Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
12-17-2018, 02:04 AM,
#1
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घुड़दौड़ ( कायाकल्प )

हम लोग आज उस युग में रहते हैं, जहाँ चहुओर भागमभाग मची हुई है। बचपन से ही एक घुड़दौड़ की शिक्षा और प्रशिक्षण दी जाती है - जो भिन्न भिन्न लोगों के लिए भिन्न भिन्न होती है। मेरे एक अभिन्न मित्र के अनुसार आज हमको मात्र उपभोक्ता बनने की शिक्षा दी जा रही है। और ऐसा हो भी क्यों न? दरअसल हमने आज के आधुनिक परिवेश में भोग करने को ही विकास मान रखा है। पारिवारिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य लगभग खतम हो चुके हैं। प्रत्येक व्यक्ति को केवल ‘उपभोक्ता’ बननें के लिये ही विवश व प्रोत्साहित किया जा रहा है। जो जितना बड़ा उपभोक्ता वो उतना ही अधिक विकसित – चाहे वह राष्ट्र हों, या फिर व्यक्ति! मैंने भी इसी युग में जनम लिया है और पिछले तीस बरसों से एक भयंकर घुड़दौड़ का हिस्सेदार भी रहा हूँ। अन्य लोगो से मेरी घुड़दौड़ शायद थोड़ी अलग है – क्योंकि बाकी लोग मेरी घुड़दौड़ को सम्मान से देखते हैं। और देखे भी क्यों न? समाज ने मेरी घुड़दौड़ को अन्य प्रकार की कई घुड़दौड़ों से ऊंचा दर्जा जो दिया हुआ है।

अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में कुछ बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! तो चलिए, मैं अब अपना परिचय भी दे देता हूँ। मैं हूँ रूद्र - तीस साल का तथाकथित सफल और संपन्न आदमी। इतना की एक औसत व्यक्ति मुझसे इर्ष्या करे। सफलता की इस सीढ़ी को लांघने के लिए मेरे माता-पिता ने बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत से कष्ट देखे और सहे थे - इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया की मैं वैसे कष्ट न देख सकूँ। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी न आने दी। सदा यही सिखाया की 'पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!' मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ की मेरे माँ बाप की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, मेहनत करना अच्छी बाते हैं - दरअसल यह सब मानवीय नैतिक गुण हैं। किन्तु मेरा मानना है की इनका 'जीवन के सुख' (वैसे, सुख की हमारी आज-कल की समझ तो वैसे भी गंदे नाले में स्वच्छ जल को व्यर्थ करने के ही तुल्य है) से कोई खास लेना देना नहीं है। और वह एक अलग बात है, जिसका इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है। मैं यहाँ पर कोई पाठ पढ़ने नहीं आया हूँ। 

जीवन की मेरी घुड़दौड़ अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी, की मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के सामान एक बार में ही टूट पड़ी। जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप, दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितान्त अकेला रह गया। मेरे दूरदर्शी जनक ने अपना सारा कुछ (वैसे तो कुछ खास नहीं था उनके पास) मेरे ही नाम लिख दिया था, जिससे मुझे कुछ अवलंब तो अवश्य मिला। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये - ऐसा मुझे लगा – लेकिन वह केवल मेरा मिथ्याबोध था। वस्तुतः वो दोनों आये मात्र इसलिए थे की उनको मेरे माँ बाप की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए, और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर (मैं) भी। किन्तु यह हो न सका - माँ बाप ने मेहनत करने के साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।

बस यहाँ पर यह बताना पर्याप्त होगा की उन दोनों कूकुरों से मुझे अंततः मुक्ति मिल ही गयी। बाप की सारी कमाई और उनका बनाया घर सब बिक गया। मेरे मात-पिता से मुझको जोड़ने वाली अंतिम भौतिक कड़ी भी टूट गयी। घर छोड़ा, आवासीय विद्यालयों में पढ़ा, और अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए (जो मेरे माता पिता की न सिर्फ अंतिम इच्छा थी, बल्कि तपस्या भी) विभिन्न प्रकार की क्षात्रवृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार-मार कर लहू-लुहान कर देना पड़ा। खैर, विपत्ति भरे वो चार साल, जिसके पर्यंत मैंने अभियांत्रिकी सीखी, जैसे तैसे बीत गए - अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री थी, और नौकरी भी। किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनायी गयी निशानी।

घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता की आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक एक और साधना की - मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते-दौड़ते मेरी कमर टूट गयी है। भावनात्मक पीड़ा मेरी अस्थि-मज्जा के क्रोड़ में समा सी गयी है। ह्रदय में एक काँटा धंसा हुआ सा लगता है। और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। कुछ मित्र बने – लेकिन उनसे कोई अंतरंगता नहीं है – सदा यही भय समाया रहता है की न जाने कब कौन मेरी जड़ें काटने लगे! और न ही कोई जीवनसाथी बनने के इर्द-गिर्द भी है। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लडकियां नहीं आईं - बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और अमानवता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेइमान और अमानवीय मिली। आरम्भ में सभी मीठी-मीठी बाते करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके चरित्र की प्याज़ जैसी परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं। 

सच मानिए, मेरा मानव जाति से विश्वास उठता जा रहा है, और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो क्या अब आप मेरी मनःस्तिथि समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिन्दगी! प्रतिदिन (अवकाश वाले दिन भी) सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक कार्य में स्वयं को स्वाहा करता हूँ, जिससे की इस अकेलेपन का बोझ कम ढ़ोना पड़े। पर फिर भी यह बोझ बहुत भारी ही रहता है। कार्यालय में दो-तीन सहकर्मी और बॉस अच्छे व्यवहार वाले मिले। वो मेरी कहानी जानते थे, इसलिए मुझे अक्सर ही छुट्टी पर जाने को कहते थे। लेकिन वो कहते हैं न, की मुफ्त की सलाह का क्या मोल! मैं अक्सर ही उनकी बातें अनसुनी कर देता।

लेकिन, पिछले दिनों मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था - वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने-फिरने) नहीं गया। मेरे मित्र मुझको “अचल संपत्ति” कहकर बुलाने लगे थे। अपनी इस जड़ता पर मुझको विजय प्राप्त करनी ही थी। इन्टरनेट पर करीब दो माह तक शोध करने के बाद, मैंने मन बनाया की उत्तराँचल जाऊंगा! अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली - आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए - न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। मेरा भला-मानुस बॉस ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे उसको अभी अभी पदोन्नति मिली हो। उसने तुरंत ही मुझको छुट्टी दे दी और यह भी कहा की एक महीने से पहले दिखाई मत देना। छुट्टी लेकर, ऑफिस से निकलते ही सबसे पहले मैंने आवश्यकता के सब सामान जुटाए। वह अगस्त मास था – मतलब वर्षा ऋतु। अतः समस्त उचित वस्तुएं जुटानी आवश्यक थीं। सामान पैक कर मैं पहला उपलब्ध वायुयान लेकर उत्तराँचल की राजधानी देहरादून पहुच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं - और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनायीं थी - मेरा मन था की एक गाडी किराए पर लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। समय की कोई कमी नहीं थी, अतः मुझे घूमने और देखने की कोई जल्दी भी नहीं थी। हाँ, बस मैं भीड़ भाड़ वाली जगहों (जैसे की हरिद्वार, ऋषिकेश इत्यादि) से दूर ही रहना चाहता था। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, 'जी पी एस' और अन्य आवश्यक सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।
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12-17-2018, 02:05 AM,
#2
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य छोटे स्थानिक मंदिर भी देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। प्रत्येक स्थान मुझको अपने ही तरीके से अचंभित करता। अब जैसे बद्रीनाथ देवस्थान की ही बात कर लें – मंदिर से ठीक पूर्व भीषण वेग से बहती अलकनंदा नदी यह प्रमाणित करती है की प्रकृति की शक्ति के आगे हम सब कितने बौने हैं। इसी ठंडी नदी के बगल ही एक तप्त-कुंड है, जहाँ भूगर्भ से गरम पानी निकलता है। हम वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने वाले आसानी से कह सकते हैं की भूगर्भीय प्रक्रियाओं के चलते गरम पानी का सोता बन गया। किन्तु, एक आम व्यक्ति के लिए यह दैवीय चमत्कार से कोई कम नहीं है। मंदिर के प्रसाद में मिलने वाली वन-तुलसी की सुगंध, थके हुए शरीर से साड़ी थकान खींच निकालती है। और सिर्फ यही नहीं। प्रत्येक सुबह, सूरज की पहली किरणें नीलकंठ पर्वत की छोटी पर जब पड़ती हैं, तो उस पर जमा हुआ हिम (बरफ) ऐसे जगमगाता है, जैसे की सोना!

ऐसे चमत्कार वहां पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे मज़ा आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।

सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगो से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुकुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियाँ देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगो को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - 'भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?' छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, की जैसे गुड्डे-गुडियें हों! इन सब बातो ने मेरा मन ऐसा मोह लिया की मन में एक तीव्र इक्छा जाग गयी की अब यही पर बस जाऊं।

खैर, मैं इस समय 'फूलों की घाटी' से वापस आ रहा था। वहां बिताये चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। कोई साधे तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है की उस जगह मैं वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से अगर धरती पर कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया की इस जगह से "मानव सभ्यता" से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ो के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गयी। इतनी की मैं वहां से वापस आने के बाद करीब आधा दिन तक मैं अपनी गाडी में ही सोता रहा। 

वापसी में मैं एक घने बसे कस्बे में (जिसका नाम मैं आपको नहीं बताऊँगा) आ गया। मैंने गाडी रोक दी की, थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरे नहाने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्डपाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले ३ दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तरो-ताज़ा होने का था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर-फुसुर करती। वैसे, अपने आप अपनी बढाई क्या करूँ, लेकिन नियमित आहार और व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ है और चर्बी रत्ती भर भी नहीं है। व्यायाम करना मेरे लिए सबसे बड़ा भोग-विलास है, यद्यपि कभी कभार द्राक्षासव का सेवन भी करता हूँ, लेकिन सिर्फ कभी कभार। इसी के कारण मुझे पिछले कई वर्षों से प्रतिदिन बारह घंटे कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दूसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।
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12-17-2018, 02:05 AM,
#3
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खैर, नहा-धोकर, कपडे पहन कर मैंने खाना खाया और अपनी कार की ओर जाने को हुआ ही था की मैंने स्कूल यूनिफार्म पहने लड़कियों का समूह जाते हुए देखा। मुझे लगा की शायद किसी स्कूल में छुट्टी हुई होगी, क्योंकि उस समूह में हर कक्षा की लड़कियां थी। मैं यूँ ही अपनी कार के पास खड़े-खड़े उन सबको जाते हुए देख रहा था की मेरी नज़र अचानक ही उनमे से एक लड़की पर पड़ी। उसको देखते ही मुझे ऐसे लगा की जैसे धूप से तपी हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदो के छूने से लगता होगा।

वह लड़की आसमानी रंग का कुरता, सफ़ेद रंग की शलवार, और सफ़ेद रंग का ही पट्टे वाला दुपट्टा (यही स्कूल यूनिफार्म थी) पहने हुए थी। उसने अपने लम्बे बालो को एक चोटी में बाँधा हुआ था। अब मैंने उसको गौर से देखा - उसका रंग साफ़ और गोरा था, चेहरे की बनावट में पहाड़ी विशेषता थी, आँखें एकदम शुद्ध, मूँगिया रंग के भरे हुए होंठ और अन्दर सफ़ेद दांत, एक बेहद प्यारी सी छोटी सी नाक और यौवन की लालिमा लिए हुए गाल! उसकी उम्र बमुश्किल अट्ठारह की रही होगी, इससे मैंने अंदाजा लगाया की वह बारहवीं में पढ़ती होगी।

'कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!'

