकी बगल में ढेर हो गया और उसके कंधे पर सर रख दिया, उसकी छाती पर हाथ, उसकी टाँग पर टाँग चढ़ा कर मैने अपने होंठ उसकी गर्दन से सटा दिए. उसका हाथ मेरी पीठ सहला रहा था. मुझे कितना सुख, कितना आराम मिल रहा था. 
मैने उसकी कान की लौ को चूमा "मुझे बहुत अच्छा लगा था जैसे तुमने वहाँ शेव की थी मगर......"

"मगर?" उसकी भवे तन गयी, उसे लगा जैसे मैं उसको कोई मज़ाक करने वाला था. 

"एक दो महीने बाद तुम फिर से ...फिर से शेव मत करना" मैने जम्हाई लेते हुए कहा. 

"मुझे लगा तुम्हे बिन बालों के अच्छी लगेगी. तुमने खुद भी बोला था ना?"

"हां मेने बोला था... मुझे अच्छा भी लगा, मगर पहले की तरह ज़्यादा नही मगर छोटे छोटे बाल मुझे ज़्यादा पसंद हैं" मैने मुस्करा कर कहा. "मुझे तुम्हारे कोमल रोयोँ पर अपना चेहरा रगड़ने में बहुत मज़ा आता है"

वो गहरी साँस लेती है थोड़े चिडचिडे पन से. मगर फिर मेरी ओर देखते प्यार से बोलती है "तुम्हे मालूम है ना वापस उगाने पर कितनी खुजली होती है"

"चिंता मत करो जब भी खुजली होगी तो मैं खुज़ला दिया करूँगा" मैं हँसने लगा

"चुप करो. अभी नींद नही आ रही" वो थोड़ा खीझ कर बोली

"आ रही है. मालूम नही क्यों. ऐसा पहले तो कभी नही हुआ.

"बस अपनी आँखे बंद कर्लो और आराम से सोने की कोशिस करो. मुझे खुद भी बहुत नींद आ रही है"

मैं जानता था वो झूठ बोल रही है मगर मुझे उसका ऐसा बोलना बहुत प्यारा लगा. मेरी आँखे बंद होती जा रही थी. मैं उससे और भी चिपक गया. उसका जिस्म कितना प्यारा था. मेरे होंठो पर हल्की सी मुस्कान फैल गयी जब मुझे याद आया कि संभोग के समय मैने उससे कहा था कि उसकी चूत जैसे मेरे लंड का नाप लेकर ही बनाई गयी है. मैने सिर्फ़ कहा नही था मैने ऐसा महसूस भी किया था कि वो जैसे मेरे लिए ही बनी है. मेने एक हल्की सी साँस ली और लगभग नींद के आगोश में जाने वाला ही था.

"एक बात और जो मैं भूल ही गयी थी" वो फिर से धीरे से बोली

मैं लगभग सोने की कगार पर था "हा....क्या? कॉन सी बात?" उसने फिर से मेरे माथे को चूमा और मैं फिर मुस्करा पड़ा, कितना सुखद था उसका साथ. 

"मैं चाहती हूँ तुम मेरे बारे में चिंता करनी छोड़ दो. सब कुछ अच्छा हो जाएगा. देखो डरना नही, घबराना नही, परेशान नहीं होना और बिल्कुल भी उदास नही होना" उसके होंठो ने फिर से मेरे माथे को चूमा और वो फुसफसाई , "वायदा करो तुम मुझे लेकर अब बिल्कुल भी चिंतत नही होगे?"

"मैं वादा करता हुउन्न्ं" नींद के आगोश मे समाते हुए मैने कहा. 
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12-28-2018, 12:44 PM,
#22
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"तुम जानते हो ना सुरू से मैने सिर्फ़ और सिर्फ़ तुमसे प्यार किया है, तुम्हे मालूम है ना?" 

"उः.....हा.हाँ जानता हुउन्ण. मैं भी तुमसे बहुत..बहुत.... बहुत प्यार करता हुउन्न्ं"

"मैं जानती हूँ तुम मुझसे बहुत प्यार करते हो. जहाँ मैं इस समय हूँ वहाँ हर पल मैं तुम्हारा प्यार महसूस कर सकती हूँ." वो एक पल के लिए चुप हो गई और फिर धीरे से उसी कोमल नरम स्वर मे बोली " अच्छा अब सो जाओ, मेरे दिलदार, और.....और भूलने की कोशिश करो" उसके होंठ मेरे कान के पास आए और वो और भी धीमे स्वर मे बोली "भूलने की कोशिश करना" 

"हुहह?" मैने उसके जबाब का इंतज़ार किया मगर उसके जबाब देने से पहले ही मुझे नींद आ गयी.

मुझे महसूस हुआ मैं जाग रहा हूँ, मगर अब भी कच्ची नींद में था. आधा सोया आधा जागा हुआ था. मेरे चेहरे पर मुस्कान फैलने लगी . मैं उसे फिर से ज़ोर से आलिंगनबद्ध किए हुए था. ऐसा मैं कभी कभी नींद के समय करता था. मगर मुझे कुछ अलग अनुभती हो रही थी, कुछ कोमल सा था. ना मेरा सर ना मेरी बाँह कुछ भी उसकी नंगी त्वचा से स्पर्श नही कर रहा था. शायद मेरे सो जाने के बाद उसने कोई कपड़ा पहन लिया था. मगर वो पहले तो मेरे साथ सोते हुए कपड़े नही पहनती थी. नींद फिर से मेरे उपर हावी हो रही थी. तभी मेरे दिमाग़ मे उसने जो आख़िरी बात बोली थी वो बात गूँज उठी----'भूलने की कोशिस करना' कितनी अजीब बात थी. मैने उसे कस कर अपने से चिमटा लिया. उसका साथ कितना सुखद था, कितना प्यारा था. वो साथ थी तो मुझे दुनिया की कोई परवाह नही थी. मगर........उसकी वो आख़िरी बात कितनी बेहूदा थी. कोई भला ऐसे भी बोलता है? आख़िर उसकी बात का मतलब क्या......

मेरी आँखे झटके से खुल गयी. मैने दीवार पर लगे बिजली के स्विच को ढूँढा मगर वो मुझे ना मिला. मैने उसे बेड मे अपने साथ महसूस किया था, मगर वो वास्तव मे तकिया था. नही! नही! नही! वो उठ गयी थी.........शायद बाथरूम गई...........मेरी साँसे अटकने लगी. ये सच था, वो यहीं थी! नही! ना! वो यहीं थी, वो यहीं है, यह सच था ! वो मुझसे बातें कर रही थी. वो मेरे पास थी, उसके चले जाने की बात एक सपना थी, मगर यह सच था. वो यहीं है!

मैने फिर से दीवार पर लगा बिजली का स्विच ढूँडने की कोशिस की मगर इस कोशिश में बेड की पुष्ट पर रखा अलार्म क्लॉक नीचे गिरा दिया. अंत मेन स्विच मिल गया और मेने उसे जलाया. मेरी नज़र बेड पर पड़ी. वो एक तकिया था. मैने नज़र घूमाकर पूरे रूम में देखा. उसका कहीं कोई नम्मो निशान नही था. वो भयानक, दर्दनाक सच्चाई ने मुझे जड़ से हिलाकर रख दिया. मुझे साँस लेने में तकलीफ़ हो रही थी. रात के सन्नाटे ने यातना को और भी बढ़ा दिया था. मुझे लगा जैसे वो मेरे पास थी और मैं चाहकर भी उसे रोक ना सका. वो मेरे सामने से चली गयी और मैं उसे जाते देखता रहा. मैं नही चाहता था माँ को मेरी आवाज़ सुनाई दे. मैं बेड से नीचे उतरा, मुझे मालूम था अब मैं रोउंगा और कितना भी ज़ोर लगा लूँ खुद को रोक नही सकता था. बेड से पीठ लगाकर मैं ठंडे फर्श पर नीचे बैठ गया. अपनी टाँगे मोड़ मैने छाती से लगा ली और अपना बाहें टाँगो पर लपेट अपना सर घुटनो में छिपाकर बैठ गया मेरी आँखो से आँसुओं की बरसात होने लगी. मेरा मुख खुला और मेरे गले से एक मोन चीख निकली. आगे क्या होने वाला था मैने उसे रोकने की कोशिस की. मगर मैं रोक ना सका. मेरे गले से भर्राई आवाज़ में सिसकियाँ निकलने लगी जिन्होने जल्द ही चीखों का रूप ले लिया. रोने, सिसकने , कराहने के बीच मुझसे साँस नही ली जा रही थी. वो चली गयी! वो चली गयी! सब मेरा दोष है! सब मेरी ग़लती का नतीजा है! हे भगवान........मुझे माफ़ करदो! मुझे माफ़ करदो! मेरे भगवान मुझे माफ़ करदो! माफ़ करदो! लौट आओ! लौट आओ! मुझे माफ़ करदो, लौट आओ!,

वो पीड़ा लफ़्ज़ों में बयान नही की जा सकती, लफ़्ज़ों की एक सीमा होती है जिसके आगे वो मूल भावना को ब्यान नही कर सकते. और इस पीड़ा की कोई सीमा नही थे, कोई अंत भी नही था!
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12-28-2018, 12:44 PM,
#23
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
कमरे के बाहर मुझे भागते हुए कदमो की आवाज़ सुनाई दी, फिर माँ ने मेरा नाम लेकर मुझे पुकारा. मगर मेरे गले से रोने के सिवा और कोई आवाज़ नही निकली. कमरे का दरवाजा भड़ाक से खोल माँ कमरे के अंदर आई. मैं उस समय बेड से टेक लगाए फर्श पर बैठा था और घुटनो में सर दिए रोए जा रहा था. माँ मेरे पास दौड़ कर आई और घुटनो के बल बैठ गयी "क्या हुआ बेटा? क्या हुआ?" माँ ने घबराते हुए पूछा, मैने सर उठाकर माँ की ओर देखा, मेरे आँसुओं से तर चेहरे पर नज़र पड़ते ही माँ का कलेज़ा डोल गया. "मेरा लाल......हे भगवान........हे भगवान" माँ ने अपनी बाहें मेरे बदन पर लपेट दी. 

मैने फिर से सर उठाया और सिसकियाँ लेते हुए रुंध गले से बोलने लगा "मैं उससे प्यार करता हूँ, ........मैं उससे प्यार करता हूँ......मगर मैने उसको बहुत तकलीफ़ दी........मैने उसका दिल तोड़ दिया ........इसी इसीलिए....वो चली गयी......वो मुझे छोड़ कर चली गयी......सब मेरी ग़लती का नतीज़ा है" थूक गटकते अपने भर्राये गले को सॉफ करते में माँ के सामने अपना ज़ुर्म कबुल करने लगा "सब...मे..मेरा...ही...द्द...दोष-...है...मुझे ...म...माफ़...करदो.....मुझे...माँ..माफ़...कर..दो.......वो मुझे....छोड़...कर हाली गयी .....मेरी ही ग़लती है....माँ मुझे माफ़ करदो" मेरे दिल पर इतना बोझ था कि अब मेरे लिए और सहना नामुमकिन हो गया था, यह पीड़ा मेरा दम घोंट रही थी जैसे कोई कांतिले हाथों से मेरा दिल भींच रहा था. जानता नही था माँ की प्रतिक्रिया क्या होगी मगर मैं इस पीड़ा को किसी के साथ बाँटना चाहता था और माँ के सिवा कोई नही था जिसके सामने मैं अपना दिल खोलता.

"मुझे सब मालूम है बेटा....मैं जानती हूँ......शुरू से जानती हूँ......" 

