Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:04 PM,
#89
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
विनीत अब कुछ कहने वाला था परन्तु उससे पहले ही प्रीति ने कहा-"परन्तु पिताजी, इन सब बातों के दोषी तो आप स्वयं हैं। यदि आपने मेरी बात मानी होती तो आज आपको समाज में इतना लज्जित क्यों होना पड़ता? सब कुछ स्वयं करने के बाद भी आप विनीत को दोषी ठहरा रहे हैं।"

"तुम चुप रहो प्रीति....।" बे अपनी पूरी शक्ति से चीखे। "

आपने मुझे इतना सब कुछ कहा—मैं चुप रही। आपने मेरी खुशियों को मिटा डाला....मैंने उफ भी न की। आपने मेरी आशाओं को मिटा दिया....मैंने शिकायत भी न की। परन्तु आज....आज मैं चुप न रहूंगी पिताजी! मैं इस समाज से दुनिया से चीख-चीखकर कहूंगी कि आप इन्सान नहीं शैतान हैं। कसाई। आपने स्वयं अपने हाथों से अपनी बेटी का गला दबाया है....उसे तड़पा-तड़पाकर मारा है। आज जो दुनिया मुझे कुलटा और वेश्या समझती है, कम-से-कम वह भी तो इस बात को जान ले कि प्रीति को बुरा बनाने वाला इन्सान कौन हैं।

"प्रीति...."

प्रीति रो उठी-"अब यह सब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता पिताजी....बर्दाश्त नहीं होता। यदि आप मुझे जिन्दगी नहीं दे सकते तो मेरा गला दबा दीजिये। मेरी भावनायें, मेरी साधना हमेशा-हमेशा के लिये धूल में मिल जायेंगे। मेरे अधूरे सपने हमेशा-हमेशा के लिये राख में बदल जायेंगे।"

"प्रीति...."

"क्यों, क्या आप मुझे मौत भी नहीं दे सकते.....?"

"प्रीति, मैंने तो जो कुछ दिया था, उसमें तेरी भलाई ही देखी थी। मुझे इस बात का क्या पता था कि तू इसके चक्कर में पड़कर गुमराह हो जायेगी।" उन्होंने शान्त स्वर में कहा।

"आखिर विनीत में बुराई क्या है?" प्रीति ने भी शान्त स्वर में पूछा।

“वह खूनी है।"

"चाचा जी....!" विनीत अब अपने को रोक न सका तथा उठकर खड़ा हो गया।

"क्या तुमने किसी मैनेजर का खून नहीं किया था—तुम जेल में रहे?"

“मैंने जो कुछ किया, उसकी सजा मैं काट आया हूं। परन्तु आपको यह सब कहने का कोई अधिकार नहीं है।"

"तुम तो मेरी इज्जत को नीलाम करते फिरते हो और मुझे इतना भी अधिकार नहीं है कि मैं तुम्हें कुछ कह सकू? यह बताओ कि तुम यहां क्यों आये थे?"

"प्रीति से मिलने।"

"क्या रिश्ता है तुम्हारा प्रीति से?"

"रिश्तों की बुनियाद दिल पर होती है चाचा जी, जुबान पर नहीं।" विनीत ने कहा—“मेरा तथा प्रीति का आपस में क्या रिश्ता है, इस बात को हम दोनों जानते हैं। आप भी जानते हैं। परन्तु जानने के बाद भी झुठला दें तो इससे रिश्तों का रूप नहीं बदल जाता। मैं तथा प्रीति यदि जीवन भर के लिए एक दूसरे के होना चाहेंगे तो आप उसमें दीवार नहीं बन सकते।"

"तो तुम मेरी बेटी को जबरन उठाकर ले जाओगे?"

“नहीं..."

"फिर खून कर दोगे मेरा?"

“यह भी नहीं।"

"फिर....फिर क्या कर लोगे तुम...?" गुस्से में अपनी आंखों को लाल-पीली करते हुये उन्होंने पूछा।

"चाचा जी, इन्सान हूं....इसलिये जो करूंगा, सब इन्सानियत से। आप पढ़े-लिखे समझदार व्यक्ति हैं। आप स्वयं जानते हैं कि प्रीति अदालत की मदद ले सकती है। यह यदि किसी को अपना बनाना चाहती है तो आप उसमें कुछ भी नहीं कर सकते....।"

"अच्छा !"