"रश्मि... रुक जा दो मिनट के लिए..." उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी। 

'रश्मि..! हम्म.. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल-पल नए-नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!' मैंने मन ही मन सोचा।

मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर उसकी तस्वीरे तब तक निकालता रहा जब तक की वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?

'क्या लव एट फर्स्ट साईट ऐसे ही होता है?' ‘लव एट फर्स्ट साईट’ – यह वाक्य अगर किसी को कहो, तो वह यही कहेगा की दरअसल ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसी भावना लालसा के वेश में लिपटी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। वे इसको प्रेम की एक झूठी भावना कहकर उपहास करने लगेंगे। 

लेकिन कैसा हो यदि ऐसा कुछ वाकई होता हो? मुझे एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़ गया। दिमाग में इसी लड़की का चेहरा घूमता जाता। उसकी सुन्दरता और उसके भोलेपन ने मुझे मोह लिया था - या यह कहिये की मुझे प्रेम में पागल कर दिया था। मेरे मन में आया की अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया की कहीं लोग बुरा न मान जाएँ की यह बाहर का आदमी उनकी लड़कियों/बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है। वैसे भी दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओ और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है, और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था। 

'हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!' मेरे मन की उधेड़बुन जारी थी।

उसी के बारे में सोचते-सोचते देर शाम हो गयी, तो मैंने निश्चय किया की आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान मेरे मन और मस्तिष्क में कम हुआ ही नहीं! रात में अपने बिस्तर पर लेटे हुए मेरा सारा ध्यान सिर्फ रश्मि पर ही था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था - लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था की, यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है। मुझको ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की - रश्मि। 

नींद नहीं आ रही थी – बस रश्मि का ही ख़याल आता जा रहा था। तभी ध्यान आया की वो तो मेरे कैमरे में है! जल्दी से मैं अपने कैमरे में उतारी गयी उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा - लम्बे बाल, और उसके सुन्दर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया – छोटे-छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ - बाल-सुलभ अठखेलियाँ भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दांत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी... और अब मेरे सामने थी।

यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया .... मेरे मष्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार-बार पुनरावृत्ति होने लगी - उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन... जैसे-जैसे मेरा मष्तिष्क रश्मि के चित्र को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी.... साथ ही साथ मेरे लिंग में अंदरूनी दबाव बढ़ता जा रहा था - एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया - मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्त-मैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, की यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
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12-17-2018, 02:05 AM,
#4
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगले दिन की सुबह इतनी मनोरम थी की आपको क्या बताऊँ। ठंडी ठंडी हवा, और उस हवा में पानी की अति-सूछ्म बूंदे (जिसको मेरी तरफ "झींसी पड़ना" भी कहते हैं) मिल कर बरस रही थी। वही दूर कहीं से - शायद किसी मंदिर से - हरीओम शरण के गाये हुए भजनों का रिकॉर्ड बज रहा था। मैं बाहर निकल आया, एक फ़ोल्डिंग कुर्सी पर बैठा और चाय पीते हुए ऐसे आनंददायक माहौल का रसास्वादन करने लगा। मेरे मन में रश्मि को पुनः देखने की इच्छा प्रबल होने लगी। अनायास ही मुझे ध्यान आया की उस लड़की के स्कूल का समय हो गया होगा। मैंने झटपट अपने कपडे बदले और उस स्थान पर पहुच गया जहाँ से मुझे स्कूल जाते हुए उस लड़की के दर्शन फिर से हो सकेंगे। 

मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया ... अंततः वह समय भी आया जब यूनिफार्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पांच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक भाग उसका भोलापन था। उसके चेहरे में वह आकर्षण था की मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गयी ही नहीं। कोई और होती तो अब तक उसकी पूरी नाप तौल बता चुका होता। लेकिन यह लड़की अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है - संभवतः प्रेम है। आज मुझे अपने जीवन में पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ आ रही थीं। जब तक मुझे रश्मि दिखी, तब तक उसको मैंने मन भर के देखा। दिल धाड़ धाड़ करके धड़कता रहा। उसके जाने के बाद मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा। 

मैं यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था, की रश्मि के लिए मेरे मन में जो भी कुछ था वह लिप्सा अथवा विमोह नहीं था, अपितु शुद्ध प्रेम था। उसको देखते ही ठंडी बयार वाला एहसास, मन में शान्ति और जीवन में ठहर कर घर बसाने वाली भावना लिप्सा तो नहीं हो सकती! ऐसे ही घंटो तक तर्क वितर्क करते रहने के बाद, अंततः मैंने ठान लिया की मैं इससे या इसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुड़ कर ओझल न हो गयी और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक फैला हुआ खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अन्दर चली गयी।

'तो यह है इसका घर!'

मैं करीब एक घंटे तक वहीँ निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपने बुद्धि और विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था - शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। कहीं पीटना पड़ गया तो? खैर, मेरी जिज्ञासा इतनी बलवती थी, की मैंने हर जोखिम को नज़रंदाज़ करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।

"साहब! यह तो अपने भंवर सिंह की बेटी है।" उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोडा रुक कर, "साहब! माज़रा क्या है? ऐसे राह चलते लड़कियों की तस्वीरें निकालना कोई अच्छी बात नहीं।" उसका स्वर मित्रतापूर्ण नहीं था।

"माज़रा? मुझे यह लड़की पसंद आ गयी है! इससे मैं शादी करना चाहता हूँ।" मैंने उसके बदले हुए स्वर को अनसुना किया। 

"क्या! सचमुच?" उसका स्वर फिर से बदल गया – इस बार वह अचरज से बोला।

"हाँ! क्या भंवर सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?"

"साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?"

"यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में? अब तक कुंवारा हूँ – अच्छी खासी नौकरी है। बस अब एक साथी की ज़रुरत है। तो मैं इस लड़की से शादी क्यों नहीं कर सकता? क्या गलत है?"

"मेरा वो मतलब नहीं था! साहब, ये बहुत भले लोग हैं - सीधे सादे। भंवर सिंह खेती करते हैं - कुल मिला कर चार जने हैं: भंवर सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम रश्मि है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख न देना। आपके मुकाबले बहुत गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगो की हाय नहीं लेना। अगर इनको धोखा दिया तो बहुत पछताओगे।"

"नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की वाकई बहुत पसंद है।"

"अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।"

"नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे ज़रुरत पड़ी, तो आपसे ज़रूर कहूँगा।"

रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, रश्मि से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चो की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सरपैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे रश्मि से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, "हाँ"!

सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं भंवर सिंह से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था - तो आज रश्मि का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने, नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहां तक पहुचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। खैर, रश्मि के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया। 

दरवाज़ा रश्मि ने ही खोला। 

'हे भगवान्!' मेरा दिल धक् से हो गया। रश्मि पौ फटने से समय सूरज जैसी लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था - उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी। 

'कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।'

"जी?" मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गयी हो।

"अ..अ आपके पिताजी हैं?" मैंने जैसे-तैसे अपने आपको संयत किया।

"आप अन्दर आइए ... मैं उनको अभी भेजती हूँ।"

"जी, ठीक है"

रश्मि ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गयी। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद भंवर सिंह बैठक में आये। भंवर सिंह साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था। 'एक आत्मसम्मानी पुरुष!' मैंने मन ही मन आँकलन किया, 'बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।'

"नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?" भंवर सिंह ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।

"नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ..... लेकिन मेरी एक विनती है, की आप मेरी पूरी बात सुन लीजिये। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।"

"अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं - तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर अपनी बात कहिये।"

"नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान् ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।"

"अच्छा बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?"

"ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है... जी वो मैं आपसे यह कहने आया था की ...." बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।

"बोलिए न?"
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12-17-2018, 02:05 AM,
#5
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
"जी वो मैं .... मैं आपकी बेटी रश्मि से शादी करना चाहता हूँ!" मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई.. 
'मारे गए अब!'

"क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।" 

मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, "जी मैं आपकी बेटी रश्मि से शादी करना चाहता हूँ।"

“...........................................”

"मैं इसीलिए आपसे मिलना चाहता था।"

"आप रश्मि को जानते हैं?"

"जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।"

"और इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?" भंवर सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।

"जी।"

"मैं पूछ सकता हूँ की आप रश्मि से शादी क्यों करना चाहते है?"

