Desi Porn Kahani काँच की हवेली
05-02-2020, 01:04 PM,
#21
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
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कंचन इस वक़्त अपने घर में चारपाई पर उकड़ू बैठी हुई है. वो उन लम्हो में डूबी है, जब झरने के पास रवि से मिली थी. उसकी मष्टिसक में रवि के आत्मीयता से कहे गये शब्द घूम रहे हैं, उन्ही बातों को याद करके कभी उसके होठ मुस्कुरा उठते तो कभो वो उदास हो जाती.

वो सोच रही थी - आज कितना अच्छा मौक़ा था....साहेब से अपने दिल की बात कहने का. पर मैं मूर्ख क्यों ना कही उनसे. कह देती तो क्या हो जाता. उफ्फ उन्होने पुछा भी था....पर मैं सोचती रह गयी...और जो बोला भी तो क्या "जाइए...मैं नही बताती, आप बड़े वो हो." मैं ऐसी मूर्खों जैसी बात क्यों कह गयी?. अब साहेब क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में?. क्या साहेब अब भी वहीं होंगे? क्यों ना मैं वापस जाकर देखूं....शायद साहेब मिल जाएँ. लेकिन जो मैं उनसे फिर मिली तो साहेब क्या सोचेंगे? चाहें साहेब जो भी सोचे, पर इसी तरह उनसे मिलूंगी तभी तो वो मेरा हाल जानेगे. जो ना मिली तो वो कैसे जान पाएँगे कि मेरे दिल में क्या है?

"आए कंचन क्या हुआ है तुम्हे?" अचानक कंचन के कानो से आवाज़ टकराई तो वो चिहुनक-कर पलटी. नज़रें उठी तो देखा सामने बुआ खड़ी थी. और आश्चर्य से उसे देखे जा रही थी.

"कब से खड़ी देख रही हूँ, तू अपने आप हंस रही है, कभी खुद से झुंझला रही है, मैं सामने खड़ी हूँ पर तेरा ध्यान ही नही है मुझपर, सब ठीक तो है?" बुआ ने सवाल किया.

"नही....हान्ं....मैं....मुझे कुच्छ नही हुआ है, मैं ठीक हूँ." कंचन हक्लाई.

"हां....नही....मैं." बुआ हैरानी से कंचन के शब्द दोहराई. फिर कंचन को घुरती हुई बोली - "क्या बोल रही है तू? सॉफ सॉफ बोल. तू इस तरह उदास सी क्यों बैठी थी? तुझे कुच्छ तो हुआ है."

"कुच्छ भी तो नही हुआ है बुआ. मैं ठीक तो हूँ." कंचन बोली और कमरे से बाहर जाने लगी.

"अब कहाँ जा रही है? अभी तो बाहर से आई है तू....फिर से बाहर क्या करने जा रही है?" शांता बुआ उसे बाहर जाते देख बोली - "और आज तू स्कूल क्यों नही गयी?"

"स्कूल जाने को मन नही किया, कल चली जाउन्गि, अभी हवेली जा रही हूँ." ये कहकर वो तेज़ी से बाहर निकल गयी.

कंचन तेज़ी से चलती हुई उसी झरने के पास पहुँची, जहाँ पर वो रवि को छोड़ कर गयी थी. उसे ये उम्मीद थी कि शायद रवि अब भी वहीं हो.

वो उस जगह पर पहुँच कर अपनी निगाहें चारो तरफ दौड़ाने लगी. पर रवि को कहीं ना पाकर उसका दिल बैठ गया. वह एक बार फिर से इधर-उधर . मार कर रवि को ढूँढने लगी, पर जो था ही नही वो मिलता कैसे. वह निराश होकर एक पत्थेर पर बैठ गयी. घर से कितनी उमंगे लेकर आई थी, पर रवि को ना पाकर उसका मॅन भारी हो गया. अचानक से वो उठी और हवेली के रास्ते अपने कदम बढ़ाती चली गयी.
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05-02-2020, 01:04 PM,
#22
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 15

निक्की इस वक़्त अकेली हॉल में बैठी हुई थी, उसके हाथ में कोई पुस्तक थी, लेकिन वो पढ़ नही रही थी-बस एक सरसरी सी निगाह डालकर पन्नो को पलट-ती जा रही थी. उसका मॅन बेचैन था और वह उस पुस्तक से बहलाने की कोशिश कर रही थी. पर वो पुस्तक उसका मॅन बहला पाने में नाकाम हो रही थी. निक्की ने अंत में पुस्तक सेंटर टेबल पर लापरवाही से फेंकी और उठ खड़ी हुई. वह अभी खड़ी होकर कुच्छ सोच ही रही थी कि हॉल में कंचन दाखिल हुई. उसे देखते ही उसका सारा तनाव छट गया. बेचैन मॅन को एक राहत सी महसूस हुई.उसका सबसे प्यारा खिलोना जो आ गयी थी, वो चहक कर उसकी और बढ़ी. दोनो सहेलियाँ एक दूसरे की बाहों में समा गयी. फिर निक्की अलग होती हुई उसकी आँखों में झाँक कर बोली - "इतने दिन बाद क्यों आई? क्या तू भूल गयी कि मैं आई हुई हूँ."

"मेरा जी ठीक नही था. आज तो मैं स्कूल भी नही गयी." कंचन ने अपनी सफाई दी.

"क्यों तुझे क्या हुआ?" निक्की परेशान होकर बोली - "चल रूम में बैठते हैं." ये कहकर निक्की उसका हाथ पकड़कर अपने रूम में आ गयी. फिर उसे बिस्तर पर बिठाती हुई बोली - "अब बता क्या हुआ है तुझे? तेरा ये फूल सा चेहरा क्यों मुरझा गया है?"

"क्या बताऊ? मुझे खुद नही पता मुझे क्या हुआ है? बस कुच्छ दिनो से बड़ी विचित्र सी हालत हो गयी है." कंचन खोई खोई सी बोली.

निक्की उसका चेहरा ध्यान से देखती रही. फिर आगे बढ़ी और बिस्तर में उसके बराबर बैठ गयी. फिर उसके गले में अपनी बाहें डालकर उसके गालो को चूम ली.

कंचन के लिए ये कोई नयी बात नही थी. जब कभी निक्की को उसकी कोई बात अच्छी लगती थी, या उसे उसपर प्यार आता था तो वो ऐसे ही उसके गालो को चूम लिया करती थी. लेकिन सिर्फ़ गालो पर होंठो पर नही.

निक्की ने अपनी बाहों का घेरा हटाया फिर कंचन का चेहरा अपनी ओर करके बोली - "कंचन, क्या तुम्हे पता है...प्यार क्या होता है?"

कंचन उसकी बात पर शर्मा गयी. उसके मानस पटल पर बड़ी तेज़ी से रवि का चेहरा घूम गया. फिर निक्की को देखती हुई बोली - "मैं ज़्यादा नही जानती, बस इतना जानती हूँ कि जब किसी से प्यार हो जाता है तो बड़ी बुरी हालत हो जाती है, कभी तो सब चीज़ें अच्छी और नही लगने लगती है तो कभी कुच्छ भी अच्छा नही लगता. दिन और रात एक समान हो जाती है, ना रात को नींद आती है और ना दिन को चैन मिलता है. ना खाने पीने की सुध रहती है, ना पढ़ाई लिखाई में मॅन लगता है. हर घड़ी प्रेमी का चेहरा आँखों में घूमता रहता है. और मॅन हर समय उसी के ख्यालो में डूबा रहता है. और भी बहुत कुच्छ होता है. जो मैं नही जानती कि क्या होता है."

निक्की मुस्कुराते हुए कंचन की बातें सुन रही थी. जब कंचन रुकी तो उसने झट से उसके गालो को फिर से चूम लिया. फिर बोली - "तुम तो कह रही थी प्यार के बारे में थोड़ा जानती हूँ. क्या ये थोड़ा है?. अब और जानने को क्या रह गया है? इतना ग्यान तुम्हे कहाँ से मिला?" निक्की उसकी आँखों में झाँकते हुए बोली - "कहीं तुम्हे भी किसी से प्यार तो नही हो गया? देख...मैं तो प्यार के बारे में एक ही सच जानती हूँ....ये प्यार दर्द और दुख के सिवा आज तक किसी को कुच्छ नही दिया. और मैं अपनी प्यारी सखी को दुखी नही देखना चाहती. इसलिए मैं तो यही कहूँगी की इस प्यार-व्यार के चक्कर में मत पड़ना."

निक्की की बात से कंचन ने एक लंबी आह भरी फिर मॅन में बोली - "अब तो देर हो चुकी है निक्की, तूने बताने में बहुत देर कर दी. अब तो तेरी ये सखी प्यार में पड़ चुकी है, और दुखी भी है. पर ये दुख बड़ा मीठा है, तेरी इस सखी को तो इस दुख से भी प्यार हो गया है." कंचन के होठ मुस्कुरा उठे.

"अरे क्यूँ मुस्कुरा रही है? हुआ क्या है तुझे?" निक्की उसको मॅन ही मॅन मुस्कुराते देख बोली - "सच बता नही तो मारूँगी."

"मुझे कुच्छ नही हुआ है निक्की." कंचन असली बात छुपा गयी, वो अभी अपने दिल का हाल निक्की को नही बताना चाहती थी. उसे तो अभी ये भी नही मालूम था कि रवि के मन में क्या है, क्या पता वो उसे स्वीकार ही ना करें, ऐसी दशा में उसकी जगह हसी भी हो सकती थी. वो नही चाहती थी कि उसके साथ निक्की भी दुखी हो. वह आगे बोली - "मैं तो यूँही तेरी बात सुनकर मुस्कुरा उठी थी.

"चल अब खड़ी हो जा" निक्की, कंचन को शरारत से देखती हुई बोली - "और अपने कपड़े उतार."

"क्यों...?" कंचन कांपति आवाज़ में बोली.

निक्की मुस्कुराइ. उसे कंचन की इस हालत पर बहुत तेज़ हसी आ रही थी, पर खुद को रोके रखी, फिर बोली - "मेरी जान, ये कपड़े नही उतारेगी तो मेरे लाए कपड़े कैसे पहनेगी?"

"ना...! मैं वो कपड़े ना पहनुँगी." कंचन तपाक से बोली और बिस्तर से उठ खड़ी हुई. वह सोच रखी थी कि निक्की ज़िद करेगी तो वो तुरंत दरवाज़े से भाग जाएगी.

पर निक्की ने तो आज उसे अपने लाए कपड़े पहनाने का पूरा मॅन बना लिया था. वो पलक झपकते ही कंचन तक पहुँची और उसके कपड़े उतारने लगी.

