RE: XXX Hindi Kahani घाट का पत्थर
कुछ दिन बाद राज चंद्रपुर चला गया। उसने डॉली से चलने के लिए कहा परंतु वह न गई और बोली, 'जाना तो है ही, कुछ दिन और यहां रह लूं। डैडी को भी अकेला छोड़ा नहीं जाता।'
एक दिन जब वह अपने बाग में अकेली कुर्सी पर बैठी कोई मैगजीन पढ़ रही थी तो दरवाजे पर बाहर उसने जय को जाते देखा। जय ने डॉली को देखते ही अपना मुंह फेर लिया। डॉली ने सब-कुछ देखा और उसे आवाज दे दी। जय दो-चार कदम चलकर रुक गया। एक क्षण के लिए उसने सोचा कि वह सुनी-अनसुनी करके निकल जाए, परंतु जब उसने डॉली को अपनी ओर आते देखा तो वह रुक गया।
'आओ, आगे आ जाओ।' डॉली बोली।
'क्यों, क्या बात है?'
'आओ, आकर बैठो, कोई खा तो नहीं जाएगा जो व्याकुल हो।'
जय चुपचाप डॉली के साथ हो लिया और दोनों जाकर बाग में बैठ गए। जय मौन था।
डॉली ने उसे इस प्रकार बैठे देखा और कहा, 'जय मैं जानती हूं कि तुम क्या सोच रहे हो, परंतु मैं विवश थी।'
'वह सब मैं माला से सुन चुका हूं, परंतु मुझे तो किसी पर कोई विश्वास ही नहीं रहा। कौन ठीक कहता है और कौन गलत, यह तो केवल भगवान ही जानता है या तुम।'
'मैं तुम्हें किस प्रकार विश्वास दिलाऊं कि जो कुछ माला ने तुमने कहा है वह बिल्कुल सच है।'
'खैर जाने दो, अब मुझे क्या लेना है पुरानी बातों को कुरेद कर!'
‘परंतु मेरी विवशता को देख मुझे क्षमा तो कर सकते हो।'
'इससे क्या अंतर पड़ता है।'
'हृदय का संतोष ही सही।'
'यदि तुम इतने से ही संतुष्ट हो सकती हो तो इसमें क्या आपत्ति है?'
'तो एक बार कहो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया।'
'डॉली मुझे लज्जित क्यों करती हो?'
'क्या अब भी तुम्हारे हृदय में मेरे लिए कुछ आदर है?'
'क्यों नहीं, मैं इतना नीच नहीं कि अपने स्वार्थ-साधन के लिए किसी की पगड़ी उछाल दूं। मिलना न मिलना तो लगा रहता है
'तुम्हारा इशारा शायद....।'
'हां डॉली, राज की ओर है। मैं जानता हूं कि अब तुम उसकी जीवन-संगिनी बन चुकी हो परंतु तुम उसके साथ सुखी जीवन नहीं बिता सकतीं।'
"यह तुम कैसे कह सकते हो?'
'जो मनुष्य तुम्हारे डैडी द्वारा किए गए उपकार भूलकर उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार कर सकता है, क्या यह संभव नहीं कि वह कल तुम्हारी किसी बात पर तुम्हें इससे भी अधिक पतित बनाए।'
'परंतु जय, वह मुझसे सच्चे हृदय से प्रेम करता है।'
'केवल उस समय तक जब तक तुम उसकी हां में हां मिलाती रहोगी या वही करोगी जो वह चाहेगा।'
'परंतु वह तो मेरी प्रत्येक बात मानता है।'
'इसीलिए तो वह तुम्हें चंद्रपुर ले जाना चाहता है, उन सूनी पहाड़ियों में। वह भी तो शायद तुम्हारी ही इच्छा से है!'
'नहीं-नहीं, ऐसी बात तो नहीं है।'
'तुम्हारा शेष जीवन उन पहाड़ियों में ही समाप्त हो जाएगा। सच पूछो तो मुझे तुम पर तरस आता है।'
'परंतु जय, अब मैं कर भी क्या सकती हूं?'
'मनुष्य चाहे तो क्या नहीं कर सकता?'
'परंतु अब तो मेरे पैर समाज की जंजीरों में जकड़े जा चुके
'यदि तुम चाहो तो उनको तोड़ भी सकती हो।'
"परंतु लोग क्या कहेंगे?'
"उनको पता भी न चलेगा।'
'वह कैसे?'
'देखो डॉली, तुम एक स्वतंत्र विचारों वाली लड़की हो। भगवान की दया से पढ़ी-लिखी हो, सुंदर हो, रुपया-पैसा है। फिर जो चाहो कर सकती हो।'
'परंतु मुझे करना क्या है?'
'जो तुम करना चाहती हो, परंतु मुंह से कहना नहीं चाहती।'
'मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।'
'क्या तुम यही नहीं चाहती कि बंबई में रहो!'
"क्यों नहीं!'
'क्या तुम्हारे हृदय में यह अभिलाषा नहीं कि जिसके साथ चाहो हंसो, खेलो, क्लब में जाओ, पिकनिक, सिनेमा द्वारा अपना मनोरंजन करो?'
'क्यों नहीं।'
'तो क्या अब तुम एक मनुष्य की दासता के कारण अपने जीवन के सुख को समाप्त कर दोगी?'
'यह तो तुम ठीक कहते हो, परंतु राज को क्यों कर मनाऊं?'
'कोशिश करो, स्त्री चाहे तो क्या नहीं कर सकती और फिर तुम चाहो...।'
"यदि मना भी लिया जाए तो भी वह ऐसे स्थान पर जाना पसंद न करेगा जहां तुम और हम जाकर प्रसन्न होते हो।'
'वह न जाए तुम तो जा सकती हो। जब तुम यहां रहोगी तो वह दबकर रह सकता है। उसके लिए तुम अपने जीवन को नीरस थोड़े ही बना लोगी?'
'अच्छा देखो क्या होता है। आओ पहले चाय पी लो।'
'नहीं, देर हो रही है, फिर कभी सही।'
'आओ न, तुम तो लड़कियों की तरह नखरे करने लगे।' डॉली ने चाय मंगाई और दोनों बैठकर पीने लगे।
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