"मैंने आपके बारे में पूछा है और मुझे मालूम है की आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है की आप मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे सब मंज़ूर रहेगा।"

"हम्म! देखिये, आप हमारे मेहमान भी है और ... शादी का प्रस्ताव भी लाये हैं। तो हमारी मर्यादा यह कहती है की आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। .... आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।" यह कह कर भंवर सिंह अन्दर चले गए।

मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एकसाथ आ गए। 

'अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।' 

भंवर सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।

"यह मेरी छोटी बेटी सुमन है।" सुमन करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।

"नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?" सुमन नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए। 

मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया... बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।

"मुझे आपकी स्माइल पसंद है ..." सुमन ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया। 

वाकई भंवर सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं - मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। सुमन एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा, "नमस्ते सुमन। मेरा नाम रूद्र है। मैं अभी आपको और आपके माता पिता को अपने बारे में सब बताने वाला हूँ।" 

लड़की के पिता वहीँ पर खड़े थे, और हमारी बातें सुन रहे थे। इतने में भंवर सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था। 

"जी नमस्ते!" मैंने उठते हुए कहा।

"नमस्ते! बैठिये न।" उन्होंने बस इतना ही कहा। परिश्रमी और आत्मसम्मानी पुरुष की सच्ची साथी प्रतीत हो रही थीं।

मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारो लोग अभी बस बैठे ही थे की उधर से रश्मि नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगो की तरफ कर लीं – ऐसा न हो की मैं मूर्खों की तरह उसको पुनः एकटक देखने लगूं, और मेरी बिना वजह फजीहत हो जाय। 

"और ये रश्मि है – हमारी बड़ी बेटी। खैर, इसको तो आप जानते ही हैं। सुमन बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।"

दोनों लड़कियों ने कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया। लगता है की वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी – नाश्ता तो किया ही हुआ था और अभी थोडा घबराया हुआ भी था। लेकिन साथ में खाने पर बैठना आवश्यक था – कहीं ऐसा न हो की वो यह समझें की मैं उनके साथ खाना नहीं चाहता। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई की मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ..... इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए। 

भंवर सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "रूद्र, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए रश्मि यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है की आपको कोई आपत्ति नहीं।"

"जी, बिलकुल ठीक है। भला मुझे क्यों आपत्ति होगी?" मैंने रश्मि की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गयी और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।

फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा पैत्रिक घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदाई बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा की मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर भंवर सिंह की पत्नी और रश्मि दोनों के ही आँखों से आंसू निकल आये। मैंने यह भी घोषित किया की मेरे परिवार में मेरे अलावा अब कोई और नहीं है। 

उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया की वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। उनके वृहत परिवार के फलाँ फलाँ व्यक्ति विभिन्न स्थानों पर हैं। इत्यादि इत्यादि।

"रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप रश्मि से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की कोई कमी नहीं।" भंवर सिंह ने पूछा।

मैंने कुछ सोच के बोला, "ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल साधारण आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता रश्मि में दिखी। इसलिए।" 

फिर मैंने बात आगे जोड़ी, "आप बेशक मेरे बारे में पूरी तरह पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रखिये - इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। अगर आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है (मैंने अपने विसिटिंग कार्ड के पीछे घर का पता भी लिख दिया था) - वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में वहां पूछताछ कर सकते हैं। मैं यहाँ, उत्तराँचल में, मैं वैसे भी अगले दो-तीन सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं, तो आसानी से हो सकती है।"
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12-17-2018, 02:06 AM,
#6
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
भंवर सिंह ने सर हिलाया, फिर कुछ सोच कर बोले, "रश्मि और आप आपस में कुछ बात करना चाहते हैं, तो हम बाहर चले जाते हैं।" और ऐसा कह कर तीनो लोग बैठक से बाहर चले गए। 

अब वहां पर सिर्फ मैं और रश्मि रह गए थे। ऐसे ही किसी और पुरुष के साथ एक कमरे में अकेले रह जाने का रश्मि का यह पहला अनुभव था। घबराहट और संकोच से उसने अपना सर नीचे कर लिया। मैंने देखा की वो अपने पांव के अंगूठे से फर्श को कुरेद रही थी। उसके कुर्ते की आस्तीन से गोरी गोरी बाहें निकल कर आपस में उलझी जा रही थी। 

"रश्मि! मेरी तरफ देखिए।" उसने बड़े जतन से मेरी तरफ देखा।

"आपको मुझसे कुछ पूछना है?" मैंने पूछा।

उसने सिर्फ न में सर हिलाया।

"तो मैं आपसे कुछ पूछूं?" उसने सर हिला के हाँ कहा।

"आप मुझसे शादी करेंगी?"

मेरे इस प्रश्न पर मानो उसके शरीर का सारा खून उसके चेहरे में आ गया। घबराहट में उसका चेहरा एकदम गुलाबी हो चला। वो शर्म के मारे उठी और भाग कर कमरे से बाहर चली गयी। कुछ देर में भंवर सिंह अन्दर आये, उन्होंने मुझे अपना फ़ोन नंबर और पता लिख कर दिया और बोले की वो मुझे फ़ोन करेंगे। जाते जाते उन्होंने अपने कैमरे से मेरी एक तस्वीर भी खीच ली। मुझे समझ आ गया की आगे की तहकीकात के लिए यह प्रबंध है। अच्छा है - एक पिता को अपनी पूरी तसल्ली कर लेनी चाहिए। आखिर अपनी लड़की किसी और के सुपुर्द कर रहे हैं!

मैं अगले दो दिन तक वहीँ रहा लेकिन मुझे भंवर सिंह का फ़ोन नहीं आया। मैं कोई व्यग्रता और अतिआग्रह नहीं दर्शाना चाहता था, इसलिए मैंने उनको उन दो दिनों तक फोन नहीं किया, और न ही रश्मि का पीछा किया। मैं नहीं चाहता था की वो मेरे कारण लज्जित हो। मेरा मन अब तक काफी हल्का हो गया था की कम से कम मन की बात कह तो दी। अब मैं आगे की यात्रा आरम्भ करना चाह रहा था। इसलिए मैं आगे की यात्रा पर निकल पड़ा और कौसानी पहुच गया। निकलने से पहले मैंने भंवर सिंह जी को फोन करके बता दिया। उनके शब्दों से मुझे किसी प्रकार की तल्खी नहीं सुनाई दी – यह अच्छी बात थी।

कौसानी तक आते-आते उत्तराँचल के क्षेत्र अलग हो जाते हैं – रश्मि का घर गढ़वाल में था, और कौसानी कुमाऊँ में। वहां तक की यात्रा मेरे लिए ठिठुराने वाली थी – एक तो बेहद घुमावदार सड़कें, और ऊपर से ठंडी ठंडी वर्षा। लेकिन मेरे आनंद में कोई कमी नहीं थी। कौसानी को महात्मा गाँधी जी ने "भारत का स्विट्ज़रलैंड" की उपाधि दी थी। इतनी सुन्दर जगह हिमालय में शायद ही कहीं मिलेगी। यहाँ की प्राकृतिक भव्यता की कोई मिसाल नहीं दी जा सकती है - देवदार के घने वृक्षों से घिरे इस पहाड़ी स्थल से हिमालय के तीन सौ किलोमीटर चौड़े विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है। मैं दिन में बाहर जा कर पैदल यात्रा करता और रात में अपने होटल के कमरे से बाहर के अँधेरे में आकाशगंगा देखने का प्रयास करता।

लेकिन मेरे दिलो-दिमाग पर बस रश्मि ही छायी हुई थी। 'क्या उन लोगो को याद भी है मेरे बारे में?' मैं यह अक्सर सोचता। कौसानी में अत्यंत शान्ति थी, अतः कुछ दिन वहीँ रहने का निश्चय किया। वैसे भी उत्तराँचल घूमने की मेरी कोई निश्चित योजना नहीं थी। जहाँ मन रम जाय, वहीँ रहने लगो! वहां रहते हुए, करीब पांच दिन बाद मुझे भंवर सिंह के नंबर से रात में फ़ोन आया।

"हेल्लो!" मैंने कहा।

"जी..... मैं रश्मि बोल रही हूँ।”

“रश्मि? आप ठीक हैं? घर में सभी ठीक हैं?” मैंने जल्दी जल्दी प्रश्न दाग दिए। लेकिन वो जैसे कुछ नहीं सुन रही हो।

“जी.... हमें आपसे कुछ कहना था।"

"हाँ कहिये न?" मेरा दिल न जाने क्यों जोर जोर से धड़कने लगा।

"जी..... हम आपसे प्रेम करते हैं।" कहकर उसने फोन काट दिया।

मुझे अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हो रहा था – ये क्या हुआ? ज़रूर भंवर सिंह ने मेरे बारे में तहकीकात करी होगी, और यह सोचा होगा की रश्मि और मेरा अच्छा मेल है। हाँ, ज़रूर यही बात रही होगी। पारंपरिक भारतीय समाज में आज भी, यदि माता-पिता अपनी लड़की का विवाह तय कर देते हैं, तो वह लड़की अपने होने वाले पति को विवाह से पूर्व ही पति मान लेती है। 

‘वो भी मुझसे प्रेम करती है!’ 

रश्मि के फोन ने मेरे दिल के तार कुछ इस प्रकार झनझना दिए की रात भर नींद नहीं आई। मैंने पलट कर फोन नहीं किया। हो सकता है की ऐसा करने पर वो लोग मुझे असंस्कृत समझें। बहुत ही बेचैनी में करवटें बदलते हुए मेरी रात किसी प्रकार बीत ही गयी। 'रश्मि का कैसा हाल होगा?' यह विचार मेरे मन में बार बार आता।

अगले दिन मेरे ऑफिस से मेरे बॉस, और मेरे हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी का फ़ोन आया। उन लोगो ने बताया की कोई मेरे बारे में पूछताछ कर रहे थे। मैंने उन लोगो को सारी बात का विवरण दे दिया। दोनों ही लोग बहुत खुश हो गए - दरअसल सभी को मेरी चिंता खाए जाती थी। खासतौर पर मेरा बॉस - उसको लगता था की कहीं मैं वैरागी न बन जाऊं। काम मैं अच्छा कर लेता हूँ, इसलिए उसको मुझे खोने का डर लगा रहता था। इसी तरह हाउसिंग सोसाइटी का सेक्रेटरी सोचता की रहता तो इतने बड़े घर में है, लेकिन अकेले रहते रहते कहीं उसको खराब न कर दूं। लेकिन, अगर मैं शादी कर लेता, तो उन लोगो की अपनी अपनी चिंता समाप्त हो जाती। इसलिए उन लोगो ने मौका मिलते ही मेरे बारे में जांच करने वाले व्यक्ति को अच्छी-अच्छी बातें बताई और मेरी इतनी बढाई कर दी जैसे मुझसे बेहतर कोई और आदमी न बना हो। शायद यही बाते भंवर सिंह को भी पता चली हों और उन्होंने अपने घर में मेरे बारे में विचार विमर्श किया हो।

सारे संकेत सकारात्मक थे। अवश्य ही भंवर सिंह के घर में मुझको पसंद किया गया हो। रश्मि के फोन के बाद मुझे अब भंवर सिंह के फोन का इंतज़ार था। पूरे दिन इंतज़ार किया, लेकिन कोई फोंन नहीं आया। आखिरकार, शाम को करीब तीन बजे भंवर सिंह का फोन आया।

"हेल्लो... रूद्र जी, मैं भंवर सिंह बोल रहा हूँ .."