विनीत ने फिर कहा-"चाचा जी, आपने हमेशा मेरे परिवार को अपना परिवार समझा था। आपके और पिताजी के ऐसे सम्बन्ध थे कि देखने वाले दोनों को सगे भाई समझते थे। समझ में नहीं आता कि यकायक ही आपको क्या हो गया है?"

“मुझे कुछ नहीं हुआ है।”

"फिर मेरा क्या अपराध है?"

-
"तुम्हारा सबसे बड़ा अपराध यही है कि तुमने प्रीति को गुमराह किया है।"

"प्रेम करने को तो आप गुमराह करना नहीं कह सकते।"

"विनीत ।" श्याम लाल का स्वर नम्न हो गया—"तुम मेरे घर आओ-जाओ.....रहो। मैं कभी भी तुमसे बुरा व्यवहार नहीं करूंगा। लेकिन तुम कभी भी प्रीति के सामने अपना प्रेम प्रदर्शन नहीं करोगे। मैं बिबश हूं....मैं तुम दोनों को एक नहीं कर सकता।"

"ऐसी क्या बुराई है?"

"बस यह समझ लो कि मेरी आत्मा को यह रिश्ता स्वीकार नहीं है।"

"क्यों....?"

“यह भी मैं नहीं जानता।"

"तब तो आप मुझे वहला रहे हैं चाचा जी। खैर, होता तो वही है जो ऊपर बाला चाहता है। अब तो सब कुछ समय के ऊपर निर्भर करता है।"

बे बोले- मैं फिर बही बात कह रहा हूं कि कभी भी प्रीति से मिलने की कोशिश मत करना। यदि तुमने ऐसा किया तो फिर मुझसे बुरा और कोई न होगा। अब तुम जा सकते हो।"

“जाना ही पड़ेगा चाचा जी....." विनीत अब और थके कदमों से चलता हुआ दरवाजे से बाहर आ गया। मन में कई उलझनें और बढ़ गई। वह शांति की खोज में यहां आया था, परन्तु बेकरारी के सिवाय और कुछ न मिला। मन ने जैसे कचोटा-आखिर उसे यहां आने की जरूरत ही क्या थी? मकान के दरवाजे से निकलकर उसने गली पार की और वह सड़क पर आ गया।

तभी वह बुरी तरह चौंका। नुक्कड़ पर अर्चना की गाड़ी खड़ी थी। दूर से ही उसने अन्दर सीट पर बैठी हुई अर्चना को पहचान लिया था। वह कार के समीप पहुंचा। उसे देखते ही अर्चना ने दरवाजा खोल दिया। इतना तो वह समझ ही गया कि अर्चना उसका पीछा करती हुई यहां तक आयी है। फिर भी उसने मुस्कराने का असफल प्रयास करते हुए कहा- आप यहां....."

"आश्चर्य में पड़ गये आप?"

"मेरा तो....मेरा मतलब था....।"

"आप यहां तक पैदल आये थे, इस बात को तो मैंने किसी प्रकार सहन कर लिया, परन्तु मैं इस बात को कैसे सहन कर सकती थी कि आपको लौटना भी पैदल ही पड़े....." अर्चना मुस्करायी।

उसकी इस मुस्कान का अर्थ विनीत से छुपा न रह सका। "व्यर्थ ही कष्ट किया आपने....."

“जी हां....मेरा भी यही बिचार था। बैठे-बैठे सोच रही थी कि मुझे आपके लिये कष्ट नहीं उठाना चाहिये। परन्तु मन नहीं माना।"

“जी....।"

"कोई कष्ट न हो तो गाड़ी में बैठ जाइये।"

“जी...."

"आप मुझसे बड़े हैं, बात-बात में आपके मुंह से 'आप' तथा 'जी' कहना मुझे अच्छा नहीं लगता। आइये....।"
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:04 PM

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