RE: Real Sex Story नौकरी के रंग माँ बेटी के स�...
‘अन्दर आइये न भाभी…’ मैंने भी सभ्यता के लिहाज़ से उनसे घर के अन्दर आने का आग्रह किया।
‘अरे नहीं… अभी ढेर सारा काम पड़ा है… आप आधे घंटे में चले आइयेगा, फिर बातें होंगी।’ उन्होंने इतना कहते हुए मुझसे विदा ली और वापस मुड़ कर अपने घर की तरफ चली गईं।
उनके मुड़ते ही मेरी आँखें अब सीधे वहाँ चली गईं जहाँ लड़कों की निगाहें अपने आप चली जाती हैं… जी हाँ, मेरी आँखें अचानक ही उनके मटकते हुए कूल्हों पर चली गईं और मेरे बदन में एक झुरझुरी सी फ़ैल गई।
उनके मस्त मटकते कूल्हे और उन कूल्हों के नीचे उनकी जानदार गोल गोल पिछवाड़े ने मुझे मंत्रमुग्ध सा कर दिया।
मैं दो पल दरवाज़े पे खड़ा उनके घर की तरफ देखता रहा और फिर एक कमीनी मुस्कान लिए अपने घर में घुस गया।
घड़ी की तरफ देखा तो घड़ी की सुइयाँ धीरे धीरे आगे की तरफ बढ़ रही थीं और मेरे दिल की धड़कनों को भी उसी तरह बढ़ा रही थीं।
एक अजीब सी हालत थी मेरी, उस हसीं भाभी से दुबारा मिलने का उत्साह और पहली बार उनके घर के लोगों से मिलने की हिचकिचाहट।
वैसे मैं बचपन से ही बहुत खुले विचारों का रहा हूँ और जल्दी ही किसी से भी घुल-मिल जाता हूँ।
खैर, दिल में कुछ उलझन और कुछ उत्साह लिए मैं तैयार होकर उनके दरवाज़े पहुँचा और धड़कते दिल के साथ उनके दरवाज़े की घण्टी बजाई।
अन्दर से किसी के क़दमों की आहट सुने दी और उस आहट ने मेरी धड़कनें और भी बढ़ा दी।
दरवाज़ा खुला और मुझे एक और झटका लगा, सामने एक खूबसूरत सा चेहरा एक कातिल सी मुस्कान लिए खड़ा था।
सफ़ेद शलवार और कमीज़ में लगभग 18 साल की एक बला की खूबसूरत लड़की ने मुस्कुराते हुए मुझे नमस्ते की और अन्दर आने का निमंत्रण दिया।
मैं बेवक़ूफ़ की तरह उसके चेहरे की तरफ देखता रहा और कुछ बोलना ही भूल गया…
‘अन्दर आ जाइये…’ अन्दर से वही आवाज़ सुनाई दी यानि कि उस महिला की जो अभी थोड़ी देर पहले मेरे घर पर मुझे खाने का निमंत्रण देने आईं थीं।
उनकी आवाज़ ने मेरा ध्यान तोड़ा और मैं भी बड़े शालीनता से उस हसीन लड़की की तरफ देखते हुए नमस्ते कहते हुए अन्दर घुस पड़ा।
घर के अन्दर आया तो एक भीनी खुशबू ने मुझे मदहोश कर दिया जो शायद उस कमरे में किये गए रूम फ्रेशनर की थी।
वो एक बड़ा सा हॉल था जिसमें सारी चीज़ें बड़े ही तरीके से सजाकर रखी गईं थीं।
सामने सोफे लगे हुए थे और उस पर एक तरफ एक सज्जन करीब करीब 50-55 साल के बैठे हुए थे।
मैंने आगे बढ़ कर उन्हें नमस्ते किया और एक सोफे पर बैठ गया।
तभी भाभी भी उस लड़की के साथ आकर सामने के सोफे पर मुस्कुराते हुए बैठ गईं।
अब हमारी बातों का सिलसिला चल पड़ा और हमने एक दूसरे से अपना अपना परिचय करवाया।
बातों बातों में पता चला कि वो बस तीन लोगों का परिवार है जिसमें उस परिवार के मुखिया अरविन्द झा जी एक सरकारी महकमे में सीनियर इंजिनियर हैं और पास के ही एक शहर पूर्णिया में पदस्थापित हैं। उनकी पत्नी रेणुका जी एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैंऔर उनकी इकलौती संतान यानि उनकी बेटी वन्दना बारहवीं में पढ़ रही थी।
