Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
12-07-2020, 12:11 PM,
#20
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
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अगर मैं कहूँ की महफ़िल की हर नजर जैसे बस एक चेहरे पर थी तो गलत नहीं होगा. काली साड़ी में लिपटा गुलाब जिसे किसी गुलदस्ते किसी बाग़ की जरुरत नहीं थी, उसके साथ जो आदमी था शायद उसका पति रहा होगा. ऊँचा लम्बा कद, रौबीला चेहरा और दोनों की जोड़ी बहुत शानदार थी.

वो जोड़ा बड़ी शालीनता से सब मेहमानों की बधाई स्वीकार कर रहा था .उस ईमारत में जैसे तमाम जहाँ की खुशिया उतर आई थी, मैं बड़ी शिद्दत से चाहता था की प्रज्ञा मेरी तरफ देखे पर वो व्यस्त थी, घिरी थी मेहमानों से. बेशक यहाँ मैं भी था पर उसका अपने लोगो के साथ होना मुझसे ज्यादा जरुरी था.

जैसे सारा सहर ही मेहमान था , पर मुझे प्रज्ञा के अलावा और कोई नहीं जानता था . इस बीच कुछ घंटे ऐसे ही गुजर गए. दिल बहलाने को मैं होटल में घुमने लगा. हर मंजिल पर अलग सजावट थी , हल्का फुल्का खाना भी खाया , बेशक चारो तरफ लोग थे पर फिर भी दिल अकेला था, पिताजी के साथ हुई छोटी सी बहस का इस वक्त याद आना जी खट्टा कर गया .जलते दिल को और जलाने के लिए मैंने भी हाथ में जाम उठा लिया.

एक दो तीन चार, ........................... कलेजे को नहीं मै अपनी रूह को जैसे जलाना चाहता था . पता नहीं ये चौथी थी या पांचवी मंजिल थी . इस खुली बालकनी में ठंडी हवा जलते दिल को जैसे सकून सा दे रही थी ,

“यु अकेले अकेले जाम लेना हम जैसे साथियों पर गुनाह है कबीर ” जैसे ही मेरे कानो में ये आवाज पड़ी मैंने तुरंत घूम कर देखा, प्रज्ञा मेरे पीछे खड़ी थी .

“एक जाम मेरे हाथ में है एक बोतल मेरे सामने है ” मेरे मुह से अपने आप निकल गया .

प्रज्ञा- तो जनाब शायरी भी करते है .

मैं- बस अभी ये ख्याल आया.

प्रज्ञा- माफ़ करना मैं थोडा देर से मिली तुमसे, तुम तो जानते ही हो इतने मेहमानों के बीच थोडा समय लग ही जाता है

मैं- तुम इस लम्हे में साथ हो , और क्या चाहिए.

प्रज्ञा- लाओ एक पेग दो मुझे.

मैं- पर तुमने तो नशा छोड़ दिया न

प्रज्ञा- दोस्त के साथ ऐसे लम्हे बहुत कम मिलेंगे जिन्दगी में जब तुम होंगे मैं होउंगी और ये हसीं रात होगी, कल हम रहे न रहे ये याद तो होगी जो मेरे होंठो पर मुस्कान लाएगी.

मैंने इक जाम उसकी तरफ बढाया , उसने एक ही सांस में खींच दिया.

“हम्म, कड़क है ” उसने कहा

मैं- बस ठीक है .

प्रज्ञा ने एक पेग और लिया बोली- जानते हो दोस्त,हमारे रिश्ते में क्या खास है ,

मैं- बताओ.

वो- मैं तुम्हारे अन्दर खुद को देखती हूँ, तुम तमाम वो काम कर सकते हो जो मैं नहीं,इस खास होने के अहसास ने मुझे अपने आप से कब का दूर कर दिया .

मैं- पर तुम खास हो .