"जी.. नमस्ते! हाँ... बोलिए... आप कैसे हैं?"

"आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करनी है। आप हमारे यहाँ एक बार फिर से आ सकते हैं?"

"जी.. बिलकुल आ सकता हूँ। लेकिन मुझे दो दिन का समय तो लगेगा। अभी कौसानी में ही हूँ!"

"कोई बात नहीं। आप आराम से आइये। लेकिन मिलना ज़रूरी है, क्योंकि यह बात फोन पर नहीं हो सकती।"

"जी.. ठीक है" कह कर मैंने फोन काट दिया, और मन ही मन भंवर सिंह को धिक्कारा। 'अरे यार! यह बात सवेरे बता देते तो कम से कम मैं एक तिहाई रास्ता पार चुका होता अब तक!'

खैर, इतने शाम को ड्राइव करना मुश्किल काम था, इसलिए मैंने सुबह तड़के ही निकलने की योजना बनायीं। अपना सामान पैक किया, और रात का खाना खा कर लेटा ही था, की मुझे फिर से भंवर सिंह के नंबर से कॉल आया। मैंने तुरंत उठाया - दूसरी तरफ रश्मि थी। 

"रश्मि जी, आप कैसी हैं?" मैंने कहा।

"जी..... मैं ठीक हूँ। .... आप कैसे हैं?"

"मैं बिलकुल ठीक हूँ ... आपको फिर से देखने के लिए बेकरार हूँ..."

उधर से कोई जवाब तो नहीं आया, लेकिन मुझे लगा की रश्मि शर्म के मारे लाल हो गयी होगी।

"रश्मि?" मैंने पुकारा।

"जी... मैं हूँ यहाँ।“

“तो आप कुछ बोलती क्यों नहीं?”

“..... आपको मालूम है की आपको पिताजी ने क्यों बुलाया है?"

"कुछ कुछ आईडिया तो है। लेकिन पूरा आप ही बता दीजिये।"

"जी... पिताजी आपसे हमारे बारे में बात करना चाहते हैं....." जब मैंने जवाब में कुछ नहीं कहा, तो रश्मि ने कहना जारी रखा, ".... आप सच में मुझसे शादी करेंगे?"

"आपको लगता है की मैंने मजाक कर रहा हूँ? आपसे मैं ऐसा मजाक क्यों करूंगा?"

"नहीं नहीं... मेरा वो मतलब नहीं था। हम लोग बहुत ही साधारण लोग हैं... आपके मुकाबले बहुत गरीब! और... मैं तो आपके लायक बिल्कुल भी नहीं हूँ... न आपके जितना पढ़ी लिखी, और न ही आपके तौर तरीके जानती हूँ.."

"रश्मि... शादी का मतलब अंत नहीं है ... यह तो हमारी शुरुआत है। मैं तो चाहता हूँ की आप अपनी पढाई जारी रखिये। खूब पढ़िए – मुझसे ज्यादा पढ़िए। भला मैं क्यों रोकूंगा आपको। रही बात मेरे तौर तरीके सीखने की, तो भई, मेरा तो कोई तरीका नहीं है... बस मस्त रहता हूँ! ठीक है?"

"जी..."

"तो फिर जल्दी ही मिलते हैं.. ओके?"

"ओ.. के.."

"और हाँ, एक बात... आई लव यू टू"

जवाब में उधर से खिलखिला कर हंसने की आवाज़ आई।
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12-17-2018, 02:06 AM,
#7
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
अगली सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ ही मैं रश्मि से मिलने निकल पड़ा। मौसम अच्छा था - हलकी बारिश और मंद मंद बयार। ऐसे में तो पूरे चौबीस घंटे ड्राइव किया जा सकता है। लेकिन, पहाड़ों पर थोड़ी मुश्किल आती है। खैर, मन की उमंग पर नियंत्रण रखते हुए मैंने जैसे तैसे ड्राइव करना जारी रखा - बीच बीच में खाने पीने और शरीर की अन्य जरूरतों के लिए ही रुका। ऐसे करते हुए शाम ढल गयी, लेकिन फिर भी रश्मि का घर कम से कम पांच घंटे के रास्ते पर था। बारिश के मौसम में, और वह भी शाम को, पहाडो पर ड्राइव करने के लिए बहुत ही अधिक कौशल चाहिए। अतः मैंने वह रात एक छोटे से होटल में बिताई। अगली सुबह नहा धोकर और नाश्ता कर मैंने फिर से ड्राइव करना शुरू किया और करीब छह घंटे बाद भंवर सिंह के घर पहुँचा। 

सवेरे निकलने से पहले मैंने उनको फोन कर दिया था की आज ही आने वाला हूँ, इसलिए उनके घर पर सामान्य दिनों से अधिक चहल पहल देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। दरवाज़े पर भंवर सिंह और सुमन ने मेरा स्वागत किया और मुझे घर के अन्दर ससम्मान लाया गया। घर के अन्दर चार पांच बुजुर्ग पुरुष थे - उनमे से एक तो निश्चित रूप से पण्डित लग रहा था। जान पहचान के समय यह बात भी साफ़ हो गयी। भंवर सिंह वाकई आज मेरे प्रस्ताव को अगले स्तर पर ले जाना चाहते थे। उन बुजुर्गो में दो लोग भंवर सिंह के बड़े भाई थे, और बाकी लोग उस समाज के मुखिया थे। भारतीय शादियाँ, विशेष तौर पर छोटी जगह पर होने वाली भारतीय शादियाँ काफी जटिल और पेचीदा हो सकती हैं - इसका ज्ञान मुझे अभी हो रहा था।

ऐसे ही हाल चाल लेते हुए दोपहर का खाना जमा दिया गया। बहुत ही रुचिकर गढ़वाली खाना परोसा गया था - पेट भर गया, लेकिन मन नहीं। नाश्ता सवेरे किया था, इसलिए भूख तो जम कर लगी थी - इसलिए मैंने तो डटकर खाया। खाना खाते हुए अन्य लोगो से मेरे उत्तराँचल आने, मेरे पढाई और काम के विषय में औपचारिक बाते हुईं। वैसे भी उन लोगो को अब मेरे बारे में काफी कुछ मालूम हो चुका था, बस वहां बात करने के लिए कुछ तो होना चाहिए - ऐसा सोच कर बस खाना पूरी चल रही थी।

खाने के बाद अब गंभीर विषय पर चर्चा होनी थी। 

भंवर सिंह : "रूद्र जी, मैं जानता हूँ की आप बहुत अच्छे आदमी हैं, और आपके जैसा वर ढूंढना मेरे अपने खुद के बस में संभव नहीं है... और मैं यह भी जानता हूँ की आप मेरी बेटी को बहुत जिम्मेदारी और प्यार से रखेंगे। लेकिन.. यह सब बातें आगे बढ़ें, इसके पहले मैं आपको बता दूं की हम लोग अपनी परम्पराओं में बहुत विश्वास रखते हैं।"

मैंने सिर्फ अपना सर सहमती में हिलाया... भंवर सिंह ने बोलना जारी रखा, ".... वैसे तो हम लोग अपने समाज के बाहर अपने बच्चो को नहीं ब्याहते, लेकिन आपकी बात कुछ और ही है। फिर भी, जन्म-पत्री और कुंडली तो मिलानी ही पड़ती है न..."

"मुझे इस बात पर कोई ऐतराज़ नहीं... आप मिला लीजिये..." मैंने मन ही मन शक्ति को उनकी मूर्खता के लिए कोसा, 'कहीं ये बुड्ढा कचरा न कर दे'

"इसके लिए मैंने पंडित जी को बुलाया था... आप अपनी जन्मतिथि, समय और जन्म-स्थान बता दीजिये। पंडित जी इसका मिलान कर देंगे।"

"बिलकुल .." यह कह कर मैंने पंडित को अपने जन्म सम्बंधित सारे ब्योरे दे दिए। पंडित ने अपने मोटे-मोटे पोथे खोल कर न जाने कौन सी प्राचीन, लुप्तप्राय पद्धति लगा कर हमारे भविष्य के लिए निर्णय लेने की क्रिया शुरू कर दी। यह सब करने में करीब करीब एक घंटा लगा होगा उस मूर्ख को। खैर, उसने अंततः घोषणा करी की लड़का और लड़की के बीच अष्टकूट मिलान छब्बीस हैं, और यह विवाह श्रेयष्कर है। यह सुनते ही वहां उपस्थित सभी लोगो में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी - खासतौर पर मुझमें। चूंकि घर की सारी स्त्रियाँ और लड़कियां घर के अन्दर के कमरों में थीं, इसलिए मुझे उनके हाव-भाव का पता नहीं।

खैर, इस घोषणा के बाद भंवर सिंह और उनकी पत्नी दोनों ने मुझे कुर्सी पर आदर से बिठा कर मेरे मस्तक पर तिलक लगाया और मिठाई खिलाई। मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा था की यह सब क्या हो रहा था - खैर, मैं भी बहती धारा के साथ बहता जा रहा था। ऐसे ही कुछ लोगो ने टीका इत्यादि किया - अभी यह क्रिया चल ही रही थी की बैठक में रश्मि आई। उसने लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी - शायद अपनी माँ की। हिन्दू रीतियों में लाल रंग संभवतः सबसे शुभ माना जाता है। इसलिए शादी ब्याह के मामलों में लाल रंग की ही बहुतायत है। साड़ी का पल्लू उसके सर से होकर चेहरे पर थोड़ा नीचे आया हुआ था - इतना की जिससे आँख ढँक जाए।

'क्या बकवास!' मैंने मन में सोचा, 'इतना दूर आया... और चेहरा भी नहीं देख सकता ..!'

