RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
कमला जी हवेली में दाखिल हुई. हॉल में ठाकुर साहब, कंचन और रवि बैठे हुए चाइ पी रहे थे. ठाकुर साहब पर नज़र पड़ते ही कमला जी का चेहरा सख़्त हो गया. नफ़रत की एक चिंगारी उनके पूरे बदन में दौड़ गयी.
ठाकुर साहब ने जैसे ही कमला जी को हॉल में आते देखा सोफे से खड़े होकर उन्हे नमस्ते किए.
किंतु कमला जी ठाकुर साहब के नमस्ते का उत्तर दिए बिना मूह मोड़ कर अपने कमरे की ओर बढ़ गयीं.
ठाकुर साहब भौचक्के से कमला जी को जाते हुए देखते रहे. कमला जी के इस व्यवहार पर उन्हे बेहद हैरानी हुई. उन्हे ये समझ में नही आया कि अचानक कमला जी को क्या हो गया.
यही दशा कंचन और रवि की थी.
कंचन तो घबराहट के मारे सिकुड सी गयी थी. वो सदा ही कमला जी से भयभीत रहती थी.
किंतु रवि अपनी मा के इस रूखे व्याहार का कारण जानने उनके पिछे पिछे उनके कमरे तक जा पहुँचा.
"क्या बात है मा?" रवि ने रूम के अंदर कदम रखते ही कमला जी से पुछा - "आप ठाकुर साहब के नमस्ते का उत्तर दिए बिना ही उपर आ गयीं. क्या उनसे कोई भूल हो गयी है जो आपने उनका इस तरह से अपमान किया?"
"मान-अपमान जैसा शब्द उस ठाकुर के लिए नही है रवि, जिसके पहलू में तुम बैठे थे. ये तो वो इंसान है जिसका बस चले तो अपनी झूठी शान कायम रखने के लिए अपनी बीवी और बेटी की भी बलि दे दे."
"क्या कह रही हो मा?" रवि ने धीरे से किंतु आश्चर्य से कमला जी को देखते हुए कहा.
"रवि तू बचपन से ही अपने पिता के बारे में पुछ्ता था ना कि वो कहाँ गये हैं? क्यों तुमसे मिलने नही आते? और मैं तुम्हे झूठी दिलासा दिया करती थी. मैं खुद भी बरसों से झूठी आस के सहारे जी रही थी. सालों से मेरा मन कह रहा था कि तुम्हारे पिता के साथ कुच्छ तो अनहोनी हुई है. पर मैं कभी मायूस नही हुई और उनका इंतेज़ार करती रही. लेकिन आज 20 साल बाद ये पता चला कि वे लौटकर क्यों नही आए."
"क्या.....तो क्या पीताजी का पता चल गया मा? कहाँ हैं पीताजी और इतने बरसों तक वे लौटकर क्यों नही आए?" रवि उत्सुकता से अपनी मा के चेहरे को देखता हुआ बोला. उसके मन में अपने पिता के बारे में जानने की जिग्यासा बचपन से थी और इस वक़्त तो वो दीवाना हुआ जा रहा था.
कमला जी रवि की बेताबी देखकर कराह उठी. वो भीगी पलकों से रवि को देखने लगी.
"जवाब दो मा....कुच्छ तो बताओ." रवि मा को खामोश देखकर दोबारा पुछा.
"वे इस लिए लौटकर नही आ सके रवि....क्योंकि 20 साल पहले ही ठाकुर साहब ने उनका क़त्ल कर दिया था."
"क.....क्या?" रवि फटी फटी आँखों से मा को देखने लगा. उसने जो कुच्छ सुना उसपर यकीन करना उसे मुश्किल हो रहा था - "क्या कह रही हो मा? पीताजी का खून हो गया है...वो भी ठाकुर साहब के हाथों....?"
"हां रवि, यही सच है." जवाब में कमला जी ने दीवान जी के मूह से सुनी सारी बातें रवि के सामने दोहरा दी.