कंचन उससे छूटने का प्रयास करती रही. लेकिन निक्की नही मानी और पहले उसने उसकी पाजामी का नाडा. खींच दिया, कंचन का हाथ अपनी पाजामी की ओर गया तो निक्की ने उसकी कुरती को उपर करती चली गयी. कंचन ने लाख कोशिशे की पर निक्की के आगे टिक ना सकी. कुच्छ ही देर में वो सिर्फ़ ब्रा और पैंटी पहने खड़ी थी. कंचन का बुरा हाल था, जीवन में पहली बार वो किसी के सामने इतनी नंगी हुई थी. निक्की लड़की ही सही पर फिर भी उसके सामने ऐसी हालत में होने से शर्म से गाड़ी जा रही थी. वो एक हाथ से अपनी छातियाँ और दूसरे हाथ से अपनी पैंटी को ढकने का असफल प्रयास कर रही थी.

निक्की ने चमकती आँखों से उसके मांसल और गदराए शरीर को उपर से नीचे तक देखा फिर अपने होठों को गोल करके एक खास अंदाज़ में सीटी बजाई. उसका अंदाज़ ठीक वैसा ही था जैसे राह चलती लड़कियों को देखकर आवारा किस्म के लोग सीटी बजाते हैं.

कंचन ने उसकी सीटी की आवाज़ से बड़ी मुश्किल से गर्दन उठाकर उसपर नज़र डाली. उसी क्षण निक्की ने अपनी एक आँख दबा दी. फिर कामुक आवाज़ में बोली - "हाई मेरी जान, क्या कातिल जवानी है तेरी, तेरे इस रूप को कोई मर्द देख ले तो खड़े खड़े ही उसकी....!" उसने आगे की बात अधूरी छोड़ दी. फिर बोली - "चल अपनी चूचियों से अपने हाथ हटा और अपने बूब्स दिखा."

"छ्ची....!" कंचन हल्के गुस्से में बोली - "तू बहुत बिगड़ गयी है निक्की, कितनी गंदी बाते करने लगी है. अगर तू ऐसी ही बाते करेगी तो मैं कसम से फिर हवेली नही आउन्गि."

निक्की इस बार गंभीर हुई. - "सॉरी कंचन, अब से नही करूँगी. पर अब मेरे लाए कपड़े पहन ले. और खबरदार जो फिर कभी हवेली ना आने की बात की तो......मारूँगी तुझे."

निक्की की बात से कंचन का गुस्सा भी गायब हो गया. और वो बारी बारी से उसके लाए कपड़े पहनती रही, कपड़े इतने फॅशनबल थे कि कंचन को बंद कमरे में भी पहनकर शर्म महसूस हो रही थी. पर निक्की प्यार से उसके लिए लाई थी इसलिए वो इनकार भी ना कर सकी.कंचन जो भी ड्रेस पहनती....पहनने के बाद उसे रवि का ख्याल आ जाता, और वो सोचती - अगर रवि उसे इन कपड़ों में देखेगा तो सच में उसपर लट्टु हो जाएगा.

कुच्छ देर यूँही कपड़े पहनने और पहनने का सिलसिला चलता रहा. निक्की, कंचन को इन कपड़ों में देखकर फूले नही समा रही थी, पर कंचन का ध्यान उसकी खुशी में कहाँ था? वो तो रवि के ख्यालो में थी, वो बार बार किसी ना किसी बहाने से रूम से बाहर आती और बिना कारण ही नौकरों को उँची आवाज़ में कुच्छ ना कुच्छ लाने को कहती....! उसे ना तो भूख थी और ना ही प्यास...पर फिर भी नौकरों से कभी पानी मांगती तो कभी चाय तो कभी कुच्छ खाने की चीज़ें. उसके ऐसा करने का मक़सद रवि के कानो तक अपनी आवाज़ पहुँचानी थी. एक घंटे में वो काई बार अंदर बाहर हो चुकी थी. पर रवि के कानो तक उसकी आवाज़ नही पहुँची और ना वो बाहर आया. अब कंचन के अंदर निराशा ने डेरा ज़माना शुरू कर दिया था. वो उदास होती चली गयी. वो यहाँ किस काम से आई थी और क्या करने लग गयी. उसे रवि से ऐसी बेरूख़ी की उम्मीद नही थी. बस एक झलक देखने के लिए उसकी नज़रें उसके दरवाज़े की ओर बार बार जा रही थी. पर उसे निराशा के सिवा कुच्छ भी नही मिल रहा था. उसका दिल भारी हो गया. आँख से आँसू छलकने को आए पर निक्की का ध्यान करके रोके रखी.

अचानक ही उसके दिल ने कहा - हो सकता है साहेब हवेली लौटे ही ना हो, हो सकता है साहेब अभी भी उधर ही घूम रहे हो....और ये भी हो सकता है कि शायद वो मेरी राह देख रहे हों. "आहह" शायद ऐसा ही हुआ होगा. मुझे यहाँ आना ही नही चाहिए था. तो फिर मैं निक्की को बोलकर वापस जाती हूँ. शायद साहेब मुझे मिल जाए.

'डूबते को तिनके का सहारा' यहाँ ये कहावत कंचन पर लागू होती है. उसका मॅन हर तरफ से टूट चुका था पर फिर भी हारा नही था, उसे अब भी ये बिस्वास था कि वो रवि से ज़रूर मिल सकेगी. और उसे अपने दिल का हाल बताएगी. यही सोचते हुए वो वापस निक्की के कमरे में लौटी और उससे घर जाने की बात कह कर हवेली से बाहर निकल आई. और दिल में अपने साहेब से मिलन की आस लिए उबड़ खाबड़ पथरीले रास्तों को छलांगती तेज़ी से घाटियों की ओर भागती चली गयी.
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05-02-2020, 01:05 PM,
#23
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
बिरजू ने जैसे ही मुखिया के घर के दरवाज़े के बाहर कदम रखा....उसे मुखिया धनपत राई आते दिखाई दिए. उनके साथ उनकी बेटी अनिता थी.

अनिता इसी साल 20 की हुई थी. तीखे नयन नक्श थे. लंबा कद और गठिला गोरा बदन था उसका. बाल काले और कमर तक झूलते हुए थे. वह अपने बालो में जुड़ा करने की आदि नही थी. हमेशा खुले रखती थी. उसके बूब्स पूरे उभार लिए हुए और ठोस थे. उन्हे देखकर कोई भी इंसान आहें भर सकता था. पेट समतल और कमर पतली थी. लेकिन उसके नितंब बेहद आकर्षक और उभरे हुए थे. वो हमेशा कुर्ता पाजामा ही पहनती थी. नितंबो के बीच की दरार इतनी गहरी थी कि अक्सर उसकी कुरती उन्ही दरारों में फसि रहती थी. कमर ऐसे बलखाती थी कि देखने वालों के मूह से अनायास ही गर्म आहें फुट पड़ती थी. कुल मिलकर ये कहा जाए कि उसमे जवानी छन्कर आई थी. बिरजू की भूखी निगाहें अक्सर उसकी जवानी को छुप छुप कर पिया करती थी. पर बिरजू के लिए अनिता वैसी ही थी जैसे अंडे देने वाली मुर्गी. वो जानता था कि अगर उसने इस मुर्गी को खाया तो आगे से उसे अंडे खाने के लाले पड़ जाएँगे. उसने ढेर सारे अंडे खाने के ग़र्ज़ से इस मुर्गी को बख़्श रखा था.

बिरजू पर नज़र पड़ते ही मुखियाँ के माथे पर बल पड़ गये. कुच्छ देर पहले बेटी के साथ होने से जो खुशी उनके चेहरे पर फैली हुई थी वो क्षण भर में गायब हो गयी. उन्होने घृणा से अपना मूह फेर लिया. पर बिरजू के लिए तो मुखिया का घृणा भी आशीर्वाद ही था. जैसे ही मुखिया जी पास आए उसने नमस्ते कहने के लिए हाथ जोड़ दिए. - "नमस्ते मुखिया जी." वो मक्कारी हँसी हंसा.

"तू....इधर क्या करने आया है?" मुखिया जी सब जानते हुए भी कि बिरजू क्यों आया है, अपनी बेटी की उपस्थिति का ध्यान कर गुस्से में भड़के.

उनका भड़कना दिखावा था. लेकिन उनका गुस्सा सच था. वो सच में बिरजू के साए से भी नफ़रत करते थे.

"सब कुच्छ जानते ही हैं मुखिया जी फिर भी पुच्छ रहे हैं." बिरजू ने अपने दाँत दिखाए - "बरसो से एक ही काम करने आता हूँ, और किस लिए आउन्गा." उसने अपनी बात पूरी करते हुए अनिता को उपर से नीचे तक घूरा.

अनिता ने बिरजू के इस तरह देखने पर ध्यान नही दिया. पर मुखिया जी से उसकी गंदी निगाहें छुपि ना रह सकी. अपने सामने अपनी बेटी को घूरते पाकर मुखिया जी की आँखों में बिरजू के लिए खून उतर आया. मन में आया अभी इसी वक़्त वो बिरजी की आँखें निकाल ले. पर वो केवल सोच सकते थे और सोचकर ही रह गये.

बिरजू मुखिया जी के गुस्से का अनुमान लगाकर एक धूर्त मुस्कान छोड़ता वहाँ से निकल गया.