खैर, रश्मि को मेरे बगल में एक कुर्सी पर बैठाया गया। वहां बैठे समस्त लोगो के सामने हम दोनों का विधिवत परिचय दिया गया। उसके बाद पंडित ने घोषणा करी की वर (यानि की मैं), वधु (यानि की रश्मि) से विवाह करने की इच्छा रखता हूँ और यह की दोनों परिवारों के और समाज के वरिष्ठ जनो ने इस विवाह के लिए सहमति दे दी है। उसके बाद सभी लोगो ने हम दोनों को अपनी हार्दिक बधाइयाँ और आशीर्वाद दिए। मैंने और रश्मि ने एक दूसरे को मिठाई खिलाई।

पंडित ने एक और दिल तोड़ने वाली बात की घोषणा की - यह की अभी चातुर्मास चल रहा है, इसलिए विवाह की तिथि नवम्बर में निश्चित है। मेरा मन हुआ की इस बुढऊ का सर तोड़ दिया जाए। खैर, कुछ किया नहीं जा सकता था। बस इन्तजार करना पड़ेगा। यह भी तय हुआ की शादी पारंपरिक रीति के साथ की जायेगी। यह सब होते होते शाम ढल गयी। उन लोगो ने रात में वहीँ रुकने का अनुरोध किया, लेकिन मैंने उनसे विदा ली, और अपने पहले वाले होटल में रात गुजारी। होटल के मालिक ने मुझे बधाई दी और मुझे मुफ्त में रात का खाना खिलाया।

सवेरे उठने के साथ मैंने सोचा की अब आगे क्या किया जाए! शादी के लिए छुट्टी तो लेनी ही पड़ेगी, तो क्यों न यह छुट्टियाँ बचा ली जाए, और वापस चला जाया जाए। इस समय का उपयोग घर इत्यादि जमाने में किया जा सकता था। अतः मैंने सवेरे ही भंवर सिंह के घर जा कर अपनी यह मंशा उनको बतायी। उन्ही के यहाँ खाना इत्यादि खा कर मैंने वापसी का रुख लिया। दुःख की बात यह की जाते समय रश्मि से बात भी न हो सकी और न ही मुलाकात। 

'दकियानूसी की हद!' खैर, क्या कर सकते हैं! 

वापस कब घर आ गया, कुछ पता ही नहीं चला। समय कहाँ उड़ गया - बस खयालो की दुनिया में ही घूमता रहा। कुछ याद नहीं की कब ड्राइव करके वापस देहरादून पहुँचा और कब वापस घर!

रश्मि के लिए मेरे प्रेम ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया था। सुना था, की लोग प्रेम के चक्कर में पड़ कर न जाने कैसे हो जाते हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा था की मेरा भी यही हाल होगा। घर पहुँचने के बाद मैं जो भी कुछ कर रहा था, वह सब रश्मि को ही ध्यान में रख कर कर रहा था। बेडरूम की सजावट कैसी हो, उसी ताज पर नया बेड और नयी अलमारियां खरीदीं, खिडकियों के परदे और दीवारों की सजावट सब बदलवा दी। मुझे जानने वाले सभी लोग आश्चर्यचकित थे। इन कुछ महीनों में मैंने क्या क्या किया, उसका ब्यौरा तो नहीं दूंगा, लेकिन अगर कुछ ही शब्दों में बयान करना हो तो बस इतना कहना काफी होगा की 'प्यार में होने' का एहसास गज़ब का था। ऐसा नहीं था की मैं और रश्मि फोन पर दिन रात लगे रहते थे - वास्तविकता में इसका उल्टा ही था। विवाह के अंतराल तक हमारी मुश्किल से पांच-छः बार ही बात हुई थी, और वह भी निश्चित तौर पर उसके परिवार वालो के सामने। लिहाज़ा, मिला-जुला कर कोई पांच-छः मिनट! बस! लेकिन फिर भी, उसकी आवाज़ सुन कर दुनिया भर की एनर्जी भर जाती मुझमे, जो उसके अगले फोन तक मुझको जिला देती। मेरा सचमुच का कायाकल्प हो गया था।

खैर, अंततः वह दिन भी आया जब मुझे रश्मि को ब्याहने उसके घर जाना था। निकलने से पूर्व, एक इवेंट आर्गेनाइजर को बुला कर विवाहोपरांत रिसेप्शन भोज के निर्देश दिए और घर की चाबियाँ हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी को सौंप कर वापस उत्तराँचल चल पड़ा। 

बरात के नाम पर मेरे दो बहुत ही ख़ास दोस्त आ सके। खैर, मुझे बरात जैसे तमाशों की आवश्यकता भी नहीं थी। कोर्ट में ज़रूरी कागजात पर हस्ताक्षर करना मेरे लिए काफी था। विवाह, दरअसल मन से होता है, नौटंकी से नहीं। मंत्र पढने, आग के सामने चक्कर लगाने से विवाह में प्रेम, आदर और सम्मान नहीं आते – वो सब प्रयास कर के लाने पड़ते हैं। लेकिन मैं यह सब उनके सामने नहीं बोल सकता था – उन सबके लिए अपनी बड़ी लड़की का विवाह करना बहुत ही बड़ी बात थी, और वो सभी इस अवसर को अधिक से अधिक पारंपरिक तौर-तरीके से मनाना चाहते थे। मेरे मित्रों ने देहरादून से स्वयं ही गाड़ी चलाई, और मुझे नहीं चलाने दी। उस कसबे में सबसे अच्छे होटल में हमने कमरे बुक कर लिए थे, जिससे कोई कठिनाई नहीं हुई। 

विवाह सम्बन्धी क्रियाविधियां और संस्कार, शादी के दो दिन पहले से ही प्रारंभ हो गयी - ज्यादातर तो मुझे समझ ही नहीं आयीं, की क्यों की जा रही हैं। पारंपरिक बाजे गाजे, संगीत इत्यादि कभी मनोरम लगते तो कभी बेहद चिढ़ पैदा करने वाले! कम से कम एक दर्जन, लम्बी चौड़ी विवाह रीतियाँ (मुझे नही लगता की आपको वह सब विस्तार में जानने में कोई रूचि होगी) संपन्न हुईं, तब कहीं जाकर मुझे रश्मि को अपनी पत्नी कहने का अधिकार मिला। यह सब होते होते इतनी देर हो चली थी की मेरा मन हुआ की बस अब जाकर सो जाया जाए। ऐसी हालत में भला कौन आदमी सेक्स अथवा सुहागरात के बारे में सोच सकता है! मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली, देखा अभी तो मुश्किल से सिर्फ दस बज रहे थे - और मुझे लग रहा था की रात के कम से कम दो बज रहे होंगे। सर्दियों में शायद पहाड़ों पर रात जल्दी आ जाती है, जिसकी मुझे आदत नहीं थी। खैर, अगले आधे घंटे में हमने खाना खाया और शुभचिंतकों से बधाइयाँ स्वीकार कर, विदा ली।

खैर, तो मेरी सुहागरात का समय आ ही गया, और रश्मि जैसी परी अब पूरी तरह से मेरी है - यह सोच सोच कर मैं बहुत खुश हो रहा था। अब भई यहाँ मेरी कोई भाभी या बहन तो थी नहीं – अन्यथा सोने के कमरे में जाने से पहले चुंगी देनी पड़ती। मुझे सुमन ने सोने के कमरे का रास्ता दिखाया। मैंने उसको गुड नाईट और धन्यवाद कहा, और कमरे में प्रवेश किया। हमारे सोने का इन्तेजाम उसी घर में एक कमरे में कर दिया गया था। यह काफी व्यवस्थित कमरा था - उसमे दो दरवाज़े थे और एक बड़ी खिड़की थी। कमरे के बीच में एक पलंग था, जो बहुत चौड़ा नहीं था (मुश्किल से चार फीट चौड़ा रहा होगा), उस पर एक साफ़, नयी चद्दर, दो तकिये और कुछ फूल डाले गए थे। रश्मि उसी पलंग पर अपने में ही सिमट कर बैठी हुई थी। रश्मि ने लाल और सुनहरे रंग का शादी में दुल्हन द्वारा पहनने वाला जोड़ा पहना हुआ था। मैं कमरे के अन्दर आ गया और दरवाज़े को बंद करके पलंग पर बैठ गया। पलंग के बगल एक मेज रखी हुई थी, जिस पर मिठाइयाँ, पानी का जग, गिलास, और अगरबत्तियां लगी हुई थी। पूरे कमरे में एक मादक महक फैली हुई थी। बाहर हांलाकि ठंडक थी, लेकिन इस कमरे में ठंडक नहीं लग रही थी।

'क्या सोच रही होगी ये? क्या इसके भी मन में आज की रात को लेकर सेक्सुअल भावनाएं जाग रही होंगी?' 

मैं यही सब सोचते हुए बोला - "रश्मि ..?"

"जी"

"आई लव यू....." 

जवाब में रश्मि सिर्फ मुस्कुरा दी। 

"मैं आपका घूंघट हटा सकता हूँ?" रश्मि ने धीरे से हाँ में सर हिलाया।
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12-17-2018, 02:06 AM,
#8
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
मैंने धड़कते दिल से रश्मि का घूंघट उठा दिया - बेचारी शर्म से अपनी आँखें बंद किये बैठी रही। अपने साधारण मेकअप और गहनों (माथे के ऊपरी हिस्से से होती हुई बेंदी, मस्तक पर बिंदी, नाक में एक बड़ा सा नथ, कानो में झुमके) और केसरिया सिन्दूर लगाई हुई होने पर भी रश्मि बहुत सुन्दर लग रही थी - वस्तुतः वह आज पहले से अधिक सुन्दर लग रही थी। उसके दोनों हाथों में कोहनी तक मेहंदी की विभिन्न प्रकार की डिज़ाइन बनी हुई थी, और कलाई के बाद से लगभग आधा हाथ लाल और स्वर्ण रंग की चूड़ियों से सुशोभित था। उसके गले में तीन तरह के हार थे, जिनमे से एक मंगलसूत्र था। 

"प्लीज अपनी आँखें खोलो..." मैंने कम से कम तीन-चार बार उससे बोला तब कहीं उसने अपनी आँखें खोली। आखें खुलते ही उसको मेरा चेहरा दिखाई दिया। 

'क्या सोच रही होगी ये? और क्या सोचेगी? शायद यही की यह आदमी इसका कौमार्य भंग करने वाला है।' 

यह सोचकर मेरे होंठों पर एक वक्र मुस्कान आ गयी। ऐसा नहीं है की रश्मि को पाकर मैं उसके साथ सिर्फ सेक्स करना चाहता था – लेकिन सुहागरात के समय मन की दशा न जाने कैसी हो जाती है, की सिर्फ सम्भोग का ही ख़याल रहता है। रश्मि ने दो पल मेरी आँखों में देखा – संभवतः उसको मेरे पौरुष, और मेरी आँखों में कामुक विश्वास और संकल्प का आभास हो गया होगा, इसीलिए उसकी आँखें तुरंत ही नीचे हो गयीं। 