मेने हैरत से चेहरा उठाकर माँ की ओर देखा, उसके गालों पर आसुओं की धाराएँ बह रही थीं

"हां, मुझे मालूम है बेटा, पहले दिन से मालूम है. माँ हूँ तुम दोनो की. मगर....मैने कभी नही सोचा था इस सब का अंत ऐसे होगा" 

मैं फिर से सुबकने लगा, माँ ने मेरा सर अपनी छाती पर दबाया और मेरी पीठ सहलाने लगी. "मत रो मेरे बच्चे.......मत रो. सब ठीक हो जाएगा. मुझे यकीन है सब ठीक हो जाएगा. वो बहुत समझदार है, वो अपना ख़याल रख सकती है. जल्द ही वो हम से मिलने आएगी, वो ज़रूर वापस आएगी"

सुबह होते ही मैं खेतों की ओर चल पड़ा. रात बहुत लंबी थी, इतनी लंबी जैसे ख़तम ही नही होगी. खेतों से दो गायों का दूध निकाल मैं वापस घर आया. मैं खेतों को वापस जाने ही वाला था कि माँ ने मुझे रोक लिया. मैने लाख मना किया मगर जब तक मैने खाना नही खाया उसने मुझे उठने नही दिया. ना मैने ना माँ ने मेरे और बहन के संबंध के बारे में कोई बात की. बेशक मुझे इस बात से बहुत हैरानी थी कि माँ ने सब जानते हुए भी हमे रोका क्यों नही. मगर उस समय मेरी हालत एसी थी कि मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात की परवाह थी, बहन को ढूँढने की. खाना खाने के बाद मैं वापस खेतों की ओर चल पड़ा.खेतों में वापस जाकर मैं सीधा शेड मे गया और अपनी चारपाई पर जाकर लेट गया. काम करने का मन बिल्कुल भी नही था. कभी सपने में भी नही सोचा था के ऐसा हो जाएगा.

अब मुझे मेरी ग़लतियों का एहसास हो रहा था. मैने अपने जोश के चलते बहन को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था. मैं माँ के साथ खुश था. खेतों में लहलहाती फसल बेहतर भविष्य का ख्वाब दिखाती और मैं उस ख्वाब में डूबा अपनी बहन के अकेलेपन को भूल जाता. मगर अब उसके चले जाने के बाद मात्र तीन दिन में ही मेरी क्या हालत हो गयी थी, अब मुझे अंदाज़ा हो रहा था कि बहन पर क्या गुज़र रही होगी. हमारे सूने घर में बहन कितनी तन्हा कितनी अकेली थी अब मुझे अहसास हो रहा था. यह सोचते ही कि वो किस तरह पूरा दिन अकेले निकालती होगी मेरा दिल डूबने लगता और फिर रात को शायद उम्मीद करती होगी कि मैं उससे प्यार करूँगा या कम से उसके पास बैठकर दो पल उसकी बातें सुनुगा, मगर मैं ऐसा कुछ भी नही करता था. मुझे उसकी व्यथा उसकी पीड़ा का अहसास हो रहा था. उसने शायद आख़िरी पल तक इंतज़ार किया होगा मेरे उसके पास वापस लौट जाने का और फिर जब वो पूरी तरह से मायूस हो गई होगी तो उसने निराशा में ऐसा कदम उठाया होगा. मैं अपने किए पर कितना शर्मसार था, मैं ही जानता था. 

मुझे यह बात समझ नही आ रही थी कि वो आख़िरकार किसके सहारे चली गयी. कोई तो था उसकी मदद करने वाला. पहले पहले मैने ना चाहते हुए भी इस संभावना की ओर ध्यान दिया शायद हमारे गाँव से किसी युवक के साथ उसकी दोस्ती हो गयी हो, टूटे दिल में हर कोई सहारा ढूंढता है, ऐसे में सहारे की अच्छाई बुराई की ओर हम ज़यादा ध्यान नही दे पाते. मगर जब मैने गाँव के एक एक कर सभी मर्दों के बारे में सोचा तो सभी गाँव में ही मौजूद थे. वैसे भी गाँव से ज़्यादातर मर्द पहले ही गाँव छोड़ दूसरे गाँवो या कस्बों में काम कर रहे थे. इसलिए मुझे इस बात का पक्के तौर पर मालूम था कि वो गाँव के किसी मर्द के साथ तो नही गयी है. तो फिर वो आख़िर गयी कैसे?

जितने पैसे उसने जमा किए थे उनसे हद से हद वो एक महीना सहर में गुज़र बसर कर लेती, उसके बाद? हमारा ना कोई रिश्तेदार था ना कोई हमारे परिवार का कोई ऐसा जाननेवाला था जो सहर में उसकी कोई मदद कर सकता. और बहन तो किसी पर भरोसा भी नही करती थी. तो आख़िर कैसे, कैसे वो चली गयी? सवाल वहीं था.

लाख सोचने पर मुझे एक ही संभावना नज़र आई. बहन की ज़रूर किसी ना किसी ने मदद की होगी, वो कोई ऐसा सख्स था जिसने उसका विश्वास जीता था. कोई बात ज़रूर होगी उस सख्स में जिसने मेरी बहन को उस पर यकीन करने के लिए मज़बूर कर दिया होगा. यह बात दिल को बहुत तकलीफ़ देने वाली थी. मैं बहन से बहुत ज़्यादा प्यार करता था, इसका मुझे पहले अहसास नही था मगर उसके चले जाने के बाद मैने महसूस किया कि उसके बिना मेरे लिए जीना लगभग नामुमकिन था. एक उसका प्यार था उसकी चाहत थी जिससे मुझे हमारी बेकार पड़ी ज़मीन से कुछ कर दिखाने का बल मिला था. इस लिए किसी दूसरे के साथ बहन की कल्पना मात्र से मन बैचैन हो उठा. मगर बात सिर्फ़ इतनी ही नही थी अगर उस सख्स ने जिस पर बहन ने इतना यकीन किया था, उसको धोखा दिया तो? अगर सहर में उसके साथ कोई अनहोनी हो गयी तो?

हम लोग आए दिन अख़बारों में पढ़ते थे, फ़िल्मो में देखते थे किस तरह लोग भोली भाली लड़कियों को बहला फुसला कर उनको देह व्यापार के धंधे में लगा देते हैं. उन पर किस तरह अत्याचार होता है. मात्र एक पल के लिए मेरी आँखो में वो खौफनाक तस्वीर उभरी जिसमे मेरी बहन को कोई अंजान सख्स नोंच रहा था, वो मदद के लिए चिल्ला रही थी, उसे छोड़ देने के लिए मिन्नत कर रही थी मगर वहाँ उसकी चीखो पुकार सुनने के लिए कोई नही था. उस एक पल की कल्पना ने मेरे पूरे वजूद को हिला कर रख दिया. मेरा पूरा जिस्म कांप उठा, मेरी मुत्ठियाँ भिन्च गयी और मैं चारपाई से उठ इधर उधर बैचैनि से घूमने लगा.

एक एक कर दिन बीतने लगा. सुबह होती मैं खेतों में चला जाता. खेतों से दूध और सब्जयां लाकर दुकान में छोड़ खाना खाकर वापस खेतों को लौट जाता. माँ दिन भर दुकान संभालती. मेरा दिल काम में बिल्कुल भी नही लगता था. मगर फिर भी मैं बिना रुके सुबह से शाम तक खेतों में इधर उधर भटकता काम करता. असलियत मे काम के बहाने मैं अपनी पीड़ा को भूलने का जतन करता. खुद को इतना थकाने की कोशिस करता कि रात को आराम से सो सकूँ. हर रात बहुत भयावह होती. लगता जैसे जैसे रात गहरी होती, मेरी पीड़ा भी गहरी होती जाती. एक बात थी जो हर पल मेरा दिल कचोटती थी, जो मुझे एक पल के लिए भी चैन नही आने देती कि अगर मैं बहन का पता ना लगा पाया तो? अगर वो कभी भी लौटकर नही आई तो? अगर हमारा ये बिछोह सारी उमर के लिए हुआ तो? इस बात की ओर ध्यान जाते ही मैं बहुत बैचैन हो जाता. कभी भगवान के आगे हाथ नही जोड़े थे, कभी मंदिर में सर नही झकाया था और अब कोई पल ऐसा नही था जिसमे मैने भगवान के आगे बहन के लौट आने की कल्पना ना की हो.

माँ मेरी हालत समझती थी. केयी दिनो बाद भी जब उसने मुझे बहन के लिए उसी तरह तड़पते देखा तो उसने एक दिन मुझे अपने पास बुलाया. उसने मुझे समझाया और आख़िरी बात यही की कि बहन बहुत होशियार है, वो अपना ख़याल खुद रख सकती है. कि मुझे इस तरह हिम्मत नही हारनी चाहिए. अगर वो गयी है तो कुछ सोच समझ कर ही गयी होगी, इसीलिए हमें उसका इंतज़ार करना चाहिए, उसको मौका देना चाहिए. जिस तरह मैं खेतों मे मेहनत कर कुछ बनाना चाहता था उसका भी अरमान था कुछ कर दिखाने का. 

माँ की बात कुछ हद तक सही थी. बहन सुरू से कुछ करने की इच्छा रखती थी. वो गाँव में रहकर अपनी ज़िंदगी बर्बाद नही करना चाहती थी. इसीलिए वो कुछ रकम ज़मा कर रही थी. लेकिन अगर बात सिर्फ़ इतनी ही थी तो वो बताकर भी जा सकती थी, शायद उसे लगा होगा हम उसे जाने नही देंगे जो सच भी था. बहन को अंजान लोगो के बीच अकेला छोड़ने के लिए मैं कभी तैयार नही होता. काश वो एक खत ही डाल देती कि वो खेरियत से है, दिल को थोड़ा सकुन तो मिल जाता. 

खेतों में जो काम मैने किया था, जो कठोर परिश्रम मैने किया था उससे मुझे खुद पर बहुत नाज़ हो गया था. खेतों में कंटीली झाड़ियों और घास की जगह लहलहाती फसलें, सब्ज़ियाँ देखकर मेरा मन गुमान से भर उठता था मगर अब मुझे मालूम चल रहा था कि मेरे हाथ में कुछ भी नही था. मैं चाह कर भी कुछ नही कर सकता था. लगता था जैसे तकदीर ने मेरे मुँह पर तमाचा मारकर मुझे मेरे बेबसी का अहसास दिलाया था. 

माँ की बात मान कर मैं सब कुछ भगवान के भरोसे नही छोड़ सकता था. मैं नही चाहता था कि बाद में, मैं खुद को सारी उमर कोस्ता रहूं. इसलिए मुझे कुछ करना था और जल्द ही करना था. मेरे हाथ से समय निकलता जा रहा था. मगर लाख सोचने पर भी मुझे कोई ऐसा बिंदु कोई ऐसा निशान नज़र नही आया जिसे पकड़कर मैं उसकी तलाश कर सकता. और जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे मुझे लग रहा था मेरे और बहन के बीच दूरी उतनी ही बढ़ती जा रही है. 

लेकिन कहते हैं अगर दिल में इच्छा हो लगन हो तो कोई ना कोई रास्ता निकल ही आता है. मुझे भी एक रास्ता दिखाई दिया. और रास्ता दिखाने वाला वो सख्स था जिसे मैं और मेरी माँ पिछले तीन महीनो से लगभग भूल चुके थे

बहन को गये पंद्रह दिन हो चुके थे. पिछले पाँच दिनो से मकयि के सूखे भुट्टे निकाल मैं शेड मे रख रहा था. बहुत ही बढ़िया फसल हुई थी, अंदाज़े से भी कहीं ज़यादा. मगर ना तो दिल में कोई कोई खुशी थी ना ही उत्साह. बहन के बिना ये सब बेकार था. खेतों में काम करना जैसे एक मज़बूरी थी. मैं तो शायद अगली फसल भी बिजने वाला नही था. अब तो कोई मकसद नही था, कोई चाह नही थी, कुछ कर दिखाने की मेरी उत्कट इच्छा कब की दम छोड़ चुकी थी. मेरी ज़िंदगी अब एक गेहन अंधेरे में भटक रही थी. मगर ये सब बदलने वाला था.