****

रवि इस वक़्त हवेली में अपने कमरे में बिस्तर पर पसरा हुआ था. उसके ज़हन में भोली कंचन का चेहरा घूम रहा था. आज घाटियों में कंचन से संयोगवश हुई मुलाक़ात....एक सुंदर हादसे में बदल चुकी थी. वो ना चाहते हुए भी कंचन के बारे में सोचता जा रहा था. लाख कोशिशों के बावज़ूद भी वो कंचन की भीगे आँखें और उतरा हुआ चेहरा नही भुला पा रहा था. वह सोच रहा था - क्यों ये लड़की आज उदास थी, और मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि उसके दुख का मैं ही ज़िम्मेदार हूँ, लेकिन मैने तो उसके साथ कुच्छ नही किया, क्या नदी वाली बात उसे इतनी बुरी लगी. अगर वो इतनी ही कोमल है तो मेरे कपड़े जलाए ही क्यों? पर ये भी तो हो सकता है कि उसने किसी के दबाव में आकर मेरे कपड़े जलाएँ हो. लेकिन किसके....?" उसके मंन ने सरगोशी की, तभी उसके ज़हन में एक और चेहरा उभरा - निक्की, शायद निक्की ने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया हो या फिर निक्की ने ही उसके कपड़े जलाए हों और कंचन के हाथो मुझ तक भिजवाई हो. निसंदेह ऐसा ही हुआ होगा. बेचारी कंचन.....शायद ये भी नही जानती होगी कि जो कपड़े वो मेरे पास लेकर आ रही है वो जले हुए हैं. मैं कितना बड़ा मूर्ख हूँ.....बिना सच जाने एक उस भोली कंचन का दिल दुखा दिया. शायद यही कारण है कि वो उदास थी. ऊफ्फ ये मैने क्या किया. मैने उसके बारे में कितना ग़लत सोचता था. और अब वो ना जाने मेरे बारे में क्या सोचती होगी. कितनी नफ़रत करती होगी मुझसे. लेकिन आज जब वो झरने के पास मिली तब तो उसकी आँखों में मेरे लिए नफ़रत नही थी, बल्कि उसकी आँखें एक उम्मीद एक आस लिए हुए थी....जैसे वो मुझसे कुच्छ चाहती हो. लेकिन क्या? वो मुझसे क्या चाहती है? कहीं ऐसा तो नही की वो मुझसे प्यार करने लगी है, लेकिन नही वो मुझसे प्यार करेगी? मैने उसका इतना अनादर किया उसे नदी में अपमान करना चाहा......ऐसे में तो वो मुझसे नफ़रत कर सकती है... प्यार नही. वो इतनी मूर्ख नही कि अपने दिल को दुखाने वाले से दिल लगाए.

रवि काफ़ी देर तक कंचन के बारे में सोचता रहा और फिर सोचते सोचते नींद की गहराइयों में खो गया. इस दरम्यान कंचन आई भी और चली भी गयी. लेकिन वो ना जान सका कि वो पगली उसके प्यार में भटकती उसे ढूँढती फिर रही है.
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05-02-2020, 01:06 PM,
#24
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
कंचन बेतहासा भागती हुई उसी झरने के निकट पहुँची. उसने अपनी प्यासी निगाहें चारो तफ़ दौड़ाई. पर रवि कहीं भी दिखाई नही दिया. एक बार उसका मन चाहा कि वो "साहेब" कहकर ज़ोर ज़ोर से पुकारे, अगर रवि यही कहीं होगा तो ज़रूर उसकी आवाज़ सुनकर बाहर निकल आएगा. लेकिन अगले ही पल इस विचार से कि किसी और ने उसे इस तरह पुकारते देखा तो उसकी बड़ी बदनामी होगी उसके होठ सील गये. वो अपने प्रीतम का नाम पुकार ना सकी. वो इधर उधर घूमती उसे ढूँढती रही. जहाँ कहीं भी उसके होने की संभावना होती वहाँ ढूँढने लगती. ज़रा सी भी कहीं किसी पत्ते की सरसराहट होती या छिप्कलियो के चलने से कोई आवाज़ आती वो ऐसे खुशी से पलट-ती जैसे उसके साहेब उसके पिछे खड़े उसे देख रहे हों. काफ़ी देर तक भटकने के बाद भी जब रवि ना मिला तो वो वहीं एक पत्थेर पर बैठ गयी. इस वक़्त उसका मन रोने को कर रहा था, दिल चाह रहा था कि वो फुट फुट कर रोए. कैसी बुरी हालत हो गयी थी उसकी, जो लड़की हमेशा हँसती मुस्कुराती रहती थी, आज उसके होंठो से वो मुस्कुराहट गायब हो चुकी थी. वो अपने आप को कोस रही थी कि क्यों उसने ऐसे इंसान से दिल्लगी की जिसे उसकी तनिक भी परवाह नही. वो मन में बोली - "तू मूर्ख है कंचन, जो तू उस निर्दयी का इंतेज़ार कर रही है. भूल जा उसे और जो तू उसे ना भूली तो फिर जीवन भर तू ऐसे ही तड़पति रहेगी, आख़िर तू एक साधारण सी गाओं की लड़की है और वो शहर का पढ़ा लिखा बहुत बड़ा डॉक्टर है. तेरे जैसी लड़की के लिए उसके दिल में कोई स्थान हो भी तो कैसे. उसके लिए एक से एक पढ़ी लिखी शहरी लड़की पड़ी होगी, फिर वो तुमसे क्योन्कर प्यार करेगा. तू उसके लायक नही है कंचन, तू उतना ही बड़ा ख्वाब देख जो तेरी औकात है. धरती और आकाश का मिलन ना कभी हुआ है और ना होगा. उससे दिल लगाके तुझे दुख के सिवा कुच्छ ना मिलेगा. अब भी वक़्त है लौट जा अपने रास्ते."

"तो क्या सच में मुझे साहेब कभी नही मिलेंगे, क्या सच में मेरे सचे प्रेम का कोई महत्‍व नही, क्या सच में साहेब मुझे अपनी पत्नी स्वीकार नही करेंगे. क्या वास्तव में दौलत ही सब कुच्छ है, मैं जो इतना टूटकर उन्हे चाहती हूँ इसका कोई मोल नही है."

कंचन ये सोचते हुए फफक कर रो पड़ी. वह अपने चेहरे को अपने हथेलियों में ढके हुए सिसक पड़ी. उसका दिल इस एहसास से दुखी हो उठा था कि वो ग़रीब है, और इसी ग़रीबी की वजह से रवि उसे नही अपनाएगा. वो मूह छिपाए रोती रही. कुच्छ देर बाद जब उसकी रुलाई रुकी तो वो अपने मन में बोली - "ठीक है साहेब, मैं जा रही हूँ, आज के बाद मैं कभी आपकी राह नही देखूँगी, मैं कभी आपके लिए अपना दिल नही जलाउन्गि. मेरी आँखें अब कभी आपकी याद से नम नही होंगी. मैं अब कभी आपसे प्यार नही करूँगी."

कंचन अपने आँसू पोछती हुई उठी और घर जाने के लिए पलटी. तभी वो ऐसे चौंकी जैसे उसने दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य देख लिया हो. उसकी आँखें हैरत से फैलती चली गयी. उसकी आँखें उसे जो कुच्छ दिखा रही थी उसपर उसे यकीन नही हो रहा था. उसके सामने रवि खड़ा था, और खड़े खड़े उसे एक टक्क देखे जा रहा था.
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05-02-2020, 01:06 PM,
#25
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
"आप...." कंचन के मूह से आश्चर्य और खुशी मिश्रित स्वर फूटे. रवि को अपने सामने पाकर उसे ऐसा लगा जैसे ईश्वर ने उसका रोना सुन लिया और उसके प्रेम देवता को उसके पास भेज दिया. उसकी आँखें जो कुच्छ देर पहले विरह से गीली हो गयी थी, अब खुशी से छलक पड़ी थी. उसके मोटी जैसे आँसू धूलक कर उसके गालो में फैल गयी थी. वो अपनी उन्ही गीली आँखों से रवि को देखती रही, जो मन कुच्छ देर पहले उससे दूर भागने की, उससे ना मिलने की, उससे कभी प्यार ना करने की बात कर रहा था अब उसकी और खिंचता जा रहा था. उसका दिल चाहा कि वो आगे बढ़े और रवि से लिपट जाए. पर वो ऐसा करने की साहस ना दिखा सकी. हां उसके चेहरे पर अब खुशी की जगह थोड़ी नाराज़गी उभर आई थी. वह अपनी गर्दन को झटकी और गुस्से से वहाँ से जाने लगी.

जैसे ही वो रवि के पास से होते हुए आगे बढ़ी रवि भी तेज़ी से पलटा. तभी रवि के पावं के नीचे पड़ा छोटा पत्थेर खिसक गया. पत्थेर खिसकते ही उसका पावं फिसला और वो लड़खड़ा कर गिरा. गिरते ही उसका शरीर तेज़ी से खाई की ओर फिसलता चला गया.

कंचन ने जैसे ही उसके गिरने की आवाज़ सुनी-तेज़ी से पलटी. रवि को खाई की ओर गिरते देख वो चीखी - "सा......साहेब."

रवि को बचाने के लिए वो खाई की और भागी, दूसरे ही पल वो खाई के किनारे खड़ी थी. उसने रवि पर नज़र डाली. रवि एक पत्थेर को थामे लटका हुआ था. उसका एक पावं किसी पत्थेर का सहारा लिए हुए था तो दूसरा पावं हवा में झूल रहा था. उसके ठीक नीचे गहरी खाई थी.

कंचन ने रवि को इस प्रकार मौत के झूले में झूलते देखी तो उसकी साँसे जहाँ की तहाँ अटक गयी. वो भय से थर थर काँप उठी. वह उसे बचाने के उपाय सोचने लगी. पहले तो उसने अपनी गर्दन उठाकर किसी आदमी की तलाश में चारो तरफ अपनी नज़रें दौड़ाई, लेकिन सांझ के वीराने में उसे कोई भी दूर तक दिखाई नही दिया. निराश होकर उसकी दृष्टि वापस रवि की तरफ घूमी. रवि अभी भी उठने का प्रयास कर रहा था.

अचानक ही कंचन को एक युक्ति सूझी, वो झट से अपने गले में लिपटे दुपट्टे को खींची और उसके आगे पिछे गाँठ बाँधकर रवि की ओर फेंक दी. -"इसे पाकड़ो साहेब."

"नही....!" रवि इनकार में गर्दन हिलाया. -"इस तरह तो तुम भी नीचे आ जाओगी."

"मुझपर भरोसा रखो साहेब, मैं आपको कुच्छ नही होने दूँगी." कंचन धृड़ता से बोली -"आप मेरे दुपट्टे को पकड़कर उपर उठने की कोशिश करो."

रवि ने वैसा ही किया एक हाथ से उसके दुपट्टे को थाम लिया और दूसरे हाथ से पत्थेर का सहारा लेते हुए धीरे धीरे उपर उठने लगा.

कंचन गाओं की मिट्टी खाकर पली थी. वो तनिक भी ना घबराई और अपनी पूरी शक्ति से रवि को उपर खींचती रही. कुच्छ ही देर में रवि उपर आ गया. वो हाफ्ता हुआ खड़ा हुआ. फिर उसने कंचन पर निगाह डाली. कंचन पसीने से लथपथ गुस्से से उसे घुरे जा रही थी. रवि कुच्छ कहने के लिए मूह खोला ही था कि कंचन गुस्से में बोली - "इतनी गहरी खाई के नज़दीक खड़े होने की क्या ज़रूरत थी? क्या सोचे थे आप कि ये खाई नही किसी खेत का मेड है......गिरे तो कुच्छ ना होगा. अगर आज मैं ना होती तो पता नही आपका क्या.....? दूसरों की ना सही कम से कम अपनी तो परवाह किया करो, अगर आपको कुच्छ हो जाता तो?"