"मे आई किस यू?" मैंने पूछा। 

उसने कुछ नहीं बोला।

"ओके। यू किस मी।" मैंने आदेश देने वाली आवाज़ में कहा। 

रश्मि एक दो सेकंड के लिए हिचकिचाई, फिर आगे की तरफ थोडा झुक कर मेरे होंठो पर जल्दी से एक चुम्बन दिया, और उतनी ही जल्दी से पीछे हट गयी। उसका चेहरा अभी और भी नीचे हो गया। 

'भला यह भी क्या किस हुआ' मैंने सोचा और उसके चेहरे को ठुड्डी से पकड़ कर ऊपर उठाया। 

कुछ पल उसके भोले सौंदर्य को देखता रहा और फिर आगे की ओर झुक कर उसके होंठो को चूमना शुरू कर दिया। यह कोई गर्म या कामुक चुम्बन नहीं था - बल्कि यह एक स्नेहमय चुम्बन था - एक बहुत ही लम्बा, स्नेहमय चुम्बन। मुझे समय का कोई ध्यान नहीं की यह चुम्बन कब तक चला। लेकिन अंततः हमारा यह पहला चुम्बन टूटा।

लेकिन, बेचारी रश्मि का हाल इतने में ही बहुत बुरा हो चला था - वह बुरी तरह शर्मा कर कांप रही थी, उसके गाल इस समय सुर्ख लाल हो चले थे और साँसे भारी हो गयी थी। संभवतः यह उसके जीवन का पहला चुम्बन रहा होगा। उसकी नाक का नथ हमारे चुम्बन में परेशानी डाल रहा था, इसलिए मैंने आगे बढ़कर उसको उतार कर अलग कर दिया। ऐसा करने हुए मुझे सहसा यह एहसास हुआ की थोड़ी ही देर में इसी प्रकार रश्मि के शरीर से धीरे-धीरे करके सारे वस्त्र उतर जायेंगे। मेरे मन में कामुकता की एक लहर दौड़ गयी।

"रश्मि?"

"जी?"

"आपको इंग्लिश आती है?"

"थोड़ी-थोड़ी ... आपने क्यों पूछा?"

"बिकॉज़, आई वांट टू सी यू नेकेड" मैंने उसके कान के बहुत पास आकर फुसफुसाती आवाज़ में कहा।

"जी?" उसकी बहुत ही भयभीत आवाज़ आई।

"मैं आपको बिना कपड़ो के देखना चाहता हूँ" मैंने वही बात हिन्दी में दोहरा दी, और उसको आँखें गड़ा कर देखता रहा। वह बेचारी घबराहट और शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। मैंने कहना जारी रखा, "मैं आपके सारे कपड़े उतार कर, आपके निप्पल्स चूमूंगा, आपके बम और ब्रेस्ट्स को दबाऊँगा और फिर आपके साथ ज़ोरदार सेक्स करूंगा..." 

मेरी खुद की आवाज़ यह बोलते बोलते कर्कश हो गयी, और मेरे शिश्न में उत्थान आना शुरू हो गया।

"ज्ज्ज्जीईई .. म्म्म मुझे बहुत डर लग रहा है" बड़े जतन से वह सिर्फ इतना ही बोल पाई।

"आई कैन अंडरस्टैंड दैट डिअर। मैं आपको किसी भी ऐसी चीज़ को करने को नहीं कहूँगा, जिसके लिए आप रेडी नहीं हैं।"

रश्मि ने समझते हुए बहुत धीरे से सर हिलाया। कुछ कहा नहीं।

मैंने उसकी लाल गोटेदार साड़ी का पल्लू उसकी छाती से हटा दिया। लाल रंग के ही ब्लाउज में कैद उसके युवा स्तन, उसकी तेज़ी से चलती साँसों के साथ ही ऊपर नीचे हो रहे थे। मेरा बहुत मन हुआ की उसके कपड़े उसके शरीर से चीर कर अलग कर दूँ, लेकिन मेरे अन्दर उसके लिए प्यार और जिम्मेदारी के एहसास ने मुझे ऐसा करने से रोक लिया। लिहाज़ा, मेरी गति बहुत ही मंद थी। वैसे मेरे खुद के हाथ कांप रहे थे, लेकिन मैंने यह निश्चय किया था की इस परम सुंदरी परी को आज मैं प्यार कर के रहूँगा। 

मैंने उसकी साड़ी को उसकी कमर में बंधे पेटीकोट से जैसे तैसे अलग कर दिया और उसके शरीर से उतार कर नीचे फेंक दिया। इस समय वह सिर्फ ब्लाउज और पेटीकोट में बैठी हुई थी। मेरी अगली स्वाभाविक पसंद (उतारने के लिए) उसका ब्लाउज थी। कितनी ही बार मैंने कल्पना कर कर के सोचा था की मेरी जान के स्तन कैसे होंगे, और इस समय मुझे बहुत मन हो रहा था की उसके स्तनों के दर्शन हो ही जाएँ। मैं कांपते हुए हाथ से उसके ब्लाउज के बटन धीरे-धीरे खोलने लगा। करीब तीन बटन खोलने के बाद मुझे अहसास हुआ की उसने अन्दर ब्रा नहीं पहनी है।

"आप ब्रा नहीं पहनती?" मैंने बेशर्मी से पूछ ही लिया।

रश्मि घबराहट और शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। उसका चेहरा नीचे की तरफ झुका हुआ था, मानो वह उसके ब्लाउज के बटन खोलते मेरे हाथों को देख रही हो। उसकी तेज़ी से चलती साँसे और भी तेज़ होती जा रही थी। उसने उत्तर में सिर्फ न में सर हिलाया - और वह भी बहुत ही हलके से। खैर, यह तो मेरे लिए अच्छा था - मुझे एक कपड़ा कम उतारना पड़ता। मैंने उसकी ब्लाउज के बचे हुए दोनों बटन भी खोल दिए। उसकी त्वचा शर्म या उत्तेजना के कारण लाल होती जा रही थी। मैंने अंततः उसके ब्लाउज के दोनों पट अलग कर दिए, और मुझे उसके स्तनों के दर्शन हो गए।

रश्मि के स्तन अभी भी छोटे थे - मध्यम आकार के सेब जैसे, और ठोस। उसकी त्वचा एकदम दोषरहित थी। उन पर गहरे भूरे रंग के अत्यंत आकर्षक स्तनाग्र (निप्पल्स) थे, जिनका आकार अभी छोटा लग रहा था। महिलाओं के स्तन बढती उम्र, मोटापे, अक्षमता और गुरुत्व के मिले जुले कारणों से बड़े हो जाते हैं, और कई बार दुर्भाग्यपूर्ण तरीक से नीचे लटक से जाते हैं। लेकिन रश्मि इन सब प्रभावों से दूर, अभी अभी यौवन की दहलीज़ पर आई थी। लिहाज़ा, उसके स्तनों पर गुरुत्व का कोई प्रभाव नहीं था, और उसके निप्पल्स भूमि के सामानांतर ही सामने की ओर निकले हुए थे। रश्मि के स्तन उसकी तेज़ी से चलती साँसों के साथ ही ऊपर नीचे हो रहे थे। यह सारा नज़ारा देख कर मुझे नशा सा आ गया - वाकई इन स्तनों को किसी भी ब्रा की ज़रुरत नहीं थी।

"रश्मि ... यू आर सो प्रीटी! आप मेरे लिए दुनिया की सबसे सुन्दर लड़की हैं!" यह सब कहना स्वयं में ही कितना उत्तेजनापूर्ण था - खास तौर पर तब, जब यह सारी बातें सच थी।

मुझसे अब और रहा नहीं जा रहा था। उसके जवान, ठोस स्तनों पर मैंने अपने मुंह से हमला कर दिया। मेरा सबसे पहला एहसास उसके स्तनों की महक का था - आड़ू जैसी महक! उसके चिकने निप्पल्स पहले मुलायम थे, लेकिन मेरे चूसे और चुभलाए जाने से कड़े होते जा रहे थे। मेरे इस क्रिया कलाप का सकारात्मक असर रश्मि पर भी पड़ रहा था, क्योंकि उसके हाथों ने मेरे सर को उन्मादित होकर पकड़ लिया था। मैंने कुछ देर तक उसके स्तनों को ऐसे ही दुलार किया - लेकिन इतना होते होते रश्मि और मेरा, दोनों का ही, गला एकदम शुष्क हो गया। मैंने रुक कर पास ही रखे गिलास से पानी पिया और रश्मि को भी पिलाया। उसके बाद मैंने उसके ब्लाउज को उसके शरीर से अलग कर के ज़मीन पर फेंक दिया। ऐसा होते ही मेरी जान अपने में ही सिमट गयी और अपने हाथो से अपनी नग्नावस्था को छुपाने की कोशिश करने लगी। चूड़ियों और मेहंदी से भरे हाथो से ऐसा करते हुए वह और भी प्यारी लग रही थी। मैंने उसके हाथ हटाने की कोशिश नहीं की, लेकिन उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर उसके होंठों पर एक गहरा चुम्बन दिया, और फिर सिलसिलेवार तरीके से चुम्बनों की बौछार कर दी।
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12-17-2018, 02:06 AM,
#9
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
शुरू में उसका शरीर, होंठ, चेहरा - सब कुछ - एकदम से कड़ा हो गया, शायद नर्वस होने से ... लेकिन चुम्बनों की संख्या बढ़ते रहने से वह भी धीरे-धीरे शांत होने लगी। उसने मेरी आँखों में देखा, और फिर आँखें बंद कर के चुम्बन में यथासंभव सहयोग देने लगी। उसके होंठ गर्म और मुलायम थे - एकदम शानदार! चुम्बन करते हुए मैं अपनी जीभ को उसके मुंह में डालने का प्रयास करने लगा। संभवतः उसको यह बात समझ में आ गयी - उसने अपने होंठ ज़रा से खोल दिए। मैंने बहुत सावधानीपूर्वक अपनी जीभ उसके मुंह में प्रविष्ट कर दी। एक बात और हुई, उसने अपने हाथ अपने सीने से हटा कर, मुझे अपनी बाहों में भर लिया। रश्मि के मुंह का स्वाद बहुत अच्छा था - हलकी सी मिठास लिए हुए। मैं बयान नहीं कर सकता की यह अनुभव कितना बढ़िया था। यह एक कामुक चुम्बन था, जिसके उन्माद में अब हम दोनों ही बहे जा रहे थे। मेरे हाथ उसके चेहरे से हट कर उसकी कमर पर चले गए और वहां से धीरे धीरे उसके नितम्बों पर। मेरी उत्तेजना मुझे रश्मि को अपनी तरफ भींचने को मजबूर कर रही थी। मैंने उसको अपनी तरफ खीच लिया - मुझे अपने सीने पर रश्मि के स्तनों का एहसास होने लगा। इस तरह से रश्मि को चूमना और भी सुखद लग रहा था।