उस रात मैं घर पहुँचा तो काफ़ी अंधेरा हो चुका था. दरवाजे की आवाज़ सुन माँ बाहर आँगन में आई और मैने उसे शाम को गाय का निकाला हुआ दूध पकड़ाया. माँ मेरे लिए साबुन और तौलिया ले लाई और मैं नहाने चला गया. नहा कर अंदर अपने कमरे में गया तो माँ को किसी दूसरी औरत के साथ बातें करते सुना. मैं बहुत थका हुआ था. बस लेटना चाहता था. माँ जल्दी ही खाना लेकर आ गयी. थोड़ा बहुत खाना बुझे मन से खाकर मैं लेट गया और अपनी सोचों में गुम हो गया. थोड़ी देर बाद माँ बर्तन लेने आई और मेरे सिरहाने दूध रख गयी. उसने मेरा माथा चूमा, थोड़ी देर मुझे देखा और फिर एक ठंडी आह भरकर बर्तन उठाकर वहाँ से चली गयी. मैं थोड़े समय बाद दूध पीने को उठा तो माँ और उस औरत की हल्की हल्की आवाज़ें अभी भी आ रही थी, ज़रूर सोभा होगी, मैने मन ही मन सोचा. 

दूध पीकर मुझे पेशाब लगी तो मैं उठकर बाथरूम को गया जो बाहर आँगन में था. पेशाब कर मैं सीधा रसोई में गया ताकि रात को पीने के लिए पानी ले सकूँ. पानी लेकर जब मैं अपने कमरे के पास पहुँचा तो मेरे कानो में सोभा की फुसफुसाती आवाज़ सुनाई दी 

"जब से तुम्हारी बेटी शहर गयी है देविका ने भी तुम्हारी दुकान पर आना बंद कर दिया है. अब तो कभी देखा नही, नही तो पहले हर दिन घंटा घंटा तुम्हारी दुकान पर बिताकर जाती थी" मेरा माथा ठनका. देविका हर रोज़ इतना समय बहन के साथ क्यों बिताती थी. बड़ी हैरानी की बात थी. वो तो उँचे खानदान की बहू थी, बहुत बड़े राईस थे वो लोग, इतना व्यापार था उन लोगों का तो मेरी बहन से उसका क्या काम? मैं दबे पाँव माँ के कमरे के पास गया.

"अरे नही ऐसे ही आती होगी उससे बात करने. गाँव में अब वो लोग आते ही कितने वक़्त के लिए हैं? घर पर दिल नही लगता होगा तो गाँव मे घूमती घूमती उधर आ जाती होगी" माँ ने उसे झुठलाते हुए कहा. असल में हमने गाँव में सब को यही बताया था कि मेरी बहन को सहर में एक छोटी मोटी नौकरी मिल गयी है और वो हमारे दूर के रिश्तेररों के यहाँ रहकर नौकरी कर रही थी.

"अरे नही घूमते घूमते नही. तुम्हारी बेटी से कोई खास ही दोस्ती थी उसकी. उसके जाने के दिन वो कम से कम दो घंटे तक बातें करती रही थीं. मालूम नही तुम्हारी बेटी से कैसे कहाँ उसकी इतनी गहरी दोस्ती पड़ गई नही तो यह बड़े लोग तो हमे देखकर ही नफ़रत से मुँह फेर लेते हैं" सोभा का घर हमारी दुकान के बिल्कुल सामने था, इसलिए वहाँ से दुकान पर हर आने जाने वाले को देखा जा सकता था. अगर उसने देविका को इतना समय दुकान पर बिताते देखा था तो वो ज़रूर सच बोल रही थी. झूठ बोलने की उसके पास कोई वजह नही थी. 

"क्या सोभा तुम भी ना. अरे वो लोग बड़े ज़रूर हैं मगर उनमें वो घमंड नही है. और देविका वो तो सब को कितने प्यार से बुलाती है. चल छोड़ तू उसकी बात यह बता तेरे बेटे का क्या हाल है" सोभा माँ को फ़ौज़ में नौकरी करते अपने बेटे की सच्ची झूठी कहानियाँ सुनाने लगी और मैं अपने कमरे की ओर चल पड़ा.

ये क्या मज़रा है. देविका को भला मेरी बहन से क्या काम. वो तो गाँव दस पंद्रह दिन से ज़्यादा आती ही नही है. तो फिर उसकी बहन से ऐसी गहरी दोस्ती कब कैसे पड़ गयी. और सोभा ने कहा था कि बहन के जाने के दिन देविका उससे दो घंटे तक बातें करती रही थी, कुछ तो गड़बड़ है. मुझे लगा देविका ही वो कड़ी है जिसे जोड़कर मैं अपनी बहन तक पहुँच सकता हूँ. यह सोचते ही मेरा दिल धड़क उठा. पूरे पंद्रह दिनो बाद पहली बार मुझे उम्मीद की किरण दिखाई पड़ी थी और पंद्रह दिनो बाद मैने खुद को ज़िंदा महसूस किया था. 
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12-28-2018, 12:45 PM,
#24
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
हालाँकि उम्मीद की यह किरण कितना समय साथ निभाने वाली थी, मैं नही जानता था. देविका का बहन के साथ समय बिताना संजोग भी हो सकता था. बहुत चान्स थे कि बहन के चले जाने में उसका कोई हाथ ना हो मगर उसका इतना समय दुकान पर बिताना शक पैदा करता था. इसीलिए हो सकता था अगर उसने बहन की कोई मदद नही की तो शायद उससे बहन के मौजूदा ठिकाने की कोई खबर ही मिल जाए. अगर वो इतना समय साथ बिताती थी, अगर उनमे इतनी दोस्ती थी तो बहुत चान्स थे वो कुछ ना कुछ जानती हो और जो कुछ भी वो जानती थी वोमुझे आता करना था. हर हाल मे, कैसे भी, किसी भी तरह.

मुझे बहन को ढूँढने के लिए जिस बिंदु की तलाश थी वो मुझे मिल गया था. मगर इस बिंदु को पकड़ बहन को तलाशना बहुत मुश्किल था. बहुत मुमकिन था, देविका का बहन के साथ इतना वक़्त बिताना महज संजोग हो. और अगर उसका बहन के यूँ घर छोड़ कर चले जाने में कोई हाथ था भी तो मैं सीधे सीधे उससे पूछ तो नही सकता था. अब क्या करूँ? कैसे उससे सच्चाई का पता लगेगा? यही उधेरबुन में पूरी रात गुज़र गयी. 

सुबह मैं बहुत जल्दी उठ गया. बाहर अभी भी अंधेरा था. मैने हाथ मुँह धोकर चाय बनाई तब तक माँ भी जाग चुकी थी. मुझे इतने अंधेरे इस तरह उठा देखकर वो थोड़ा अस्चर्य मे पड़ गयी. मैं अपने कमरे में चाय की चुस्किया लेता शुरू से लेकर अब तक जो कुछ घटित हुआ था उसके बारे में सोच रहा था. शहर से आते समय उसका मुझे गाड़ी में बुलाना, इतना अपनापन दिखाना, बहन की तारीफ करना और जब मैं उससे विदा ले रहा था तो उसने क्या कहा था_________चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा. वो मुझे क्यों चिंता ना करने के लिए कह रही थी? उसे कैसे मालूम था मुझे कोई परेशानी थी? खुद उसी के अनुसार वो पिछले दिन से सहर में थी मतलब बहन के चले जाने की खबर उसको मिलनी नामुमकिन ही थी, क्योंकि अभी तक भी गाँव मे बहुत कम लोगों को पता था कि बहन घर छोड़ कर गयी है और उन्हे भी यही पता है कि बहन किन्ही रिश्तेदारों के यहाँ रहकर सहर में काम कर रही है तो उसे आख़िर सहर मे बैठे बिठाए कैसे पता चल गया? और फिर उसका बहन के साथ इतना समय बिताना और उसके जाने के दिन तो अगर सोभा की बात सच है तो वो घंटो दुकान पर बहन के साथ थी. कहीं कुछ तो गड़बड़ थी. जितना मैं सोचता कहानी उतनी ही उलझती जाती. एक पल के लिए लगता जैसे इस सब मे देविका का हाथ है और दूसरे ही पल मैं खुद ही इस बात का खंडन करने लग जाता. 

चाय पीकर मैं गाँव के बाहर की तरफ पक्की सड़क की ओर चल पड़ा जिधर देविका के पति ने लकड़ी की फॅक्टरी और एक बड़ी सी हवेली बनाई थी. मुझे मालूम था वो हर सुबह शाम अकेली सैर के लिए पक्की सड़क के किनारे किनारे चलती है. इतनी सुबह मुझे गाँव के बाहर कोई भी दिखाई नही दे रहा था. मैं हवेली से थोड़ी दूर गन्ने के खेत में जाकर छुप गया जहाँ से उनके घर का मुख्यद्वार आसानी से देखा जा सकता था.

मुझे वहाँ खड़े काफ़ी देर हो चुकी थी, मगर घर से कोई भी निकल नही रहा था. सुबह का सन्नाटा छाया हुआ था. जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था मेरी बैचैनि बढ़ती जा रही थी. मुझे लगने लगा शायद वो आएगी ही नही. हालाँकि असलियत में समय इतना नही गुज़रा था, मेरे लिए वो इंतज़ार का एक एक पल बहुत भारी था. और मैं इतना भी नही जानता था कि उसके बाहर आने की सूरत में क्या करूँगा, कैसे आख़िर कैसे मैं उससे बहन के बारे में पूछूँगा?

कोई आधा घंटा ही गुज़रा था कि घर के अंदर से कुत्ते के भोंकने की आवाज़ आने लगी. मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी. कुछ समय बाद कुत्ते ने भोंकना बंद कर दिया और फिर थोड़ी देर बाद गेट खुलने लगा. मेरी आँखे बिल्कुल दरवाजे पर जमी हुई थी. गेट से बाहर निकलने वाली वो देविका ही थी. उसने पीछे मुड़कर गेट बंद किया और फिर सड़क के दोनो ओर देखा. लेकिन यह क्या वो मेरी आशा के विपरीत सड़क के दूसरी ओर को निकल गयी. मैं कुछ देर वहीं खड़ा रहा, यही सोच रहा था अब क्या करूँ. आख़िर मैं खेत से निकला और बहुत तेज़ तेज़ कदम बढ़ाते उसकी ओर जाने आगा. उसके घर के सामने से गुज़र मैं उसका पीछा करने लगा. उनके घर के साथ दोनो ओर की ज़मीन उसके पति की थी, जिनमे लकड़ी के बड़े बड़े पेड़ उगे हुए थे जा यूँ कहिए एक छोटा सा जंगल ही बना हुआ था. मेरे तेज़ कदमो की आवाज़ उसके कानो तक पहुँचने में देर नही लगी और उसने पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा. अब भी हममें काफ़ी दूरी थी मगर उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव मैं उतनी दूर से भी देख सकता था. मैं उसकी ओर चलता जा रहा था मगर वो वहीं खड़ी मेरी ओर देखे जा रही थी. अब उसके चेहरे पर हैरत के साथ साथ परेशानी भी झलक रही थी. मैं ढृढ कदमो से चलता उसके सामने पहुँच गया, उसने कुछ भी बोला नही था वो जैसे मेरे कुछ बोलने का इंतज़ार कर रही थी.

"नमस्कार भाभी! सुबह की सैर हो रही है?" मैने उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न किया. 

"नमस्कार! देवर जी आज सुबह सुबह किधर घूम रहो हो?" उसने माथे पर बल डालते पूछा.

"कुछ नही भाभी! यूँ ही मैने सोचा चलो आज भाभी से मिलकर आते हैं" मैने चेहरे पर बनावटी हँसी लाते हुए कहा.

"उः----हो. क्यों सुबह सुबह झूठ बोल रहे हो. हमारी इतनी किस्मत कहाँ" उसने थोड़े से चंचल स्वर में कहा. "सच सच बताओ आज इधर कैसे आना हुआ" वो बहुत आतुर थी मेरे उधर आने की वजह जानने के लिए.

"यूँ ही भाभी. नींद नही आ रही थी. सोचा चलो सैर को चलते हैं. गाँव के इस ओर बहुत कम ही आना होता है, बस घूमते घूमते इधर आ निकला" मैने उसकी आँखो में गहराई तक झाँकते हुए कहा. 

"हुह...मैं भी हर सुबह शाम थोड़ा घूमने आती हूँ. अच्छा लगता है गाँव में खुली ताज़ी हवा में घूमना. खैर अब तो कल से सहर की वोही प्रदूषित हवा धुआँ ही फाँकना पड़ेगा" 

उसकी नज़र भी मेरे चेहरे पर टिकी हुई थी जैसे वो भी मेरे मन में क्या है जानने को उत्सुक थी.