रवि हक्का बक्का कंचन को देखता रहा, वो गुस्से से लाल पीली हो गयी थी. ऐसा लगता था जैसे अभी वो रवि की धुलाई कर देगी. वो उसे ऐसे डाँट पीला रही थी जैसे वो उसके घर का नौकर हो, और उसने कोई बहुत बड़ी नादानी कर दी हो. उसने कंचन का ऐसा रूप पहले कभी नही देखा था. हमेशा शांत और छुइ-मुई सी रहने वाली लड़की इस वक़्त शेरनी का रूप धारण कर चुकी थी. उसके मूह में जो भी आ रहा था रवि को सुनाती जा रही थी. गुस्से से उसका चेहरा लाल भभुका हो गया था, आँखें भट्टी की तरह सुलग उठी थी. साँसे इस क़दर तेज़ हो गयी थी जैसे वो मीलो पैदल चल आई हो. उसका सीना ज़ोर ज़ोर से उपर नीचे हो रहा था. रवि किसी अपराधी की तरह चुप चाप खड़ा उसकी झिड़की सुनता रहा.

कुच्छ देर बाद जब उसका गुस्सा शांत हुआ तो वह चुप हुई. रवि अभी भी हक्का बक्का उसे देखता जा रहा था. उसके हाथ में अभी भी कंचन का दुपट्टा था जिसे वो मसल्ते हुए अपनी घबराहट को दूर करने का प्रयास कर रहा था. कंचन की छातियाँ बिना दुपट्टे के उसके सामने तनी खड़ी थी. और गुस्से की अधिकता में उपर नीचे हो रही थी. रवि कुच्छ देर उसके पसीने से भीग चले चेहरे को देखता रहा फिर बोला - "तुम किस अधिकार से मुझे इस तरह डाँट रही हो? ये मेरी ज़िंदगी है....मैं चाहें जो करूँ......मेरी मर्ज़ी मैं चाहें कुएँ में कुदू या किसी पहाड़ की चोटी से छलाँग लगाऊ......तुम होती कौन हो मुझे नशिहत देने वाली?" रवि उसकी मनोदशा से परिचीत था. फिर भी उसका मन टटोलने के लिए झूठ मूठ का गुस्सा दिखाया.

कंचन के होंठ काँपे. वो कुच्छ बोलना चाही पर बोल ना सकी. उसने बोझील नज़रों से रवि को देखा. फिर अपनी नज़रें झुका ली.

"बोलो जवाब दो." रवि ने फिर से सवाल किया. - "तुम क्या समझकर मुझे इस तरह डाँट रही थी? मेरी इतनी फिक़र करने वाली तुम होती कौन हो?"

कंचन ने फिर से अपनी निगाहें उठाई और रवि के चेहरे पर डाली. उसके मन में आया कि कह दे कि वो उससे प्यार करती है, उसकी जीवन संगिनी बनना चाहती है, उसके बगैर वो जी नही सकेगी, उसे कुच्छ हुआ तो वो भी मर जाएगी. पर मन के अंदर उठती भावनाओ को वो बाहर ना ला सकी. चुप चाप अपनी गीली आँखों से रवि को देखती रही.

"क्या तुम मुझसे प्यार करती हो?" रवि उसकी खामोशी का अनुमान लगाकर बोला. -"क्या इसीलिए मेरी फिक़र करती हो कि मुझे कुच्छ हो गया तो तुम जी नही पाओगि? अगर ऐसा है तो मुझसे कहती क्यों नही कि तुम मुझसे प्यार करती हो."

"सा......साहेब....!" कंचन भर्राये गले से बस इतना ही बोल सकी और फफक कर रो पड़ी.

रवि ने अपने हाथ बढ़ाए और उसके चेहरे को दोनो हाथों से थाम लिया. फिर बोला - "क्यों छुप छुप कर रोती रहती हो? एक बार कहा क्यों नही कि तुम मुझसे प्यार करती हो?"

"साहेब......!" वो हिचकी लेकर बोली - "मा.....मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ साहेब. मैं आपके बगैर नही जी सकती साहेब. मुझे अपना लो साहेब, मैं आपकी हर बात मानूँगी साहेब, आप जो कहोगे मैं करूँगी. जैसे रखोगे रहूंगी. कम खाना खाउन्गि, घर के सारे काम करूँगी. मगर मुझे अपना लो साहेब." ये कहते हुए कंचन ने रवि के आगे अपने हाथ जोड़ दिए.

रवि ने उसके हाथों को पकड़कर चूम लिया. फिर बोला - "मुझे तुमने क्या पत्थेर का इंसान समझा है कंचन, क्या मेरे सीने में दिल नही है, जो तुम्हारे बेपनाह प्यार के बदले में तुमसे घर के काम करवाउँगा. तुम्हे कम खाना खिलाउँगा. नही कंचन.....मैं तो तुम्हे सदेव अपने दिल में बसाकर रखूँगा. सदेव अपने दिल में. क्योंकि मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ. दुनिया की कोई ताक़त तुम्हे मेरे दिल से नही निकाल सकती."

"साहेब...!" कंचन इस खुशी को संभाल ना सकी और बेसाखता उसकी छाती से लिपट गयी.

रवि भी कस्के उसे अपनी बाहों में जाकड़ लिया. दो दिल एक हो गये. कंचन को रवि की बाहों में सिमटकर यूँ महसूस हुआ जैसे उसे सारी दुनिया मिल गयी हो. वो अपनी बाहों का घेरा और मजबूत करती चली गयी. उसे इस वक़्त जो खुशी महसूस हो रही थी, वो मैं शब्दो में बयान नही कर सकता. वो उस पक्षी की तरह थी जो रेगिस्तान में पानी की एक बूँद के लिए भटकता फिरता है पर उसे पानी नही मिलता. और जब मिलता है तो उसके प्यासे मन को जो खुशी मिलती है वही खुशी इस वक़्त कंचन महसूस कर रही थी. आज उसके प्यासे मन को पानी की एक बूँद नही बल्कि पूरा सागर मिल गया था. वो उस सागर की गहराइयों में खो जाना चाहती थी और खो भी गयी थी.
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05-02-2020, 01:06 PM,
#26
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 19

काफ़ी देर तक दोनो लता बेल की तरह एक दूसरे से लिपटे एक दूसरे के दिल की धड़कनो को सुनते रहे. कंचन तो जैसे इस वक़्त सारे संसार को भुला बैठी थी. उसे इस वक़्त जो सुख रवि की बाहों में होने से मिल रहा त्ता, वो उसने इससे पहले कभी महसूस नही किया था.

कुच्छ देर यूँही लिपटे रहने के बाद रवि ने धीरे से उसे पुकारा - "कंचन."

रवि ने बड़े प्यार से उसे पुकारा था. उसकी आवाज़ जब कंचन के कानो से टकराई तो उसने अपनी बंद पलकें खोली और रवि के चेहरे पर अपनी दृष्टि जमा दी. - "बोलो साहेब."

रवि ने उसके चेहरे को दोनो हाथों में भर लिया और गौर से देखने लगा. कंचन के गालों में बहे आँसू के गीले निशान अब भी मौजूद थे. उसने एक हाथ से उसके गालो में बहे आँसुओ को पोछा. फिर कंचन से बोला - "मुझे माफ़ कर दो. मैने तुम्हे अंजाने में बहुत कष्ट दिया है ना. मैं यहाँ काफ़ी देर से तुम्हारे पिछे खड़ा तुम्हारी बड़बड़ाहट और तुम्हारा रोना सुन रहा था. मुझे नही पता था कि तुम मुझसे इतना प्यार करती हो"

"सीसी....क्या?" "कंचन चौक्ते हुए बोली - "आप मेरे पिछे मेरी बाते सुन रहे थे. जाइए मैं आपसे बात नही करती." कंचन ने अपने मूह फूला लिया.

"ग़लती हो गयी, अब मुस्कुरा दो." रवि उसका चेरा अपनी ओर करके बोला.

कंचन उसकी बात पर धीरे से मुस्कुराइ.

"अब सदा ऐसे ही मुस्कुराती रहना. मैं अब इन आँखों में फिर से आँसू नही देखना चाहता." रवि मुस्कुराकर उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला.

"साहेब मुझे कभी छोड़ के तो नही जाओगे ना." कंचन गंभीर होकर बोली - "आप नही जानते साहेब, मैं आपके लिए कितना तदपि हूँ. रात-रात भर जागी हूँ, आठो पहर रोती रही हूँ."

"आहह.....ये तुमने क्या कह दिया कंचन." रवि तड़प कर बोला - "मैं संगदिल नही हूँ कंचन. मैं तुम्हे छोड़ कर कहीं नही जाउन्गा. मुझे तुम्हारी ज़रूरत है. बरसो से मैं भी इस सच्चे प्यार की तलाश में भटक रहा था. आज तुम्हारे रूप में मिला है तो भला कैसे छोड़ सकता हूँ. तुमसे ज़्यादा प्यार करने वाली तुमसे अधिक सुंदर मुझे और कहाँ मिलेगी. मैं आज ही मा को ये खबर दे देता हूँ की मैने उनके लिए बहू पसंद कर लिया है. वो जल्दी से आकर अपनी बहू को देख ले. आपकी बहू दुल्हन बनने के लिए बहुत उतावली हो रही"

रवि की बातों में अचानक आई शरारत से कंचन शरमा गयी. वो शरमाते हुए अपना मूह घुमा कर बोली - "धत्त...! मैं क्यों उतावली होंगी. मैं तो जन्म-जन्मान्तर तक अपने साहेब का इंतेज़ार कर सकती हूँ."

"ये तुम मुझे साहेब कहकर क्यों बुलाती हो." रवि ने आश्चर्य से पुछा. - "तुम्हारे मूह से साहेब सुनकर ऐसा लगता है जैसे मैं कोई मोटा ख़ूसट बुढ्ढा धनवान हूँ और तुम मेरी दासी."

"दासी ही तो हूँ." कंचन मुस्कुराइ - "सदा आपके चर्नो में रहने वाली दासी."

"खबरदार....!" रवि गरजा. -"जो फिर कभी तुमने अपने आपको मेरा दासी कहा. तुम मेरी होने वाली बीवी हो, तुम्हारा स्थान मेरे चर्नो में नही मेरे दिल में है. समझी." रवि कंचन को अपनी छाती से लगाते हुए बोला.

