Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:04 PM,
#88
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अर्चना फिर मुस्कराकर रह गयी। विनीत उठा तथा अर्चना से कुछ और बताये बिना कमरे से बाहर निकल गया। अर्चना पहले ही सब कुछ समझ चुकी थी, उसने जानबूझकर कुछ नहीं कहा। कोठी से बाहर निकलकर विनीत खुली सड़क पर आ गया। कुछ क्षणों के लिये छिटककर उसने अपने आपसे पूछा, आखिर क्यों जा रहा है वह प्रीति से मिलने? वह तो स्वयं उससे दूर चला आया था। उससे बहुत ही दूर रहना चाहता था वह तो। लेकिन उसके पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर न था। लगता था कि जैसे किसी ने उसे जंजीर में जकड़ रखा हो और वह उसकी ओर खिंचता चला जा रहा हो। चलते समय उसने अर्चना के विषय में भी सोचा। उसे ऐसा महसूस होने लगा था कि जैसे वह उसकी ओर खिंच रहा हो। कितना ध्यान रख रही थी वह उसका। परन्तु क्यों? वह केबल बिचारों में ही उलझकर रह गया। कभी अर्चना के विषय में सोचता तो कभी प्रीति के विषय में। चलते-चलते वह बहुत दूर निकल गया। मुख्य सड़क से गुजरते हुए उसकी दृष्टि फिर व्याकुल हो उठी। सुधा तथा अनीता का ख्याल आते ही वह तड़पकर रह गया। न जाने उसकी दोनों वहनें कहां होंगी....। किस तरह गुजारा कर रही होंगी? जिन्दा भी होंगी अथवा नहीं? सैकड़ों प्रश्न! और उत्तर? अपने विचारों में उलझा हुआ वह प्रीति के घर के सामने पहुंच गया। दरवाजे की ओर देखा....यकायक ही हृदय की धड़कनें बढ़ गयीं। फिर कई प्रश्न उभरे और गायब हो गये। दरवाजा खुला था, उसने चोरों की तरह अन्दर प्रवेश किया, फिर रुककर प्रीति को पुकारा। केवल कुछ ही क्षणों की प्रतीक्षा। प्रीति सामने आयी। विनीत को देखते ही उसकी आंखों में चमक आ गयी। प्रसन्न स्वर में बोली-"ओह....विनीत ।"

"हां....।" वह बोला।

"आओ फिर, खड़े क्यों हो....?"

विनीत ने कुछ नहीं कहा। प्रीति के पीछे चलकर वह उसके कमरे में आ गया। विनीत के बैठने के बाद प्रीति ने कहा "कैसे हो विनीत ....?"

"ठीक हूं...."

"मुझे विश्वास था कि तुम जरूर आओगे....मेरी साधना व्यर्थ ही नहीं जायेगी। अब तो तुम्हें यह मानना ही पड़ेगा कि प्रेम में कितनी शक्ति होती है?"

"हां, परन्तु प्रीति....।" विनीत कुछ कहता-कहता रुक गया और फिर बोला—"हमारे रास्ते में विवशता नाम की जो दीवार खड़ी है, उसका टूटना मुश्किल ही है। मैं स्वयं परेशान हूं कि मैं क्या करूं? तुम्हारे बिना रह भी नहीं सकता....तुम्हें पा भी नहीं सकता।"

"क्यों....?" प्रीति ने पूछा। उसकी आशा फिर निराशा में बदल गयी।

“इसलिये कि मैं विवश हूं।"

"लेकिन क्या बिबशता?"

प्रीति।" विनीत ने कहा- "जब तक मुझे सुधा तथा अनीता नहीं मिल जातीं, उस समय तक मैं अपने आपको दूसरी दुनिया में नहीं रख सकता। हां, तुम्हें इतना विश्वास करना पड़ेगा कि तुम्हारे सिवाय मुझ पर किसी दूसरे का अधिकार नहीं हो सकता।"

“विश्वास भी न हो...तब भी मैं जिन्दा रहूंगी विनीत ।" प्रीति ने कहा- शायद तुम इस बात को नहीं जानते कि अब तक मेरे दरवाजे से दो बारात लौट चुकी हैं। मैं शादी से साफ इन्कार कर चुकी हूं। केवल तुम्हारे ही लिये पिताजी और मम्मी मुझे न जाने क्या-क्या कह डालते हैं।"

"ओह!"