"क्यों भाभी, अभी तो आए थे, इतनी जल्दी चले जाओगे?" 

"जाना ही पड़ेगा देवर जी. बच्चों की छुट्टियाँ ख़तम हो गयी हैं. तीन दिन बाद उन्हे स्कूल जाना है, इसलिए कल चले जाएँगे. दिल तो नही करता मगर क्या करें उनकी पढ़ाई का भी देखना पड़ेगा"

मुझे कुछ समझ माएँ ना आया मैं क्या बोलूं. एक बारगी तो दिल किया सीधे सीधे उससे पूछ लूँ मगर फिर मैने किसी तरह खुद को रोक लिया. कुछ पलों तक हम दोनो एक दूसरे की आँखो में आँखे डाले एक दूसरे को घूरते रहे. उसकी नज़र मुझे ऐसे लगा जैसे मेरे आर पार हो रही हो. जैसे वो मेरी आँखो से देख सकती थी मेरे अंदर क्या चल रहा है. मैने एक आख़िरी कोशिस की चेहरे और आँखो से ऐसा जताने की जैसे मैं सब जानता था, जैसे मैं उसके आर पार देख सकता था मगर मैं असफल हो गया. किसी कटार की तरह उसकी तीखी नज़र का ताव ना ला सका और मैने चेहरा झुका लिया. कुछ पल और गुज़रे खामोशी से. मैने सर उपर ना उठाया.

"तुम्हारी बहन कैसी है?" उसने खुद बात को छेड़ दिया. अब मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल था. जाने कहाँ से मुझमे इतनी ढृढता आ गयी थी. मैने चेहरा उपर उठाया, इस बार मेरे अंदर एक आत्म विश्वास था, एक बहन एक प्रेमिका के लिए तरसते, तड़फते एक भाई एक प्रेमी की ललक थी मेरे अंदर. 

"अच्छी है...........उसके बिना दिल नही लगता. उसके बिना घर बिल्कुल सूना हो गया है" इस बार ना मेरी नज़र झुकी ना मेरी पलकें हिली. अचानक से उसने मुँह फेर लिया.

"धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी" उसने बिना मेरी ओर देखे कहा. फिर उसने सड़क के इधर उधर नज़र दौड़ाई. फिर से उसकी नज़र मेरी नज़र से टकराई जो उसके चेहरे पर टिकी हुई थी. नज़र से नज़र मिलते ही उसने मुँह फेर लिया. वो बचैन हो उठी थी.

"मैं चलती हूँ देवर जी, फिर मिलेंगे" वो मेरी ओर बिना देखे बिना मेरा उत्तर सुने वहाँ से तेज़ तेज़ कदम बढ़ाते आगे बढ़ गयी. मैं वहीं खड़ा रहा, उसे दूर जाते देखता रहा. कोई 50 मीटर की दूरी पर उसने मूड़ कर पीछे देखा और मुझे वहीं खड़ा देख फिर से आगे बढ़ने लगी.

कुछ दूरी पर सड़क थोडा सा बल खाकर दाईं ओर को मूड जाती थी. उस मोड़ को पार करने पर वो मेरी आँखो से ओझल हो गयी. मैने कदम वापस गाँव की ओर बढ़ा दिए. हालाँकि मुझे कुछ भी मालूम नही चला था. लेकिन उसके इस तरह घबरा उठने ने काफ़ी बातें सॉफ कर दी थी.

अब मुझे क्या करना था, मैं फ़ैसला कर चुका था. मेरे पास ज़्यादा वक़्त नही था, सिर्फ़ आज का दिन था. जो करना था आज ही करना था.

मैं शाम होने का बड़ी बेसबरी से इंतेज़ार कर रहा था. माँ को किसी प्रकार का शक ना हो, इसीलिए मैं खेतों में चला गया. काम करने की कोशिस की, किसी तरह से टाइम पास करने की कोशिस की मगर किसी काम में दिल नही लगा. अंत में चारपाई पर बैठकर आज शाम को करने वाले उस काम के बारे में सोचने लगा जिसे मुझे हर हाल में आज शाम को अंजाम देना था. वो कल वापस सहर जा रही थी, इसीलिए बहुत मुमकिन था वो कल घर से बाहर ना निकले और सहर जाकर कुछ कर पाना लगभग असंभव ही था. 

चारपाई पर लेटे लेटे बैचैनि से करवटें बदलते मैं जो करने जा रहा था उसकी सफलता और असफलता के बारे में सोच रहा था. देविका का शुरू से अब तक व्यवहार, उसकी बातें और सुबह उसके इस तरह घबरा उठने से मुझे काफ़ी हद तक यकीन हो चुका था कि कहीं ना कहीं देविका इस किस्से में शामिल ज़रूर है. उसकी हर बात हर हरकत संदेहास्पद थी. इसीलिए मुझे लग रहा था कि मैं बहन को जल्द ही ढूँढ निकालूँगा. 

मगर साथ ही साथ असफलता की भी प्रबल संभावना थी. जिन तथ्यों और बातों को मैं सबूत मानकर चल रहा था असलियत में वो सब थी तो मनगढ़ंत बातें ही. कोई भी पक्का सबूत नही था मेरे पास. वैसे भी देविका के बारे में सभी लोग अच्छा ही बोलते थे. वो उतने बड़े खानदान और उँची जात की होने के बावजूद भी कभी गाँव के निचले तबके के लोगों को नीची निगाह से नही देखती थी. वरना उनकी जात धरम वाले लोग तो हमारे जैसो को देखकर नफ़रत से मुँह फेर लेते है. जबकि देविका ऐसी हरगिज़ नही थी. इसलिए अगर मेरा अंदाज़ा ग़लत निकला तो मुझे उसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ सकती थी. मैने फ़ैसला तो कर लिया था मगर असफलता की सूरत में परणामों के बारे में सोचते हुए भी डर लगता था. मैं बहन से हमेशा हमेशा के लिए भी बिछड़ सकता था. बहन के साथ साथ माँ की ज़िंदगी भी तबाह हो सकती थी. 

एक पल के लिए मैने सोचा अगर सीधे सीधे उससे बात कर लूँ तो? मगर उसके गुनहगार होने की सूरत में वो अपना ज़ुर्म क्योकर कबूलेगी. फिर आजकल के ज़माने में कुछ लोग बाहर से बहुत अच्छे नज़र आते हैं मगर अंदर से? ऐसी हालत में गुनहगार होते हुए भी वो कभी नही मानेगी और फिर हो सकता है बहन को किसी ऐसी जगह भेज दे जहाँ मैं उस तक कभी पहुँच ही ना पाऊ. नही नही, सीधे पूछना नही, बस अब तो एक ही रास्ता है चाहे मंज़िल पर पहुँच जाऊ चाहे रास्ता भटककर हमेशा हमेशा के लिए मंज़िल से दूर हो जाऊ. चलना इसी रास्ते पर था,
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12-28-2018, 12:45 PM,
#25
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
उस शाम मैं सुबह के विपरीत पेड़ों की तरफ चला गया. जहाँ से सड़क थोड़ा घुमावदार मोड़ लेती थी उससे थोड़ा सा आगे होकर पेड़ों के पीछे छिप गया. वहाँ से हवेली काफ़ी दूर थी और मोड़ के बाद हवेली नज़र नही आती थी. जहाँ पर मैं छुपा हुआ था वहाँ से भी हवेली नज़र नही आ रही थी. मुझे इस बात की चिंता लगी हुई थी कि सुबह के बाद वो शायद डर ना गयी हो, कि शायद वो आए ही नही और अगर आए भी तो विपरीत दिशा में ना चली जाए वरना मुझे और भी बड़ा जोखिम मोल लेना पड़ेगा. मैं तो भगवान से प्रार्थना कर रहा था वो इसी ओर आए. अभी सूर्य नही ढला था, काफ़ी समय था. मगर मैने पहले आना ही बेहतर समझा. धीरे धीरे शाम होने लगी. मैं शाम की ठंडी हवा में भी पसीने से लथपथ हो गया था. दिल इतने ज़ोरों से धड़क रहा था कि उसकी गूँज मेरे कानो को सुनाई दे रही थी.

वो एक लहंगा चोली पहने थी, और उपर से उसने गरम शॉल लपेटा हुआ था. वो कुछ गुम सूम सी धीरे धीरे चली आ रही थी. मैने अपने हाथों को ज़ोरों से रगड़ा और तैयार होने लगा. वो पास आती जा रही थी, मगर उसे जैसे दीन दुनिया की कोई खबर ही नही थी. वो शॉल की किनारियों को उंगलियों से मसलती इतने धीरे धीरे चल रही थी कि कभी कभी रुक ही जाती. धीरे धीरे वो उस पेड़ के लगभग सामने आ गयी जहाँ मैं खड़ा था, मैने उसका चेहरा देखा, उसके चेहरे पर दुनिया भर की मासूमियत देखकर एकबार मेरा कलेजा डोल गया. मुझे आगे बढ़ना था और जिस काम को करने के लिए वहाँ खड़ा था उसे अंजाम तक पहुँचाना था मगर मेरे पाँव ही नही हिल रहे थे. वो मेरे सामने से गुज़र गयी और धीरे धीरे उसी प्रकार चलती आगे बढ़ती रही. 

मैने आँखे बंद कर ली और खुद को इतना संवेदनशील इतना नरमदिल होने के लिए कोसने लगा. मैं उसके पीछे नही जाना चाहता था, बहुत मुमकिन था वो आवाज़ सुनकर चोकन्नि हो जाती इसीलिए अब उसके लौटने पर ही मैने काम को अंजाम देना सही समझा. लेकिन आज तो जैसे वो वापस ही नही आने वाली थी. लगता था जैसे कहीं दूर निकल गयी हो घूमने के लिए. अब हल्का हल्का अंधेरा भी होने लगा था. मैं उसके पीछे जाने ही वाला था कि वो मुझे वापस लौटती दिखाई दी. ना चाहते हुए भी मेरा ध्यान उसके चेहरे की ओर चला गया. मेरा दिल डूबने लगा, हाथ काँपने लगे. अगर वो निर्दोष हुई तो मैं खुद को ज़िंदगी भर माफ़ नही कर पाउन्गा. वो फिर से मेरे सामने थी. चलते चलते वो बिल्कुल उसी पेड़ के सामने रुक गयी जिसके पीछे मैं छुपा हुआ था. शायद उसने मुझे देख लिया था, और अब वो मदद के लिए चिल्लाएगी, मेरी साँसे रुक गयीं. मगर वो कुछ पल रुक फिर से आगे बढ़ गयी. यही मौका है, एक आख़िरी मौका. एक पल के लिए मेरी आँखे बंद हुई और देविका का निर्दोष चेहरा सामने आया मगर अगले ही पल मेरी बहन का खूबसरत, मासूम चेहरा सामने आया, मैने एक दम से आँखे खोलीं. पेड़ के पीछे से निकल पूरी फुर्ती से भागा.
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12-28-2018, 12:45 PM,
#26
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
वो अपने ख़यालों में पूरी तरह से डूबी हुई थी शायद इसीलिए उसने पेड़ों के सूखे पत्तों पर तेज़ी से भागते मेरे कदमो का शोर नही सुना. वैसे भी कोई ज़यादा दूरी नही थी, कोई दस, बारह फीट का फासला रहा होगा. अंत मैं जब शोर से उसकी तंद्रा टूटी और वो पीछे को घूमी तब तक मैं उसके पास पहुँच चुका था. मुझे अपनी ओर इस तरह भागते देख एक पल के लिए शायद वो विस्मित हो गयी थी और फिर उसके चेहरे पर उलझन का भाव था. उसने मुँह खोला शायद मुझसे वजह पूछना चाहती थी मगर मैने एक हाथ उसके मुँह पर रखा और दूसरे हाथ से उसे कंधे से पकड़ उसे ज़ोर से घुमाया. वो पीछे की ओर घूम गयी. मैने एक हाथ उसकी छातियों के नीचे डाल उसे अपने सीने से भींच लिया और दूसरे हाथ से उसका मुँह पूरी मज़बूती से बंद कर दिया. वो गू गू कर कुछ बोलना चाहती थी मगर मैं कोई मौका दिए बिना उसे पेड़ों की ओर घसीटने लगा. वो हाथ पाँव चला रही थी. दोनों हाथों से मेरा हाथ अपने मुख से हटाने की कोशिस कर रही थी, शायद उसे साँस नही आ रही थी. मैने उसे घसीटना चालू रखा और तभी रुका जब पेड़ों के काफ़ी अंदर चला गया था, 

मैने उसके पेट से हाथ हटाया और अपनी कमर में डाला हुआ एक बहुत बड़ा चाकू बाहर निकाला. चाकू उसकी गर्दन पर रख मैने धीरे से उसे कहा.. "आवाज़ नही, आवाज़ नही निकलनी चाहिए. मैं हाथ हटा रहा हूँ अगर चिल्लाने की कोशिस की तो गर्दन काट दूँगा. दूसरा मौका नही मिलेगा. समझ गई ना?" उसने सहमति में सर हिलाया तो मैने उसके मुँह से हाथ हटा लिया. 