कंचन भावुकता में उसकी छाती में सिमट सी गयी. फिर उसकी छाती से लगी हुई बोली - "मा जी मुझे स्वीकार करेगी ना. कहीं ऐसा तो नही कि वो मुझे ग़रीब जानकार हमारे रिश्ते को इनकार कर दें."

"हरगिज़ नही." रवि उसके कपोल चूमते हुए बोला - "मेरी मा मेरी सबसे अच्छी दोस्त हैं, मेरी पसंद ही उनकी पसंद होगी."

कुच्छ देर यूँही एक दूसरे से लिपटे दोनो बाते और वादे करते रहे. फिर कुच्छ देर बाद कंचन बोली -"अच्छा साहेब अब मुझे इज़ाज़त दो, घर में बुआ और बाबा मेरी राह देख रहे होंगे." कंचन गहराते अंधेरे को देखकर चिन्तीत होकर बोली.

वो आज सुबह से ही इधर उधर भागती रही थी. तब उसके मन में रवि बसा था. परंतु अब जबकि रवि ने उसे अपना लिया था. तो उसका ध्यान अपने घर वालों की ओर गया.

"ठीक है." रवि उसे अपने से अलग करते हुए बोला - "फिर कब मिलोगि."

"कल शाम को यहीं इसी जगह 5 बजे." कंचन मुस्कुरकर बोली और रवि से दुपट्टा लेकर अपने गले में डाल ली.

"अरे....मेरा दूसरा जूता कहाँ गया." रवि चौंकते हुए बोला. वो जब फिसला था तब उसके पावं से एक जूता निकल गया था. किंतु खाई से उठने के बाद दोनो एक दूसरे में ऐसे खो गये थे कि ना तो रवि को अपने जूते का ध्यान रहा और ना ही कंचन को सांझ ढलने का.

"यहीं कहीं होनी चाहिए." कंचन बोली और जूते की तलाश में इधर उधर नज़रें दौड़ने लगी.

सूर्यास्त हो चुका था पर अंधेरा इतना भी गहरा नही था की ज़मीन पर पड़ी कोई वस्तु दिखाई ना दे.

कंचन जूते को ढूँढती हुई खाई के करीब पहुँची. उसे रवि का जूता एक पत्थेर की औट में दिखाई दे गया. उसने रवि से नज़रें बचाकर फुर्ती से उस जूते को उठाकर अपने दुपट्टे में छुपा लिया. -"साहेब, अब आपका जूता नही मिलेगा. अब रहने दो ज़्यादा मत ढुंढ़ो. दूसरे जूते खरीद लेना. मैं घर जा रही हूँ मुझे देरी हो रही है."

"अरे....रूको, कुच्छ देर देख लेते हैं. शायद मिल जाए." रवि कंचन की ओर पलटकर बोला. सहसा वह चौंका उसे ऐसा लगा जैसे कंचन कुच्छ छुपाने की कोशिश कर रही है. - "तुम्हारे हाथों में क्या है? तुम क्या छूपा रही हो?"

रवि को अपनी ओर बढ़ते देख कंचन तेज़ी से उपर भागी. कुच्छ दूर जाकर रुकी फिर रवि को उसका जूता दिखाती हुई बोली - "साहेब, आपका जूता मेरे पास है. पर मैं नही दूँगी. अपने लिए दूसरे जूते खरीद लेना." ये कहकर कंचन हंसते हुए अपने घर के रास्ते भागती चली गयी.

"अरे.....रूको तो, मेरा जूता देती जाओ." रवि ने पिछे से आवाज़ दिया. पर कंचन नही रुकी. भागती हुई उसकी नज़रों से ओझल हो गयी.

"अज़ीब लड़की है." रवि बड़बड़ाया. -"उस दिन मेरे कपड़े जला दिए और आज मेरा जूता ले भागी. भला इसे मेरे कपड़ों और जूतों से क्या दुश्मनी हो सकती है." रवि अपना सर खुजाते हुए सोचा. पर जवाब में ढाक के तीन पात.

वो एक पावं से चलता हुआ किसी तरह अपनी बाइक तक पहुँचा और फिर बाइक स्टार्ट कर हवेली की तरफ बढ़ गया.

*****

रात के 8 बजे हैं, निक्की इस वक़्त अपने रूम में सोफे पर पसरी हुई है. मन बिल्कुल अशांत है. जब से वो शहर में रहने लगी थी तब से वो हमेशा दोस्तों के बीच रहने की आदि हो गयी थी. शोर शराबा हल्ला गुल्ला, पार्टी, म्यूज़िक, डॅन्स फिर दोस्तों के साथ रात भर मज़े चाहें वो लड़का हो या लड़की, उसे कोई फ़र्क नही पड़ता था कि उसके कपड़े उतारने वाली लड़की है या लड़का, या वो जिसके कपड़े उतार रही है, वो लड़का है या लड़की. वो बस मज़ा चाहती थी, उसके लिए वो कोई भी कीमत चुका सकती थी.

लेकिन आज वो अकेली बिल्कुल अकेली हो गयी है, ना वो लोग हैं ना वो हुल्लड़ ना वो पार्टियाँ ना रात भर के मज़े. वो उस परीन्दे की तरह हो गयी थी जो हमेशा आकाश में अपनी रफ़्तार से उड़ता रहता है, अपनी मर्ज़ी से मंजिले तय करता रहता है. लेकिन जब वो पिंजरे में क़ैद हो जाता है तो सिर्फ़ फड़फड़ाकर रह जाता है. निक्की क़ैदी तो नही थी पर उसकी फड़फड़ाहट पिंजरे में बंद पक्षी की तरह ही थी.जब तक कंचन उसके साथ होती वो सब कुच्छ भूल जाती, लेकिन उसके जाते ही वो फिर से अकेली हो जाती. ठाकुर साहब भी उसके साथ सिर्फ़ खाने में ही मिलते थे या फिर दिन के वक़्त हॉल में कुच्छ देर साथ बैठ लिए, कुच्छ बाते कर लिए फिर अपने कमरे में बंद हो जाते.

निक्की का इस माहौल में दम घुटनो लगा था. उसने रवि से इसीलिए नज़दीकियाँ बढ़ानी चाही थी, पर उसने उसका निरादर करके उसे और भी बुरी तरह से तोड़ दिया था. वो अपने उस अपमान का बदला लेना चाहती थी. और हमेशा इसी प्रयास में रहती थी कि कब रवि की कोई कमज़ोरी उसके हाथ लगे और वो अपना शिकंजा उसपर कसे, फिर अपनी मर्ज़ी से उसे नचाए. पर अभी तक उसे निराशा ही हाथ लगी थी.

अचानक वो उठी और कपड़े चेंज करने लगी, शरीर पर मौजूद कपड़े को तन से अलग कर उसकी जगह सलवार कुर्ता पहन कर वो हॉल में आई. उसने सरजू से ये कहकर कि वो बस्ती जा रही है, कुच्छ देर में लौटेगी. फिर बाहर निकल गयी.

बाहर निकल कर अपनी जीप में बैठी और जीप को बस्ती की ओर भगाती चली गयी. जीप की रोशनी से अंधेरे को चीरती हुई वो कुच्छ ही देर में बस्ती के आरंभ के छोर तक पहुँच गयी. अभी वो लेफ्ट टर्न लेकर गोलाई घूम ही रही थी कि उसे अपनी दाईं और एक साया दिखाई दिया. उसने तेज़ी से ब्रेक मारा.

"छर्र्ररर...." की आवाज़ के साथ जीप एक झटके में रुकी.

जीप को रुकते देख साया भी अपने स्थान पर खड़ा हो गया. निक्की उस साए को ध्यान से देखने लगी. अंधेरे में उस काले साए को वो पहचान तो नही पाई पर उसके कद काठी का वो अनुमान लगा चुकी थी.
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05-02-2020, 01:06 PM,
#27
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 20

जीप को रुकते देख साया भी अपने स्थान पर खड़ा हो गया. निक्की उस साए को ध्यान से देखने लगी. अंधेरे में उस काले साए को वो पहचान तो नही पाई पर उसके कद काठी का वो अनुमान लगा चुकी थी.

उसकी हाइट 6 फीट के आस-पास थी. निक्की उसे ध्यान से देखती हुई बोली - "कौन हो तुम? सामने आओ"

साया आगे बढ़ा. और जीप के करीब पहुँचा. निक्की ने उसे ध्यान से देखा तो उसकी सूरत कुच्छ जानी पहचानी सी लगी. - "तुम कल्लू हो ना?"

"जी हां निकिता जी, मैं कल्लू ही हूँ." वो सर झुकाकर उदास स्वर में बोला.

