RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
करीब घंटे भर बाद मैं वापिस आया तो एक नए आश्चर्य ने मेरा स्वागत किया . वो उठ गयी थी और उसका व्यव्हार ऐसा था की जैसे कल कुछ हुआ ही नहीं हो. एकदम सभ्य , शालीन, और हाँ उसे मेरा नाम याद था , कल की हर घटना याद थी उसे .पर मुझे चलना था तो मैंने उसे कहा - अभी जाना होगा वापिस,
वो- हाँ,चलते है .
थोडा लडखडा रही थी वो पर ठीक थी. उसने गाड़ी स्टार्ट की और हम रतनगढ़ की तरफ चल पड़े, थोड़ी दूर गए थे की गाड़ी झटके लेने लगी और बंद हो गयी.मैंने अपना माथा पीट लिया.
“ये भी धोखा दे गयी. ” बोली वो
मैंगाड़ी से उतरा और एक पेड़ के निचे बैठ गया
वो- करो कुछ
मैं - क्या करू, कोई मिस्त्री नहीं हूँ मैं. और ये तो पहले सोचना था कल दे मारी जब तो गाड़ी
वो कुछ नहीं बोली.
मैं- पैदल चलते है , मुझे तो दूर जाना है .
न जाने क्यों उसने हाँ कह दी.
“तो कबीर, क्या करते हो तुम ” उसने पूछा
मैं- खेती बाड़ी , छोटी मोटी मजदूरी
वो- हम्म
मैं- अपने बारे में बताओ
वो- कुछ नहीं है बताने को , वैसे मेरा नाम प्रज्ञा है
मैं- खूबसूरत नाम है बिलकुल तुम्हारे जैसा
वो हंस पड़ी, बोली- होगा ही मेरा नाम जो है
मैं- किसी रसूखदार परिवार की लगती हो , पर ऐसे नशा करके खुद का तमाशा करना ठीक नहीं लगता
वो- ये जिन्दगी खुद एक तमाशा है कबीर, और तुम जानते ही क्या हो इन रसूखदार परिवारों के बारे में, तुम्हारा सही है दिन भर काम किया और रात को चैन की नींद सो गए.
न जाने मुझे उसकी बात चुभ सी गयी, खैर उसने सच ही कहा था .
बातो बातो में हम काफी आगे आ गये थे की वो बोली- प्यास लगी है पानी पीना है .
मैंने इधर उधर देखा एक खेत में धोरा था ,
मैं- उधर पी लो
उसने कहा- कहाँ
मैं- धोरे में
वो- पागल हुए हो क्या मैं पियूंगी ये पानी
मैं- मर्जी है,
मैंने धोरे पर अपना मुह लगाया और पानी पी लिया वो मुझे देखती रही .
“मेरे पास आओ ” मैंने कहा
वो आई मैंने उसे बैठे को कहा और अपनी अंजुल भर के उसकी तरफ की , उसने अपने होंठ मेरी हथेली पर रखे, अपने आप में ये एक मुकम्मल अहसास था , मुझे महसूस हुआ की पानी वो पी रही थी प्यास मेरी बुझ रही हो .
|