जैसे ही मैने हाथ हटाया वो नीचे ज़मीन पर गिर पड़ी और बुरी तरह से खांसने लगी. खाँसते हुए बीच बीच में वो मेरी ओर बहुत गुस्से से देख रही थी. 

"तुम्हारा ....दिमाग़ तो नही खराब...... हो गया. उफफफ़फ्ग...मुझे मार ही......डाला था. ये सब क्या है? मेरे साथ बदतमीज़ी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई" वो अपनी अकड़ दिखा रही थी और मैने उसे अपनी अकड़ दिखाई उसके चेहरे पर एक ज़ोरदार टाँचा मारकर. 

वो एक पल को सन्न रह गयी थी, उसे जैसे यकीन ही नही हो रहा था "तुम पागल हो गये हो! इस सबका अंज़ाम जानते हो ना!" 

मैने आगे बढ़कर उसके शॉल और चोली को गले से पकड़ कर दो तीन बार झटका और फिर गुस्से से गुर्राया "मेरी बहन कहाँ है? सच सच बता दे......वरना मेरा जो अंजाम होगा वो बाद मैं होगा मगर तेरी मैं वो हालत करूँगा कि तू किसी से नज़र मिलाना तो दूर किसी के सामने जाने लायक भी नही रहेगी" 

"क्या बकवास कर रहे हो तुम्हारी बहन से मेरा क्या वास्ता. मुझे क्या मालूम वो कहाँ है" वो मेरे हाथों से खुद को छुड़ाने की कोशिस कर रही थी मगर हैरानी की बात थी अभी तक उसने चिल्ला कर किसी से मदद की गुहार नही लगाई थी.

"तुम्हे अच्छी तरह से मालूम है....अच्छी तरह से मालूम है..,तुम्हारा ही हाथ है उसके यहाँ से जाने में......खबरदार जो मुझसे झूठ बोलने की कोशिस की तो...,मैं सब जानता हूँ" 

"क्या जानते हो तुम..... तुम्हे कोई बहुत बड़ी ग़लतफहमी हुई है.....मेरा कोई हाथ नही है तुम्हारी बहन को भगाने में. मुझे तो मालूम ही नही वो घर से भाग गई है" उसका चेहरे पर थोड़ी हैरत थी, थोड़ा गुस्सा था मगर भय नही था. वो भयभीत नही थी.

"ग़लतफहमी!...........याद है उस दिन सहर से आते तुमने क्या बोला था, घबराओ नही सब ठीक हो जाएगा?,क्या ठीक हो जाएगा. तुम्हे कैसे पता मुझे क्या परेशानी थी. तुम तो सहर से लौट रही थी. और मेरी बहन के साथ घंटो वक़्त बिताना, वो? उस दिन भी तू उसी के साथ थी जिस दिन वो घर से गयी थी. और तो और वो सहर गयी तो तुम्हारे साथ गयी, तुम्हारी गाड़ी में गयी. मुझे खुद सड़क पर दुकान वाले पनवाडी ने बताया है" आख़िरी बात मेरा अंधेरे में छोड़ा हुआ एक तीर था, मुझे नही मालूम था कि वो किसके साथ गई है. मगर वो और देविका दोनो एक ही दिन सहर के लिए निकली थीं, इसलिए मुझे यकीन था ज़रूर बहन देविका की गाड़ी में शहर गयी थी.

"अरे वो तो सड़क पर खड़ी थी, मैने जिस तरह तुम्हे सहर से आते हुए लिफ्ट दी थी उसी तरह तुम्हारी बहन को लिफ्ट दी थी. और वो सहर जाकर उतर गयी थी, मुझे नही मालूम वो कहाँ गयी? नही मुझे मालूम था वो घर से भागकर जा रही है" मेरा तीर निशाने पर लगा था. उसने अपना जुर्म खुद ही कबूल लिया था. मगर साली के चेहरे पर अभी भी कोई डर की भावना नही थी.

"देविका मेरे सबर का इम्तिहान मत लो! मैं अपनी बहन के लिए कितना तड़पा हूँ मैं ही जानता हूँ. सच सच बता दो, वो कहाँ है. वरना तुम्हारी वो दुर्गति करूँगा कि......."

"मैं नही जानती... मुझे नही पता. मैं क्यों झूठ बोलूँगी. देखो मुझे जाने दो. मैं किसी से कुछ नही कहूँगी, वरना तुम जानते हो मेरे पति को. तुम्हारे बदन की खाल उधेड़ लेंगे अगर उन्हे मालूम चल गया कि तुमने मुझे छूने की हिम्मत की है"

"मेरे बदन की खाल उधेड़ेंगे....,साली कुतिया एक तो मेरी बहन के साथ तूने ना जाने क्या किया है, हमारे परिवार को तबाह करके रख दिया है और उपर से धमकियाँ देती है.....ठहर जा" मेरा खून खौल उठा था. मैं उसके लहंगे को पकड़ कर खींचने लगा, वो एकदम से मेरे हाथों को हटाने लगी 
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12-28-2018, 12:45 PM,
#27
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"रुक साली तुझे वो सज़ा दूँगा कि तू किसी को मुँह दिखाने लायक नही रहेगी" मैने ज़ोर से पकड़ लहँगा नीचे खींचा तो वो थोड़ा सा नीचे हो गया और उसकी काली कच्छि दिखाई देने लगी. उसने भी पूरा ज़ोर लगाकर टाँगे मोड़ कर मुझे रोकने की कोशिस की.

"कमीने.....,तुम इतने घटिया इंसान निकलोगे मैने कभी सोचा भी नही था. तुम इस हद तक गिर जाओगे.........जिस तरह आज तुम मेरी इज़्ज़त पर हाथ डाला है, इसी तरह तुम्हारी बहन के साथ भी ऐसा ही होगा.. शायद हो भी चुका हो. किसी रंडीखाने पर बैठ कर धंधा करेगी वो....." मैने पूरे ज़ोर का तमाचा मारा उसके गाल पर. और पास पड़ा हुआ चाकू उठा लिया. एक हाथ से उसका गला दबाया और दूसरा हाथ चाकू थामे हवा में उपर उठा. मैं अपने होशो हवास खो चुका था. बहन के लिए उसके वो अल्फ़ाज़ सुनकर मेरा रोम रोम कराह उठा था. मेरा हाथ नीचे आने को था, मैने उसके चेहरे पर देखा तो इस बार उसकी सारी बहादुरी सारी हिम्मत उसका साथ छोड़ चुकी थी. वो भय से कांप रही थी, उसकी आँखे फॅट पड़ने तक खुल गई थी. उसका मुँह खुला हुआ था जैसे वो कुछ कहना चाहती हो मगर कह ना पा रही हो. मेरे होंठ भिन्च गये उसके गले को ज़ोर से दबाया और मेरा हाथ तेज़ी से नीचे को आया, उसकी आँखे बंद हो गयी.

मैं तेज़ी से उठा और एक तरफ तेज़ी तेज़ी चलने लगा. मुझे कुछ मालूम नही था मैं किस दिशा मैं जा रहा हूँ. मैने पीछे मुड़कर नही देखा उसकी क्या हालत है. मैं बस चलता जा रहा था. आँखो से आँसू बह रहे थे. वो बेबसी की हद थी. मैं हार गया था. मैं टूट गया था. मैने आख़िरी पल तक संघर्ष करने की कसम खाई थी मगर मैं हार गया. दुख, निराशा, नाउम्मीदी से विवश मैं सब कुछ खो चुका था. शायद इस ज़िंदगी से मौत कहीं बेहतर थी.

काफ़ी दूर जाने के बाद मैं एक नीचे गिरे हुए पेड़ पर बैठ गया. मैने अपना चेहरा अपने हाथों में छुपा लिया. आँखो से आँसुओं की धाराएँ बह रही थी. काश वो कटार उस समय मेरे हाथों में होती मैं उसे अपने दिल के आर पर कर लेता. दुनिया में मुझसे बड़ा बदनसीब शायद ही कोई होगा. 

कुछ पलों बाद थोड़ी दूर से सूखे पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज़ आने लगी. धीरे धीरे आवाज़ तेज़ होती जा रही थी. लगता था कोई मेरी ही तरफ चला आ रहा था. आवाज़ एकदम तेज़ हो गयी. वो साया मेरे सामने आकर खड़ा हो गया. मेने सर उपर नही उठाया. मैं अपनी व्यथा से इतना दुखी था इतना उदास था कि मेरी आत्मा तड़प रही थी. 

उस साए ने कदम आगे बढ़ाया और मेरे चेहरे को पकड़ कर उपर उठाया. मेरी आँखो से आँसू निकल कर मेरे गालों पर ढलक रहे थे. उसके चेहरे से मेरे लिए नफ़रत और सहानुभूति के मिले जुले भाव झलक रहे थे. उसकी गर्दन पर दाईं ओर आगे से पीछे की ओर पतली सी खरोंच लगी थी और उससे निकलने वाले लहू से उसकी गर्दन लाल हो गयी थी.

वो कुछ देर मेरी आँखो में ऐसे ही घुरती रही और फिर उसका हाथ हवा में घुमा. 'कड़क' की आवाज़ के साथ एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर लगा. मेने उसकी आँखो में देखा. उसका चेहरा फिर से गुस्से से तमतमा उठा. उसने एक साथ तीन चार तमाचे मेरे मुँह पर जड़ दिए और फिर घूम कर मुझसे तीन चार कदम बदूर जाकर खड़ी हो गयी. मैं वापस पेड़ के तने पर बैठ गया. 

"हे भगवान यह मैं किस चक्कर में पड़ गयी! उस कम्बख़त लड़की को मैने कितना समझाया मगर उस बेवकूफ़ ने मेरी एक ना सुनी" वो एक ठंडी सांस लेकर बोली "बस अपनी बात पर अडी रही और मुझे इस पचडे में फँसा दिया" मैने चेहरा उठाकर उसकी ओर हैरत से देखा.

"हूँ जानती हूँ मैं ! सब जानती हूँ!" मुझे अपने कानो पर विश्वास नही हुआ. वो धीरे से चलती हुई मेरे पास आई और मेरे साथ उस पेड़ के तने पर बैठ गई जिसपर मैं बैठा हुआ था.

"मैं तुम्हारी बहन को बहुत पहले से जानती हूँ" उसने गंभीर स्वर में बोलना सुरू किया "मगर इस बार जब मैं उससे मिली तो मुझे वो कुछ बदली बदली सी लगी. बहुत समझदार हो गई थी. मुझे उससे बातें करना अच्छा लगता था. धीरे धीरे हम में दोस्ती हो गयी, वो मेरे सामने अपना दिल खोलने लगी. जिस तरह तुम खेतों में दिन रात पसीना बहा रहे थे वो भी कुछ करना चाहती थी, कुछ बन कर दिखना चाहती थी, सिर्फ़ दुकान घर पर काम करके जिंदगी नही बिताना चाहती थी. उसने मुझे बताया था कि उसकी अभिलाषा एक बहुत अच्छी ब्यूटीशियन बनने की है. मगर वो तुम लोगों पर बोझ भी नही बनाना चाहती थी. वो मेरी मदद चाहती थी. काफ़ी सोच विचार के बाद मुझे एक ही रास्ता नज़र आया. शहर में मेरे बहनोई जयदीप रामचंदनी की कपड़े की एक बहुत बड़ी फॅक्टरी है जिसमे हज़ारों लोग काम करते हैं. शायद तुमने भी नाम सुना होगा.