कल्लू, गाओं का सबसे काला कलूटा बदसूरत हबशी जैसा दिखने वाला युवक था. वो दिखने में जितना बदसूरत था, अंदर से उतना ही खूबसूरत था. वो मुखिया के खेतों में काम कर अपना और अपनी बूढ़ी मा का पेट भरता था.
वो जब 6 साल का था तभी उसके पिता का देहांत हो गया था. उसके पिता खेती के नाम पर थोड़ी सी ज़मीन छोड़ गये थे. जिसे बाद में उसकी मा ने खुद को और कल्लू को ज़िंदा रखने के लिए कब का बेच चुकी थी. अब उसके पास एक छोटा सा मिट्टी का झोपड़ा के अतिरिक्त कुच्छ भी ना था.
बचपन से लेकर जवानी तक कल्लू ने सिर्फ़ दुख ही देखे थे. अपनी बदसूरत चेहरे की वजह से वो बालपन से ही गाओं के दूसरों बचों से अपमानित होता आया था. बचपन में वो जिसकी तरफ भी दोस्ती के लिए हाथ बढ़ता वो घृणा से अपना हाथ पीछे खींच लेता. वो एक ऐसा अकेला पक्षी था कि जिस डाल पर बैठता सभी उसे तन्हा छ्चोड़कर उड़ जाते.
किशोर अवश्था में पहुँचने के बाद उसके दुख और बढ़ गये. गाओं में किसी भी लड़के को हंस के किसी लड़की के साथ बात करते देखता या किसी को किसी लड़की के साथ अकेले घूमते देखता तो उसकी आत्मा सिसका उठती. हर लड़के की तरह उसका भी मन करता कि कोई उसे भी प्यार करे, कहीं दूर खेत खलिहानो में कोई उसका भी इंतेज़ार करे. कभी वो भी किसी लड़की के साथ किसी झरने के निकट बैठकर उसके ज़ुल्फो से खेले. कोई उसके लिए भी रूठे और वो मनाए. पर उसके तक़दीर में ये सब नही था.
गाओं की सभी लड़कियाँ उससे दूर भागती थी. कोई भी लड़की उससे प्रेम करना तो दूर सीधे मूह उससे बात तक नही करती थी. भला कौन लड़की उस बदसूरत से दिल लगाती, हर लड़की की चाह होती है कि उसका होने वाला पति खूबसूरत हो, पढ़ा लिखा हो, उँचे कुल का और धनवान हो.
लेकिन उसके पास इनमें से कुच्छ भी नही था. ना तो उसके पास वो रूप जिसपे कोई कुँवारी मरती, और ना ही वो पढ़ा लिखा और धनवान था.
लेकिन गाओं की उन लड़कियों के बीच एक ऐसी भी लड़की थी, जिसे कल्लू बहुत पसंद करता था. वो थी कंचन.
पूरे गाओं में वही एक ऐसी लड़की थी जो कल्लू से हंस के बात करती थी, कभी उससे मूह नही चुराती थी. जब कभी वो मिल जाता तो उससे प्यार से हाल-चाल पुछ लेती थी.
कंचन की यही अच्छाई कल्लू को भा गयी थी और वो मन ही मन कंचन से प्यार करने लगा था. लेकिन वो अपने दिल की बात कभी कंचन से कह नही पाया. बस दूर से देखकर अपने दिल की प्यास बुझा लेता.
वो ये अच्छी तरह से जानता था, कि चाँद और चकोर का मिलन ना कभी हुआ है ना कभी होगा.
कंचन ग़रीब ही सही पर उससे लाख गुना अच्छी थी, वो सुंदर थी, पढ़ी लिखी थी. उसका और कंचन का कोई मेल नही था. उसे डर था की अगर उसने कंचन से अपने दिल की बात कही तो कहीं ऐसा ना हो कि वो बुरा मान जाए. और जो वो बुरा मान गयी तो फिर कभी उससे बात नही करेगी. जो अभी थोड़ी बहुत उससे बात चीत होती है कहीं वो भी ना बंद हो जाए...
वो कंचन को पाने से कहीं ज़्यादा खोने से डरता था. उसकी एक ग़लती उसे कंचन से सदा सदा के लिए दूर ना कर दे, यही सोचकर उसने अपने दिल में मचलती भावनाओ को कभी अपने होंठो तक आने नही दिया था.
वो दिन भर जानवरों की तरह खेतों में मेहनत करता और रात में कंचन को अपने ख्यालो में बसाकर अपने प्यासे मन को तृप्त करने का प्रयास करता. पर तन्हाई में कंचन की याद उसके प्यासे मन की प्यास को और बढ़ा देती. दर्द जब हद से बढ़ जाता तो बच्चो की तरह फुट फुट कर रो पड़ता. पर अपने दिल का दर्द किसी को नही बताता.
उसके इस दर्द को उसके सिवा कोई नही जानता था. किसी को उस अभागे इंसान से सरोकार हो भी कैसे सकता था.
उसके अकेलेपन के दर्द से अगर कोई परिचीत था तो सिर्फ़ उसकी मा थी. वो जब कभी कल्लू को उदास देखती तो उसे अपनी ममता के आँचल में लेकर उसे बहलाती. वो बदसूरत ही सही पर उस मा के दिल का टुकड़ा था. उसका सहारा था. लेकिन उसकी मा को भी इस बात की हरदम चिंता रहती थी कि उसके ग़रीब बदसूरत बेटे को कौन अपनी बेटी देगा? क्या उसका बेटा हमेशा अकेला ही रहेगा?
लेकिन वो अपनी चिंता कल्लू पर प्रकट नही करती.
दोनो मा बेटे जब भी एक दूसरे के सामने होते एक दूसरे से अपने अपने दुख छुपाकर एक दूसरे पर अपना प्यार लुटाते.

इस वक़्त वो सुगना के घर जा रहा था, बुखार से उसका बदन तप रहा था, और सर्दी से बदन थर-थर काँप रहा था. सर्दी से बचने के लिए उसने अपने बदन पर एक फटा पुराना शॉल ओढ़ रखा था. बुखार इतना तेज़ था कि उससे चला भी नही जा रहा था, पर सुगना के बुलावे पे वो इस हालत में भी मिलने जा रहा था.
बस्ती में दो लोग ऐसे थे जिनका कहा कल्लू कभी नही ठुकराता था. एक तो मुखिया धनपत राई, जो उसे मज़दूरी देता था. तो दूसरा सुगना, सुगना की बात वो इसलिए नही टालता था क्योंकि वो कंचन का पिता था.
आज जब सुगना ने उसे बुलाया तो ऐसी दशा में भी उसके घर जाने के लिए निकल पड़ा था.
उसका घर बस्ती के आखरी छ्होर पर था., अभी वो अपने घर से निकल कर सड़क तक पहुँचा भी नही था कि जीप के रुकने की आवाज़ से उसके बढ़ते कदम रुक गये थे. फिर निक्की के आवाज़ देने पर उसकी जीप के निकट जाकर खड़ा हो गया था.

"उफ्फ....तुमने तो मुझे डरा ही दिया था." निक्की लंबी साँस छोड़कर बोली - "ऐसा रूप धारकर कहाँ जा रहे हो?"

"जी....सुगना काका के घर जा रहा हूँ. उन्होने किसी काम से बुलाया है."

"ओह्ह्ह.....इस तरह शॉल ओढकर क्यों जा रहे हो?"
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05-02-2020, 01:07 PM,
#28
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
"मुझे थोड़ा बुखार है जी." कल्लू शॉल को संभालते हुए बोला - "ईसलिए शॉल ओढ़े रखा हूँ."

"तो आओ मेरी जीप में बैठ जाओ, मैं भी कंचन के घर ही जा रही हूँ." निक्की बोली और उसे सीट पर बैठने का इशारा किया.

"मैं ऐसे ही चला जाउन्गा निक्की जी. आप कष्ट ना करो"

"अरे...जब मैं उधर ही जा रही हूँ तो मेरे साथ चलने में क्या परेशानी है." निक्की भड़की. उसे कोई इनकार करे तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच जाता था. वो आगे बोली - "चुपचाप मेरे साथ गाड़ी में बैठो."

कल्लू इस बार इंकार नही कर सका. आगे बढ़कर जीप में उसके बराबर बैठ गया. आज उसने जीवन में पहली बार किसी चार पहिए वाली गाड़ी पर बैठा था.
निक्की ने उसके जीप में बैठते ही जीप को आगे बढ़ा दी.
कुच्छ ही देर बाद जीप कंचन के घर के सामने जाकर रुकी. पहले निक्की उतरी और आँगन के दरवाज़े को धकेल कर अंदर दाखिल हो गयी. कल्लू भी उसके पिछे पिछे आँगन में आया.
आँगन में शांता बुआ रोटी पका रही थी. पास की चारपाई पर सुगना बैठा हुक्का पी रहा था.
निक्की को देखते ही बुआ हैरत से भरकर सुगना से बोली - "भैया देखो तो सही कोई लड़की आई है."

शांता की बात सुनते ही सुगना ने दरवाज़े की तरफ गर्दन घुमाया. निक्की मुस्कुराती हुई उसकी ओर चली आ रही थी. उसपर नज़र पड़ते ही सुगना बोला - "अरे शांता ये तो निक्की है, क्या तुम इसे नही पहचान पाई?"

शांता ने आश्चर्य से सुगना को देखा. फिर अपनी निगाहें निक्की पर जमा दी. वो कुच्छ बोलती उससे पहले निक्की उनके करीब आकर बोली - "नमस्ते काका. नमस्ते बुआ." उसने हाथ जोड़कर दोनो को बारी बारी से नमस्ते किया. फिर झुक कर सुगना के पावं च्छू लिए.

"कितनी बड़ी हो गयी है तू निक्की." बुआ आश्चर्य से बोली - "कितनी छोटी थी जब तू यहाँ आई थी."

निक्की बुआ की बातों से मुस्कुरा उठी. - "कंचन कहाँ है बुआ?"

"दीदी यहाँ है." चिंटू की आवाज़ से निक्की की गर्दन घूमी, बरामदे में उसे चिंटू और कंचन खड़े दिखाई दिए. वे दोनो निक्की की आवाज़ सुनकर बाहर निकले थे.
निक्की को देखते ही कंचन उसकी ओर लपकी. फिर उसका हाथ पकड़कर बोली - "आज मेरे घर का रास्ता कैसे भूल गयी?"

"आ गयी, अकेले मेरा जी नही लग रहा था. सोचा तुमसे मिल आऊ" निक्की ने उत्तर दिया.

"दीदी मेरे लिए क्या लाई हो शहर से?" चिंटू निक्की की कुरती खींचता हुआ बोला.

निक्की उसे बताने लगी. निक्की के आने से सब के सब उसी के संग रंग गये थे. पास ही थोड़ा हट के बुखार से थर थर कांपता कल्लू खड़ा था पर उसकी ओर किसी का ध्यान नही जा रहा था.
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05-02-2020, 01:07 PM,
#29
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 21



कुच्छ देर कल्लू खड़े खड़े उन्हे देखता रहा फिर सुगना के निकट गया, जो सभी के हँसी में शामिल हुआ ये भूल गया था कि उसने कल्लू को अपने घर बुलाया है और वो कब का आया हुआ है. - "काका...आपने मुझे बुलाया था?"

कल्लू की बात से सुगना के साथ साथ सभी का ध्यान उसकी ओर गया.

"अरे कल्लू तुम कब आए?" सुगना चौंकते हुए बोला.

"मैं निक्की जी के साथ साथ ही आया हूँ काका." कल्लू ने जवाब दिया.

"माफ़ करना कल्लू, मैं तुम्हे देख नही पाया था." सुगना झेन्प्ते हुए बोला - "पर तुम्हे हुआ क्या है? तुम शॉल ओढकर क्यों आए हो. तबीयत तो ठीक है तुम्हारी?"

सुगना की बात सुनकर चिंटू और शांता की हँसी छूट गयी. कंचन ने चिंटू को इस बात पर हल्की सी चपत लगाई और कल्लू को देखने लगी.

"थोड़ी सी बुखार है काका. सुबह तक उतर जाएगी." कल्लू ने बताया - "आप बताओ काका....मुझे क्यों बुलाया था?"

"मुखिया जी से पता चला तुम कल खाद लेने नगर जा रहे हो. सोचा था एक बोरी खाद अपने लिए भी मग़वा लूँ." सुगना ने उत्तर दिया. - "पर अब तुम बीमार हो तो जाओगे कैसे?"

