Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:10 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"शायद....मुहब्बत का चक्कर था?"

"हां....."

"लड़की ने धोखा दिया?"

"उसके घरवालों ने।"

"तो महाशय, अपने घर जाकर संतोष से बैठ जाओ। मुहब्बत करने वालों की किस्मत में यह दिन भी देखने को मिलता है।"

"तुम मेरा मजाक बना रहे हो?" युवक के स्वर में कठोरता आ गयी—"सुनो, मैं मर चका हूं। मैंने एक ऐसा जहर खाया है जिसे लेने के बाद आदमी एक घण्टे बाद मरता है। मेरे मरने में अभी पांच मिनट बाकी हैं।"

विनीत ने चौंककर फिर उस युबक की ओर देखा—"तब तुम श्मशान क्यों नहीं चले जाते?"

"वहां जाकर क्या करूंगा?"

"आराम से मर जाओगे.....”

“नहीं....."

"तब, तुम्हारी इच्छा!"

विनीत के दिमाग में यह बात भी आयी थी कि कहीं यह युवक सचमुच ही न मर जाये, इसलिये उसे पार्क से चले जाना चाहिये। परन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने इस विचार पर मुस्कराकर रह गया। भला इस तरह भी कोई मरता होगा? निश्चय ही वह युवक उसे मूर्ख बना रहा है। यह भी हो सकता है कि वह गुप्तचर विभाग का कोई आदमी हो और उसका पीछा कर रहा हो। इस विचार ने विनीत को कंपकपाकर रख दिया। वह उठने कोही था कि ठीक उसी समय उस युवक के मुंह से एक घुटी-सी चीख निकली, दूसरे ही क्षण वह घास पर लुढ़क गया। विनीत ने उसे हिलाया-डुलाया। वह युवक सचमुच मर चुका था। विनीत और भी कांपकर रह गया। उसके कानों में पुलिस की सैकड़ों सीटियां गूंजने लगीं....जेल की दीवारें आस-पास ही तैरती हुई नजर आने लगीं। कोई भी देखकर यही समझेगा कि उसने इस युबक को मार डाला है। उसे खूनी कहा जायेगा। फिर उसे जेल में सड़ने के लिये डाल दिया जायेगा। यह सब सोचते ही वह उठा और फुर्ती से पार्क से बाहर आ गया। वह जल्दी-से-जल्दी कहीं दूर निकल जाना चाहता था। इस समय उसे सड़कों की बीरानगी बहुत ही बुरी लग रही थी। यदि भीड़ होती तो वह बड़ी आसानी से भीड़ में खो सकता था। चलत समय उसने पीछे मुड़कर देखा। कहीं पुलिस की गाड़ी तो उसके पीछे नहीं आ रही....। आश्वस्त होने पर वह फिर चल पड़ा। सहसा अगले चौराहे पर एक कांस्टेबिल ने उसे रोक लिया, “कौन हो...?"

"मेरा नाम विनीत है।"

"तुम इस कदर परेशान क्यों हो?"

"परेशान? नहीं तो....मैं तो....” वह अपनी सफाई भी न दे सका।

"और इधर कहां जा रहे हो?"

"स्टेशन पर....।" सिपाही ने उसे और भी गहरी दृष्टि से देखा, फिर कहा- "स्टेशन? परन्तु यह सड़क तो घण्टाघर बाजार में जाती है....।"

विनीत को अब अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने अपने चारों ओर दृष्टि घुमाकर देखा। बास्तव में वह गलत रास्ते पर था। किसी प्रकार अपने को संभालकर उसने कहा- दरअसल घण्टाघर पर मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं। उन्हें लेकर...."

"हं....खैर....जाओ....।" सिपाही की बातों से छुट्टी मिली तो विनीत की जान में जान आयी। उसका हृदय इस समय भी बुरी तरह से धड़क रहा था। विभिन्न प्रकार के विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे। यदि किसी ने उसे उस युवक के पास बैठा हुआ देखा होगा तो क्या होगा? विनीत की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे? कहां जाये? तथा किस प्रकार से कहींछुपने का प्रयत्न करे। बुद्धि चकराकर रह गयी। भावना ने कहा- तुम्हें खून के अपराध में फिर जेल में बन्द कर दिया जायेगा।' 'क्योंकि मरने वाला तुम्हारे पास ही तो आकर मरा था।' 'तो इससे क्या हुआ?' 'हुआ यह कि किसी ने तुम्हें पार्क में बैठे हुए देखा अवश्य होगा। बाद में पुलिस को उस युवक की लाश मिलेगी। सारा दोष तुम ही पर लगाया जायेगा।' 'ओह....।' वह पसीना-पसीना हो गया।