वो- तुम्हे भी ऐसा लगता है

मैं- मेरी दोस्त हो तो खास हो न

प्रज्ञा- बंद करो ये झूठी तारीफे

मैं मुस्कुरा दिया

प्रज्ञा- मैं हमेशा से ही तुम्हारे जैसी स्वछंद रहना चाहती थी , बागो में तितली जैसे, पर इस ख़ास होने ने कभी आम नहीं होने दिया .

मैं- मेरे साथ तो आम ही हो तुम

प्रज्ञा- इसीलिए तो तुम खास हो मेरे लिए. खैर खाना खाया तुमने

मैं- खा लूँगा बाद में

प्रज्ञा- आओ मेरे साथ , आज का खाना हम साथ खायेंगे

मैं- ये बेहद खास रात है , तुम्हे अपने परिवार के साथ होना चाहिए इन खास लम्हों में .

प्रज्ञा- काश ऐसा होता , राणाजी व्यस्त है अपने दोस्तों के साथ, बच्चे निकल गये घर के लिए . उनको इस तरह के तमाशे पसंद नहीं . तुम आओ मेरे साथ . और तुम भी मेरा परिवार ही हो, दुबारा ऐसा कहा तो नाराज हो जाउंगी समझे तुम .

मैं- हाँ बाबा समझा.

प्रज्ञा- तो फिर आओ मेरे साथ.

लगभग मुझे खींचते हुए वो एक कमरे में ले आई, कमरा क्या था जैसे एक छोटा महल हो . वो मेरे पास ही सोफे पर बैठ गयी. साडी का पल्लू गिरा हुआ. पर उसे कहाँ परवाह थी .

मैं- होटल बहुत ही शानदार है

वो- छोड़ो इन बातो को , मुझसे सिर्फ तुम्हारी और मेरी बाते करो

मैं- वही तो कर रहे है .

वो- बताओ क्या खाओगे.

मैं- जो तुम अपने हाथो से खिलाओगी.

वो- हाँ मेरे दोस्त, पर फरमाइश तो मेहमान की होगी न

उसने खाना मंगवाया .

मेरी दोस्त मेरे पहलु में बैठी अपने हाथो से मुझे खाना खिला रही थी , खाने के कौर के साथ साथ मेरे होंठ उसकी उंगलियों को भी छू रहे थे, पर उसे कोई परवाह नहीं थी, तब भी नहीं जब मैंने उसकी ऊँगली को चूम लिया. बेशक ये छोटे छोटे अहसास थे पर ये अहसास मुझे और प्रज्ञा को एक अलग डोर में उलझा लाये थे. एक ऐसी डोर जो हमारा आने वाला कल लिखने वाली थी .

ऐसा स्नेह मुझसे किसी ने नहीं किया था , मेरी आँखों में आंसू आ गए , मैं आभारी था उसका.

“क्या हुआ ” उसने पूछा

मैं- कुछ नहीं , बस ऐसे ही .

वो- दिल की बात दोस्त को बतानी चाहिए न

मैं- इतना स्नेह किसी ने नहीं दिया मुझे

प्रज्ञा- अब ये सब बोलकर मुझे पराया मत करो कबीर.

प्रज्ञा ने एक बोतल और खोल ली उसने गिलास में शराब डाली और एक घूँट लेकर गिलास मेरी तरफ बढाया

“दोस्ती के नाम ” मैंने गिलास अपने होंठो से लगा लिया, सांसो में जैसे उसकी सांसो की खुशबु घुल गयी.

खाने के बाद हम बैठे थे.

“आज हम रुकेंगे सुबह मैं तुम्हे घर छोड़ दूंगी. ” उसने कहा

मैं- ठीक है .

तमाम तरीके के हंसी मजाक करते हुए, हम शराब पीते रहे , उसने अपना सर मेरी गोद में रखा और सोफे पर लेट गयी. मेरे आगोश में आ गयी, मेरी निगाहें उसकी छातियो पर थी , उसके खूबसूरत चेहरे पर थी, घुटनों तक आई साड़ी पर थी पर मेरे मन में रत्ती भर भी वासना नहीं थी.

शायद यही भरोसा उसे मेरे इतने करीब ले आया था. न जाने कब मेरी आँख भी लग आई.
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