"सुबह तक ठीक हो जाएगी." कल्लू ने जवाब दिया. - "कल निकलने से पहले आपसे मिल लूँगा. अब इज़ाज़त दीजिए."

"ठहरो.....कुच्छ देर बैठो. एक गिलास गरम दूध हल्दी डाल के देता हूँ....पीलो, सुबह तक बुखार उतर जाएगा." सुगना ने उसे रोकते हुए कहा. फिर कंचन को दूध गरम करने को बोला.

कुच्छ ही देर में कंचन ने गरम दूध का गिलास उसे पकड़ाया. कंचन के हाथ से गिलास लेते हुए कल्लू का हाथ ज़ोर से काँपा. एक मीठा सा दर्द उसके सीने में हुआ. इस एहसास से की कंचन उसे दूध का गिलास पकड़ा रही है....वो बुखार में होने के बाद भी रोमांचित हो उठा. उसने एक नज़र उठाकर कंचन के चेहरे को देखा फिर उसके हाथ से गिलास ले लिया.
दूध पीने तक कंचन वहीं उसके पास खड़ी रही. वो धीरे धीरे दूध को अपने हलक के नीचे उतारने के बाद खाली गिलास कंचन को पकड़ाया. दूध पीने के बाद उसकी इच्छा कुच्छ देर और वहाँ बैठने की हो रही थी. वो कुच्छ देर और कंचन को देखना चाहता था. पर घर के लोग उसे ग़लत ना समझे ये सोचकर वो उठ खड़ा हुआ. फिर सुगना से सुबह मिलने की बात कहकर बाहर निकल गया.

निक्की कुच्छ लगभग घंटा भर कंचन के घर रहने के बाद हवेली लौट आई. जब वो हवेली से निकली थी तब बेहद तनाव में थी किंतु जब वो कंचन के घर से निकली तो हर तनाव से दूर थी. जब हवेली पहुँची तब डिनर के लिए नौकरों ने खाना सज़ा दिया था. ठाकुर साहब सोफे पर बैठे उसका इंतेज़ार कर रहे थे.

निक्की के हॉल में कदम रखते ही ठाकुर साहब ने पुछा - "इस वक़्त कहाँ से आ रही हो निक्की? क्या कंचन के घर गयी थी."

"हां पापा." निक्की मुस्कुराती हुई बोली और अपनी बाहों का हार उनके गले में डाल दिया.

"तुम्हारे चेहरे की खुशी देखकर ही मैं समझ गया था, तुम कंचन के घर से आ रही हो." ठाकुर साहब उसके गाल सहलाते हुए बोले - "सब ठीक तो है वहाँ?"

"हां.....सभी ठीक हैं, शांता बुआ भी ठीक है सुगना काका की तबिया भी अच्छी है. कुच्छ भी नही बदला जैसे में 6 साल पहले देखकर गयी थी सब वैसे ही हैं." निक्की एक एक करके सबकी हाल बताने लगी - "बस चिंटू बदल गया है. पहले उसके नाक से पानी बहता रहता था और हकला के बोलता था अब तो किसी को बोलने नही देता." ये कहकर निक्की चुप हुई.

"चलो अच्छा किया तुम उनसे मिल आई." ठाकुर साहब प्यार से बोले - "आओ अब बाकी की बातें खाने के टेबल पर करेंगे."

निक्की मुस्कुराती हुई डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गयी. फिर अपनी कुर्शी खींचकर उसपर बैठ गयी.

"संजय" ठाकुर साहब ने पास ही खड़े एक नौकर से बोले - "रवि को बुला लाओ. उससे कहो हम खाने की मेज पर उनका इंतेज़ार कर रहे हैं."

"जी मालिक." संजय बोला और रवि के कमरे की तरफ बढ़ गया.

कुच्छ ही देर में रवि सीढ़ियाँ उतरता दिखाई दिया. उसने खाने की मेज के पास आकर मुस्कुराते हुए ठाकुर साहब को प्रणाम किया फिर एक नज़र निक्की पर डालकर उसे हेलो बोलते हुए अपनी कुर्शी खिच कर बैठ गया.

निक्की की इच्छा तो नही हो रही थी कि उसके हेलो का जवाब दे. पर ठाकुर साहब की मौजूदगी का ख्याल करके उसे ज़बरदस्ती हेलो कहना पड़ा.

नौकरों के द्वारा खाने को प्लेट्स में निकालने के बाद तीनो लोग खाने में व्यस्त हो गये. ठाकुर साहब तो बस नाम मात्र के खा रहे थे. किंतु रवि खाने के मामले में कोई समझौता नही करता था.

"आपका यहाँ मन तो लग रहा है ना रवि?" ठाकुर साहब खाने के मध्य में रवि से मुखातीब हुए.

रवि ने थाली से नज़र हटाकर ठाकुर साहब को देखा फिर मुस्कुरकर बोला - "मन क्यों नही लगेगा ठाकुर साहब. यहाँ का वातावरण तो किसी का भी मन मोह लेगा. ये जगह प्राकृतिक सुंदरता से रंगा हुआ है. और मैं प्राकृतक प्रेमी हूँ." ये कहने के बाद रवि ने निक्की की ओर देखा. फिर आगे बोला - "मुझे शहर की बनावटी सुंदरता से कहीं अधिक गाओं की नॅचुरल खूबसूरती अच्छी लगती है."

रवि की बात का अर्थ समझकर निक्की का चेहरा गुस्से से तमतमा गया. पर अपने पापा का ख्याल करके वो अपने गुस्से पर तेज़ी से नियंत्रण कर ली.

"ह्म्‍म्म.....आप ठीक कह रहे हैं." ठाकुर साहब ने रवि की बात पर सहमति जताते हुए बोले - "हमें भी ये जगह बहुत पसंद आई थी. इसीलिए हम यहीं आकर बस गये."

"तो क्या.....ये जगह आपके पुरखो की नही है?" रवि ने जिग्यासा पुछा.

"नही....!" ठाकुर साहब बोले - "हम बनारस के रहने वाले हैं. वहाँ अभी भी हमारे पुरखों की ज़मीनें हैं. हम यहाँ एक बार किसी काम से आए थे. हमें ये जगह अच्छी लगी और हमने यहाँ ज़मीन खरीद ली. फिर इस हवेली का निर्माण कराया." हवेली की बाबत बोलते हुए ठाकुर साहब का चेहरा उदास हो गया. पर रवि इसकी वजह नही जान पाया. और ना ही निक्की.

रवि के मन में एक बार आया कि वो इसका कारण पुच्छे पर इस समय ये पुछ्ना उसे उचित नही लगा. खाने के मध्य में किसी को कष्ट पहुचाने वाली बाते नही पुच्छनी चाहिए. लेकिन रवि के मन में ऐसे काई सवाल थे जिनका जवाब सिर्फ़ ठाकुर साहब दे सकते थे. उसे राधा देवी की बीमारी के संबंध में भी जो बातें बताई गयी थी वो उसके गले नही उतर रही थी.

ठाकुर साहब ने उसे बताया था कि राधा जब प्रेग्नेंट थी तभी एक दिन वो सीढ़ियाँ उतरते वक़्त फिसल गयी थी. जिसकी वजह से राधा देवी को हॉस्पिटल ले जाया गया था.

उसी हॉस्पिटल में दीवान जी की पत्नी भी बच्चे की डेलिवरी के लिए भरती थी. और दुर्भाग्यवश उसी दिन दोनो की डेलिवरी भी हुई. उस दिन दीवान जी की पत्नी ने मुर्दा बच्ची को जन्म दिया. ये खबर लेकर जब नर्स हमारे पास आई और बच्चे के मरने की बात कही तो राधा को लगा कि उसके गिरने की वजह से उसकी बेटी मर गयी. बस उस बात को वो सह ना पाई और अपना मानसिक संतुलन खो बैठी.

वो अपने विचारों से बाहर निकला तो देखा कि निक्की उसे आश्चर्य से घुरे जा रही थी. उसने झेन्प्ते हुए अपनी दृष्टि खाने की थाली पर टिका दी.

कुच्छ देर बाद खाने की मेज से सभी उठ खड़े हुए और अपने अपने रूम की तरफ बढ़ गये.

*****

दिन के 11 बजे हैं. शांता नदी जाने की तैयारी कर रही है. इस वक़्त कंचन और चिंटू स्कूल गये हुए हैं. सुगना अपने खेतों में काम करने गया हुआ है. शांता अकेली घर में बैठी उकताने की बजाए नदी में जाकर नहाना ज़्यादा बेहतर समझी. उसने अपने पहनने के लिए कपड़े निकाले और बाहर से घर का ताला लगाकर नदी के रास्ते बढ़ गयी.

गाओं के सभी औरत मर्द नदी में ही नहाया करते थे. नदी में औरतो के लिए अलग घाट थी और मर्दों के लिए अलग. औरतों के घाट के तरफ मर्द नही जाते थे और मर्द के घाट की तरफ औरतें.

शांता अभी बस्ती से निकल कर कुच्छ ही दूर चली थी कि पिछे से किसी ने उसे नाम लेकर पुकारा - "अरी ओ शांता, ज़रा धीरे चलो.....मैं भी साथ आ रही हूँ."

शांता पिछे मूडी तो देखा सुंदरी तेज़ तेज़ चलती चली आ रही है.

"अरी आराम से भाभी. इतनी भी जल्दी क्या है. मैं खड़ी तो हूँ." सुंदरी के निकट आते ही शांता सुंदरी से बोली.

"अरी बहनी, तू नही जानती.....मैं अकेली होने से कितनी डरती हूँ." सुंदरी हाफ्ति हुई बोली. - "मैं कब से सोच रही थी नदी जाऊ, पर कोई साथी नही मिल रही थी. तुम्हे जाते देखी तो भागी भागी आई."

"भाभी अभी तो दिन है.....क्या दिन के उजाले में भी डरती हो?" शांता हंसते हुए बोली और धीरे धीर पग बढ़ने लगी.
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05-02-2020, 01:07 PM,
#30
RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
सुंदरी भी उसके कदम से कदम मिलाती हुई चलने लगी.

"मैं दिन या रात से नही अकेलेपन से डरती हूँ पगली." सुंदरी हंसते हुए बोली.

"मैं समझी नही भाभी, क्या कहना चाहती हो?" शांता थोड़ी हैरान होकर बोली.

"बहनी, तेरी मेरी तो एक जैसी कहानी है. फिर भी तू नही समझी?" सुंदरी आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली.