"उनकी दृष्टि में मैं चरित्रहीन हूं।"

"प्रीति।"

"मैंने सब कुछ सहन किया विनीत ....सब कुछ सुनती हूं। केवल इसी आशा पर कि एक दिन मेरा विनीत मुझे अपनी बांहों में भर लेगा। मुझे सदा-सदा के लिए इस घुटन भरे बाताबरण से दूर ले जायेगा।"

"ओह....प्रीति....आखिर तुमने यह सब क्यों किया।" विनीत को स्वयं ही आत्म-ग्लानि सी महसूस हुई—“न जाने समाज तुम्हारे विषय में क्या-क्या कहता होगा....."

"बताती हूं। कुलटा....कमीनी...और बेश्या....."

"प्रीति....।" विनीत जैसे तिलमिला उठा।

"दोष समाज का नहीं है, बल्कि भाग्य का खेल है। मैंने पिताजी से स्वयं कई बार कहा है....मां के आगे आंसू बहाये हैं। मैं इकलौती हूं....इस पर भी किसी को तरस न आया। मैं विवश, दिन-रात रोती रही। तुम्हारा नाम लेती तो पिताजी भड़क उठते। एक दिन तो
उन्होंने यहां तक कह दिया था, देख प्रीति....मैं तुझ पर कोई रोक नहीं लगाता। तू विनीत के अलावा किसी भी लड़के से शादी कर सकती है।"

"परन्तु पहले तो बे तैयार थे...जिस समय पिताजी जिन्दा थे।"

"हां।” प्रीति बोली-“आज तक समझ नहीं पायी कि पिताजी तुमसे इतना खफा क्यों हैं?"

"सीधी सी बात है प्रीति।" विनीत ने कहा-"समय बदलने पर अपनी छाया भी दूर भाग जाती है। खैर...."

लेकिन अब....?"

“मैं केवल तुम्हारा हूं लेकिन वहनों के मिलने के बाद।"

"ओह...."

"अच्छा प्रीति....मैं चलूं....."

"इतनी जल्दी?"

"हां।"

"मां से भी नहीं मिलोगे? बे दूसरे बाले कमरे में हैं। उन्हें पिछले कई दिनों से टाइफाइड हो रहा है।" प्रीति ने विनीत की ओर देखा।

"प्रीति, जो लोग मेरे चेहरे को भी देखना बुरा समझते हैं, उनसे मिलकर क्या होगा।" वह उठने को हुआ परन्तु तभी प्रीति के पिता श्याम लाल जी को दरबाजे में खड़े देखकर वह बुरी तरह बौखलाया। उसके मुंह से एक भी शब्द न निकल सका। प्रीति ने भी देखा था परन्तु उसी प्रकार बैठी रही थी। कई क्षणों की खामोशी। विनीत ने किसी प्रकार अपने आपको संयत किया। अभिवादन के लिये हाथ जोड़े
"ओह....चाचा जी नमस्त।"

श्याम लाल जी ने उसकी नमस्ते का भी उत्तर नहीं दिया। वे अन्दर आ गये। उन्होंने विनीत से सीधा प्रश्न किया—“सबसे पहले तुम मुझे यह बताओ कि तुम यहां क्यों आये हो? इस घर में कदम रखने का साहस तुम्हें कैसे हुआ? क्या जरूरत थी तुम्हें यहां आने की? क्या चाहते हो तुम?"

एक साथ ही कई प्रश्न। विनीत की समझ में नहीं आया कि वह किस प्रश्न का तथा किस प्रकार से उत्तर दे। उसे खामोश देखकर प्रीति ने बात संभाली-"पिताजी, यह क्या कह रहे हैं आप?"

"ठीक कह रहा हूं....जो मुझे कहना चाहिये।” स्वर पहले की तरह कठोर था।

"घर आये दुश्मन से भी इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाता। उसे भी सत्कार के साथ बैठाया जाता है। परन्तु आप तो....."

उसके शब्द बीच में ही रुक गये। तुरन्त उन्होंने कहा-"प्रीति, यह इन्सान मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है। यदि कोई आदमी मेरे पेट में छुरा घोंपकर भी चला जाता, तब भी मुझे दुःख नहीं होता। परन्तु यह....यह....."

"पिताजी!" प्रीति जैसे चीख उठी।

"इस आदमी ने मेरे पेट में छुरा नहीं भौंका, परन्तु इसने मुझे दुनिया में सर उठाने के योग्य भी नहीं छोड़ा। मेरे दरवाजे से दो बार बारात बापिस चली गयी। मुझे सारे समाज में बुरा भला सुनने को मिला। आज भी मुझ पर मान-हानि का मुकदमा चल रहा है।"
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