थोड़ी देर में ही हम काफी घुल-मिल गए और फिर खाने के लिए बैठ गए।
खाने के मेज पर मैं और अरविन्द जी एक तरफ और रेणुका तथा वन्दना सामने की तरफ बैठ गए।
अरविन्द जी भी बड़े ही खुले विचारों के लगे और मुझसे बिल्कुल ऐसे बात कर रहे थे जैसे कई सालों से हमारी जान पहचान हो।
मैं भी उनसे बातें करता रहा लेकिन निगाहें तो सामने बैठी दो दो कातिल हसीनाओं की तरफ खिंची चली जाती थी… उन दोनों के चेहरे से टपकते नूर ने धीरे धीरे मेरे ऊपर एक नशा सा छ दिया था, मैं चाहकर भी उनके चेहरे से नज़रें हटा नहीं पा रहा था।
और फिर मेरी निगाहों ने अपनी असलियत दिखाई और चेहरे से थोड़ा नीचे की तरफ सरकना शुरू किया… रेणुका जी ने वही चमकदार हरे रंग की साड़ी अब भी पहन रखी थी और इतनी शालीनता से पहनी थी कि उनके गले के अलावा नीचे और कुछ भी नहीं दिख रहा था, लेकिन उनकी साड़ी ने इतना उभर बना रखा था कि एक तजुर्बेदार इंसान इतना तो समझ सकता था कि उन उभारों के पीछे अच्छी खासी ऊँचाइयाँ छिपी हुई हैं।
उनकी रेशमी त्वचा से भरे हुए गले ने यह एहसास दिला दिया था कि उनका पूरा बदन यूँ ही रेशमी और बेदाग ही होगा।
दूसरी तरफ वन्दना अपने सफ़ेद शलवार कमीज़ में अलग ही क़यामत ढा रही थी।
उसने भी अपनी माँ की तरह अपने बाल खुले रखे थे जो पंखे की हवा में लहरा रहे थे और बार बार उसके चेहरे पे आ जाते थे, जिन्हें हटाते हुए वो और भी खूबसूरत लगने लगती थी।
गहरे गले की कमीज़ उसके गोल गोल चूचियों की लकीरों की हल्की सी झलक दे रही थीं जो एक जवान लड़के को विचलित करने के लिए काफी होती हैं।
वैसे उसने दुपट्टा तो ले रखा था लेकिन अलग तरीके से यानि दुपट्टे को मफलर की तरह अपने गले में यूँ लपेट रखा था कि उसका एक सिरा गले से लिपटते हुए पीछे की ओर था और दूसरा सिरा आगे की तरफ उसकी दाहिनी चूची के ऊपर से सामने लटक रहा था।
यानि कुल मिला कर उसकी 32 साइज़ की चूचियाँ अपनी गोलाइयों और कड़ेपन का पूरा एहसास दिला रही थीं।
चूचियों की झलक और उसकी लकीरें दिल्ली में आम बात थीं… वहाँ तो न चाहते हुए भी आपको ये हर गली, हर नुक्कड़ पे दिखाई दे जाती थीं लेकिन यहाँ बात कुछ और थी।
दिल्ली की सुन्दरता थोड़ी बनावटी होती है और अभी मेरे सामने बिल्कुल प्राकृतिक और शुद्ध देसी सुन्दरता की झलक थी।
मेरा एक मित्र है जो बिहार के इसी प्रदेश का रहने वाला है और उसने कई बार बताया था कि इस इलाके की सुन्दरता हर जगह से भिन्न है और मैं वो आज महसूस भी कर रहा था।
रेणुका जी और वन्दना दोनों माँ बेटियाँ बिल्कुल दो सहेलियों की तरह एक दूसरे से बर्ताव कर रही थीं और दोनों ही बिल्कुल चुलबुली सी थीं।
कुल मिला कर वो शाम बहुत ही शानदार रही और उन सबसे विदा लेकर मैं वापस अपने कमरे पर आ गया।
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