"क्यों मेरा मज़ाक उड़ा रही हो भाभी?" सुंदरी के हँसते खेलते जीवन की तुलना अपनी बेरंग ज़िंदगी से किए जाने पर वह आहत होकर बोली - "सब कुच्छ तो है तुम्हारे पास. मुखिया दद्दा जैसा प्यार करने वाला पति है, बड़ा घर है तुम्हारे पास, अनिता जैसी सुंदर और सुशील बेटी पाई हो. और क्या चाहिए तुम्हे?"

"मैं भी वही कमी महसूस करती हूँ बहिन, जो तुम महसूस करती हो." सुंदरी अचानक से गंभीर होती हुई बोली - "हां बहिन, मेरे पास सब कुच्छ होते हुए भी कुच्छ नही है. पति हैं पर सिर्फ़ दिखाने के लिए और लोगों को बताने के लिए. बेटी है पर फिर भी बांझ कही जाती हूँ." ये कहते हुए सुंदरी सिसक पड़ी.

"तो किसी डॉक्टर के पास क्यों नही जाती." शांता भावुक होकर बोली.

"डॉक्टर क्या करेगा बहिन? जब बीज ही नही बोए जाएँगे तो फल कहाँ से आएगा."

"तो क्या दद्दा से...?" शांता बोलते बोलते रुकी.

"उनसे कुच्छ नही होता बहिन, वैसे तो गाओं भर में बहुत अकड़ कर चलते हैं, पर बिस्तर पर आते ही ढीले पड़ जाते हैं." सुंदरी अपने आँसू पोछती हुई बोली. - "मुझमे और तुम में बस इतना ही फ़र्क है कि मेरा पति मेरे साथ है और तुम्हारा पति तुमसे दूर.

"तो क्या शादी से अब तक तुम......?" शांता की आँखें नम हो गयी. उसके दुख में उसे अपने दुख की परच्छाई नज़र आई. -"तुम अब तक कैसे जीती रही भाभी?"

"ना....बहिन, मैं इतनी सहनशील औरत नही हूँ." सुंदरी शांता से बोली - "शादी के एक साल तक मैं सब सहती रही. लेकिन कब तक....? आख़िर कब तक अपनी देह जलाती? कब तक दूसरे की ग़लती की सज़ा खुद को देती? मैने अपने सुख का मार्ग बहुत जल्दी ढूँढ लिया. उन दिनो बिरजू को मुखिया जी ने नया नया काम पर रखा था. एक दिन उसे किसी बहाने घर के अंदर बुलाई और कर ली मनमानी. उस दिन से लेकर आज तक वही मेरी देह को ठंडक पहुँचा रहा है."

सुंदरी के इस रहस्योउद्घाटन से शांता हैरान रह गयी. उसके बढ़ते कदम धरती पर जाम गये. वो अपने मूह पर हाथ रखे सुंदरी को किसी अजूबे की तरह देखने लगी.

उसे हैरान परेशान सा देख सुंदरी के कदम भी थम गये. लेकिन उसके मन में कोई लज्जा भाव नही आया. वो धीरे से फीकी हँसी हँसी. फिर बोली - "और क्या करती मैं. मैं भला उनकी चिंता करती भी तो क्यों? जिन्होने मेरे दुख का सामान किया. क्या मेरे पिता ने मेरा विवाह करने से पहले ये सोचा कि इस रिश्ते से मेरी बेटी का जीवन सुखमय रहेगा या नही. क्या मेरे पति ने कभी ये सोचा कि वो अपने से आधी उमर की लड़की को पत्नी बनाकर उसे सुखी रख पाएँगे या नही.

नही सखी, ना तो मेरे पिता ने मेरे सुख का सोचा ना मेरे पति ने. पिता को सर का बोझ उतारना था सो उतार लिए. पति को नयी नवेली दुल्हन मिली स्वीकार कर लिए.

ज़रा सोचो बहिन, अगर कोई 35 साल की औरत किसी 20 साल के लड़के से विवाह करे तो लोग कहेंगे की कैसी औरत है इस उमर में चुदने चली है. कोई वेश्या ही ऐसी घृणित कार्य करेगी, ये औरत नही औरत के नाम पर कलंक है, ऐसी औरत के साए से दूर रहना चाहिए. लेकिन यही काम कोई मर्द करे तब लोग कहते हैं वाह क्या मर्द है इस उमर में भी जवान बीवी ले आया है.
तब समाज में उसकी प्रतिष्ठा और बढ़ जाती है, बिस्तर में बीवी चाहें अंगारों पर लेट,ती हो. पर यें बाहर अपनी मूच्छे उँची करके घूमते हैं.

ज़रा अपने बारे में सोच....! तेरा पति तुम्हे छोड़ गया है, वहाँ ना जाने क्या क्या करता होगा. कभी किसी लड़की के साथ सोता होगा तो कभी किसी के साथ. और भी ना जाने कितने बुरे ऐब पाले होंगे वहाँ.
पर जिस दिन वो लौट के आएगा. ना तो तुम ये पुछोगि कि इतने दिन तुम किसके साथ सोए किसके साथ जागे. और ना ये समाज पुछेगा. लेकिन यही काम अगर तू करेगी तो हज़ार मूह एक साथ सवाल करेंगे. पति धक्के मार कर घर से बाहर निकाल देगा. सारे समाज में तुम्हारी थू थू हो जाएगी. क्योंकि तुम औरत हो."

शांता कुछ ना बोली. वह खामोशी से सुंदरी की बातों को सच्चाई की तराजू पर तौलती रही. सुंदरी के मूह से निकले एक एक बात में सच्चाई छीपि हुई थी. उसे सुंदरी से सहानुभूति हो हो चली थी.

"बोल बहनी, जो मैं झूठ बोलती हूँ तो अपनी चप्पल मेरे सर पर दे मारो." सुंदरी उसे खामोश देख आगे बोली - "मैने तो इन मर्दों की परवाह करना बंद कर दिया है. अब परिणाम जो भी हो मुझे फिक़र नही. मैं तो अपनी ज़िंदगी जी रही हूँ और ऐसे ही जियूंगी."

"पर भाभी औरत की कुच्छ मर्यादायें भी तो होती है?" शांता ने मन में उठते प्रश्न को सुंदरी के सामने रखा.

"ये भी मर्दों के बनाए हुए हैं." सुंदरी जवाब में बोली - "बहनी, हमारी विवशता यह है कि हमें मर्दों ने इतना डरा रखा है कि हम अपनी खुशी कम और उनके सम्मान की ज़्यादा सोचते हैं. सच पुछो तो हम अपने लिए जीते ही नही हैं. हमारी खुशी भी उनकी मर्ज़ी की दास है और हमारा मान सम्मान भी उनकी जागीर है. हमारा अपना कुच्छ है ही नही. ना ये समाज ना ये घर.....! हम केवल वस्तु हैं. जब जिसकी मर्ज़ी हुई उपयोग कर लिया.

मैं सच कहती हूँ बहनी, आज मेरे दिल में मुखिया जी से कहीं ज़्यादा बिरजू के लिए सम्मान है. क्योंकि मुझे अब तक जितनी भी खुशी मिली है बिरजू से मिली है, पति से सिर्फ़ दुख और झिड़की के कुच्छ ना मिला है. मैं तो कहती हूँ तू भी किसी का हाथ पकड़ ले. क्यों अपनी जवानी गला रही है? अभी भी तुझमे बहुत आकर्षण बाकी है, किसी भी मर्द का मन हिला सकती है"

"ना भाभी." सुंदरी की बात से शांता घबराकर बोली - "मुझसे ये सब ना होगा. अब थोड़ी से ज़िंदगी बची है कैसे भी काट लूँगी."

"शांता क्यों अपनी जवानी बर्बाद कर रही है उस शराबी के इंतेज़ार में. छोड़ दे उसका इंतेज़ार और थाम ले किसी का हाथ, मैं तुम्हे दूसरा विवाह करने की बात नही कह रही हूँ, सिर्फ़ किसी की बाहों में सिमट कर सुख भोगने की बात कर रही हूँ. सच बता क्या तेरा मन नही करता कि तुझे कोई प्यार करे, तेरे इन खूबसूरत होंठों का रस पीए, कोई तेरे इन नाज़ुक अंगो पर हाथ धरे" ये कहते हुए सुंदरी ने अपने एक हाथ से उसके बूब्स दबा दिए.

"भाभी.....ये क्या कर रही हो?" शांता चिहुन्क कर पीछे हटी. सुंदरी के छुने से उसके पूरे बदन में एक सनसनाहट सी भर गयी. उसकी आँखें उत्तेजना में भारी हो गयी थी. वह काँपते होंठों से शांता से बोली - "मेरे सोए अरमान ना जगाओ भाभी, मैं बदनामी से डरती हूँ. मुझसे वो सब ना होगा जो तुम कर लेती हो."


"बहनी, क्यों एक दिन की बदनामी के डर से अपनी सारी ज़िंदगी को जहन्नुम बनाती हो. अभी तुम्हारी उमर ही कितनी हुई है? तू अभी भी खूब मज़े ले सकती है. छोड़ दे दुनिया की परवाह.....जी ले अपनी ज़िंदगी. तू कहे तो मैं तेरी मदद कर दूँ. बिरजू बहुत दमदार मर्द है. उसका मर्दाना अंग बहुत शानदार है." सुंदरी ने एक आ भरी फिर बोली - "ज़ालिम क्या रगड़ता है बिस्तर पर, सखी सच कहती हूँ, जब वो देह पर चढ़कर उच्छलता है तो मैं संसार को भूल जाती हूँ. एक बार तू उसकी सेवा लेकर देख....फिर देख वो कैसे तेरी सालों की प्यास बुझता है."

शांता की आँखें नशे में लाल हो गयी. बदन में वासना लहू बनकर दौड़ उठा. शरीर इतना गरमाया कि उसकी योनि गीली हो गयी. सुंदरी की बातों से एक बार उसके विचारों में बिरजू का मजबूत शरीर घूम गया. उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कुच्छ देर पहले जिस बूब्स को सुंदरी ने दबाया था अब उसी बूब्स पर बिरजू के हाथ रेंग रहे हों. इस एहसास से उसके विचार और गहराए.....अब उसे लगने लगा जैसे बिरजू के हाथ उसके समस्त शरीर को छु रहे हों, उसे कभी अपने बूब्स पर बिरजू के कठोर हाथों का स्पर्श महसूस होता तो कभी अपने नितंबो पर उसके हाथों की थपकी. तो कभी उसे ये लगता कि बिरजू उसे अपनी बाहों में जकड़े हुए उसके होंठो को चूस रहा है.
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