खैर, ऐसे ही कुछ देर चूमने के बाद हम दोनों के मुंह अलग हुए। मैंने रश्मि की कमर पर नज़र डाली - उसके पेटीकोट का नाड़ा ढूँढने के लिए। नाड़ा उसकी कमर से बाएं तरफ था, जिसको मैंने तुरंत ही खीच कर ढीला कर दिया। अब पेटीकोट उसके शरीर पर नाम-मात्र के लिए ही रह गया। इसलिए मैंने उसको उतारने में ज़रा भी देर नहीं की। लेकिन मेरी इस जल्दबाजी में रश्मि बिस्तर पर चित होकर गिर गयी। पेटीकोट के उतरते ही उसने अपना चेहरा अपने हाथों से ढक लिया - शायद अब उसको अपने स्तनों के प्रदर्शन पर उतना ऐतराज़ नहीं था, लेकिन ऐसी नग्नावस्था में वह मुझे अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहती थी। मेरी आशा के विपरीत, रश्मि ने चड्ढी पहनी हुई थी। उसका रंग काला था। उसमे कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था - बस रोज़मर्रा पहनी जाने वाली सामन्य सी चड्ढी थी - हाँ एक बात है - चड्ढी नयी थी। सामने से देखने पर उसकी चड्ढी अंग्रेजी के "V" जैसी, कमर की तरफ फैलाव लिए और वहां, जहाँ पर उसकी योनि थी, एक सौम्य उभार लिए हुए थी। रश्मि के नितम्ब स्त्रियोचित फैलाव लिए हुए प्रतीत होते थे, लेकिन उसका कारण यह था की उसकी कमर पतली थी। उसके शरीर का आकर वस्तुतः एक कमसिन, छरहरी और तरुण लड़की जैसा था।

मैंने और नीचे नज़र डाली। रश्मि के दोनों पाँव भी मेहंदी से आलिंकृत थे। दोनों ही टखनों में चांदी की पायलें थीं। उसके पैरों में मैंने ही बिछिया पहनाई थी। उसके दोनों पाँव की निचली परिधि लाल रंग से रंगे हुए थे। मेरी दृष्टि वापस उसके योनि क्षेत्र पर चली गयी। मेरा मन हुआ की उसकी चड्ढी भी उतार दी जाए - मेरे लिंग का स्तम्भन और कसाव बढ़ता ही जा रहा था, और मैं अब रश्मि के अन्दर समाहित होने के लिए व्याकुल हुआ जा रहा था। लेकिन मुझे अभी कुछ और देर उसके साथ खेलने का मन हो रहा था। मैंने पलंग पर रश्मि के काफी पास अपने घुटने पर बैठ कर, अपना कुरता उतार दिया। अब मैंने सिर्फ चूड़ीदार पजामा और उसके अन्दर स्लिम फिट चड्ढी पहनी हुई थी। 

"रश्मि ..?" मैंने उसको आवाज़ लगाई।

"जी?" बहुत देर बाद उसने अपना चेहरा ढके हुए ही बोला।

"आपको मेरा एक काम करना होगा ...." मेरे आगे कुछ न बोलने पर उसने अपने चेहरे से हाथ हटा कर मेरी तरफ देखा।

"जी ... बोलिए?" मेरे कसरती शरीर को देख कर उसको और भी लज्जा आ गयी, लेकिन इस बार उसने छुपने का प्रयास नहीं किया।

"अपने हाथ मुझे दीजिये" उसने थोडा सा हिचकते हुए अपने हाथ आगे बढ़ाए, जिनको मैंने अपने हाथों में थाम लिया, और फिर अपने पजामे के कमर के सामने वाले हिस्से पर रख दिया। 

"यह पजामा आपको उतारना पड़ेगा। आपके कपडे उतार-उतार कर मैं थक गया।" मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा।

उसने पहले तो थोड़ा सा संकोच दिखाया, लेकिन फिर मेरी बात मान कर इस काम में लग गयी। उसने बहुत सकुचाते हुए मेरे पजामे का नाड़ा ढीला कर दिया और मेरे पजामे को धीरे से सरका दिया। मेरी चड्ढी के अन्दर मेरा लिंग बुरी तरह कस जा रहा था, और अब मेरा मन था की लिंग को मेरी चड्ढी के बंधन से अब मुक्त कर रश्मि के नरम, गरम और आरामदायक गहराई में समाहित कर दिया जाए। मेरी चड्ढी के वस्त्र को बुरी तरह से धकेलते मेरे लिंग को रश्मि भी बड़े कौतूहल से देख रही थी। 

"इसे भी ..." मैंने उसको उकसाया।

रश्मि को फिर से घबराहट होने लग गयी.. उसने न में सर हिलाया। यह देख कर मैंने उसके हाथ पकड़ कर जबरदस्ती अपनी चड्ढी की इलास्टिक पर रख दिया और उसको नीचे की तरफ खीच दिया। और इसके साथ ही मेरा अति-उत्तेजित लिंग मुक्त हो गया। 

"बाप रे!" रश्मि के मुंह से निकल ही गया, "इतना बड़ा!" 

रश्मि की दृष्टि मेरे कस के तने हुए लिंग पर जमी हुई थी।
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12-17-2018, 02:06 AM,
#10
RE: Chodan Kahani घुड़दौड़ ( कायाकल्प )
जैसा की मैंने पहले भी उल्लेख किया है, मेरा शरीर शरीर इकहरा और कसरती है। और उसमें से इतने गर्व से बाहर निकले हुए मेरा लिंग (गाढ़े भूरे रंग का एक मोटा स्तंभ, जिसकी लम्बाई सात इंच और मोटाई रश्मि की कलाई से भी ज्यादा है) देखकर वह निश्चित रूप से घबरा गयी थी। चड्ढी नीचे सरकाने की क्रिया में मेरे लिंग का शिश्नग्रछ्छद स्वयं ही थोड़ा पीछे सरक गया और लिंग के आगे का गुलाबी चमकदार हिस्सा कुछ-कुछ दिखाई देने लगा। रश्मि को मेरे लिंग को इस प्रकार देखते हुए देख कर मेरा शरीर कामाग्नि से तपने लग गया - संभवतः रश्मि भी इसी तरह की तपन खुद भी महसूस कर रही थी।

उसको अचानक ही अपनी कही हुई बात, अपनी स्थिति, और अपने साथ होने वाले क्रिया कलाप का ध्यान हो आया। उसने लज्जा से अपना मुंह तकिये में छुपा लिया। लेकिन उसका हाथ मुक्त था - मैंने उसको पकड़ कर अपने लिंग पर रख दिया। उसकी हथेली मेरे लिंग के गिर्द लिपट गई। घेरा पूरा बंद नहीं हुआ। मेरा संदेह सही था - रश्मि का हाथ तप रहा था। उसके हाथ को पकडे-पकडे ही मैंने अपने लिंग को घेरे में ले लिया और ऐसे ही घेरे हुए अपने हाथ को तीन चार बार आगे पीछे किया, और अपना हाथ हटा लिया। रश्मि अभी भी मेरे लिंग को पकडे हुए थी, हाँलाकि वह आगे पीछे वाली क्रिया नहीं कर रही थी। मेरे लिंग की लम्बाई का कम से कम आधा हिस्सा उसके हाथ की पकड़ से बाहर निकला हुआ था। लेकिन इस तरह से सजे हुए कोमल हाथ से घिरा हुआ मेरा लिंग मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

"जी.... हमें शरम आती है" उसने अंततः तकिये से अपना चेहरा अलग करके कहा। उसकी आवाज़ पहले जैसी मीठी नहीं लगी - उसमे अब एक तरह की कर्कशता थी - मैंने सोचा की शायद वह खुद भी उत्तेजित हो रही है। लिहाजा मैंने इस तथ्य को नज़रंदाज़ कर दिया।

"अपने पति से शर्म? ह्म्म्म ... चलिए, आपकी शर्म दूर कर देते हैं।" कहते हुए मैंने उसकी चड्ढी को नीचे सरका दी। मेरी इस हरकत से रश्मि शरम से दोहरी होकर अपने में ही सिमट गयी। कहाँ मैंने उसकी शरम मिटानी चाही थी, और कहाँ यह तो और भी अधिक शरमा गयी। कोई दो पल बाद ही मुझे उसका शरीर थिरकता हुआ लगा - ठीक वैसे ही जैसे सुबकने या सिसकियाँ लेते समय होता है। मारे गए..... संभवतः मेरी हरकतों ने उसकी भावनाओ को किसी तरह से ठेस पंहुचा दी थी।

"रश्मि ..." 

कोई उत्तर नहीं! मेरे मन में अब उधेड़बुन होने लगी - 'क्या यार! सब कचरा हो गया। एक तो यह एक छोटी सी लड़की है, और ऊपर से इतने धर्म-कर्म मानने वाले परिवार से। इसको आज तक शायद ही किसी लड़के ने छुआ हो। मेरी जल्दबाजी और जबरदस्ती ने सारा मज़ा खराब कर दिया।'

सारा मज़ा सचमुच ख़राब हो चला था - मेरा लिंगोत्थान तेज़ी से घटने लग गया। खैर अभी इस बात की चिंता नहीं थी। चिंता तो यह थी, की जिस लड़की को मैं प्रेम करता हूँ, वह मेरे ही कारण दुखी हो गयी थी। अब यह मेरा दायित्व था की मैं उसको मनाऊँ, और अगर किस्मत ने साथ दिया तो संभवतः सेक्स भी किया जा सके। मैं रश्मि के बगल ही लेट गया, और प्यार से उसको अपनी बाहों में भर लिया। थोड़ी देर पहले उसका तपता शरीर अपेक्षाकृत ठंडा लग रहा था। अच्छा, एक बात बताना तो भूल ही गया - मैं पलंग पर अपने बाएं करवट पर लेटा हुआ था, और रश्मि मेरे ही तरफ मुंह छुपाए लेटी हुई थी। 

"रश्मि ... मेरी बात सुनिए, प्लीज!"