अपने पिता का हश्र जानकार रवि का खून खौल उठा. गुस्सा ऐसा सवार हुआ की उसका दिल चाहा अभी वो जाकर ठाकुर साहब का गला दबा दे. लेकिन कमला जी के समझाने पर वो रुक गया.
कमला जी अपना पति खो चुकी थी पर बेटा नही खोना चाहती थी. अपने घर से इतनी दूर अकेले ठाकुर साहब से भिड़ना उनके लिए ख़तरनाक हो सकता था.
"अब हम इस घर में नही रहेंगे रवि. जिस घर की दीवारों पर मेरे पति के खून के छींटे पड़े हों, उस घर की हवा भी मेरे लिए ज़हर है. हम आज ही अपने घर लौट चलेंगे."
रवि कुच्छ ना बोला. वो कोई निर्णय लेने के पक्ष में नही था और ना ही कमला जी की बात काटने का उसमे साहस था.
कमला जी आनम फानन अपना सामान पॅक करने लगी. उनको सामान पॅक करते देख रवि भी अपने कपड़े और दूसरी चीज़ें अपने सूटकेस में भरने लगा.
लगभग 20 मिनिट बाद दोनो अपना सामान उठाए कमरे से बाहर निकले.
हॉल में अभी भी कंचन और ठाकुर साहब बैठे हुए थे. वे दोनो अभी भी इसी बात पर विचार-मग्न थे कि कमला जी को क्या हुआ है. उनका व्यवहार अचानक से क्यों बदल गया है.
कंचन तो चिंता से सूख सी गयी थी. वो हमेशा ही कमला जी से डारी सहमी रहती थी. ना जाने वो किस बात पर भड़क जाएँ. हमेशा यही प्रयास करती थी कि उससे ऐसी कोई भूल ना हो जिससे कमला जी नाराज़ हो जाएँ. किंतु आज जब कमला जी का रूखा व्यवहार देखा तो सोच में पड़ गयी. कमला जी से उसकी आखरी मुलाक़ात रात को हुई थी. तब से लेकर अब तक की सारी बातें याद करने लगी और ये जानने की कोशिश करने लगी की उससे कब और कहाँ कौन सी भूल हुई. पर लाख सोचने पर भी उसे अपनी ग़लती नज़र नही आई.
कंचन अभी इन्ही सोचो में गुम थी कि उसे कमला जी और रवि सीढ़ियाँ उतरते दिखाई दिए. उनके हाथ में थामे सूटकेस पर जब उसकी नज़र गयी तो उसके होश उड़ गये. उसका दिल किसी अनहोनी की कल्पना करके ज़ोरों से धड़क उठा.
ठाकुर साहब की भी हालत कुच्छ अच्छी नही थी. कमला जी और रवि को सीढ़ियाँ उतरते देख उनके चेहरे का रंग भी उड़ चुका था. वो विष्मित नज़रों से दोनो को सीढ़ियाँ उतरते देखते रहे.
जैसे ही दोनो सीढ़ियाँ उतरकर हाल में आए - ठाकुर साहब लपक कर उनके पास गये. - "बेहन जी ये सब....? आप लोग इस वक़्त कहाँ जा रहे हैं?"
ठाकुर साहब के पुछ्ने पर कमला जी के दिल में आया कि जितना भी उनके अंदर ज़हर है वो सब उनपर उगल दे. पर सिर्फ़ खून के घूट पीकर रह गयी. गुस्से की अधिकता में उनसे इतना ना बोला गया. दो टुक शब्दों में उन्होने जवाब दिया - "हम हवेली छ्चोड़कर जा रहे हैं. अब हम यहाँ नही रह सकते."
"क...क्या? लेकिन क्यों? क्या हम से कोई भूल हुई है?"