फॅक्टरी में काम करने वाली लड़कियों के लिए रहने के लिए एक हॉस्टिल भी है मगर सिर्फ़ उनके लिए जो दूर से आती हैं और रोजाना आने जाने का सफ़र नही कर सकती. मेने तुम्हारी बहन को सलाह दी थी कि वो फॅक्टरी में नौकरी करले और अपनी रोजाना की ड्यूटी ख़तम होने के बाद वो अपनी हिम्मत अनुसार किसी अच्छे ब्यूटी पार्लर से ब्यूटीशियन का काम सीख कर अपनी हसरत भी पूरी कर सकती है. और हॉस्टिल में रहकर किराए के पैसे भी बचा सकती है. मैं अपने बहनोई से बात करके उसकी तनख़्वा औरों से थोड़ी ज़्यादा लगवा सकती थी. तुम्हारी बहन को मेरा सुझाव बहुत पसंद आया और उसने तुरंत हामी भर दी" बोलते बोलते वो रुक गयी, जैसे थक गयी थी. हम दोनो चुप थे, पेड़ों में गहन सन्नाटा छाया हुआ था और अंधेरा भी घिरने लगा था. बड़ी अजीब सी डरावनी सी शांति थी.

"मगर वो इस तरह क्यों गयी? वो बता कर भी तो जा सकती थी" मैने चुप्पी तोड़ते हुए कहा. "हम उसके लिए कितने परेशान थे! माँ की क्या हालत है, उसे मालूम है! अगर लोगों को यह बात मालूम हो जाती कि वो इस तरह घर से भागी है तो हमारी कितनी बदनामी होती, किसी को मुँह दिखाने लायक नही रहते. अगर उसे जाना ही था तो हमें बता कर जाती, हम उसे रोकते नही"

"उसे शायद इसी बात का डर था के तुम लोग उसे जाने नही दोगे. उसे लगता था वो तुम्हारी माँ को किसी तरह मना लेगी पर वो डरती थी तुम नही मानोगी, कि उसके सहर में अकेले और अंजान लोगों के बीच इस तरह रहने और काम करने के लिए कभी राज़ी नही होगे"

"मगर जब उसने फ़ैसला कर ही लिया था तो हम उसे कैसे रोकते? ऐसे जाने से तो अच्छा था वो हम से लड़ झगड़ कर चली जाती. एक खत तक नही डाला उसने, किस तरह उसकी चिंता दिन रात हम को सताती है, कैसे कैसे ख़याल आते थे मन में, कहीं उसके साथ कुछ बुरा ना हो जाए" मुझे बहन की नासमझी पर गुस्सा आ रहा था.

"यह बात मैने उसे समझाने की बहुत कोशिश की थी मगर वो नही मानी. आज सुबह तुमसे मिलने के बाद मैने उसके हॉस्टिल में फोन किया था, मैने उसे बताया था कि तुम उसे लेकर कितना परेशान हो. मैने उसे खत लिखने के लिए भी बोला था और उसने बताया था कि वो पहले ही तुम्हे एक खत लिख चुकी है, शायद तुम्हे मिला नही है."

"देखो मैं जानती हूँ उसका इस तरह जाना ग़लत था मगर इतना मैं पूरे यकीन से कह सकती हूँ उसकी मंशा ग़लत नही थी. वो ख़ुदग़र्ज़ नही है. वो अपने लिए इतना नही सोचती जितना तुम्हारे लिए सोचती है. वो अपने परिवार पर बोझ नही बल्कि सहारा बना चाहती है. जानते हो जिस दिन वो तुम सब को छोड़ कर गयी उसकी क्या हालत थी, जब तक गाँव आँखो से ओझल नही हो गया वो पीछे मूड कर देखती रही. सहर पहुँचने पर भी तुम लोगों के लिए कितनी चिंतत थी. मैने देखा था तुम लोगों से बिछूड़ना उसके लिए कितना तकलीफ़देह था. उसके चेहरे से ऐसा लगता था जैसे कोई बात कोई चिंता उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. उसके चेहरे पर वो उदासी का भाव था जैसे वो अपने अंतर में किसी दुख को छिपाए थी. अगर उसने मुझे इतनी कसम ना खिलाई होतीं तो मैं खुद तुम्हे कब की बता देती"

वो चुप हो गयी और फिर से सन्नाटा पसर गया. मैं हैरान था कि वो बहन के इतने नज़दीक कैसे पहुँच गयी, बहन को तो किसी पर यकीन ही नही होता था. कैसे एक पराई औरत मेरी बहन को इतने अच्छे से जान सकती थी और उसके दुख को समझ सकती थी. कमाल की औरत थी यह देविका.

"मुझे जाना होगा. वक़्त बहुत हो गया है, कहीं कोई देखता हुआ इधर ना आ जाए" वो उठ कर खड़ी हो गयी और अपने कपड़ों को झाड़ने लगी जो धूल, मिट्टी और सूखे पत्तों से भर गये थे. "मुझे अब कोई बहाना भी बनाना पड़ेगा तुम्हारी इस बेवकूफी के लिए" उसका इशारा गले की चोट से था. "तुम भी जाओ यहाँ से. मैं नही चाहती कोई हम को यहाँ देख कर कुछ और अंदाज़ा लगाए" 

"मैं कल दोपहर को चली जाउन्गी, बहन को कोई संदेशा देना हो तो मुझे दे देना, मैं उस तक पहुँचा दूँगी" यह लफ़्ज बोल वो तेज़ तेज़ कदम उठाती सड़क की ओर जाने लगी. मैं उसके जाने के काफ़ी देर तक वहीं बैठा रहा और फिर आख़िरकार जब पूरा अंधेरा हो गया तो उठ कर घर को चल पड़ा.
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12-28-2018, 12:45 PM,
#28
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
उस शाम माँ जब मेरे कमरे में खाना देने आई तो मैं अपनी सोचों में डूबा हुआ था, माँ के आने का मुझे पता तक ना चला. माँ ने जब बेड के किनारे बैठ मेरे सर पर हाथ फेरा तो मुझे उसके आने की खबर हुई.

"खाना खा लो बेटा" वो मुझे दुलारती हुए बोली. मैं उठकर बैठ गया और उसके हाथ से थाली ले ली. 
"किस चिंता में इतना खोए हुए हो?" वो मेरी पीठ सहलाते बोली. 

मैने निवाला मुँह में डाला. खाकर एक गहरी सांस ली. "उसका पता चल गया है" मैने धीरे से फुसफसा कर कहा.

"किस का पता चल गया है" माँ ने हैरत से पूछा शायद उसे एसी खूसखबरी की उम्मीद नही थी और उसे अपने कानो पर यकीन नही हो रहा था.

"बहन का पता चल गया है. इसी सहर में है वो. एक फॅक्टरी में काम करती है" मैने उसी तरह सर झुकाए बोला.

माँ एकदम से बेड पर से उठ गयी. मैने चेहरा उठाकर देखा तो मेरी ही ओर देख रही थी. 

"सच बोल रहे हो ना. मेरा दिल रखने के लिए झूठ तो नही बोल रहे"

"माँ मैं बिल्कुल सच बोल रहा हूँ. सूरत मे बस स्टॅंड से थोड़ी दूर एक बहुत बड़ी फॅक्टरी है, जयदीप रामचंदनी करके. उसी में काम करती है वो. फॅक्टरी के साथ ही मे एक हॉस्टिल है जहाँ वो रहती है" 

"तुम उससे मिलने गये थे? वो ठीक तो है ना? तुमने मुझे पहले क्यों नही बताया? वो हमे छोड़कर इस तरह बिन बताए क्यों चली गयी?"

"माँ!" माँ थोड़ा कंट्रोल करो खुद पर. वो बहुत भावभिवहल हो उठी थी. मैने माँ का हाथ पकड़ उसे बेड पर बैठाया. "आज शाम ही पता चला है. मगर मुझे इतना मालूम है वो ठीक है. वो बस इसी डर से कि हम उसे सहर में करने जाने नही देंगे, इसीलिए ऐसे बिन बताए चली गयी"

"पागल लड़की! हम क्यों नही जाने देते! उसने एक बार भी नही सोचा हमारे बारे में. हम कैसे उसकी चिंता में दिन रात मर रहे थे" माँ की आँखो से आँसू बहने लगे मगर उसके चेहरे पर खुशी झलक रही थी. वो हमेशा मुझे हिम्मत बाँधती थी मगर मैं जानता था वो खुद अपने अंतर में कितनी दुखी थी. 

"तुम उसे कल जाकर मिल आओ" मैने माँ का हाथ दबाते हुए कहा.

"तुम नही जाओगे? इतने दिनो से दौड़ धूप कर रहे थे और अब जब पता चल गया है तो...."

"मैं जाउन्गा माँ...जल्द ही जाउन्गा" मैने माँ की बात काटते हुए कहा. माँ कुछ कहने लगी मगर फिर बीच में ही रुक गयी.

मैने खाना खाया तब तक माँ दूध ले आई थी. माँ के जाने के बाद मैं अपनी चारपाई पर लेट गया और छत को घूरते हुए उसी उधेड़बुन में लग गया जिसका कोई सिरा मेर हाथ नही लग रहा था. एक तरफ तो देविका की बातों से लगता था बहन मुझसे बहुत प्यार करती है. मैने जब से हमारे बीच ताल्लुक़ात बने थे तब से लेकर आज तक के बारे में सोचा तो मुझे भी हर बात में उसका प्यार झलकता दिखाई दिया. मगर अगर उसे मुझसे प्यार था तो वो इतनी आसानी से कैसे मुझे छोड़कर जा सकती थी. ना उसने जाते हुए बताया ना उसने मेरे लिए कोई खत लिखा. कुछ भी तो नही. अगर उसके लिए इतना आसान था मुझे भूलकर जाना तो फिर वो मुझसे उतना प्यार नही करती थी जितना मैं उससे करता था. मुझे फिर से देविका की बताई बातें याद आने लगी. मन शंकाओं से भरा हुआ था. मुझे उससे इतना प्यार था कि मैं उसे किसी भी कीमत पर खोना नही चाहता था. उसके बिना जिंदगी की कल्पना करना भी मुश्किल था. मैं उसे सदा सदा के लिए अपनी बनाना चाहता था मगर यह तो तभी संभव था जब उसके दिल में भी मेरे लिए उतना ही प्यार हो. अगर उसके दिल में मेरे लिए प्यार होता तो वो इस तरह कभी नही जाती, शायद अब उसके दिल में मेरे लिए पहले जैसा प्यार नही है शायद वो सिर्फ़ एक बड़ी बहन के नाते मेरी चिंता करती है. इसीलिए जाते हुए उसने मुझे खत भी नही लिखा था. उसने एक बार भी नही सोचा मैं उसके बिना कैसे जियूंगा

इन्ही विचारों में गुम ना जाने कब मुझे नींद आ गयी. आधी रात का वक़्त रहा होगा जब मेरी आँख खुली. मन में फिर से वोही बात आ गयी. हमारे बीच इतना कुछ था मगर वो सब भूलकर ऐसे चली गयी. बस एक खत लिख देती मन को हॉंसला हो जाता. उसके लिए इतना तरसा इतना तडपा था मगर उसके मिलने से वो खुशी महसूस नही कर पा रहा था जो होनी चाहिए थी. मन में एक डर सा बैठ गया था कि अब बहन के दिल में मेरे लिए कोई जगह नही बची. इसी लिए उससे मिलने जाने से मैं घबराने लगा कहीं वो मेरा तिरस्कार ना कर्दे. फिर अचानक मुझे देविका की वो बात याद आई कि बहन ने मुझे खत लिखा था मगर मुझे मिला नही था. शायद उसने देविका के कहने पर ही लिखा था और हमे एक दो दिन तक मिल जाए. 