जी में आया कि बेतहाशा भागकर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाये। उसे प्रत्येक दशा में जहां तक सम्भव हो, अपने आपको पुलिस से बचाना चाहिये। इन्हीं विचारों में उलझा हुआ विनीत निरन्तरआगे की ओर बढ़ने लगा। वास्तविकता यह थी कि उसके मन में एक बात घर कर गयी थी कि पुलिस अथवा किसी आदमी ने उसे देख अवश्य लिया होगा। हालांकि यह बात निराधार ही थी। उसकी दशा बिल्कुल उस व्यक्ति जैसी हो गयी थी जो किसी का खून करके आया हो। अब पुलिस से बचने के लिये भागता जा रहा हो। कब कितनी सड़कों को पार किया, अपने इस पागलपन में उसे पता भी न चला। उसे ध्यान आया, वह उसी ढाबे के सामने खड़ा था। ढाबे के मालिक ने उसे पहली नजर में ही पहचान लिया। उसने अपने स्थान से ही पुकारा-"दादा......" इन क्षणों में भी वह मुस्करा उठा। निकट आया-औपचारिकता वश पूछा-"कैसे हो लाला?"

ठीक हूं...। परन्तु दादा, तुम कहां चले गये थे? उस दिन से रोजाना तुम्हारी इन्तजार करता था। एक दो और भी तुम्हें पूछ रहे थे।"

"क्यों ....?"

"अरे भई, पूछ है तुम्हारी। आओ तो....."

विनीत ने एक बार फिर पलटकर देखा। वही पुलिस का भय। परन्तु धारणा निर्मूल थी। कोई भी पुलिस वाला उसे दिखलायी न दिया। वह लाला के पास आकर बैठ गया। लाला ने पहले तो उसके लिये चाय वगैरह मंगवायी, फिर कहने लगा—"दादा, मुझे तो ऐसा लगता है जैसे इस धंधे को ही छोड़ देना पड़ेगा।"

"क्यों....?"

"एक दो नये दादा पैदा हो गये हैं। रोज दुकान पर आते हैं और खा-पीकर चले जाते हैं....एक दिन पैसे मांगे तो मरने-मारने पर उतारू हो गये।"

"अच्छा....!” विनीत मुस्कराया।

"अब तुम ही बताओ मैं क्या करूं?"

विनीत ने कहा-“लाला, तुम उन लोगों के नाम मुझे बता दो। मैं उन सबसे निबट लूंगा।"

लाला की आंखें प्रसन्नता से चमक उठीं। उसने विनीत के कान में दो-तीन ब्यक्तियों के नाम बता दिये। विनीत उठकर बाहर आ गया। पुलिस का भय अब भी बना हुआ था। उसके मन में यह बात भी आयी कि उसे अर्चना के पास ही चलना चाहिये। दूसरे ही क्षण उसने इस विचार को भी गलत साबित कर दिया।

अंत में उसके कदम जैना होटल की ओर उठ गये।। वह होटल पहुंचा। पहले तो कम्पाउंड में ही खड़ा रहा और फिर अन्दर हॉल में दाखिल हो गया। हॉल में काफी भीड़ थी तथा उस भीड़ में उसकी निगाहें सुधा और अनीता को खोज रही थीं। बहुत से चेहरे थे....परन्तु इन चेहरों में कोई ऐसा न था जिसे वह अपना कह सकता। निराश होकर वह एक खाली मेज पर बैठ गया। बेटर आया तो उसने केवल कॉफी मांगी। कॉफी समाप्त करने के बाद उठा और बाहर आ गया। फिर वे ही उलझनें और परेशानियां! न तो मस्तिष्क ही स्थिर था और न ही विचार। भावनाओं की उथल-पुथल उसे बेचैन करने पर तुल रही थी। अन्त में उसने बिचार बनाया कि उसे लखनऊहीं जाना चाहिये। इस विचार में भी कई संशय उभरे और मिट गये। स्टेशन पहुंचा, लखनऊ के लिये गाड़ी तैयार मिल गई। वह एक खाली सीट पर बैठ गया। गुम-सुम और उदास। मंजिल का अब भी कहीं पता न था। आज पहली बार लखनऊ जा रहा था। सोच रहा था कि कहां-कहां खोजता फिरेगा वह उन दोनों को? कुछ सोते और कुछ जागते सफर पूरा हुआ। दिन के उजाले में वह गाड़ी से उतरकर स्टेशन से बाहर आ गया। फिर वही पुराना प्रश्न उसके सामने आकर खड़ा हो गया
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:10 PM

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