"क्या आप सच में नही जानते कि आपसे क्या भूल हुई है?" कमला जी तीखे बान छोड़ती हुई बोली. - "आपने जो किया है उसे भूल कहना भी भूल का अपमान होगा ठाकुर साहब, आपने तो पाप किया है....पाप."
ठाकुर साहब का सर चकरा गया. उनके समझ में नही आया कि कमला जी किस पाप की बात कर रहीं है. उनसे रातों रात ऐसा कौन सा पाप हो गया है जिसके लिए कमला जी हवेली छोड़ कर जा रही हैं. जब कुच्छ भी समझ में नही आया तो उन्होने पुछा - "मैं सच में नही समझ पा रहा हूँ बेहन जी आप क्या कह रही हैं?"
"मोहन कुमार याद है आपको?"
"म......मोहन कुमार....?" ठाकुर साहब बुरी तरह से चौंके. वे हकलाते हुए बोले - "आ.....आप किस मोहन कुमार की बात कर रही हैं?"
"मैं उसी मोहन कुमार कारीगर की बात कर रही हूँ जिसे आप लोगों ने हवेली में काँच की कारीगरी के लिए बुलवाया था. मैं उसी मोहन कुमार की बात कर रही हूँ जिसके पीठ पर आपने इसलिए गोली मारी थी ताकि वो फिर से ऐसी भव्य हवेली का निर्माण ना कर सके."
"आ....आप..." ठाकुर साहब की ज़ुबान लड़खड़ा कर रह गयी. मूह से आगे एक भी बोल ना फूटे. उन्हे ऐसा महसूस हुआ जैसे हवेली की पूरी छत उनके सर पर आ गिरी हो.
"हां मैं उसी मोहन कुमार की विधवा हूँ."
ठाकुर साहब मूह फेड कमला जी को देखते रह गये.
कंचन भी अवाक थी. कमला जी की बात सुनकर उसे गहरा धक्का लगा था. उसने सपने में भी नही सोचा था कि उनके पिता ठाकुर जगत सिंग जिन्हे पूरा गाओं देवता समझता है उनके हाथ किसी के खून से रंगे हो सकते हैं.
इस रहस्योदघाटन से कंचन सकते में आ गयी थी. ठाकुर साहब के उपर जो पहाड़ टूटा था उससे भी कहीं बड़ा पहाड़ कंचन पर टूटा था. सॉफ शब्दों में कहें तो उसकी पूरी दुनिया ही लूट चुकी थी.
इस विचार के आते ही कि अब वो सदा के लिए रवि को खो चुकी है. कमला जी अब उसे किसी भी कीमत पर अपनी बहू स्वीकार नही करेंगी, वो सूखे पत्ते की तरह काँप उठी थी. उसकी हालत इस वक़्त ऐसी थी कि वो रवि से गुहार करना तो दूर उससे नज़र भी नही मिला पा रही थी. वो बस अंदर ही अंदर अपनी बाद-किस्मती पर सिसक रही थी.
उसने फिर भी साहस करके रवि को देखा. रवि की नज़रें भी कंचन पर ही टिकी हुई थी. किंतु कंचन से नज़र टकराते ही उसने अपना मूह फेर लिया.
कंचन की आँखें भर आई.
ठाकुर साहब के पास कहने के लिए कुच्छ था ही नही. और कुच्छ था भी तो कमला जी से कहने का साहस नही कर पा रहे थे. वो पत्थर की मूरत में तब्दील हो चुके थे.
उन्हे जब होश आया कमला जी और रवि हवेली से बाहर निकल चुके थे. ठाकुर साहब पलटकर कंचन को देखने लगे. कंचन की आँखों में आँसू थे. कंचन को रोता देख उनके दिल पर आरी सी चल गयी. किंतु इससे पहले की वो कंचन के सम्मुख दिलासा के दो बोल भी बोल पाते....कंचन मूडी और अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी. ठाकुर साहब का सिर अपराध से झुक गया. वे निढाल होकर सोफे पर पसर गये.
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