मैं उठा कमरे की बत्ती जलाई, बड़े जोरों की पेशाब लगी थी. पेशाब करके वापस आया तो देखा दूध वैसे ही पड़ा है. मैने दूध का घूँट भरा तो बहुत ठंडा था. चुपके से रसोई में गया और बिना कोई आवाज़ किए धीरे से चूल्हा जलाकर दूध गरम किया. मैं नही चाहता था माँ की नींद टूट जाए. आज ना जाने कितने दिनो बाद वो चैन की नींद सोई होगी.

दूध पीकर मैं फिर से लेट गया. खत के बारे में सोचने लगा. उसने उसमे क्या लिखा होगा. अचानक फिर से वोही बात मेरे दिमाग़ में कोंधी. उसने कहा था 'उसने मुझे खत लिखा था मगर शायद मुझे वो मिला नही था'. कहीं उसने वो खत यहाँ से जाने के समय तो नही लिखा था जो मुझे मिला नही था. मैं इस नये विचार से अति उत्तेजित हो उठा और बेड पर उठकर बैठ गया. मुमकिन है उसने खत लिखा हो. नही उसने ज़रूर लिखा होगा वो मुझसे बहुत प्यार करती है, मुझे मालूम है. इस विचार ने एक नयी आशा बँधा दी थी. लेकिन अगर उसने खत लिखा था तो रखा कहाँ था. कॉन सी एसी जगह थी जहाँ मेरा ध्यान नही गया था. घर का कोना कोना तो मैने पहले दिन ही छान मारा था. खत होता तो ज़रूर मुझे मिलता. मैं अपने दिमाग़ में पूरे घर के एक एक हिस्से को तलाशने लगा, शायद कोई एसी जगह थी जो रह गयी थी. मगर बहुत सोचने पर भी मुझे कोई एसी जगह नही सूझी जहाँ बहन ने मेरे लिए कुछ लिख छोड़ा हो. मैं फिर से बेड पर लेट गया. मुझे उन दिनो की याद आने लगी जब हमारे बीच प्यार की शुरुआत हुई थी. कैसे हम उस कामसूत्र की किताब के ज़रिए एक दूसरे को अपने दिल की बात बताते थे. कैसे मेरे पिताजी के गुप्त स्थान के मिलने के बाद हमारे बीच.................गुप्त स्थान......पिताजी का गुप्त स्थान. मैं झटके से उठा और बेड से नीचे उतरा. उफफफफफ़फ्ग मैं कैसे भूल गया, कैसे मेरे दिमाग़ में यह बात नही आई, उस गुप्त स्थान की ओर कदम बढ़ाते मुझे आश्चर्य हो रहा था. 

मेरे हाथ कांप रहे थे, दिल पूरी रफ़्तार से धड़क रहा था. मैने धीरे से काँपते हाथों से उसका छोटा सा डोर खोला. मगर डोर पूरा खुलने से पहले ही डर के मारे मैने आँखे बंद कर ली थी, वो आख़िरी उम्मीद थी मेरे प्यार की, उस उम्मीद का टूटना मैं बर्दाशत नही कर सकता था. मैने धीरे धीरे भगवान के आगे प्रार्थना करते हुए आँखे खोलीं. मैने बड़ी मुश्किल से अपने मुँह से खुशी की उस चीख को निकलने से रोका. सामने एक बहुत बड़ा वाइट कलर का पेपर तह करके रखा था और उसके उपर एक गुलाब का सुर्ख लाल रंग का फूल था जो कब का मुरझा चुका था.

मैने उस खत को धीरे से उठाया और उसे और उसके उपर पड़े उस सूखे गुलाब के फूल को कयि बार कोमलता से चूमा. उसे लेकर मैं अपने रूम में आ गया. मैने बेड के किनारे लगे बिजली के छोटे बल्ब को जलाया. बेड पर बैठ मैने खत के उपर रखे फूल और टहनी को एक दूसरे काग़ज़ के उपर बड़े ध्यानपूर्वक रख दिया. धीरे धीरे अपने काँपते हाथों से मैने उस खत को खोला. 

खत का काग़ज़ पूरा सीधे होते ही मेरा दिल धक्क से रह गया. पूरा खत जैसे पानी से भीगा हुआ था. सभी अक्षर घुल मिल से रहे थे. मुझे कारण समझने में देर नही लगी. वो पानी नही था जो खत पर गिरा था बल्कि उसके आँसू थे. वो खत लिखते हुए बुरी तरह से रो रही थी. मेरी आँखो से आँसू बहने लगे. मैने उसे अपने होंठो से सटाया और कुछ पलों के लिए अपनी आँखे बंद कर ली ताकि उसे पढ़ने के लिए हिम्मत जुटा सकूँ. कुछ समय बीतने के बाद मैने अपनी आँखे पोन्छि खुद पर नियंत्रण करने की कोशिश की. आँसुओं से खराब हो चुके अक्षरों को शायद ही कोई पढ़ पाता. मगर मैं उस एक एक लफ़्ज को देख सकता था, पढ़ सकता था.
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12-28-2018, 12:46 PM,
#29
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"मेरे प्यारे भाई,
मुझे समझ नही आता मैं तुम्हे किस नाम से या किस रिश्ते से पुकारूँ. हमारे बीच एक नाता बही बहन का है जो हमे समाज ने दिया है, हमारे माता पिता ने दिया है, एक नाता मैने तुमसे लगाया है जिसके लिए मैने समाज से, धरम से, भगवान से विद्रोह किया है. मैने तुमसे प्रेम किया है. 

मैने कभी नही सोचा था हमारे बीच ये सब हो सकता है. मैं झूठ नही बोलूँगी भाई, शुरुआत में, उस किताब के ज़रिए हमारा एक दूसरे से बातें करना मुझे तुम्हारे इतना करीब ला देगा, मैने कभी सोचा नही था. मैं यह भी मानती हूँ कि शुरुआत में, मैं तुमसे शारीरिक सुख पाने की ही इच्छा रखती थी, इसके आगे कुछ भी नही. धीरे धीरे मुझे तुम्हारी आदत पड़ने लगी. तुम्हारा प्यार जैसे मेरे जीने का सहारा बन गया. किसी दिन तुम मुझे प्यार नही करते तो मुझे रात को नींद ना आती, चैन ना मिलता, मैं सारी रात करवटें बदलती रहती. तुम मुझे अपनी बाहों में लेकर सहलाते, प्यार करते तो मैं अपने अंतर में वो खुशी वो सुख महसूस करती जो मैने कभी नही किया था. मगर उस समय तक भी मुझे अहसास नही हुआ था कि मैं तुमसे कितना प्यार करने लगी हूँ.

फिर तुम्हे परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास होने लगा और तुम खेतों में काम करने लगे. धीरे धीरे तुम पूरा समय खेतों में बिताने लगे और हमारे रात के मिलन का समय कम होता गया. फिर माँ भी तुम्हारे साथ जाने लगी. मैं घर पर बिल्कुल अकेली रह जाती. मगर फिर भी तुम कभी कभी मुझे अपने सीने से लगाते मुझे प्यार करते तो मेरे सारे गिले शिकवे दूर हो जाते. मगर अंत में हमारा वो कभी कभार का मिलना भी बंद हो गया और तुम पूरा ध्यान सिर्फ़ खेतों को देने लगे. 

पहले पहले मुझे लगा तुम शायद मुझसे गुस्सा हो, मैने तुम्हे मनाने की कोशिस भी की. मगर फिर मैने सोचा हो सकता है तुम इतनी मेहनत के बाद बहुत थक जाते होगे और तुम्हे आराम करना होगा. मगर जल्द ही मुझे अहसास हो गया तुम मुझे जानबूझकर नज़रअंदाज़ कर रहे थे. तुम्हारे उस व्यवहार से मुझे बहुत तकलीफ़ हुई. मेरा दिल किसी काम मे ना लगता. दुकान पर तो जैसे तैसे समय कट जाता मगर घर का सूनापन मुझे काटने को दौड़ता. मुझे लगता था मैं भी जल्द ही तुम्हारे प्यार को भूल जाउन्गी मगर मेरी पीड़ा हर बीतते दिन के साथ बढ़ने लगी. यहाँ तक मैं कयि बार घर में ज़ोर ज़ोर से रोती. अकेली, तन्हा, मैं हर दिन उम्मीद करती शायद तुम आज मेरे पास आओगे शायद कल आओगे. मगर तुम तो शायद उस घर मे मेरे वजूद को ही भूल गये थे. 

अब यह पीड़ा मेरे लिए आसेहनीय होती जा रही थी. मैं किसी के साथ अपना दुख भी नही बाँट सकती थी. फिर एक दिन देविका दुकान पर आई तुम्हे मालूम है ना ज़मीदारों की बहू. धीरे धीरे हमारे बीच दोस्ती हो गयी. उसके बहनोई की सहर में फॅक्टरी थी जिसमे वो अच्छे दामों पर मुझे नौकरी दिला सकती थी और फॅक्टरी की ओर से रहने की व्यवस्था भी थी. आख़िरकार मैने सहर जाने का फ़ैसला कर लिया.

अब इससे पहले तुम सोचो कि मैं शायद तुमसे दूर जा रही हूँ तो तुम्हारी गलफहमी है. चाहे तुम मुझसे बात नही करते थे, मुझे प्यार नही करते थे मगर तुम कम से कम मेरी नज़र के सामने तो होते थे, मेरे ईए यह भी बड़ी बात थी. मगर फिर मेरा ध्यान जाता तुम किस तरह दिन रात मेहनत करते हो, किस तरह परिवार के लिए इतना कठिन परिश्रम करते हो. और मैं क्या करती सिर्फ़ दुकान पर थोड़ा सा काम करती, चार पैसे कमाती. मैं भी तुम्हारी मदद करना चाहती थी. मैं चाहती थी तुम्हारी पीड़ा हर दुख हर चिंता को बाँट लूँ. और इसीलिए अंत में मेने सहर जाने का फ़ैसला किया. माँ दुकान और घर का काम देख लेगी. मैं सहर में ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करूँगी ताकि तुम्हे मंज़िल पर पहुंचने मे मदद कर सकूँ. 

मगर जितना मैने सोचा था उतना आसान नही है तुम्हे और घर को छोड़ देना. काश तुम देख पाते आज सुबह से मेरी क्या हालत है. आज तक मैने खुद इस बात का खंडन किया है मगर आज मुझे पूरा अहसास हो गया है कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ और तुम्हारे बिना जी नही सकती. हां मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, इतना प्रेम करती हूँ जितना आज तक कभी किसी ने किसी से ना किया हो. मैं नही जानती तुम्हारे दिल में क्या है, तुम क्या चाहते हो, मगर मैं सिर्फ़ तुमको चाहती हूँ. सिर्फ़ और सिर्फ़ तुमको चाहती हूँ.
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12-28-2018, 12:46 PM,
#30
RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
खत में लिखा था.......
मुझे इस तरह जाने के लिए माफ़ कर देना. फॅक्टरी का पता नीचे लिखा है. मगर मुझे लेने नही आना भाई. मुझे मौका दो अपने प्यार को साबित करने का. मैं अपने प्यार का इम्तिहान देने जा रही हूँ. मैने दो तीन साल सहर में काम करने का सोचा है. इतने समय मैं कभी भी वापस नही आउन्गी. मगर एक दिन मैं लौटूँगी, तुम्हारे पास हमेशा हमेशा तुम्हारी बनने के लिए. अगर तुम मुझे स्वीकार करोगे तो मैं अपनी बाकी ज़िंदगी तुम्हारी अर्धांगिनी बनकर गुज़ारुँगी लेकिन अगर तुम्हारे दिल में मेरे लिए प्यार नही है तो मैं हमेशा हमेशा के लिए तुम्हारे रास्ते से हट जाउन्गी. मगर एक बात याद रखना अगर तुम भी मुझे चाहते हो मुझे प्यार करते हो और मेरे साथ ज़िंदगी बिताना चाहते हो तो तुम्हे मुझे पूरे हक़ देने होगे----पूरा हक़. मुझे पूरा हक़ चाहिए, मुझे पूरा प्यार चाहिए. मुझे नही मालूम तुम्हारे बिना मैं कैसे जियूंगी मगर मुझे यह परीक्षा देनी होगी. माँ का और अपना ख़याल रखना. मुझे उम्मीद है तुम समझ सकोगे मैं क्यों जा रही हूँ. मुझे उस दिन का इंतज़ार होगा जब मैं तुम्हारे पास हूँगी, तुम्हारी बाहों में और तुम मुझसे प्यार का इज़हार करोगे. मुझे जाना होगा. बड़ी हूँ इसीलिए इसे मेरा हुक्म समझना. समय से खाना खाना और सेहत का ख़याल रखना. मैं सदेव भगवान से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगी"

खत पूरा पढ़ने के बाद मैं कुछ समय तक यूँ ही बैठा रहा. आज मुझे अहसास हुआ मैने उसे कितनी तकलीफ़ दी थी, किस तरह उसे अपनी ज़िंदगी से निकाल फेंका था. उसने कितना दुख सहा था और कितना सह रही होगी सोचकर मुझे खुद पर शरम आने लगी. मैं इतना निर्दयी कैसे हो गया, वो मेरी वजह से इतनी दुखी थी और मेने जानने की कोशिश तक ना की. कभी उससे पूछा भी नही वो कैसी है.......... मैं इतना ख़ुदग़र्ज़ कैसे बन गया था.