उसने मेरी तरफ देखा - मेरा शक सही था, उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये थे, और उसके काजल को अपने साथ ही बहाए ले जा रहे थे। 

"श्ह्ह्ह्ह .... प्लीज मत रोइये। मेरा आपको ठेस पहुचाने का कोई इरादा नहीं था। आई ऍम सो सॉरी! ऑनेस्ट! मैंने आपको प्रोमिस किया था की मैं आपको किसी भी ऐसी चीज़ को करने को नहीं कहूँगा, जिसके लिए आप रेडी नहीं हैं। शायद इसके लिए आप रेडी नहीं हैं। मैं आपको बहुत प्यार करता हूँ, और आपको कभी दुखी नहीं देख सकता।" 

ऐसी बाते करते हुए मैं रश्मि को चूमते, सहलाते और दुलारते जा रहा था, जिससे उसका मन बहल जाए और वह अपने आपको सुरक्षित महसूस करे।

मेरा मनाना न जाने कितनी देर तक चला, खैर, उसका कुछ अनुकूल प्रभाव दिखने लगा, क्योंकि रश्मि ने अपने में सिमटना छोड़ कर अपने बाएँ हाथ को मेरे ऊपर से ले जाकर मुझे पकड़ लिया - अर्ध-आलिंगन जैसा। उसके ऐसा करने से उसका बायाँ स्तन मेरी ही तरफ उठ गया। मेरा मन तो बहुत हुआ की पुनः अपने कामदेव वाले बाण छोड़ना शुरू कर दूं, लेकिन कुछ सोच कर ठहर गया।

"अगर आप चाहें, तो हम लोग आज की रात ऐसे ही लेटे रह कर बात कर सकते हैं।" 

उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। 

"ऐसा नहीं है की मैं आपके साथ सेक्स नहीं करना चाहता - अरे मैं तो बहुत चाहता हूँ। लेकिन आपको दुखाने के एवज़ में नहीं। जब तक आप खुद कम्फ़र्टेबल न हो जाएँ, तब तक मुझे नहीं करना है यह सब ..." 

मेरी बातो में सच्चाई भी थी। शायद उसने उस सच्चाई को देख लिया और पढ़ भी लिया।

"नहीं ... आप मेरे पति हैं, और आपका अधिकार है मुझ पर। और हम भी आपको बहुत प्यार करते हैं और आपका दिल नहीं दुखाना चाहते। मैं डर गयी थी और बहुत नर्वस हो गयी थी।" उसकी आँखों से अब कोई आंसू नहीं आ रहे थे। 

'सचमुच कितनी ज्यादा प्यारी है यह लड़की!' मैंने प्रेम के आवेश में आकर उसकी आँखें कई बार चूम ली। 

"आई लव यू सो मच! और इसमें अधिकार वाली कोई बात नहीं है। हम दोनों अब लाइफ पार्टनर हैं – बराबर के। मैं आपके साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर सकता हूँ।"

"नहीं..........” वह थोडा रुकते हुए बोली, “आपको मालूम है की मैंने कभी शादी के बारे में सोचा ही नहीं था। सोचती थी, की खूब पढ़ लिख कर माँ, पापा और सुमन को सहारा दूँगी। माँ और पापा बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन यहाँ पहाड़ो में उस मेहनत का फल नहीं मिलता। ...... लेकिन, फिर आप आये - और मेरी तो सुध बुध ही खो गयी। सब कुछ इतना जल्दी हुआ है की मैं खुद को तैयार ही नहीं कर सकी ..."

मैंने समझते हुए कहा, "रश्मि, मैंने आपसे पहले भी कहा है की मैं आपको पढने लिखने से नहीं रोकूंगा। मैं तो चाहता हूँ की आप अपने सारे सपने पूरे कर सकें। बस, मैं उन सारे सपनो का हिस्सा बनना चाहता हूँ।"

रश्मि ने अपनी झील जैसी गहरी आँखों से मुझे देखा - बिना कुछ बोले। उसने अपनी उंगली से मेरे गाल को हलके से छुआ - जैसे छोटे बच्चे जब किसी नयी चीज़ को देखते हैं, तो उत्सुकतावश उसको छूते हैं। "आपसे एक बात पूछूँ?" आखिरकार उसने कहा।

"हाँ .. पूछिए न?"

"आपके जीवन में बहुत सी लड़कियां आई होंगी? ... देखिये सच बताइयेगा!"

"हाँ ... आई तो थीं। लेकिन मैंने उनके अन्दर जिस तरह की बेईमानी और अमानवता देखी है, उससे मेरा स्त्री जाति से मानो विश्वास ही उठ गया था। शुरू शुरू में मीठी मीठी बाते वाली लड़कियों की हकीकत पर से जब पर्दा हटता है, तो दिल टूट जाता है। फिर मैंने आपको देखा ... आपको देखते ही मेरे दिल को ठीक वैसे ही ठंडक पहुंची, जैसे धूप से बुरी तरह तपी हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदो के छूने से पहुंचती होगी। आपको देख कर मुझे यकीन हो गया की आप ही मेरे लिए बनी हैं - और आपका साथ पाने के लिए मैं अपनी पूरी उम्र इंतज़ार कर सकता था।" मेरे बोलने का तरीका और आवाज़ बहुत ही भावनात्मक हो चले थे।

यह सब सुन कर रश्मि ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले लिया और मेरे होंठो पर एक छोटा सा मीठा सा चुम्बन दे दिया। 

"आई लव यू ...." उसने बहुत धीरे से कहा, ".... मैं आपसे एक और बात पूछूं? .... आपने ... आपने कभी.... पहले भी .... आपने कभी सेक्स किया है?" रश्मि ने बहुत हिचकिचाते हुए पूछा।

"नहीं ... मैंने कभी किसी के साथ सेक्स नहीं किया।"

यह बात आंशिक रूप से सच थी - ऐसा नहीं है की मैंने मेरी भूतपूर्व महिला मित्रों के साथ किसी भी तरह का कामुक सम्बन्ध नहीं बनाया था। मेरा यह मानना था की यदि किसी चीज़ में समय और धन का निवेश करो, तो कम से कम कुछ ब्याज़ तो मिलना ही चाहिए। इसलिए, मैंने कम से कम उन सभी के स्तनों का मर्दन और चूषण तो किया ही था। एक के साथ बात काफी आगे बढ़ गयी थी, तो उसके दोनों स्तनों के बीच में अपने लिंग को फंसा कर मैथुन का आनंद भी उठाया था, और एक अन्य ने मेरे लिंग को अपने मुंह में लेकर मुझे परम सुख दिया था। लेकिन कभी भी किसी भी लड़की के साथ योनि मैथुन नहीं किया।

मैंने कहना जारी रखा, "...... कुछ एक के साथ मैं क्लोस था, लेकिन उनके साथ भी ऐसा कुछ नहीं किया है। मेरा यह मानना है की फर्स्ट-टाइम सेक्स को एक स्पेशल दिन और एक स्पेशल लड़की के लिए बचा कर रखना चाहिए।"

........... रश्मि चुप रही ... लेकिन उसके चेहरे पर एक गर्व का भाव मुझे दिखा।

"और मैं सोच रहा था की वह स्पेशल दिन आज है .... क्या मैं सही सोच रहा हूँ?" मैंने अपनी बात जारी रखी।

रश्मि ने कुछ देर सोचा और फिर धीरे से कहा, "जी .....? हाँ ... लेकिन .. लेकिन मुझे लगता नहीं की 'ये' मेरे अन्दर आ पायेगा।"

"वह मुझ पर छोड़ दो ... बस यह बताइए की क्या हम आगे शुरू करें ..?" मैंने पूछा, तो उसने सर हिला कर हामी भरी।

मेरा मन ख़ुशी के मारे नाच उठा। बीवी तो तैयार है, लेकिन मुझे सावधानी से आगे बढ़ना पड़ेगा। इसके लिए मुझे इसके सबसे संवेदनशील अंग को छेड़ना पड़ेगा, जिससे यह खुद भी उतनी कामुक हो जाए की मना न कर सके। इसके लिए मैंने रश्मि के स्तनों पर अपना दाँव फिर से लगाया। जैसा की मैंने पहले भी बताया है की रश्मि के स्तन अभी भी छोटे थे - मध्यम आकार के सेब जैसे और उन पर गहरे भूरे रंग के अत्यंत आकर्षक स्तनाग्र थे। वाकई उसके स्तन बहुत प्यारे थे .... खास तौर पर उसके निप्पल्स। इतने प्यारे और स्वादिष्ट, जैसे कस्टर्ड भरी कटोरी पर चेरी सजा दी गयी हो। उसके स्तनों को अगर पूरी उम्र भर चूसा और चूमा जाए, तो भी कम है।

अतः मैंने यही कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया। मैंने पहले रश्मि के बाएं निप्पल को अपनी जीभ से कुछ देर चाटा, और फिर उसको मुंह में भर लिया। रश्मि के मुह से हलकी सिसकारी निकल पड़ी। मैं बारी बारी से उसके दोनों स्तनों को चूसता जा रहा था। जब मैं एक स्तन को अपने होंठो और जीभ से दुलारता, तो दूसरे को अपनी उँगलियों से। साथ ही साथ मैंने अपने खाली हाथ को रश्मि की योनि को टटोलने भेज दिया। रश्मि के समतल पेट से होते ही मेरा हाथ उसकी योनि स्थल पर जा पहुंचा। उसकी योनि पर बाल तो थे, लेकिन वह अभी घने बिलकुल भी नहीं थे। योनि पर हाथ जाते ही कुछ गीलेपन का एहसास हुआ। कुछ देर तक मैंने उसकी योनि के दोनों होंठों, और उसके भगनासे को सहलाया, और फिर अपनी उंगली रश्मि की योनि में धीरे से डाल दी। मेरे ऐसा करते ही रश्मि हांफ गयी। उंगली मुश्किल से बस एक इंच जितनी ही अन्दर गयी होगी, लेकिन उसके यौवन का कसाव इतना अधिक था, की रश्मि को हल्का सा दर्द महसूस हुआ। उसके गले से आह निकल गयी।
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