मैं उठा और बहन के कमरे की ओर गया. उसका कमरा उसके जाने के बाद से बंद पड़ा था. मैने उसके कपड़ों की अलमारी खोली. मैने उसके कपड़ों को उतारा और अपने सीने से भींच उनमे बसी अपनी बहन की खुसबु लेने लगा. मैं भी कितना बदनसीब था. दुनिया प्यार के लिए तरसती है और मुझे कोई इतना प्यार करने वाला मिला था मगर मैने उसके प्यार की कोई कदर नही की थी. काश वो उस समय वहाँ होती तो मैं उसे बताता मैं उसे कितना यार करता हूँ, उसके बिना कितना तरसता हूँ, कितना तड़प्ता हूँ.

उस रात मैं सो नही सका. मुझे एक फ़ैसला लेना था और सुबह तक मैं फ़ैसला ले चुका था. मैने बहन के नाम एक छोटा सा खत लिखा था ताकि उसे अपने फ़ैसले के बारे में बता सकूँ. अब माँ के हाथ वो खत भेजने में मुझे हिचकिचाहट हो रही थी. हालाँकि मैं खुद माँ पर अपना राज़ जाहिर कर चुका था और माँ के अनुसार तो वो पहले से ही जानती थी मगर फिर भी मेरा दिल नही किया. पोस्ट ऑफीस मैं डाल दूँगा दोफर को, सोचकर मैने खत जेब मे डाल दिया.

सुबह सुबह खेतों को निकल पड़ा. एक रात मे ज़िंदगी वापस पटरी पर आ गयी थी. अब मेरे जीने के लिए फिर से एक उद्देश्य था, एक मंज़िल थी जिस तक मुझे पहुँचना था. मगर पहले की तुलना अब मुझे यह सब अब एक नियत समय सीमा में करना था. मेरे पास समय बहुत कम था और मंज़िल बहुत दूर थी और रास्ता भटकने का ज़ोख़िम मैं हरगिज़ उठा नही सकता था. अब मुझे अपनी हर सोच विचार अपने लक्ष्य पर केंद्रित कर अपना हर कदम उस ओर बढ़ते जाना था. रास्ता बहुत कठिन था, इतना मैं पिछले चार महीने की मेहनत से जान चुका था मगर अब पीछे हटना मुमकिन नही था. 

मैं लगभग भागते हुए खेतों में पहुँचा और दूध निकालकर पशुओं को पानी पिलाया. कुछ सब्जियाँ तैयार हो गयी थी उन्हे तोड़ कर और दूध लेकर वापस तेज़ तेज़ कदमो से घर को चल पड़ा. माँ ने खाना बना रखा था. उसे भी बहुत जल्दबाज़ी थी. दुकान पर दूध और सब्ज़ियाँ बेच वो भी जल्द से जल्द सहर के लिए निकलना चाहती थी. मैने खाना खाया. और घर से निकलने ही वाला था कि मुझे कुछ याद आया. मैं माँ के पास गया. "माँ" मैने माँ को पुकारा तो उसने बर्तन सॉफ करते हुए मेरी और चेहरा उठाकर सवालियाँ नज़रों से देखा.

"माँ! देखो मैं जानता हूँ तुम कितनी परेशान रही हो मगर फिर भी भगवान के लिए उसे कोसना नही, डांटना नही. मैं जानता हूँ वो भी हम से दूर जाकर दुखी ही होगी" मैने माँ को धीरे से समझाया. 

"ठीक है नही कोस्ती. तुम चिंता मत करो मैं खुद पर काबू रखूँगी" माँ ने कुछ पल चुप रहने के बाद बोला.

"माँ उसे वापस आने के लिए मत कहना बल्कि उसकी हिम्मत बढ़ाना और कहना कि हम उसके साथ हैं हमे उस पर पूरा भरोसा है. और उसे बोलना कि हमारी चिंता ना करे, बस अपना ख़याल रखें" मैने अपने रुँधे गले को सॉफ करते हुए कहा. मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि मेरी आँखो से आँसू ना छलक पड़ें. माँ कुछ ना बोली बस टकटकी बाँधे मेरे चेहरे की ओर देखती रही. फिर वो मुझ पर नज़र जमाए मेरी ओर आई. 

"क्या हुआ" मैने माँ के उस तरह घूर्ने का कारण पूछा. 

"मुझे यकीन नही होता मेरा बेटा कितना समझदार हो गया है. कितना सयाना हो गया है" माँ आगे बढ़ी और अपने गीले हाथों में मेरा चेहरा थामकर उसने मेरा माथा चूमा. "तुम क्यों नही साथ चलते?" 

"अभी नही माँ. मगर मैं जाउन्गा जल्द ही जाउन्गा" मैं तेज़ी से मुड़ा और घर से बाहर जाने लगा. फिर अचानक मुझे कुछ याद आया. "और माँ उसके लिए कुछ ताज़ी सब्ज़ियाँ और दूध ले जाना और कुछ पैसे भी, शायद उसे ज़रूरत होगी" इतना बोलकर मैं माँ की बात सुने बिना घर से बाहर निकल गया. अब मैं खुद में पूरा जोश महसूस कर रहा था. पशुओं को चरने के लिए खुला छोड़ मैने मुर्गियों का दाना पानी चेक किया. नब्बे प्रतिशत मुर्गियाँ बच गई थी और जिस हिसाब से मीट का रेट चल रहा था, यह मेरे लिए बहुत ही नफे का सौदा साबित होने वाला था. इतना करने के बाद अब मैं खेतों में काम करने के लिए बिल्कुल फ्री था. 

अभी धान की फसल पकने में थोड़ा वक़्त था, मैने बोरेवेल्ल चलाकर पानी छोड़ा और फिर मकयि के खेत में गया. मैने भगवान का नाम लिया और भुट्टो की फसल काटनी शुरू कर दी. बहुत लंबा काम था. भुट्टो के तने ज़रूरत के समय पशुओं के लिए चारे का काम देने वाले थे और शेड को दोनो ओर से कवर करने के भी. क्यॉंके मैने योजना बनाई थी कि कमरे के पास थोड़ी जगह छोड़कर बाकी पूरी शेड को कवर कर दूँगा और अगली बार पूरी शेड मुर्गियाँ पालने के लिए इस्तेमाल करूँगा. दोपहर तक बिना रुके मैने लगभग मकयि की फसल का दसवाँ हिस्सा काट दिया था. उसके बाद खाने के लिए शेड में गया. खाना खाकर मैने वहाँ पड़े स्टोव पर में दूध गरम करके पीने लगा. दूध पीता में काम के बारे में सोचता जा रहा था. फसल काटने और संभालने में बहुत वक़्त लगने वाला था. मुझे थोड़ा हिम्मत से काम लेना था. तभी मुझे शेड के पास किसी के चलने की आवाज़ सुनाई दी. ज़रूर कोई औरत थी, क्यॉंके पायलों की हल्की हल्की छन छन की आवाज़ सुनाई दे रही थी,. शायद माँ थी, मगर माँ तो सुबह ही शहर चली गयी थी और वैसे भी माँ को पायल पहनने की आदत नही थी. कॉन थी वो. मैं दूध का गिलास हाथ में पकड़े शेड से बाहर निकला तो मेरी हैरानी का ठिकाना ना रहा. सामने देविका चली आ रही थी. 

"आप यहाँ, खेतों में? सब ठीक तो है ना?" 

"सब ठीक है. घबराओ नही" उसे शायद इतना चलने की आदत नही थी इसीलिए उसकी साँसे उखड़ी हुई थी. तुम्हारे घर गयी थी तो दुकान और घर दोनो पर ताला लगा हुआ था. तुम्हारी पड़ोसन ने बताया तुम्हारी माँ को उसने कहीं जाते हुए देखा था, मगर वो अकेली थी. मुझे लगा तुम्हारी माँ तुम्हारी बहन को मिलने गयी होगी मगर अकेले क्यों? तुम क्यों नही गये?" 

"मैं जाउन्गा. मुझे मकयि की फसल काटनी है, मौसम का मिज़ाज तो आपको मालूम ही है" 

"मैने तो सोचा था तुम सुबह होते ही सहर को भागोगे. कल तो बहन के लिए इतना तड़प रहे थे. मेरा बलात्कार तक करने को तैयार थे" उसके स्वर में गुस्सा या नफ़रत नही मगर उलाहने का पुट ज़रूर था. 

"भगवान जानता है मैने कभी बलात्कार तो क्या मैने कभी आपको बुरी निगाह से भी नही देखा. मैं तो बस आपको डराना धमकाना चाहता था ताकि आप मुझे उसका पता बता देती" मैने उसके सामने सर झुकाए किसी गुनहगार की तरह सफाई दी. 

"चलो बलात्कार नही करते मगर मेरा गला तो यकीनी तौर पर काटने वाले थे, और झूठ मत बोलना मैने उस समय तुम्हारी आँखो में देखा था, तुम मुझे मारने वाले थे"

मैं कुछ पलों के लिए चुप हो गया. "आपके उन अल्फाज़ों ने मेरे पूरे तन मन में आग लगा दी थी. आप मुझे कुछ भी बोलती मुझे कोई परवाह नही थी मगर बहन के लिए ऐसे अल्फ़ाज़ मैं अभी बर्दाश्त नही करता"

"वो तो देख ही चुकी हूँ. एक पल के लिए तो मुझे लगा था मैं गयी काम से. ना जाने कैसे तुमने हाथ घुमा दिया. उफ्फ अभी भी सोचकर बदन में झुरजुरी दौड़ जाती है" 

वाकई में उसका जिस्म काँप सा गया, मुझे खुद पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई. वो चारपाई पर बैठ गयी. उसने मुझे अपने पास बुलाया और बैठने के लिए बोला. मैं चारपाई के पास नीचे ज़मीन पर बैठने लगा तो उसने कड़क कर कहा

"इधर बैठो मेरे पास. मुझमे कोई काँटे नही लगे हैं" 

"जी मैं आपके साथ. किसी ने देख लिया तो?" फरक सिर्फ़ उसके उँची जात और मेरी नीची जात का ही नही था, अमीरी ग़रीबी का फरक ज़मीन आसमान जितना था और सबसे बढ़कर वो एक शादीशुदा महला थी इस तरह उसे कोई भरी दोपेहर मे मेरे साथ अकेली खेतों में बैठे देखता तो उसकी बहुत बदनामी होती.

"अरे पूरे रास्ते में मुझे कोई जानवर तक नज़र नही आया तो इस सूने में इंसान कहाँ से आ जाएगा. आओ बैठो" मगर मुझे अभी भी हिचकिचाहट हो रही थी. मैने बैचैनि से इधर उधर देखा.

"यकीन नही होता, कल तुम्ही थे जिसने मेरा अफ़रन किया था. आओ बैठो" उसकी आवाज़ में वो आत्मीयता थी जो सिरफ़ अपनो के लिए ही होती है. मैं धीरे से उसके पास चारपाई पर बैठ गया. चारपाई छोटी थी महज एक इंसान के आराम करने के लिए. इसीलिए मैं बैठा तो मेरा जिस्म उसके जिस्म को छू रहा था.
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